धार्मिकता अर्थात् कर्तव्यपरायणता
भारत धर्मप्राण देश कहा जाता है, धार्मिकता के प्रति लोगों की आस्था बड़ी गहरी है। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि धर्म के सम्बन्ध में लोगों की मान्यतायें बहुत अधिक भ्रान्ति पूर्ण हो गयी हैं। धर्ममात्र कहने-सुनने का विषय नहीं वह तो सर्वहितकारी-आदर्श, आचरण पद्धति हैं जिस पर चलकर मनुष्य और समाज प्रगति पथ पर सतत बढ़ता रह सकता है। चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, में धर्म का सर्वोपरि स्थान है। स्पष्ट हैं कि धर्म भी पुरुषार्थ हैं। दूसरे शब्दों में धर्म परायण व्यक्ति के कुछ वशिष्ठ कर्तव्य और उत्तरदायित्व होते हैं उसे उन्हीं के अनुरूप आचरण करना चाहिए। रामायण में कहा गया है—
त्रिषु चैतेषु यच्छ्रेष्ठं श्रुत्वा तन्नावबुध्यते ।
राजा वा राजमात्रो वा व्यर्थं तस्य बहुश्रुतम् ।।
धर्म, अर्थ और काम—इन तीनों में जा श्रेष्ठ हे (अर्थात् धर्म को) उसको जान कर भी जो धर्मानुसार आचरण नहीं करता—वह चाहे राजा हो अथवा राजा के सदृश कोई बड़ा आदमी हो—उसका बहुत-सा शास्त्र सुनना व्यर्थ है।
धार्मिक आचरण से ही चरित्र निर्माण होता है चरित्र की प्रशंसा करते हुये कहा गया है—
कुलीनमकुलीनं वा वीरं पुरुषमानिनम्
चारित्रमेव व्याख्याति शुचिं वा यदि वऽशुचिम् ।।
चरित्र ही अकुलीन को कुलीन, भीरु को वीर और अपावन को पावन प्रसिद्ध करता है।
धर्म का आचरण करने से लोक और परलोक दोनों सुधरते हैं—
एष राजन्परोधर्मः फलवान्प्रेत्य राघव ।
न हि धर्माद्भवेत्किञ्चिद्दुष्प्रापमिति मे मतिः ।।
हे राजन्! धर्म ही सब से बढ़ कर है और मरने पर परलोक में धर्म ही सहायक होता है। यह मेरा दृढ़ मत है कि, धर्म पर आरूढ़ रहने वाले को कोई भी पदार्थ दुष्प्राप्य नहीं है।
यह उपलब्धियां किन्हीं छोटे-मोटे कर्मकाण्डों के सहारे प्राप्त करने की आशा करना भूल है। धर्म सिद्धान्तों को जीवन में उतार लेने से ही धर्म का लाभ उठाया जा सकता है। लिखा भी है—
धारणाद्धर्ममित्याहुर्धर्मेण विधृताः प्रजाः ।
यस्माद्धारयते सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।।
धारण करने ही से धर्म रह सकता है और धर्म ही से प्रजा जन (यथावस्थित) रह सकते हैं। अतः धर्म का धारण करने वाला, चराचर सहित तीनों लोगों को धारण कर सकता है।
श्रेष्ठ सिद्धान्तों को जीवन में अपनाते समय मनुष्य को कुछ कष्ट कठिनाइयां विचलित कर देती हैं, पर जो कष्ट सहने की सामर्थ्य रखते हैं वे आगे बढ़ जाते हैं। यह सामर्थ्य जिस अभ्यास से बढ़ती है उसे तप कहते हैं। धर्म परायण व्यक्ति को तप परायण भी होना चाहिए।
अध्रुवे हि शरीरे यो करोति तपोर्जनम् ।
स पश्चात्तप्यते मूढो मृतो गत्वात्मनो गतिम् ।।
जो इस नाशवान शरीर से तप नहीं करता, वह मूढ़जन मरने पर अपने कर्म से प्राप्त अपनी गति को पा कर, सन्तापित होता है।
धर्मशील मनुष्य भी कई बार दूसरों के गलत आचरण से प्रभावित होकर वैसा ही करने को तैयार हो जाते हैं। अपने कर्तव्यों की जिम्मेवारी हमारी है। दूसरों से अप्रभावित रहकर हमें अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये। रावण वध के बाद सीता को सताने वाली राक्षसियों को दंड देने को उत्सुक हनुमान को रोकते हुये सीता ने कहा—
न परः पापमादत्ते परेषां पापकर्मणाम् ।
समयो रक्षितव्यस्तु सन्तश्चारित्रभूषणाः ।।
दूसरे के बुरे काम देख कर वैसा ही बुरा बर्ताव करना उचित नहीं। प्रत्येक जन को अपने आचार की रक्षा करनी चाहिये। क्योंकि आचार रक्षा ही साधुजनोचित भूषण है।
अपने धर्म कर्तव्य का बोध होना और आत्म विश्वास पूर्वक उस पर आरूढ़ रहना धार्मिकता का मुख्य लक्षण है। भगवान राम का सारा जीवन इसी कर्तव्य निष्ठा से ओत-प्रोत है। वन गमन से पूर्व राम ने कैकेयी से कहा—
नाहमर्थपरो देवि लोकमावस्तु मुत्सहे ।
विद्धि मामृषिभिस्तुल्यं केवलं धर्ममास्थितम् ।।
हे देवि! मैं अर्थ परायण (धन लोभी नहीं हूं तथा मुझे संसार की किसी वस्तु की इच्छा नहीं है। आप मुझे ऋषि तुल्य ही समझें, क्योंकि में केवल धर्म मैं ही स्थित हूं और उसी में मेरी आस्था है।
धर्म परायण व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के अहंकार में बहक नहीं जाता, धर्म मर्यादा के अनुकूल ही सामर्थ्य का उपयोग करता है। श्रीराम को भी अपनी सामर्थ्य पर विश्वास होने के साथ-साथ धार्मिक उत्तरदायित्व का भी बराबर ध्यान है। राम को राज्याधिकार छीन लिया जाने और उन्हें वन भेजने को अनुचित कहते हुए लक्ष्मण उत्तेजित हो उठते हैं और बल प्रयोग द्वारा प्रतिकार करने के लिए तैयार हो जाते हैं तब श्रीराम उन्हें समझाते हुए कहते हैं—
एको ह्यहमयोध्यां च पृथिवीं चापि लक्ष्मण ।
तरेयामिषुभिः क्रुद्धो ननुं वीर्यमकारणम् ।।
हे लक्ष्मण! क्रुद्ध होने पर मैं अकेला ही अयोध्या क्या—सारी पृथिवी को बाणों से अपने वंश में कर सकता हूं, किन्तु यह धर्म संकट का समय है, ऐसे समय पराक्रम प्रदर्शन उचित नहीं।
राम के पराक्रम और धर्म निष्ठा से सारी अयोध्या परिचित थी। अयोध्यावासियों में चर्चा चलती है और वे परिस्थितियों की समीक्षा करते हुए कहते हैं—
नैतस्य सहिता लोक भयं कुर्युर्महामृधे ।
अधर्मं त्विह धर्मात्मा लोकं धर्मेण योजयेत् ।।
क्या सब लोग यहां संग्राम में श्रीरामचन्द्रजी से नहीं डरते (अर्थात् सब डरते हैं)। अतः वे बलवान् हैं, वे चाहते तो यह राज्य अपने बाहुबल से ले सकते थे, (किन्तु) वे धर्मात्मा हैं, और अधर्मियों को भी धर्म पर चलने की शिक्षा देते हैं। तब वे ही क्यों कर अधर्म करें? (अर्थात् बलपूर्वक राज्य लें)।
धर्म का क्षेत्र व्यापक है वह हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रभाव डालता है, अर्थ भी धर्म के नियंत्रण में आता है। हमें ईमानदारी और परिश्रम की कमाई ही ग्रहण करनी चाहिये तथा यथा समय उसे लोक मंगल के लिए वितरित करते रहना चाहिये। संपत्ति का अनावश्यक मोह परिग्रह कहलाता है जो धर्म विरुद्ध है। वन गमन से पूर्व भगवान राम ने अपनी सम्पत्ति सुपात्रों में वितरित करदी—
स चापि रामः परिपूर्णमानसो
महद्धनं धर्मबलैरुपार्जितम् ।
नियोजयामास सुहृज्जने चिरा-
द्यथार्हसम्मानवचः प्रचोदितः ।।
श्रीरामचन्द्र जी ने धर्म युक्त और परिश्रम पूर्वक कमायी हुई विशाल सम्पत्ति को बड़े आदर के साथ, प्रसन्नता पूर्वक अपने सुहृदों को बांट दी।
कर्तव्य पथ मात्र भावुकता का खेल नहीं दृढ़ता का मार्ग है इसमें भौतिक आकर्षणों से बचकर चलना पड़ता है। वन जाने के लिये तैयार राम को रोकने की असफल चेष्टा के बाद राजा दशरथ ने राम से कहा—
न हि सत्यात्मनस्तात धर्माभिमनसस्त ।
विनिवर्तयितुं बुद्धिः शक्यते रघुनन्दनव ।
हे श्री राम चन्द्र! तुम सत्य के पालन में तत्पर और धर्म कार्य करने में दत्तचित्त हो, अतः तुमको इनसे हटा कर, दूसरे मार्ग पर चलने की बुद्धि (केवल मुझी में नहीं प्रत्युत) किसी में नहीं हैं।
धर्मनिष्ठ व्यक्ति को उसके कर्तव्य से कोई डिगा नहीं सकता। राम कर्तव्य परायणता की मूर्ति थे। वन जाने के पूर्व लक्ष्मण ने अपने पराक्रम से राम को सिंहासनारूढ़ कराने की बात कही उन्हें समझाते हुये राम ने कहा—
नेयं मम मही सौम्य दुर्लभा सागराम्बरा ।
न हीच्छेयमधर्मेण शक्रत्वमपि लक्ष्मण ।।
हे सौम्य ससागरा पृथ्वी का राज्य हस्तगत करना मेरे लिये दुर्लभ नहीं, किन्तु पृथ्वी तो है ही क्या, मैं अधर्म पूर्वक इन्द्रपद को भी नहीं लेना चाहता।
श्रीराम की कर्तव्य निष्ठा से सभी परिचित हैं। चित्रकूट प्रसंग में भरत जी अयोध्यावासी नागरिकों से कहते हैं कि श्रीराम को लौटा ले चलने के लिए वे सब मिलकर आग्रह करें, तो नागरिक उत्तर देते हैं—
एषोऽपि हि महाभागाः पितुर्वचसि तिष्ठति ।
अतएव न शक्ताः स्मो व्यावर्तयितुमञ्जसा ।।
परन्तु श्रीरामचन्द्र जी से हम लोग आग्रह नहीं कर सकते क्योंकि महाभाग श्रीराम चन्द्र, पिता की आज्ञा पालन करने को दृढ़ संकल्प किये हुए हैं। अतः हम लोगों में यह सामर्थ्य नहीं कि, इनको तुरन्त लौट चलने को कहें।
चित्रकूट प्रसंग में राम की दृढ़ता राम के शब्दों में—
लक्ष्मीश्चन्द्रादपेयाद्वा हिमवान्वा हिम त्यजेत् ।
अतीयात्सागरो वेलां न प्रतिज्ञामहं पितुः ।।
चन्द्रमा की शोभा चन्द्रमा को भले ही छोड़ दे, हिमालय भले ही हिम को छोड़ दे। भले ही समुद्र अपनी सीमा को लांघ जाय, किन्तु मैं पिता की प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ सकता।
भौतिक आकर्षण ही नहीं स्नेह सम्बन्ध भी मनुष्य को विचलित कर देते हैं। पर कर्तव्य धर्म का सच्चा साधक स्नेह की रक्षा करता हुआ भी कर्तव्य से डिगता नहीं। राम भरत को प्राणों से भी बढ़कर मानते थे किन्तु उनका अनुरोध भी राम को कर्तव्य पथ से विचलित नहीं कर सका। चित्रकूट प्रसंग में वाल्मीकि जी लिखते हैं—
तथा हिं रामो भरतेन ताम्यता
प्रसाद्यमानः शिरसा महीपतिः ।
न चैव चक्रे गमनाय सत्त्ववान्
मतिं पितुस्तद्वचने व्यवस्थितः ।।
यद्यपि भारत जी इस प्रकार गिड़गिड़ा और चरणों पर अपना सिर रख कर श्रीरामचंद्र जी को मना रहे थे, तथापि श्रीरामचन्द्र पिता के वचन पर ऐसे दृढ़ थे कि, वे जरा भी उससे विचलित न हुए अर्थात् किसी प्रकार भी अयोध्या लौट जाना उन्होंने स्वीकार न किया।
धर्म कर्तव्य पालन यद्यपि कठिन है किन्तु यदि दृढ़तापूर्वक धर्माचरण किया जाय और अनुकूल सहायक मिल जायं यों यह मार्ग सुगम भी है। भरत को समझाते हुये तथा वापिस अयोध्या लौटकर कर्तव्य पालन करने को कहते हुये चित्रकूट प्रसंग में राम ने कहा—
शत्रुघ्नः कुशलमतिस्तु ते सहायः
सौमित्रिर्मम विदितः प्रधानमित्रम् ।
चत्वारस्त नयवरा वयं नरेन्द्रं ।
सत्यस्थं भरत चराम मा विषादम् ।।
हे भरत! यह अमित बुद्धि वाले शत्रुघन तुम्हारे सहायक रहेंगे और सर्वलोकों में प्रसिद्ध यह लक्ष्मण मेरी सहायता करेंगे। इस प्रकार नृपश्रेष्ठ महाराज दशरथ के हम चारों पुत्र महाराज को सत्यवादी करें। अतः अब तुम दुःख मत करो।
व्यक्ति की धर्म निष्ठा स्वयं उसे तो पतन से बचाती ही है, औरों को भी उससे सही दिशा मिल जाती है। चित्रकूट में राम का प्रभाव सब पर छा जाता है—
अथानुपूव्यात्प्रतिनन्द्य त जनं
गुरूंश्च मन्त्रिप्रकृतीस्तथाऽनुजौ ।
व्यसर्जयद्राघववंशवर्धनः
स्थिरः स्वधर्मे हिमवानिवाचलः ।।
तदनन्तर हिमालय की तरह अपने धर्म पालन में अटल अचल, रघुवंश के बढ़ाने वाले श्रीरामचन्द्र जी ने यथाक्रम गुरु, मंत्री, प्रजा और दोनों छोटे भाइयों का सत्कार कर, उन सब को विदा किया।
श्री राम में अपना कर्तव्य पहचानने, उसे स्वीकार करने, तथा दृढ़ता पूर्वक उसे क्रियान्वित करने की अद्भुत क्षमता है। रामायण में उसकी झलक अनेक स्थानों पर मिलती है। राक्षसों से पीड़ित ऋषियों के अनुरोध से राम ने राक्षसों का समूलोच्छेद करने की प्रतिज्ञा की। सीता ने उनसे इस झंझट में न पड़ने का अनुरोध किया तो राम ने सीता से कहा—
अप्यहं जीवितं जह्यां त्वां वा सीते सलक्ष्मणाम् ।
न तु प्रतिज्ञां संश्रुत्य ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः ।।
मुझे भले ही अपने प्राण गंवाने पड़ें अथवा लक्ष्मण सहित तुम्हें ही क्यों न त्याग देना पड़े, किन्तु मैं अपनी प्रतिज्ञा नहीं त्याग सकता। विशेष कर उस प्रतिज्ञा को जो ब्राह्मणों से कर चुका हूं।
इस तरह राम दृढ़ता पूर्वक कर्तव्य पालन कर अपने चरित्र की रक्षा तथा धर्म रक्षा करते रहे। अशोक वाटिका में सीता को राम का परिचय देते हुए हनुमान ने कहा—
रक्षिता स्वस्य वृत्तस्य स्वजनस्यापि रक्षिता ।
रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य च परन्तपः ।।
यह (श्रीराम जी) अपने चरित्र की रक्षा करने वाले और अपने जनों का प्रतिपालन करने वाले हैं। यही नहीं, बल्कि ये संसार के जीवमात्र के रक्षक तथा धर्म की भी मर्यादा रखने वाले और शत्रुओं को सन्तप्त करने वाले हैं।
श्रीराम ने अपने आचरण द्वारा धर्म मर्यादा स्थापित की। वे जाति भेद से परे मानव मात्र के रक्षक हैं। अशोक वाटिका में ही हनुमान जी सीता जी से कहते हैं—
रामो भामिनि लोकेऽस्मिंश्चातुर्वर्प्यस्य रक्षिता ।
मर्यादानां च लोकस्य कर्ता कारयिता च सः ।।
हे देवी! श्रीरामचन्द्र जी इस लोक में चारों वर्णों के रक्षक और लोक की मर्यादा बांधने वाले और मर्यादा की रक्षा करने वाले हैं।
यह श्रेष्ठता हर मनुष्य अपने अन्दर विकसित कर सकता है। इसमें नियमित उपासना तथा श्रेष्ठ व्यक्तियों से परामर्श बहुत लाभ प्रद सिद्ध होता है। राम स्वयं नियमित रूप से उपासना करते हैं—
तस्यां रात्रयां व्यतीतायामभिषिच्य हुताग्निकान् ।
आपृच्छेतां नरव्याघ्रौ तापसान्वनगोचरान् ।।
जब रात बीती और सवेरा हुआ तब दोनों पुरुष सिंहों ने स्नान और सन्ध्योपासन अग्निहोत्रादि कर्मों से निश्चिन्त हो वनवासी तपस्वियों से पूछा।
उपासना इसलिये आवश्यक है कि उसके बिना धर्म कर्तव्य का ठीक-ठीक बोध और उसका निर्वाह बहुत मुश्किल हो जाता है। धर्म स्थूल कर्मकाण्ड नहीं सूक्ष्म सिद्धान्त है, इसका बोध प्रयास करने पर अपने अन्तःकरण में होता है। यह तथ्य श्रीराम अपने बाण से घायल बालि को समझाते हुए कहते हैं—
सूक्ष्मः परमदुर्ज्ञेयः सतां धर्मः प्लवङ्गम ।
हृदिस्थः सर्वभूतानामात्मा वेद शुभाशुभम् ।।
हे वानर! सज्जनों का धर्म ऐसा सूक्ष्म है कि सहज में उसे कोई जान नहीं सकता। परन्तु वह धर्म प्रत्येक प्राणी के हृदय में वर्तमान है। इसी से अन्तरात्मा द्वारा ही शुभाशुभ का ज्ञान हुआ करता है।
सामान्य रूप से किसी को मारना या सताना अधर्म कहा जाता है किन्तु धर्म की सूक्ष्म विवेचना के अनुसार आततायी को मारना अधर्म नहीं है। रीराम बालि से कहते हैं—
तदलं परितापेन धर्मतं परिकल्पितः।
बधो वानरशार्दूल न वयं स्ववशे स्थिताः ।।
हे वानरोत्तम! अब तुम्हारा पछतावा व्यर्थ है। क्योंकि यह तुम्हारा वध धर्मानुसार ही किया गया है और मैं धर्मशास्त्र के वश में हूं; स्वतन्त्र नहीं हूं।।
श्रीराम ही नहीं रामायण के अन्य प्रमुख पात्र अपने कर्तव्य के प्रति बहुत जागरुक हैं। वन गमन प्रसंग में जब सीताजी एवं श्रीराम सो जाते हैं तो लक्ष्मण सावधानी से चौकसी करने लगते हैं। निषाद राज गुह स्वयं सुरक्षा का उत्तरदायित्व लेते हुए लक्ष्मणजी से भी विश्राम करने का आग्रह करता है, तब लक्ष्मण कहते हैं—
लक्ष्मणस्तं तदोवाच रक्ष्यमाणास्त्वयानऽघ ।
नात्र भीता वयं सर्वे धर्ममेवानुपश्यता ।।
हे पुण्यात्मन्! तुम्हारी रखवाली का तो हमें पूरा भरोसा है। मुझे डर किसी बात का नहीं है, किन्तु अपने कर्त्तव्यपालन का पूरा ध्यान है।
कथं दाशरथौ भूमौ शयाने सह सीतया ।।
शक्या निद्रा मया लब्धु जीवितं वा सुखानि वा ।।
जब चक्रवर्ती महाराज दशरथ के कुमार, जनक की बेटी सीता जी सहित, भूमि पर पड़े सो रहे हैं, तब मेरा यह कर्त्तव्य नहीं कि मैं पड़ कर सुख से सोऊं अथवा अपने जीते रहने या अपने आराम के लिये प्रयत्न करूं।।
महाराजा जनक भी आदर्श कर्तव्य परायण व्यक्ति थे। राजा होते हुये भी वे अपने निर्वाह के लिये अपने हाथों कृषि कार्य करते थे। सीता ने अनुसूया को अपनी उत्पत्ति के बारे में बताया—
तस्य लाङ्गलहस्तस्य कर्षतः क्षेत्रमण्डलम् ।
अहं किलोत्थिता भित्वा जगतीं नृपतेः सुता ।।
जब हल हाथ में ले वे क्षेत्र जोतने लगे, तब मैं पृथिवी को भेद कर, उनकी पुत्री के रूप में निकल आयी।
स मां दृष्ट्वा नरपतिर्मुष्टिविक्षेपतत्परः ।
पांसुकुण्ठितसर्वाङ्गीं जनको विस्मतोऽभवत् ।।
उस समय राजा जनक मुट्ठी में बीज ले उन्हें बोने में तत्पर थे, मेरे सारे शरीर में धूल लगी देख वे विस्मित हुये।
धर्म की उपेक्षा से मनुष्य पर विपत्ति आती है। श्री राम के वन जाने के प्रसंग में सारी स्थिति का अध्ययन करके अयोध्यावासी नागरिक परस्पर कहते हैं—
अर्थधर्मौ परित्यज्य यः काममनुवर्तते ।
एवमापद्यते क्षिप्रं राजा दशरथो यथा ।।
जो मनुष्य अर्थ और धर्म को छोड़ केवल काम का अनुगामी बन जाता है, उस पर तुरन्त उसी प्रकार विपत्ति पड़ती है जैसे महाराज दशरथ पर।
सैद्धान्तिक रूप से तो धर्म मनुष्य मात्र के लिए समान ही होता है किन्तु व्यक्तिगत सत् कर्तव्य भी धर्म कहे। उन्हें स्वधर्म कहा जाता है। स्वधर्म का त्याग बहुत बड़ा पाप माना है। भरत जी श्रीराम के वन गमन से दुखी होकर माता कौशल्या से कहते हैं—
मा स्म धर्मे मनो भूयादधर्मं स निषेवताम् ।
अपात्रवर्षी भवतु यस्यार्योऽनुमते गतः ।
जिस मनुष्य की सलाह से श्रीराम वनवासी हुए हों, उसे वही पाप हो, जो स्वधम-त्यागी, अधर्म अनुरागी एवं कुपात्र को दान देने वाले को होता है।
भरत धर्मनिष्ठ हैं वे धर्मानुमोदित कार्य ही करना चाहते हैं। जब सबने उन्हें राज्य ग्रहण करने को कहा तो राज्य के आकर्षण को नगण्य मानते हुए उन्होंने धर्म पालन की ही आकांला व्यक्त की। उनने कहा—
कथं दशरथाज्जातो भवेद्राज्यापहारकः ।
राज्यं चाहं च रामस्य धर्मं वक्तुमिहार्हसि ।।
महाराज दशरथ से उत्पन्न कोई क्योंकर धर्मानुमोदित दूसरे के राज्याधिकार को अपहृत कर सकता है। केवल यह सारा राज्य ही नहीं, बल्कि मैं स्वयं भी श्रीरामचन्द्र का हूं। हे पुरोहित जी! आप जो कुछ कहें, वह धर्मानुमोदित ही कहें।
भूल किसी से भी हो कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति उसके सुधार के लिए अपनी भूमिका चुन लेता है। भरत राम को मनाकर वापिस लाने के लिए कृत संकल्प हुए। उनके इस आचरण पर सबने प्रसन्नता व्यक्त की—
धन्यस्त्वं न त्वया तुल्यं पश्यामि जगतीतले ।
अयत्नादागतं राज्यं यस्त्वं त्यक्तुमिहेच्छसि ।।
हे भरत! आप धन्य हैं। आपके समान इस धराधाम पर मुझे दूसरा कोई नहीं देख पड़ता। क्योंकि आप बिना प्रयत्न किये हाथ लगे हुए राज्य का त्याग करना चाहते हैं।
कर्तव्य एकाकी नहीं होता। उसकी अनेक धारायें होती हैं, तथा श्रेष्ठ व्यक्ति उन सबका निर्वाह करते हैं। अर्थोपार्जन अर्थात् साधनों की एक उपलब्धि तथा धर्मानुष्ठान अर्थात् प्राप्त साधनों का सद्कार्यों में उपयोग इस दोनों पक्षों का ध्यान रखने तथा सावधानी बरतने के लिए श्रीराम चित्रकूट में भरत को प्रेरणा देते हुए कहते हैं—
कच्चिदर्थेन वा धर्ममर्थं धर्मेण वा पुनः ।
उभौ का प्रीतिलोभेन कामेन च न बाधसे ।।
कहीं धर्मानुष्ठान के समय को अर्थोपार्जन में या अर्थोपार्जन के समय को धर्मानुष्ठान में तो नष्ट नहीं कर देते? अथवा सुखाभिलाष के लिये विषयवासना में फंस, अर्थोपार्जन और धर्मानुष्ठान दोनों का समय तो नहीं गंवा देते?
भरत ने धर्म का ठीक-ठीक पालन किया, धर्म को अपने आचरण में उतार लेने के कारण वे धर्म स्वरूप ही हो गये। लंका विजयी राम भरद्वाज के आश्रम में रुक गये और हनुमान को भरत की कुशल जानने और अपना समाचार सुनाने भेजा। अयोध्या में भरत के पास पहुंच कर हनुमान ने भरत को किस रूप में पाया इसका उल्लेख करते हुए वाल्मीकि जी कहते हैं—
तं धर्ममिव धर्मज्ञं देहवन्तमिवापरम् ।
उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यं हनुमान्म रुतात्मजः ।
धर्म की मूर्तिमान दूसरी मूर्ति, धर्म के जानने वाले भरतजी से पवन नन्दन हनुमान जी ने हाथ जोड़कर कहा।
किन्तु यह स्तर पाने के लिए उपासनात्मक कर्मकांड और कोरा शास्त्र ज्ञान पर्याप्त नहीं। यदि हम धार्मिक सिद्धांतों को आचरण में न उतार सके और कर्तव्य परायण बन सके तो सारा ज्ञान निरर्थक है। यों तो रावण भी बड़ा ज्ञानी था। सीता को वापिस कर तथा राम से संधिकर धर्माचरण करने के बारे में विभीषण ने रावण से कहा—
न धर्मवादे न च लोकवृत्ते
न शास्त्रबुद्धिग्रहणेषु चापि ।
विद्येत कश्चित्तव वीर तुल्यः
त्वंह्युत्तमः सर्वसुरासुसणाम् ।।
हे वीर! धर्म शास्त्र के ज्ञान में लोकाचार में और शास्त्र के विचार में तुम्हारी टक्कर का कोई भी तो नहीं देख पड़ता। इस समय तो इन विषयों के ज्ञान में तुम सुर और असुर सब ही में सर्वोत्तम माने जाते हो।
किन्तु रावण कोरा ज्ञानी बना रहा तथा अधर्माचरण करता रहा अतः सपरिवार नष्ट हो गया। रावण को समझाते हुये माल्यवान ने कहा था—
अधर्मः प्रगृहीतश्च तेनास्मद्बलिनः परेः ।
स प्रमादाद्विवृद्धस्तेऽधर्मोऽभिग्रसते हि नः ।
हे रावण, तुमने अधर्म बटोरा है, इसी से शत्रु हम लोगों से बलवान् हो गये हैं। तुम्हारे प्रमाद से अधर्म बढ़ कर, हम लोगों को ग्रास कर रहा है।
मनुष्य की श्रेष्ठ उपलब्धियां उनका गलत उपयोग करने से क्षीण हो जाती हैं। यह तथ्य रावण को समझाते हुए हनुमानजी ने भी कहा था—
तपः सन्तापलब्धस्ते योऽयं धर्मपरिग्रहः ।
न स नाशयितुं न्याय्य आत्मप्राणपरिग्रहः ।।
तुमने कठोर तप कर जिस धर्मफल स्वरूप ऐश्वर्य और दीर्घ कालीन जीवन को पाया है, उसे धर्म विरुद्ध कार्य कर नष्ट करना उचित नहीं।
किन्तु रावण ने किसी की बात नहीं मानी। उसके साथी भी कर्मकांडात्मक प्रक्रियायें करते थे किन्तु वे अधर्म के समर्थक थे तथा अधर्माचरण करते थे। राक्षसों के हवन आदि के बारे में वाल्मीकि जी ने लिखा है—
हुताशनं तर्पयतां ब्राह्मणांश्च नमस्यताम् ।
आज्यगन्धप्रतिवहः सुरभिर्मरुतो ववौ ।।
मंगलकामना के लिये अनेक राक्षस हवन करने लगे। बहुतों ने ब्राह्मणों की वन्दना की। होम किये हुए घी की सुगन्धि मिलने के कारण सुगंधित हवा चलने लगी।
लेकिन यह कोरे कर्मकाण्ड उन्हें बचा न सके, क्योंकि उनके आचरण धर्मानुकूल नहीं थे। बाहर से धर्मावलम्बी दिखने पर भी वे धर्म को नष्ट कर रहे थे। केवल विभीषण ने धर्म का मर्म समझकर उसका पालन किया और उसे उसका लाभ भी मिला। कुंभकर्ण ने अपने मृत्यु के पूर्व विभीषण की प्रशंसा करते हुए कहा था—
त्वमेको रक्षसां लोके सत्यधर्माभिरक्षिता ।
नास्तिधर्माभिरक्तस्य व्यसनं तु कदाचन ।
सन्तानार्थं त्वमवैकः कुलस्यास्य भविष्यसि ।।
समस्त राक्षसों में तुम्हीं अकेले ने सत्य और धर्म की रक्षा की है। जो धर्म में रत हैं, उन्हें कभी दुःख नहीं भोगना पड़ता। सन्तानोत्पत्ति कर इस कुल का नाम रखने को एक तुम्हीं जीवित रहोगे और सब मारे जायेंगे।
इन तथ्यों पर विचार कर हमें कर्मकाण्ड और जानकारी को ही धर्म मानकर मन, वाणी, और कर्म से धार्मिक सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए।
मनुष्य को मिले हुए दिव्य अनुदानों में से वाणी भी एक है। वाणी का उपयोग सज्जनता पूर्वक करना चाहिये। सुसंस्कृत वाणी सुनने वाले को बोलने वाले व्यक्ति का परिचय देती है तथा प्रभावित करती है। राम-लक्ष्मण को आते देख सुग्रीव ने उनका परिचय जानने के लिये हनुमान को भेजा। हनुमान की बातचीत से प्रभावित राम लक्ष्मण से कहते हैं—
नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम् ।
बहु व्याहरतानेन न किञ्चिदपशब्दितम् ।।
अवश्य ही इन्होंने सम्पूर्ण व्याकरण बहुधा सुना है (अर्थात् पढ़ा है) क्योंकि इन्होंने इतनी बातें कहीं, किन्तु इनके मुख से एक भी बात अशुद्ध नहीं निकली।
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः ।
नासामवेदाविदुषः शक्यमेवं प्रभाषितुम् ।।
क्योंकि जिस प्रकार की बातचीत इन्होंने हमसे की है, वैसी बातचीत ऋग्वेद्-यजुर्वेद और सामवेद के जाने बिना, कोई कर नहीं सकता।
किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि सामने वाले को खुश करने के लिये उसके गलत कार्यों का समर्थन करने वाली बात कही जाय। वह चापलूसी कहलाती है। सत्य, मधुर एवं हितकारी वाणी ही बोलनी चाहिये। जब रावण ने मारीच को सीता हरण में सहयोगी होने को कहा, तब उसे इस गलत कार्य को न करने को समझाते हुये मारीच ने कहा—
सुलभाः पुरुषा राजन्सततं प्रियवादिनः ।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः।।
हे राजन्! मुंहसोहनी बात कहने वाले लोग बहुत सहज में मिल सकते हैं किन्तु सुनने में अप्रिय और यथार्थ में हितकारी वचनों के कहने और सुनने वाले लोग संसार में कम मिलते हैं।
कभी-कभी गलतफहमी के कारण कटुवाणी बोलकर हम अपने हितैषियों के हृदय को चोट पहुंचा कर अपना ही अनिष्ट करते हैं। मारीच के छल के कारण सीता ने राम को संकट में पड़ा समझ लक्ष्मण को वहां भेजना चाहा। उनके न जाने पर उन्हें कठोर वचन कहे। लक्ष्मण ने कहा—
न्यायवादी यथान्यायमुक्तोऽहं परुषं त्वया ।
धिक्त्वामद्य त्वं यन्मामेवं विशङ्कसे ।।
मेरे यथार्थ कहने पर भी तुमने मुझसे कठोर वचन कहे। अतः तुमको धिक्कार है। जान पड़ता है, आज तुम्हारा अनिष्ट होने वाला है, तभी तुमको मुझ पर ऐसा निर्मूल सन्देह हुआ है—
सीता के कठोर वचनों के कारण लक्ष्मण उन्हें छोड़कर चले गये। मार्ग में राम के पूंछने पर लक्ष्मण ने कहा—
न स्वयं कामकारेण तां त्यवत्वाहमिहागतः ।
प्रचोदितस्तयैवोग्रैस्त्वत्सकाशमिहागतः ।।
मैं अपनी इच्छा से जानकी को छोड़ यहां नहीं आया, बल्कि उनके उग्र वचन कहने पर ही मैं आपके पास आया हूं।
हमारे हितैषी कभी-कभी हमें हमारे हित की शिक्षा दिया करते हैं किन्तु हम उसे नहीं मानते तथा परिणाम स्वरूप हानि उठाते हैं। रावण को समझाते हुये विभीषण ने कहा—
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ।
बद्धं कालस्य पाशेन सर्वभूतापहारिणा ।।
अप्रिय, किन्तु न्याययुक्त बातें कहने वाले और सुनने वाले मनुष्यों का मिलना कठिन है। सब प्राणियों के प्राण हरण करने वाले काल के पाश में फंसे हुए हैं।
शौर्य साहस पराक्रम एवं पुरुषार्थ—
धर्म परायण व्यक्तियों में सज्जनता सौम्यता नम्रता आदि गुण तो होने ही चाहिए किन्तु शौर्य, साहस, पराक्रम आदि भी उनके लिए अनिवार्य है। समय पर इनकी भी आवश्यकता पड़ती है। परिस्थितियों के आघातों से प्रतिरोध और कठिनाइयों से अविचलित एवं अप्रभावित प्रखरता से कार्य किए बिना किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं मिल सकती, धर्म मार्ग में भी यह नियम लागू होता है यह प्रखरता उपर्युक्त गुणों से ही संभव है। दिन और रात्रि के समान इस संसार में मनुष्य पर सुख और दुख आते ही रहते हैं। यदि हम विपत्तियों से हार मान कर बैठ रहें तो कार्य सिद्धि नहीं हो सकती। हर परिस्थिति का उत्साह पूर्वक शौर्य और साहस से मुकाबला करना चाहिये। सीता हरण के बाद व्याकुल राम को समझाते हुए लक्ष्मण ने कहा कि पराक्रम और शौर्य को क्षीण करने वाला शोक न करें—
निरुतसाहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः ।
सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ।।
देखिये, उत्साहशून्य, दीन और शोक से विकल मनुष्य के समस्त कार्य नष्ट हो जाते हैं और इसलिए उसे बड़ा दुःख भोगना पड़ता है।
पुरुषस्य हि लोकेऽरिमन्शोकः शौर्यापकर्षणः ।
यत्तु कार्यं मनुष्येण शौण्डीर्यमवलम्बता ।।
क्योंकि शोक मनुष्य के शौर्य को नष्ट कर डालता है और जो काम शूरता का अवलम्बन करके किया जाता है, वह पूर्ण होता है।
विषादोऽयं प्रसहते विक्रमे पर्युपस्थिते ।
तेजसा तस्य हीनस्य पुरुषार्थो न सिध्यति ।।
पराक्रम दिखाने का समय उपस्थित होने पर जो पुरुष विषाद करता है, वह तेजहीन तो होता ही है, साथ ही उसका कार्य भी सिद्ध नहीं होता।
पुरुषार्थी व्यक्तियों के पास विषाद या तो आता ही नहीं, यदि आता भी है तो टिक नहीं पाता। अपनी वृत्तियों पर उनका अधिकार होता है और उचित समय पर उनमें परिवर्तन लाना और उपयोग करना उनके लिए संभव होता है। लक्ष्मण जी के संकेत से सावधान हो गये बोले—
एष शोकः परित्यक्तः सर्वकार्यावसादकः।
विक्रमेष्वप्रतिहतं तेजः प्रोत्साहयाम्यहम् ।।
यह लो, मैंने समस्त कार्यों के विनाश करने वाले शोक को त्याग दिया। अब मैं अपने पराक्रम सम्बन्धी दुराधष तेज को प्रोत्साहित करता हूं।
तेजस्विता आह्वान करते ही अवसाद का लोप हो गया और वे लक्ष्मण जी से उत्साहपूर्वक कहने लगे—
निःसंशयं कार्य मवेक्षितव्यं
क्रियाविशेषो ह्यनुवर्तितव्यः ।
ननु प्रवृत्तस्य दुरासदस्य
कुमार कार्यस्य फलं न चिन्त्यम् ।।
हे लक्ष्मण! धैर्य धारण पूर्वक ऐसा उत्साह करना चाहिये जिससे सीता अवश्य मिल जाय और इस कार्य की सिद्धि में जो असह्य कष्ट झेलने पड़ें, उनकी चिन्ता भी न करनी चाहिये।
चित्त वृत्ति के बदलने ही प्रखरता का उद्भव हुआ और श्रीराम अनीति निवारण के लिए अदम्य-अबाध गति से बढ़ने के लिए कृत संकल्प हो गये—
युगान्ताग्निरिव क्रुंद्ध इदं वचनमब्रवीत् ।
यथा जरा यथा मृत्युर्यथा कालो यथा विधिः ।।
नित्यं न प्रतिहन्यन्ते सर्वभूतेषु लक्ष्मण ।
तथाऽहं क्रोधसंयुक्ता न निवार्योऽस्मि सर्वथा ।।
प्रलय कालीन अग्नि की तरह क्रुद्ध हो यह वचन बोले—हे लक्ष्मण! जिस प्रकार से बुढ़ापा, मृत्यु और भाग्य प्राणी मात्र के रोके नहीं रोके जा सकते, उसी प्रकार क्रोध से युक्त मुझको भी कोई किसी प्रकार भी नहीं रोक सकता।
पराक्रम से ही समस्याओं का समाधान निकलता है, अस्तु वे अपने प्रियजनों को भी उसी की प्रेरणा देते हैं। सीता की खोज के लिये हनुमान को निर्देश देते हुये राम ने कहा—
अतिबल बलमाश्रितस्तवाहं
हरिवरविक्रम विक्रमैरनल्पैः ।
पवनसुत यथाभिगम्यते सा
जनकसुता हनुमंस्तथा कुरुष्व ।।
हे सिंह जैसे पराक्रम वाले! हे अति बलशालिन! मुझको तुम्हारा बड़ा भरोसा है। हे हनुमान्! तुम इस समय ऐसा उद्योग करो, जिससे मुझे जानकी जी मिल जायं।
सीताजी उनकी इस विशेषताओं को भली प्रकार जानती हैं, हनुमान जी से अशोक वाटिका में वे कहती हैं—
उत्साहः पौरुषं सत्त्वमानृशंस्यं कृतज्ञता ।
विकृमश्च प्रभावश्च सन्ति वानर राघवे ।।
वे उत्साही, पुरुषार्थी, वीर्यवान्, दयालु, कृतज्ञ, विक्रमी और प्रतापी हैं।
किन्तु परिस्थितियां व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। यदि इनसे अप्रभावित रहकर पुरुषार्थ किया जाय तो कठिनाइयों पर अवश्य विजय पाई जा सकती है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर सीताजी हनुमान से पूछती हैं कि कहीं परिस्थिति वश राम ने अपने इन गुणों को भुला तो नहीं दिया? वे कहती हैं—
कच्चिन्न दीनः सम्भ्रान्तः कार्येषु च न मुह्यति ।
कच्चित्पुरुषकार्याणि कुरुते नृपतेः सुतः ।।
वे दीन तो नहीं रहते? वे घबड़ाते तो नहीं? काम करने में वे भूलते तो नहीं? वे राज कुमार अपने पुरुषार्थ का निर्वाह तो भली भांति किए जाते हैं।
राम और लक्ष्मण का जीवन पग-पग पर इस सत्य का बोध कराता है कि पराक्रमी सब कठिनाइयों पर विजय पाता है। वन यात्रा के समय यमुना का दृश्य।
चिन्तामापेदिरे सर्वे नदीजलतितीर्षवः ।
तौ काष्ठसङ्घाटमथो चक्रतुः सुमहाप्लवम् ।।
वे सब उसको पार करने के लिये चिन्ता करने लगे। उन दोनों राजकुमारों ने बहुत सी लकड़ियां एकत्र कर एक बड़ा बेड़ा बनाया।
ततः प्रतेरतुर्युक्तौ वीरौ दशरथात्मजौ ।
कालिन्दीमध्यमायाता सीता त्वेनामवन्दत ।।
तदनन्तर दोनों वीर दशरथनन्दनों ने उस बेड़े के माध्यम से यमुना पार की। जब बेड़ा बीचोंबीच धार में पहुंचा, तब सीता जी ने यमुना जी को प्रणाम किया।
वन में निवास करते हुए वे राक्षसों को निर्मूल करते हुए ऋषियों को निर्विघ्न कार्य का अवसर देने लगे। अपने और भाई लक्ष्मण के पराक्रम पर उन्हें पूरा विश्वास है, वे ऋषियों से कहते हैं—
तपस्विनां रणे शत्रून्हन्तुमिच्छामि राक्षसान् ।
वश्यन्तु वीर्यमृषयः सभ्रातुर्मे तपोधनाः ।।
मैं तपस्वियों के शत्रु राक्षसों का युद्धक्षेत्र में वध करना चाहता हूं। तपोधन ऋषिगण मेरे और मेरे भाई के पराक्रम को देखें।
समर्थ होते हुए भी वे शील का निर्वाह करते हैं, समुद्र का सम्मान रखते हुए वे उससे लंका के लिए मार्ग मांगते हैं। किन्तु उसकी जड़ता देखकर उन्हें कठोरता का मार्ग अपनाते देर नहीं लगती। वे लक्ष्मण से कहते हैं—
अवलेपः समुद्रस्य न दर्शयति यत्स्वयम् ।
प्रशमश्च क्षमा चैव आर्जवं प्रियवादिता ।।
देखो समुद्र को इतना अभिमान है कि, वह स्वयं प्रकट नहीं होता। इसका कारण भी स्पष्ट ही है। वह यह कि, अक्रोधता, शान्ति, अपराध-सहिष्णुता, दूसरे के मन के अनुसार बर्ताव, अथवा सीधासाधा (कपट रहित) बर्ताव प्यारा बोल, आदि गुण ही पर्याप्त नहीं है।
प्राप्तुं लक्ष्मण लोकेऽस्मिञ्ज्यो वा रणमूर्धनि ।
अद्य मद्बबाणनिर्भिन्नैर्मकरालयम् ।।
हे लक्ष्मण! शान्त बने रहने से युद्ध में जीत भी नहीं होती। सो आज तुम मेरे बाणों से कटे हुए मगरमच्छों के जल के ऊपर उतराने से समुद्र के जल को सर्वत्र ढका हुआ देखोगे।
भगवान राम का स्पष्ट मत है कि जहां सज्जनता के व्यवहार को दुर्बलता समझा जाय वहां शौर्य का प्रदर्शन करके उस भ्रांति का निवारण किया जाय।
मृदुं लोकहिते युक्तं दान्तं करुणवेदिनम् ।
निर्वीर्य इति मन्यन्ते नूनं मां त्रिदशेश्वराः ।।
हे सौम्य! देवता लोग तो मेरे कोमल-हृदय, लोकहित में तत्परता, जितेन्द्रिय और दयालु होने के कारण मुझको पराक्रम से हीन मानते हैं।
ममास्त्रवाणसम्पूर्णमाकाशं पश्य लक्ष्मण ।
निःसम्पातं करिष्यामि ह्यद्यं त्रैलोक्यचारिणाम् ।।
हे लक्ष्मण! देखो, मैं अपने अस्त्र रूपी बाणों से आकाश को ढके देता हूं, जिससे तीनों लोगों में आने जाने वाले विमानों का रास्ता ही बंद हो जायगा।
यह कोई शेखी नहीं थी उनके पराक्रम को देखकर दृष्टा दंग रह जाते थे। युद्ध के समय उनका पौरुष पुरुषार्थ एवं पराक्रम दर्शनीय है। जब लक्ष्मण को शक्ति लगी।
सौमित्रिं सा विनिर्भिद्य प्रविष्टा धरणीतलम् ।
तां कराभ्यां परामृश्य रामः शक्तिं भयावहम् ।।
वह शक्ति इतने जोर से चलाई गयी थी कि, लक्ष्मण जी के शरीर को फोड़कर वह पृथ्वी में घुस गयी थी। उस भयानक शक्ति को बलवान श्रीराम चन्द्रजी ने दोनों हाथों से पकड़कर खींच लिया और क्रोध में भर उसको तोड़ कर फेंक दिया।
दुर्बल व्यक्ति केवल शेखी बघारते हैं, और कठिन मुकाबला आ पड़ने पर घबड़ा जाते हैं। असंतुलित हो जाते हैं। किन्तु श्रीराम कठिन प्रसंग आने पर अपने पराक्रम के सदुपयोग का अवसर देखकर प्रसन्न होने लगते हैं। बिना क्षुब्ध या उत्तेजित हुए प्रबल पराक्रम का प्रदर्शन उनकी विलक्षण विशेषता है।
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत् ।
सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोऽभवत् ।।
राक्षसराज रावण को लड़ने लिये आया हुआ देख, श्रीराम जी ने हर्षित मन से, उसका वध करने को, सब प्रकार से बड़े बड़े प्रयत्नों से काम लिया।
बभूव द्विगुणं वीर्यं बलं हर्षश्च संयुगे ।
रामस्यास्त्रबलं चैव शत्रोर्निधनकांक्षिणः ।
जब श्रीरामचन्द्रजी ने युद्ध में रावण के वध करने की अभिलाषा की, तब उनके शरीर का बल, अस्त्रबल, पराक्रम और मन की प्रसन्नता दूनी हो गयी।
वे अपने मनोभाव व्यक्त करते हुए अपने साथियों से कहते हैं—
पराक्रमस्य कालोऽयं सम्प्राप्तो मे चिरेप्सितः ।
पापात्मायं दशग्रीवो वध्यतां पापनिश्चयः ।।
क्योंकि बहुत दिनों पीछे मुझे अपना यह पराक्रम दिखाने का अवसर हाथ लगा है। इस पापात्मा और निश्चय पापी का वध अवश्य ही करना है।
वे सज्जनों के लिए सहृदय हैं और दुष्ट पापियों के लिए भयंकर पराक्रमयुक्त। उन्हें फूल से भी अधिक कोमल और वज्र से भी अधिक कठोर कहा गया है। वे रावण के साथ घनघोर युद्ध के लिए तत्पर हैं किन्तु देवताओं को आश्वस्त करते हुए कहते हैं—
आसीनाः पर्वताग्रेषु ममेदं रावणस्य च ।
अद्य रामस्य रामत्वं पश्यन्तु मम संयुगे ।।
त्रयो लोकाः सगन्धर्वाः सदेवाः सर्षिचारणाः ।
अद्य कर्म करिष्यामि यल्लोकाः सचराचराः ।।
सदेवाः कथियिष्यन्ति यावद्भू मिर्धरिष्यति ।।
(हे वानर श्रेष्ठ!) तुम लोग स्वस्थ होकर पर्वत शिखर पर बैठे-बैठे मेरी और रावण की लड़ाई देखो। आज मेरे इस युद्ध में, गन्धर्वों, सिद्धों, ऋषियों और चारणों सहित तीनों लोक मेरा अद्वितीय (बेजोड़) वीरत्व देखें। आज मैं वह काम करूंगा कि जब तक यह संसार रहेगा, तब तक देवताओं सहित चर और अचर जीव उसका बखान करते रहेंगे।
इस प्रकार देवताओं को खेल देखने जैसा आमंत्रण देकर उन्होंने कैसा विकट युद्ध किया उसका अनुमान केवल इतने से ही लगाया जा सकता है—
नैव रात्रं न दिवसं न मुहूर्तं न च क्षणम् ।
रामरावणार्युद्धं विराममुपगच्छति
रात या दिन में एक मुहूर्त्त अथवा एक क्षण के लिये भी श्रीराम जी और रावण का यह युद्ध बन्द न हुआ।
अविचलित भव से सतत संघर्ष में ही मनुष्य के शौर्य और धैर्य की परीक्षा होती है। श्रीराम इस दिशा में अद्वितीय सिद्ध होते हैं, देवगण भी उनकी सराहना करने लगते हैं—
ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः ।
साधु साध्विति रामस्य तत्कर्म समपूजयन् ।
देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षि श्रीरामचन्दजी के इस पराक्रम को देख, और ‘‘धन्य धन्य’’ कह कर, उनकी बड़ी प्रशंसा कर रहे थे।
श्रीराम ने अपने आचरण से पुरुषार्थ की प्रतिष्ठा की। लोगों को प्रेरणा देने के लिए उन्होंने रावण वध के बाद सीता से कहा—
एषाऽसि निर्जिता भर्दे शत्रुं जित्वा मया रणे ।
पौरुषाद्यदनुष्ठेयं तदेतदुपपादितम् ।।
वे कहने लगे—हे भद्रे! मैंने युद्ध में शत्रु को परास्त कर तुमको पुनः प्राप्त कर लिया। पुरुषार्थ जो से किया जा सकता था वह मैंने कर दिखाया।
जन-जन में धर्म रक्षा आदर्श की स्थापना के लिए पुरुषार्थ करने की प्रेरणा का संचार करना वे अपना उत्तरदायित्व मानते हैं। केवल वाणी से नहीं आचरण से उसे स्पष्ट करने के बाद वे अपने कर्तव्य की पूर्ति का संतोष अनुभव करते हुए कहते हैं—
अद्य मे पौरुष हृष्टमद्य में सफलः श्रमः ।
अद्य तीर्णप्रतिज्ञत्वात्प्रभवामीह चात्मनः।।
आज लोगों ने मेरा पुरुषार्थ देख लिया। आज मेरा सारा परिश्रम सफल हुआ। आज मैं अपनी प्रतिज्ञा से पार हुआ, आज मैं स्वतन्त्र हो गया।
श्रीराम ही नहीं उनके सहयोगी भी सौर्य साहस के धनी थे। लक्ष्मण तो शौर्य, साहस और की सजीव प्रतिमा ही थे। जब दशरथ एवं कैकेयी ने राम को वनवास दिया लक्ष्मण ने इसे अन्याय समझा और इसका दृढ़ता पूर्वक प्रतिकार करने को तैयार हो गये। वे दृढ़ता से आत्म विश्वास युक्त वचन कहते हैं—
मया पार्श्वे सधनुषा तव गुप्तस्य राघव
कः समर्थोऽधिकं कर्तुं कृतान्तस्येव तिष्ठतः ।।
हे राघव! जब मैं आपके बगल में धनुष लेकर तैयार खड़ा हूं तब काल की भी क्या सामर्थ्य जो टिक सके।
विपरीत परिस्थितियां आने पर हीन मनः व्यक्ति उसे भाग्य कहकर चुपचाप बैठ जाते हैं, किन्तु लक्ष्मणजी का मत है कि भाग्य अपने ही कर्मों की प्रतिक्रिया है इसलिए पुरुषार्थी व्यक्ति अपने प्रबल पुरुषार्थ से भाग्य को भी बदल सकते हैं—
वीराः सम्भावितात्मानो न दैवं पयर्युपासते ।
दैवं पुरुषकारेण यः समर्थः प्रबाधितुम् ।।
जो वीर और पुरुषार्थी होते हैं वे भाग्य के भरोसे नहीं रहते। वे अपने पुरुषार्थ से भाग्य को बाधित करने (बदल देने) की क्षमता रखते हैं।
दुःख के समय संवेदना व्यक्त करना अच्छी बात है किन्तु दुःख के कारण का निवारण तो पुरुषार्थ से ही होता है। माता कौशल्य को दुखी देखकर वे कहते हैं—
हरामि वीर्य द्दुःखंते तमः सूर्य इवोदितः ।
देवी पश्यतु में वीर्यं राघवश्चैव पश्यतु ।।
जिस प्रकार उदित हुआ सूर्य अन्धकार का नाश कर देता है मैं अपने पराक्रम से उसी प्रकार इस दुःख का नाश कर दूंगा। हे देवि आप और श्रीराम मेरे इस पराक्रम को देखिये।
परिस्थितियों का रोना रोते रहने से काम नहीं बनता परिस्थिति को बदलने के लिये प्रयत्न एवं पुरुषार्थ की आवश्यकता है। लक्ष्मण जी अपने बड़े भाई श्रीराम को सीता हरण प्रसंग में यही प्रेरणा देते हुए कहते हैं—
तस्या ह्यन्वेषणे रीमन्क्षिप्रमेव यतावहै ।
बनं सर्वं विचिनुवो यत्र सा जनकात्मजा ।।
हे श्रीमन्! हम दोनों को उनके खोजने में शीघ्र यत्नवान् होना चाहिये। जहां हो वहां जानकी को पाने के लिये हमको यह सारा वन मझाना चाहिये।
अवसाद मनुष्य की तेजस्विता को ढक लेता है उसका निवारण करके शौर्य को जगाने की आवश्यकता समय-समय पर पड़ती है।
लक्ष्मण भी यही करते हैं वे राम से कहते हैं—
अहं खलु ते वीर्यं प्रसुप्तं प्रतिबोधये ।
दीप्तैराहुतिभिः काले भस्मच्छन्नमिवानलम् ।।
राख से ढकी हुई आग को आहुति दे कर प्रज्ज्वलित करने की तरह आपके सोते हुए पराक्रम को में जगाता हूं।
अपने उच्चलक्ष्य का स्मरण विषाद को दूर करके पराक्रम के जागरण में सहायक होता है। लक्ष्मणजी सीता के वियोग से दुःखी विषादग्रस्त राम को प्रेरणा देते हुए कहते हैं—
न ह्याव्यवसितः शत्रुं राक्षसं तं विशेषतः ।
समर्थस्त्वं रणे हन्तुं विक्रमैजिह्मकारिणम् ।।
यदि आप किसी प्रकार का उद्योग न कर, अपना चित्त विकल रखेंगे, तो उस कपटाचारी राक्षस रावण को युद्ध में आप कैसे मार सकेंगे?
उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्पर बलम् ।
सोत्साहस्यास्ति लोकेऽस्मिन्न किञ्चिदपि दुर्लभम् ।।
हे भाई! उत्साह बड़ा बलवान होता है। क्योंकि उत्साह से बढ़ कर दूसरा कोई बल ही नहीं है। जो उत्साही लोग हैं, उनके लिये इस संसार में कोई वस्तु दुर्लभ नहीं है।
शोकं विमुञचार्य धृति भजस्व
सोत्साहता चास्तु विमार्गणोऽस्याः ।
उत्साहवन्तो हि नरा न लोके
सीदन्ति कर्मस्वति दुष्करेषु ।।
हे आर्य! शोक को त्यागिये और धैर्य को धारण कीजिये। तदनन्तर उत्साह पूर्वक जानकी जी को ढूंढ़िये, क्योंकि जो लोग उत्साही होते हैं वे दुष्कर कार्यों के करने में भी कभी दुःख नहीं पाते।
शौर्य और साहस के गुण भी संक्रामक होते हैं। लक्ष्मण के उद्बोधन से प्रभावित हो राम ने सीता को पाने का भागीरथ प्रयास किया और सफलता पायी। हनुमान का पराक्रम भी अद्वितीय है। सतत कार्यशीलता से ही कार्य सिद्ध होती हैं। सीता खोज के लिये समुद्र लांघते हुए हनुमान से जब मैनाक ने विश्राम का आग्रह किया तब उन्होंने कहा।
त्वरते कार्यकालो मे अहश्चाप्यतिवर्तते ।
प्रतिज्ञा च मया दत्ता न स्थातव्यमिहा तरा ।।
एक तो मुझे कार्य करने की जल्दी है, दूसरे समय भी बहुत हो चुका है, तीसरे मैंने वानरों के सामने यह प्रतिज्ञा भी की है कि मैं बीच में कहीं न ठहरूंगा।
महान कार्य करने को प्रस्तुत व्यक्ति के बल और पराक्रम की परीक्षा ली जाती है। दुर्बल हृदय मनुष्य उनसे घबड़ा कर कार्य छोड़ बैठते हैं किन्तु साहसी उसमें सफल होकर कंचन की तरह चमक उठते हैं।
देवता लंका की ओर जाते हुए हनुमान की परीक्षा की व्यवस्था बनाते हैं और उसके लिए नियुक्त सुरसा से कहते हैं :—
बलमिच्छामहे ज्ञातुं भूयश्चास्य पराक्रमम ।
त्वां विजेष्यत्युपायेन निषादं वा गमिष्यति ।।
हम सब हनुमान जी के बल और पराक्रम की परीक्षा लेना चाहते हैं। या तो हनुमान जी तुझको किसी उपाय से जीत लेंगे अथवा दुःखी हो कर चले जायेंगे।
कभी कभी कार्य की दुरूहता के कारण हम हतोत्साहित होने लगते हैं ऐसे समय में सशक्त आदर्श का स्मरण करने से हममें बल का संचार होता है लंका में सीता की खोज में रत हनुमान का वर्णन :—
समीक्ष्य च महाबाहू राघवस्य पराक्रमम् ।
लक्ष्मणस्य च विक्रान्तमभवत्प्रीतिमान्कपिः ।।
इस प्रकार सोच विचार कर, जब हनुमान जी ने श्रीराम चन्द्र के पराक्रम और लक्ष्मण के विक्रम की ओर, दृष्टि डाली, तब तो वे प्रसन्न हो गए।
पराक्रमी और पुरुषार्थी व्यक्ति बाधाओं को जीतकर अपना कार्य सम्पन्न करते हैं। लंका प्रवेश के समय राक्षसी लंका ने हनुमान को रोका तब :—
लंकायो वचनं श्रुत्वा हनूमान्मारुतात्मजः ।
यत्नवान्स हरिश्रेष्ठः स्थितः शैल इवापरः ।।
उद्योगी एवं कपिश्रेष्ठ पवन पुत्र हनुमान जी ने लंका की ये बातें सुनी, तो उसे परास्त करने के लिए उसके सामने एक दूसरे पर्वत की तरह अचल भाव से खड़े हो गए।
हनुमान ने एक ही प्रहार से लंका को वश में कर लिया। पराक्रम से प्रभावित शत्रु भी व्यक्ति की सराहना और सहयोग करने लगता है।
निर्जिताहं त्वया वीर विक्रमेण महाबल ।
इदं च तथ्यं श्रृणु वै ब्रुवन्त्या मे हरीश्वर ।।
सो हे महाबली! तुमने मुझे अपने पराक्रम से जीत लिया। महाकपीश्वर! मैं जो अब यथार्थ वृत्तान्त कहती हूं, उसे तुम सुनो।
हनुमान ने पुरी लंका में खोज की किन्तु सीता नहीं मिलीं, हनुमान हतोत्साहित होने लगे तब उन्होंने सोचा :—
अनिर्वेदः श्रियो मूलमनिर्वेदः परं सुखम् ।
अनिर्वेदो हि सततं सर्वार्थेषु प्रवर्तकः ।।
हताश होकर भी पवननन्दन ने पुनः मन ही मन कहा कि मुझे अभी हतोत्साह न होना चाहिए—क्योंकि उत्साह हो परम सुख का देने वाला है और उत्साह ही मनुष्यों को सदैव सब कामों में लगाने वाला है।
करोति सफलं जन्तोः कर्म यच्च करोति सः ।
तस्मादनिर्वेदकरं यत्नं कुर्यादनुत्तमम् ।।
उत्साहपूर्वक जीव जो काम करते हैं उत्साह उनके उस काम को सिद्ध करता है। अतः मैं अब उत्साहपूर्वक सीता जी को ढूंढ़ने का प्रयत्न करता हूं।
पुरुषार्थी हारना नहीं जानता उसे अपने कार्य एवं उसकी गुरुता का बोध होता है हनुमान ने सोचा—
भवेदिति मतं भूयो हनुमान्प्रविचारयन् ।
यदि सीतामदृष्ट्वाहं वानरेन्द्रपुरीमितः ।
गमिष्यामि ततः को मे पुरुषार्थो भविष्यति ।
ममेदं लङ्घनं व्यर्थं सागरस्य भविष्यति ।।
इस प्रकार अपने मन में विचारों की ऊहापोह करते-करते, हनुमान बड़े विचार में पड़ गए। वे सोचने लगे कि यदि सीता को देखे बिना किष्किन्धा को लौट चलूं, तो इसमें मेरा पुरुषार्थ ही क्या समझा जायगा। बल्कि मेरा सौ योजन समुद्र का लांघना भी व्यर्थ ही हो जायगा।
और हनुमान ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर सीता को खोज ही लिया उनका पुरुषार्थ सार्थक सिद्ध हुआ। उन्होंने सीता से कहा—
कृत्वा मूर्ध्नि पदन्यासं रावणस्य दुरात्मनः ।
त्वां द्रष्टुमुपयातोऽहं समाश्रित्य पराक्रमम् ।
मैं अपने बल, पराक्रम के बूते, दुष्ट रावण के सिर पर पैर रख कर, (अर्थात् रावण का तिरस्कार करके) तुम्हें देखने के लिए यहां आया हूं।
पुरुषार्थी व्यक्ति एक कार्य करके उतने में ही अहंकार से पूल नहीं उठता, वह क्रमशः अगली सीढ़ियां निश्चित करके आगे बढ़ता है। हनुमान सीता जी की खोज करके उनके समाचार पा लेने के बाद सोचते हैं।
कार्ये कर्मणि निर्दिष्टे यो बहून्यपि साधयेत ।
पूर्वकार्या विरोधेन स कार्यं कर्तुमर्हति ।
मुख्य कार्य को पहले करके और मुख्य कार्य को हानि न पहुंचाते हुये, जो दूत और भी कई एक कार्य पूरा कर डाले तो वही दूत वास्तव में कार्य करने के योग्य कहा जा सकता है।
वे लंका को अस्त व्यस्त करने, राक्षसों का मनोबल तोड़ने की योजना बनाते हैं और सच्चे पुरुषार्थी के आदर्श को स्मरण करते हैं :—
नह्येकः साधको हेतुः स्वल्पस्यापोह कर्मणः ।
यो ह्यर्थं बहुधा वेद स समर्थोऽर्थसाधने ।।
जो व्यक्ति छोटे से किसी एक काम को बड़े प्रयत्न से पूरा करता है, वह कार्य साधक नहीं कहा जा सकता। किन्तु जो सामान्य प्रयास से अपने कार्य को अनेक प्रकार से पूरा कर डाले उसी को कार्य करने के योग्य कहना चाहिए।
उनके आचरण से प्रभावित होकर माता सीता उनकी प्रशंसा करती हुई कहती है :—
शतयोजनविस्तीर्णः सागरो मकरालयः ।
विक्रमश्लाघनीयेन क्रमताः गोष्पदीकृतः ।
तुमने इस सौ योजन विस्तार वाले एवं मगर आदि भयानक जन जन्तुओं के आवास स्थान समुद्र को गोपद की तरह समझा और उसे लांघ लिया अतएव तुम्हारा विक्रम सराहने योग्य है।
पुरुषार्थी और पराक्रमी व्यक्ति आश्चर्यजनक कार्य सम्पन्न कर के स्वामी का प्रिय पात्र बनता है। लंका से वापिस आने पर हनुमान ने अपने कार्यों का विवरण दिया। जिस लंका की ओर देवता ताकने की भी हिम्मत नहीं कर पाते थे वहां अकेले हनुमान क्या-क्या कर आये-
यातुधाना दुराधर्षाः साग्रकोटिश्च रक्षसाम् ।
ते मया संक्रमा भग्नाः पारिखाश्चावपूरिताः ।
उनमें से एक करोड़ से ऊपर बड़े दुर्धर्ष राक्षस सैनिक हैं। हे राम! मैंने (खाई पार करने के) पुलों को तोड़ डाला है और खाई पाट दी है।
दग्धा च नगरी लंका प्राकाराश्चावसादिताः ।
बलैकदेशः क्षपितो राक्षसानां महात्मनाम् ।।
मैंने लंका जला डाली है और लंका का परकोटा गिरा दिया है। मैंने महाकाय वाले राक्षसों की एक चौथाई सेना मार डाली है।
पुरुषार्थी सेवक को अपने स्वामी का और अपने गौरव का बोध रहता है तथा वह घोषणा पूर्वक अनीति मिटाने को कटिबद्ध रहता है। सीता की खोज में लंका गये हुये हनुमान ने घोषणा करते हुये राक्षसों से कहा :—
दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्या क्लिष्टकर्मणः ।
हनुमाञ्शत्रुसैन्यानां निहन्तां मारुतात्मजः ।।
मैं उन कोसलपति श्री रामचन्द्रजी का दास हूं, जिनके लिए कोई काम कठिन नहीं है। मेरा नाम हनुमान है और युद्ध में शत्रुसैन्य का नाश करने वाला मैं पवन का पुत्र हूं।
अर्दयित्वा पुरीं लंकामभिकाद्य च मैथिलीम् ।
समुद्धार्थो गमिष्यामि मिषतां सर्वरक्षसाम् ।।
मैं समस्त राक्षसों के सामने लंकापुरी को ध्वंस कर और जनक नन्दनी को प्रणाम कर तथा अपना काम पूरा कर चला जाऊंगा।
हनुमान जैसे पराक्रमी और पुरुषार्थी सेवकों पर ही मां शक्ति प्रसन्न होती हैं राज्य सिंहासन पर विराजमान राम ने सीता से कहा—
प्रदेहि सुभगे हारं यस्य तुष्टासि भासिनी ।
पौरुषं विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि सर्वशः ।।
ददौ सा वायुपुत्राय तं हारमसितेक्षणा ।
हनुमांस्तेन हारेण शुशुभे वानरर्षभः ।।
हे भामिनि! हे सुभगे! तुम जिस पर प्रसन्न हो, उसे यह हार दे दो। तब सीता जी ने पुरुषार्थ, विक्रम, बुद्धि आदि समस्त गुणों से युक्त श्री हनुमान जी को वह हार दे दिया। उस हार को पहन कर हनुमान जो सुशोभित हुए।
पुरुषार्थी व्यक्ति गई गुजरी परिस्थितियों में भी बहुत कुछ करने की हिम्मत रखता है। सीता को चुराकर भागते हुये रावण को बूढ़े जटायु ललकारा :—
कथं त्वं तस्य वैदेहीं रक्षितां स्वेन तेजसा ।
इच्छसि प्रसभं हर्तुं प्रभामिव विवस्वतः ।।
उन राम की सीता को, जो अपने पतिव्रत-धर्म से आप सुरक्षित है, तुम किस प्रकार सूर्य की प्रभा की तरह बरजोरी हरना चाहते हो?
अपने पुरुषार्थी सहायकों के कारण ही राम महान कार्य संपादित करने में समर्थ हो सके। समुद्र पर पुल बांधने जैसे असम्भव कार्य को भी संभव बनाने वाले वीर नल ने कहा :—
पितुः सामर्थ्य मास्थाय तत्त्वमाह महोदधिः ।
दण्ड एव वरो लोके पुरुषस्येति मे मतिः ।
मैं पिता के वरदान के प्रभाव से इस विस्तृत वरुणालय महासागर पर पुल बांधूंगा। इस सम्बन्ध में मैं यह अवश्य कहूंगा कि, संसार में दण्ड ही सब से बढ़कर काम बनाने वाला है।
आखिर वानरों के पुरुषार्थ से असंभव को संभव कर दिया
नलश्चक्रे महासेतुं मध्ये नद नदीपतेः
स तथा क्रियते सेतुर्वानरैर्घोरकर्मभिः ।।
इस प्रकार नल ने घोरकर्मा वानरों की सहायता से नदीपति समुद्र के ऊपर पुल बांधा।
वानरों की लगन, साहस पराक्रम और पुरुषार्थ को देख राम ने अपनी विजय निश्चित समझी :—
राघवस्य प्रियार्थं तु धृतानां वीर्यशालिनाम्;
हरीणां कर्मचेष्टाभिस्तुतोष रघुनन्दनः ।
श्री रामचन्द्र जी की प्रसन्नता के लिये धैर्यवान् और बलवान् वानरों की युद्ध के लिये कर्म और चेष्टा द्वारा तत्परा देख, अर्थात् उन वानरों में युद्ध की उमंग या चाव देख) सन्तुष्ट हुए।
पराक्रम और पुरुषार्थ मात्र पुरुष के अधिकार-क्षेत्र की ही बात नहीं है। अवसर मिलने पर नारियों ने भी शौर्य प्रदर्शन किया है। दशरथ जी से वर मांगने के लिये कैकेयी को प्रोत्साहित करते हुए मंथरा उसे उसके विगत जीवन की घटना की याद दिलाती है :—
अपवाह्य त्वया देवि संग्रामान्नष्टचेतनः ।
तत्रापि विक्षतः शस्त्रैः पतिस्ते रक्षितस्त्वया ।।
हे देवि देवासुर संग्राम में जब तुम्हारे पति शस्त्रों से घायल हो मूर्छित हो गये थे तब अपने पौरुष से तुमने उनकी रक्षा की थी।
इस प्रकार रामायण में हर क्षेत्र में पुरुषार्थ पराक्रम शौर्य एवं साहस से प्रेरक उदाहरण भरे पड़े हैं। श्रीराम की कृपा की आकांक्षा करने वाले उनके प्रति निष्ठा रखने वालों को यह तथ्य समझना और उसे जीवन में धारण करना चाहिए।
कर्म और उसका प्रतिफल—
ईश्वर द्वारा सृष्टि संचालन के लिये बनाया गया विधान ही कर्म प्रधान है। वह स्वयं उसकी मर्यादा मानते हैं। वह जब कभी अवतार लेते हैं तो अपने आचरण द्वारा कर्म मार्ग का प्रचार करते हैं। अशोक वाटिका में सीता को राम के बारे में बताते हुये हनुमान कहते हैं—
अर्चिष्मानर्चितो नित्यं ब्रह्मचर्यव्रते स्थितः ।
साधूनामुपकारज्ञः प्रचाराज्ञश्च कर्मणाम् ।।
वे दमकते हुये चेहरे वाले, पूज्यों के भी पूज्य तथा ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित हैं। साधु पुरुषों के प्रति उपकार करने की विधि जानने वाले तथा कर्मों के प्रचार की विधि जानने वाले हैं।
लौकिक और पारलौकिक सभी उपलब्धियां सत्कर्मों पर ही आधारित रहती हैं। राम अपने कर्मों द्वारा ही लोक पूजित हैं। रावण के बाद राम की झांकी प्रस्तुत करते हुए ग्रन्थकार कहता—
इतीदभुक्त्वा विजयी महावलः
प्रशस्यमानः स्वकृतेन कर्मणा ।
समेत्य रामः प्रियया महायशाः
सुखं सुखार्होऽनुबभूव राघवः ।।
विजयी, महाबली, महायशस्वी और सुख भोगने योग्य श्रीरामचन्द्र जी, अपने कर्मों द्वारा लोकपालों से प्रशंसित हो, सीता जी को अपने समीप बिठा कर अत्यन्त हर्षित हुए।
कोई किसी को सुख-दुःख नहीं दे सकता हमारे पिछले कर्म ही भाग्य के रूप में सामने आते हैं। राम के साथ वन गमन को उद्यत सीता ने राम से कहा—
आर्यपुत्र पिता माता भ्राता पुत्रस्तथा स्नुषा ।
स्वानि पुण्यानि भुञ्जानाः स्वं स्वं भाग्यमुपासते ।।
हे आर्यपुत्र! पिता, माता, भाई पुत्र और पुत्रवधू ये सब अपने पुण्यों को भोगते हुये, अपने-अपने हिस्से के फल पाते हैं।
संसार की सारी विभूतियां पुण्य कर्मों पर आधारित हैं
ऋद्धिं रूपं बलं पुत्रान्वित्तं शूरत्वमेव च ।
प्राप्नुवन्ति नरा लोके निर्जितं पुण्यकर्मभिः ।।
सब लोग अपने ही पुण्यकर्मों से धन, रूप, बल, पुत्र, सम्पत्ति और शूरता पाते हैं।
सुबुद्धि सत्कर्मों की और कुबुद्धि दुष्कर्मों की प्रेरक है। सुबुद्धि अपने आप नहीं उपजती उसके लिये प्रयत्न करना पड़ता है—
कस्यचिन्नहि दुर्बुद्धेश्छन्दतो जायते मतिः ।
यादृशं कुरुते कर्म तादृशं फलमश्नुते ।।
किसी भी दुर्बुद्धि जन को आप सुमति नहीं उपजती। वह जैसे कर्म करता है वैसा ही उसे फल भी मिलता है।
कर्म ज्ञानपूर्वक किये जायं या अज्ञान पूर्वक फल अवश्य भोगना पड़ता है। समझदार व्यक्ति कर्मफल के नियम को समझकर तदनुसार कर्म करता है, मूर्ख व्यक्ति बिना सोचे कर्म कर लेता है, किन्तु जब फल भोगना पड़ता है तब उसे होश आता है।
यो हि मोहाद्विषं पीत्वा नावगच्छति दुर्मतिः ।
स तस्य परिणामान्ते जानीते कर्मणः फलम् ।।
जो मूर्ख बिना सोचे विषपान कर लेता है, कर्म फल का सिद्धान्त तब समझ में आता है जब उसे अपने कर्म का फल मिलने लगता है।
जो कर्म हम कर चुके हैं उनका फल हमें भोगना ही पड़ेगा। आध्यात्मिकता का लाभ यही है कि आगे दुष्कर्म न करें। कर्म शरीर से होते दिखते हैं किन्तु मन और वाणी द्वारा भी उनका स्वरूप बनता है। रामायण का मत है—
कायेन कुरुते पापं मनसा संप्रधार्य च ।
अनृतं जिह्वया चाह त्रिविधं कर्म पातकम् ।
पहले तो पाप का मन में संकल्प उदय होता है, फिर वाणी द्वारा वह प्रकट किया जाता है और फिर वह शरीर से किया जाता है।
कभी-कभी व्यक्ति गलत आचरण करते हुए कहते हैं ‘‘हमारी क्या हानि हुई?’’ यह भ्रांति है कर्म भी समय पाकर फलित होता है। श्रीराम राक्षस खर से कहते हैं—
अवश्यं लभते जन्तुः फलं पापस्य कर्मणः ।
घोरं पर्यागते काले द्रुमाः पुष्पमिवार्तवम् ।।
जिस प्रकार समय पाकर, पेड़ फूलते हैं, उसी प्रकार समय प्राप्त होने पर जीवों को उनके किये पाप कर्मों का घोर फल अवश्य प्राप्त होता है।
न चिरात्प्राप्यते लोके पापाणां कर्मणां फलम् ।
सविषाणामवान्नानां भुक्तानां क्षणदाचार ।।
हे निशाचर! जिस प्रकार विषमश्रित अन्न खाने से शीघ्र ही आदमी मर जाता है, उसी प्रकार पापी को किये हुये पापों का फल प्राप्त होने में विलंब नहीं होना, अर्थात् शीर्घ मिलता है।
रावण के अत्याचारों से दुःखी सीता भी अशोक वाटिका में यही निष्कर्ष निकालती है। वे स्वयं ही प्रश्न करती हैं और स्वयं ही उत्तर दे लेती हैं—
कथमेवंविधं पापं न त्वं शास्सि हि रावणम् ।
ननुसद्योऽविनीतस्य दृश्यते कर्मणः फलम् ।।
प्रभु! आप इस प्रकार के पाप करने वाले इस पापी रावण को क्यों दण्ड नहीं देते हैं? दुष्ट कर्म का फल तुरन्त ही नहीं मिलता।
भाग्यवैषम्य योगेन पुरा दुश्चरितेन च ।
मयैतत्प्राप्यते सर्वं स्वकृतं ह्युपभुज्यते ।।
मैं अपने ही भाग्यदोष से और अपने पूर्वकृत दुष्कृतों के द्वारा ये समस्त दुःख पाती हूं और अपना भोगमान भोग रही हूं।
राम भी वन गमन के समय कर्म फल की अकाट्यता का समर्थन करते हुए लक्ष्मणजी से कहते हैं—
नूनं जात्यन्तरे कस्मिंस्त्रियः पुत्रैर्वियोजिताः ।
जनन्या मम सौमित्रे तस्मादेतदुपस्थितम् ।।
हे लक्ष्मण! पूर्व जन्म में मेरी माता ने अवश्य स्त्रियों को पुत्रहीन किया था, इस जन्म में उसका यह फल उसके सामने आया है।
व्यक्ति अपने कर्मों के कारण ही लोक श्रद्धा का पात्र बनता है—राम के अत्रि आश्रम पधारने पर अत्रिने सती अनुसूया के सम्बन्ध में बतलाते हुए कहा—
अनयूयेति या लोके कर्मभिः ख्यातिमागता ।
तां शीघ्रमभिगच्छ त्वमभिगम्यां तपस्विनीम् ।।
जो अपने उत्कृष्ट कर्मों के कारण लोकों में अनुसूया के नाम से प्रसिद्ध हैं, उन तपस्विनी एवं साथ जाने योग्य देवी के पास जानकी जी शीघ्र जायं।
जिस प्रकार अन्न को सोच समझकर कर खाया जाता है उसी प्रकार कर्म भी विचार पूर्वक किया जाना चाहिए अन्यथा, हानि उठानी पड़ती है। कर्म सिद्धान्त का आदर्श समझते हुए गीधराज जटायु रावण से कहते हैं—
तदन्नमपि भोक्तव्यं जीर्यते यदनामयम् ।
यत्कृत्वा न भ्ज्ञवेद्धर्मो न कीर्त्तिने यशो भुविं ।।
शरीरस्य भवेत्खेदः कस्यत्कर्म समाचरेत् ।
वही अन्न खाना चाहिये जो किसी प्रकार के रोग को उत्पन्न न करे। जिस कार्य के करने में न तो पुण्य ही होता है और न संसार में कीर्ति और यश ही फैलता है, बल्कि जिसके करने से शरीर को क्लेश हो ऐसे कर्म को कौन (समझदार) पुरुष करेगा?
विनाशायात्मनोऽधर्म्यं प्रतिपन्नोऽसि कर्म तत् ।
पापानुबन्धो वै यस्य कर्मणः कर्म को नु तत् ।।
(जटायु रावण से कहता है) मरते समय मनुष्य अपने नाश के लिये जैसे अधर्म के काम किया करते हैं, वैसे ही तू भी कर रहा है। जिस कर्म का सम्बन्ध पाप से है उस कर्म को कौन पुरुष करेगा।
सृष्टि रचयिता का कर्म विधान अटल है उसे कोई बदल नहीं सकता। बालि वध के बाद तारा को समझाते हुए राम ने कहा—
त्रयो हि लोका विहितं विधानं
नातिक्रमन्ते वशगा हि यस्य ।
प्रीति परां प्राप्स्यसि तां तथैव
पुत्रस्तु ते प्राप्स्यति यौवराज्यम् ।।
देखो, तीनों लोक उस विधाता के रचे हुए विधान को नहीं मिटा सकते। क्योंकि सब ही तो उसके वश में हैं। तुम पहिले की तरह सुखी होगी और तुम्हारे पुत्र को यौवराज्यपद मिलेगा।
तस्यायं कर्मणो देवि विपाकः समुपस्थितः ।
अपथ्यैः सह सम्भुक्ते व्याधिमन्नरसो यथा ।।
हे देवी! जिस प्रकार खाये हुये अपथ्य अन्न के रस से रोग उत्पन्न होता है, उसी प्रकार उस पापकर्म को फल स्वरूप यह कर्म विपाक आकर उपस्थित हुआ है।
राजा दशरथ की मृत्यु के पूर्व कर्म सिद्धांत का विशद विवेचन किया गया है। मरने से पहिले दशरथ अपने जीवन की घटनाओं पर विचार करते हुये सोचने लगे—
तथ्य चिन्तयमानस्य प्रत्यभात्कर्म दुष्कृतम् ।
यदनेन कृतं पूर्वमज्ञानाच्छब्दवेधिना ।।
सोचते-सोचते उनको अपना दुष्टकर्म याद पड़ा। (वह था) पहले किसी समय अनजाने एक तपस्वी का शब्दवेधी बाण से वध।
उन्होंने कौशल्या से कहा—
यदाचरति कल्याणि शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।
तदेव लभते भद्रे कर्ता कर्मजमात्मनः ।।
हे कल्याणि! मनुष्य भला या बुरा—जैसा कर्म करता है, उस कर्म का फल, कर्त्ता को अवश्य मिलता है।
गुरुलाघवमर्थाना मारम्भे कर्मणां फलम् ।
दोषं वा यो न जानाति स बाल इति होच्यते ।।
अतएव कर्म करने के पूर्व जो मनुष्य कर्म के फल का गुरुत्व लघुत्व (भलाई बुराई) अथवा उसके दोष (त्रुटि) को नहीं जानता, वह अज्ञानी कहलाता है।
कश्चिदाम्रवणं छित्त्वा पलांशाश्च निषिञ्चति ।
पुष्पं दृष्ट्वा फले गृध्नुः स शोचति फलागमे ।।
जो आदमी पलाश के लाल-लाल फूलों को देख, फल पाने की अभिलाषा से, आम के पेड़ को काट कर, पलाश वृक्ष को सींचता है, फल लगने का समय आने पर वह अवश्य ही पछताता है।
सोऽहमाम्रवणं छित्त्वा पलाशांश्च न्यषेवयम् ।
रामं फलागमेत्यवत्वा पश्चाच्छोचामि दुर्मतिः ।।
हे देवी! मैंने भी आम के वृक्ष को काटकर पलाश के वृक्ष को सींचा है। सो फल आने के समय, श्रीराम को त्याग कर मुझ दुष्टमति को भी पछताना पड़ता है।
लब्धशब्देन कौशल्ये कुमारेण धनुष्मता ।
कुमारः शब्दवेधीति मया पापमिदं कृतम् ।।
हे कौशल्ये! मैंने अपनी कुमारावस्था में अपने को शब्दवेधी कहला कर, प्रसिद्ध होने की अभिलाषा से धनुष धारण कर यह पाप किया।
इसके बाद श्रवण की हत्या का प्रसंग बताकर श्रवण के पिता द्वारा दिये गये श्राप के बारे में दशरथजी ने कहा कि श्रवण के पिता ने मुझे श्राप दिया था—
त्वामप्येतादृशो भावः क्षिप्रमेव गमिष्यति ।
जीवितान्तकरो घोरो दातारमिव दक्षिणा ।।
जिस प्रकार दाता को दान का फल अवश्य मिलता है, उसी प्रकार तुमको भी घोर दुःख प्राप्त होगा और उसी दुःख से तुम्हें प्राण भी त्यागने पड़ेंगे।
तदिदं मेऽनुसम्प्राप्त देवि दुःखं स्वयं कृतम् ।
सम्मोहादि बलयेन यथा स्याद्भक्षितं विषम् ।।
सो हे देवी! मैं इस दुःख का कारण स्वयं ही हूं। जिस प्रकार बालक अज्ञानवश विष खा ले, वैसे ही मैंने भी अजान में पाप कर अपना सर्वनाश अपने आप किया है।
व्यक्ति के कर्म ही उसकी प्रसिद्धि के कारण बनते हैं। अशोक वाटिका में सीता को अपना परिचय देते हुये हनुमान ने कहा—
तस्याहं हरिणः क्षेत्रे जातो वातेन मैथिलि ।
हनुमानिति विख्यातो लोके स्वेनैव कर्मणा ।।
हे मैथिली! उसी केसरी नामक वानर की अंजना नामक स्त्री के गर्भ से, पवन द्वारा मेरी उत्पत्ति हुई है और मैं अपने कर्म द्वारा ही अनुमान के नाम से संसार में प्रसिद्ध हूं।
हमें सावधानी पूर्वक अपने हर क्रिया कलाप पर कड़ी नजर रखनी चाहिये। शक्ति मिल जाने पर व्यक्ति सोचने लगते हैं कि अब हम कुछ भी मनमानी करें हमारा कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। इस भ्रम का निवारण करते हुए श्रीराम राक्षस खर से कहते हैं—
उद्वेजनीयो भूतानां नृशंसः पापकर्मकृत् ।
त्रयाणामपि लाकेनामीश्चरोपि न तिष्ठति ।।
(कदाचित् इन पापकर्मों को करते समय तुझे यह नहीं मालूम था कि,) प्राणियों को दुःख देने वाला घातक (अत्याचारी) और पापकर्म करने वाला पुरुष भले ही वह त्रिलोकीनाथ ही क्यों न हो—(अधिक दिनों) नहीं जी सकता। (फिर तुझ जैसे तुच्छ जीव की तो बिसात ही क्या है।
कर्म लाकेविरुद्ध तु कुर्वाणं क्षणदाचर ।
तीक्ष्णं सर्वजनो हन्ति सर्पं दुष्टमिवागतम् ।
हे रजनीचर! लोकविरुद्ध कर्म करने वाले, अत्याचारी को सब लोग वैसे ही मारते हैं जैसे घर में आये हुए दुष्ट सर्प को।
जो इस तथ्य को भूल जाता है वह सनातन सत्ता की उपेक्षा करके अपने अहंकार के कारण दुष्कर्म कर बैठता है और पतित हो जाता है। रावण को समझाते हुए मंत्री माल्यवान कहता है—
प्रथमं वै महाराजा कृत्यमेतदचिन्तितम् ।
केवलं वीर्यदर्पेण नानुबन्धो विचारितः ।।
महाराज! इस पापकर्म को करने के पूर्व तुमने भली भांति विचार नहीं किया। केवल अपने बल के अहंकार से तुमने इस कुकर्म के दुष्परिणाम की ओर ध्यान ही न दिया।
शीघ्रं खल्वम्युपेतं फलं पापस्य कर्मणः ।
निरयेष्वेव पतनं यथा दुष्कृतकर्मणः ।।
जिस प्रकार महापातकियों को शीघ्र नरक में गिरना पड़ता है, उसी प्रकार सीताहरण रूपी पापकर्म का फल तुम्हें शीघ्र मिल गया।
उत्सेकेनाभिपन्नस्य गर्हितस्याहितस्य च ।
कर्मणः प्राप्नुहीदानीं तस्याद्य सुमहत्फलम् ।।
अभिमान में चूर होकर तूने जो निन्दित और अहितकर कर्म किया है, अब उसका फल भी तुझको बहुत बड़ा मिलेगा।
पापी को भी अन्त में होश आता है किन्तु उस समय पश्चाताप से कुछ नहीं होता दंड, मिलकर ही रहता है। रावण के साथ भी ऐसा ही हुआ। अपने अधिकांश सहायकों की मृत्यु के बाद रावण ने सोचा—
तस्यायं कर्मणः प्राप्तो विपाको मम शोकदः ।
यन्मया धार्मिकः श्रीमान्स निरस्तो विभीषणः ।।
हा! मैंने जो धर्मात्मा विभीषण का कहना नहीं माना और उसे अपमान पूर्वक निकाल दिया सो आज उसी दारुण कर्म के फल स्वरूप यह शोकप्रद परिणाम मेरे सामने आया है।
रावण की मृत्यु के बाद मन्दोदरी ने यही निष्कर्ष निकाला कि कोई व्यक्ति कितना ही शक्तिसम्पन्न क्यों न हो कर्मफल के सिद्धान्त से बचकर नहीं रह सकता।
देवा बिभ्यति ते सर्वे सेन्द्राः साग्निपुरोगमाः ।
अवश्यमेव लभते फलं पापस्य कर्मणः ।।
घोरं पर्यागते काले कर्ता नास्त्यत्र संशयः ।
शुभकृच्छुभमाप्नोति पापकृत्पापमश्नुते ।।
इन्द्र अग्नि आदि समस्त देवता तुमसे डरते थे, किन्तु तुरन्त मिले अथवा कुछ समय बाद मिले, कर्त्ता को घोर पाप का फल परिपाक के समय अवश्य मिलता है, इसमें सन्देह नहीं। पुण्यप्रदकर्म करने वाला आनन्द भोगता है और पापकर्म करने वाला दुःख पाता है।
उपरोक्त व्यवस्था को समझकर सावधानी पूर्वक उपयुक्त कर्म का निर्धारण और उस पर आचरण करना चाहिए।