समयदान ही युग धर्म

प्रभावोत्पादक समर्थता

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आम शिकायत एक ही सुनी जाती है कि हम लोगों को सिद्धांतवादी परामर्श देते हैं, वे स्वीकारते नहीं; इस कान से सुनते उस कान से निकाल देते हैं; प्रभाव नहीं पड़ता और जो कहा गया है, उस पर चलने के लिए कोई तैयार नहीं होता।

    असफलता की यह शिकायत पूरी तरह गलत नहीं है। यदि गलत रही होती तो जितने धर्मोंपदेशक आज हैं, पहले दिनों में भी उससे कम नहीं थे, उन्होंने जमाने को बदल दिया होता। कभी देश में प्रधान सात ऋषि थे। वह संख्या तो नगण्य ही थी, पर उनके निजी व्यक्तित्व इतने प्रभावशाली थे कि कहते हैं कि सातों ने सात द्वीपों में- समूचे संसार में धर्म धारणा की ऐसी हवा चलाई, जिससे कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। देश में साधु ब्राह्मण सीमित संख्या में थे पर वे स्थानीय समस्याओं के समाधान के लिए बिखरे हुए देश के कोने- कोने में पहुँचते थे और लोगों को अनगढ़पन से छुड़ाकर कर्मठता और सद्भावना से अनुप्राणित करते थे। जब प्राचीन काल में धर्म प्रचार के जादुई चमत्कार देखने को मिलते रहे हैं, तो आज उस प्रक्रिया के विपरीत शिकायत करनी पड़े, इसके पीछे कोई बड़ा रहस्यमय कारण होना चाहिए। अन्यथा जो बादल पहले पानी बरसाते थे अब क्यों धूलि बरसाएँ और क्यों हर किसी को शिकायत का मौका दें?

    यहाँ समझने योग्य बात एक ही है कि वरिष्ठ व्यक्तित्व ही सामान्यजनों को प्रभावित करते हैं। घटिया लोगों में इतनी क्षमता नहीं होती कि हर किसी को अपने कथन की प्रामाणिकता का विश्वास दिला सकें और उत्कृष्टता के पक्षधर परामर्शों को अपनाने के लिए किसी को सहमत कर सकें।

    वक्ता ऊँचे मंच पर बैठा करते हैं और श्रवण कर्ता उनसे तनिक नीचे बैठे होने पर कही गई बात को आसानी से सुन लेते हैं। यदि वक्ता नीचे गड्ढे में बैठा हो तो ऊपर बैठे श्रवणकर्ताओं तक बात पहुँचाना कठिन होता है। प्रसंग जब आदर्शों को अपनाने का होता है, तो वक्ता को उस उच्चता की कसौटी पर हर दृष्टि से कसे जाने के उपरांत सही सिद्ध होना चाहिए, अन्यथा कथन प्रतिपादन हवा में उड़कर रह जाएगा।

    नौसिखियों को कला- कौशल सिखाने वाला अपने विषय का निष्णात् होना चाहिए। स्कूली अध्यापक भी छात्रों की तुलना में अधिक पढ़े होते हैं। संगीत- सिखाने वाले की योग्यता भी असंदिग्ध होनी चाहिए। शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच तो इतने से भी काम चल जाता है किंतु जहाँ तक आदर्शवादी- सुधारवादी और जीवन में परिवर्तन लाने वाले धर्म- प्रसंगों का सवाल है, वहाँ यह बात अनिवार्य हो जाती है कि उपदेष्टा, जो कुछ दूसरों से कराना चाहे, उसे स्वयं भी दृढ़तापूर्वक आचरण में उतारे। सुधार के प्रसंग में लोग वक्तृता सुनने से कहीं अधिक दिलचस्पी इस बात में लेते हैं कि जो कहा जा रहा है, उसे उपदेशक ने अपने निजी जीवन में किस हद तक अपनाया? देश, धर्म, समाज, और संस्कृति का अभ्युदय इसी पर निर्भर है कि इनसे संबंधित व्यक्ति, संपर्क में आने वालों को अपने व्यक्तित्व की गरिमा से उस विशिष्टता से प्रभावित करे, जो आडम्बर बनाने से नहीं वरन् भावना, श्रद्धा और जीवनचर्या के साथ जुड़ी हुई निष्ठा पर अवलंबित है।

बुरे लोग यदि दबंग होते हैं तो साधारण स्तर के अनेक लोगों को अपने दुर्व्यसनों में सहयोगी बनाने के लिए घसीट लेते हैं। नशेबाजों की मंडलियाँ बन जाती हैं। चोर लफंगे भी गिरोह बना लेते हैं। इसका कारण मात्र यही है कि सूत्र संचालकों की कथनी और करनी में एकता होती है, भले ही वह बुरे स्तर की ही क्यों न हो?

    बिजली के दो तार मिलने पर ही करेंट चालू होता है। कथनी और करनी दोनों के संयोग से ही उपदेश में शक्ति उभरती है। अन्यथा लोग यही मानते हैं कि वह कथन निभाने योग्य नहीं है। वक्ता जब इतने जोर- शोर से अन्यान्यों में बदलाव लेने की बात करता है और उसका महात्म्य फलितार्थ भी उच्च कोटि का बताता है, तो उसे अपने आचरण में क्यों नहीं लाता? इस प्रश्र के उत्तर में दो ही बातें उभरकर आती हैं। एक तो यह कि कथन व्यावहारिक नहीं है; सुधार संभव नहीं है, आम लोग जो रीति−नीति अपनाए हुए हैं वही ठीक है। यदि सुधारवादी कथन ठीक है और उसका मार्गदर्शन करने वाला उपदेष्टा उस स्वयं करने से कतराता है, तो यह समझा जा सकता है कि कहने वाला ठग है। दूसरों से अपना सम्मान कराना चाहता है और स्वयं घटियापन अपनाकर उन लाभों को उठाना चाहता है, जिन्हें स्वार्थपरायण लोग अपने ढंग से अपनाते रहे हैं। यही वह संदेह है जिनके कारण आदर्शवाद के उपदेशकों पर से जन साधारण की निष्ठा उठती जाती है।

    विचारक्रांति वकीलों जैसी दलाली देने से संभव नहीं हो सकती। उससे तो अधिक से अधिक यह हो सकता है कि भ्रांतियों का निवारण बन पड़े। किंतु प्रचलन मात्र इतने से ही नहीं चल पड़ते हैं। उनके पीछे व्यक्तिगत स्वार्थपरता, अहमन्यता, दूसरों के प्रति उपेक्षा जैसी दुष्ट मान्यताएँ भी छद्म रूप से काम कर रही होती है। यदि उन पर अंकुश लगाते न बन पड़े तो तथाकथित सुधारक भी मुखौटे बदलते रहने वाले बहुरूपिये मात्र बनकर रह जाते है। देखा जाता है कि बेटी का विवाह सामने होने पर सभी लोग दहेज विरोधी बनते हैं। पर जब बेटे के विवाह की बारी आती तो प्रकट या गुप्त रूप से लाभ उठाने में चूकते नहीं हैं। यही कारण है कि ‘‘खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं’’ के उद्घोषकर्ता ही समय आने पर मुखौटे बदल लेते हैं और यह अति महत्त्वपूर्ण आंदोलन मात्र प्रोपेगैंडा का उपहासास्पद विषय बनकर रह जाता है।

    धर्मोपदेश देने वाले सच्चे अर्थों में उसका पालन करें तो कोई कारण नहीं कि अनुकरणीयकर्ताओं की कमी रहे। नानक, कबीर जैसे संतों की प्रामाणिकता और प्रखरता भावनाशीलों को असाधारण रूप से आंदोलित करती और असंख्यों को ऐसे अनुयायी बनाती रही है, जो कष्ट- कठिनाइयों से निपटने की कसौटियों पर भी लगातार खरे उतरते रहे हैं।
प्रस्तुत कठिनाइयों से निपटने का लगभग सही स्तर का निर्धारण यह है कि लोकमानस को भ्रांतियों से उबारा और परिष्कार कर विवेकशीलता अपनाने के लिए तर्क, तथ्य, अनुभव और प्रमाण के आधार पर सहमत किया जाए। यही विचारक्रांति है। इसका दूसरा चरण है- क्रियात्मक परिवर्तन। इसे दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों का संवर्द्धन भी कह सकते हैं। प्रवाह को रोकने और उल्टे को उलटने के लिए साहस भरा पुरुषार्थ चाहिए। प्रतिभा परिष्कार इसी का नाम है। यही दो चरण बढ़ाते हुए महाक्रान्ति का लक्ष्य पूरा करना संभव है। सतयुगी प्रचलन के लिए वातावरण बनाना इसी आधार पर बन पड़ेगा।

    निर्णायक निर्धारण यह है कि इसके लिए जीवट के धनी प्राणवान प्रतिभाओं का भावभरा समयदान चाहिए। समयदान को सर्वोत्कृष्ट दान इसलिए माना गया है कि उसमें ईश्वर प्रदत्त समय एवं शरीरगत पुरुषार्थ का, प्रत्यक्ष रूप में श्रम और अंतःकरण की भाव संवेदना का गहरा पुट रहने पर ही यह प्रक्रिया सशक्त रूप में बन पड़ती है। प्रभावी समयदान वही है जिसमें समय, श्रम और संकल्प का त्रिविध समन्वय हुआ है। ऐसा समयदान की युग परिवर्तन की महान प्रक्रिया संपन्न कर सकने में समर्थ हो सकता है।
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