समयदान ही युग धर्म

अवसर प्रमाद बरतने का है नहीं

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मनुष्य शरीर की संरचना अन्य प्राणियों की तुलना में इतनी अधिक समुन्नत है, कि उसे निर्वाहजन्य कोई असुविधा सहन करनी पड़े, इसका कोई भी कारण ही दृष्टिगोचर नहीं होना चाहिए। जब सभी जीव- जंतु क्रीड़ा- कल्लोल करते हुए जीते हैं- कुदकते, फुदकते चहचहाते दिन गुजारते हैं, तो फिर विकसित मनुष्य को ही ऐसी कठिनाइयों से घिरा क्यों पाया जाना चाहिए, जिनसे कि वह इन दिनों बुरी तरह ग्रसित देखा जाता है? रोग, शोक, अभाव, क्लेश, विद्वेष, अशांति के अनेकानेक कारण गर्दन दबोचे रहते हैं। चिंताओं आशंकाओं से दिल धड़कता रहता है। हर कोई अपने- अपने ढंग की अनेकानेक समस्याएँ गिनाता है और आपत्तिग्रस्तों की तरह अपने को दयनीय परिस्थितियों में फँसा पाता है। इसे आश्चर्य ही कहना चाहिए, कि सृष्टि के समस्त प्राणियों की तुलना में हर दृष्टि से सुसम्पन्न प्राणी, इस तरह दिन गुजारे- मानों विपन्नताओं ने सभी ओर से घेर रखा हो?

    तनिक गंभीरता से विचार करने पर कारण स्पष्ट हो जाता है। वासना, तृष्णा और अहंता के निविड़ भव- बंधनों ने उसे ऐसी बुरी तरह जकड़ रखा है, कि चौबीसों घंटे उन्हीं उलझनों द्वारा कसे गए जाल- जंजाल बेतरह त्रास देते रहते हैं। लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति के लिए मनुष्य इतना आकुल- व्याकुल बना रहता है कि ‘‘और अधिक चाहिए’’ के अतिरिक्त न तो कुछ सोचते बनता है और न ऐसा कुछ समाधान ढूँढ़ने के लिए उत्साह उमंगता है, कि मकड़ी की तरह अपने बुने हुए जाल को समेटने और जकड़न से भाग पाने का मार्ग खोजा जा सके।

    स्वाभाविक आवश्यकताएँ स्वल्प हैं। उन्हें कुछ ही घंटों में अपने बलबूते ही पूरा किया जा सकता है। किसी से माँगने की तो आवश्यकता ही नहीं पड़नी चाहिए। अपना उत्पादन ही इतना अधिक है कि उसे यदि उर्वर भूमि में बोया जा सके, तो एक से हजार, हजार से लाख का सिलसिला अनवरत रूप से चलता है और प्रसन्नता से लेकर प्रफुल्लता तक का आनंद हर घड़ी अनुभव किया जा सकता है।

    जीवधारी का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि उसे उल्टी बुद्धि से पाला पड़ता है। फलतः: जिस डाल पर बैठता है, उसी को काटता है। पतंगे को न जाने क्या लगता है कि जलते दीपक पर झपटता है और उससे कुछ पाना तो दूर, अपने पंख जलाकर बिलखता- कलपता हुआ मरता है। चिड़ियों और मछलियों को बिना परिश्रम का चारा सुहाता है, पर यह नहीं दीखता कि इसके साथ कितना प्राण घातक जाल बना है। बालू को जलाशय समझने वाला हिरण, मृगतृष्णा में भटकता प्यास- प्यास करता मरता है और नाहक बदनाम होता है। कस्तूरी के हिरण पर न जाने क्या ऊत चढ़ती हैं, कि नाभि से निकलने वाली गंध को कहीं अन्यत्र खोजना और थक- थक कर दम तोड़ता है। कुत्ता सूखी हड्डी चबाकर मुँह से निकलने वाले रक्त को उसका रस समझकर अपने खून का प्यासा आप बनता है।

मनुष्य से यह आशा की जाती है कि वह बुद्धिवादी कहे जाने के कारण अधिक समझदारी का परिचय देगा। देता भी है, किंतु जहाँ तक लालच बटोरने का प्रश्न है, वह उस पागल जैसा आचरण करता है, जो कूड़े में से निरर्थक चीजें बीनकर झोली भरता है और फिर उसमें आग लगाकर लपटें उठाने की सफलता पर अट्टहास करता है। अंधी भेड़ें एक के पीछे एक चलती और एक ही खड्ड में गिरकर मरती है। टिड्डियों का समुदाय तो बड़ा होता है, पर जब वह उड़ने योग्य होता है तो किसी भी दिशा में दौड़ पड़ता है। फलतः: वे सभी किसी रेगिस्तान में हुलसती या समुद्र जैसे जलाशय में डूबकर मरती है। ऐसा ही कुछ मनुष्य भी करने लगे तो हैरत होती है, कि बाहरी दुनिया में चकित कर देने वाली करामातें दिखाने वाला मनुष्य, अपनी बारी आने पर क्यों इतना मूर्ख बनता है, कि खुशी से आत्मघात करने के लिए साज सँजोए और रोकने- समझाने वाले से ताल ठोक कर लड़ने आए।

    चतुरता और बुद्धिमत्ता को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक वह है कि जो दुनियाँ के अन्यान्य क्रिया- कलापों में किसी भी प्रकार सफलता प्राप्त कर दिखाती है। इसके ऊपर नीति अनीति का दबाव प्राय: नहीं के बराबर होता है। जिस प्रकार भी अपना उल्लू सीधा होता है, उसी को बहिरंग पक्ष ग्राह्य मानता है और बिना किसी हिचक के कर दिखाने के जमीन- आसमान के कुलाबे मिलता है।

    मनुष्य का अंतरंग पक्ष वह है, जिसमें मर्यादा को प्रमुखता मिलती है। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी, की कसौटी पर कसने के उपरांत ही कोई निर्णय किया तथा कदम उठाया जा सकता है। इसमें अपनी तरह दूसरों के हितों का भी ध्यान रखा जाता है इस संदर्भ में आत्मा का, परमात्मा का अभिमत भी सुना जाता है।

    इन दिनों बहिरंग पक्ष को ही प्रमुखता मिल रही है। यदि गौरवर्ण, युवावय और साज- सज्जा आकर्षक हो, यह देखने की आवश्यकता नहीं समझी जाती कि पर्दे के पीछे एड्स, सिफिलिस, टी.वी., कैंसर जैसे रोगों के विषाणु संपर्क में आने वाले पर छूत का आक्रमण करने को तैयार तो नहीं बैठे हैं? चालाक और उद्दंड व्यक्ति हर कहीं रौब गाँठते और किसी को भी डराने- दबाने में सफल होते हैं। संपन्नों में भी अधिकांश लोगों की संपदा औचित्य के सहारे की कमाई हुई नहीं होती। नेतृत्व स्तर की आदर्शवादी स्पीचेज झाड़ने वाले, बहुधा रंगे सियार और बगुला भगत पाए जाते हैं। इसके ठीक विपरीत ऐसे लोग भी होते हैं, जो प्रामाणिकता और प्रखरता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए बड़े से बड़ा कष्ट सहने और ऊपर से दूनी कीमत चुकाने के लिए भी तैयार होते हैं। उनकी काया नहीं, चरित्र प्रेरणा का स्त्रोत बनता है और असंख्यों को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने में सफल होता है। इसलिए महामानवों को ऐसे ही लोग गढ़ते और मानवीय उत्कृष्ट आदर्शवादिता की रक्षा करते हैं।

    किंतु उन अनगढ़ों को क्या कहा जाए जो चतुरता, विडंबना और ठाठ- बाट की सज्जा के अतिरिक्त और किसी का लोहा मानने के लिए ही तैयार नहीं होते? बहुमत इसी विडंबना का होने से, लोगों का झुकाव भी उन्हीं की ओर पाया जाता है। इसलिए तथाकथित लोकमत को न तो मान्यता दी जा सकती है और न उसके अनुसरण से मानवी गरिमा की रक्षा ही होती है।

    बड़ों का विस्तार देखकर चमत्कृत होने की अपेक्षा, औचित्य इसी में है कि महानता का अवलंबन लिया और अभिवन्दन किया जाए; भले ही वह दुर्बल या पराजित ही क्यों न रही हो।

    यहाँ चर्चा बड़ों की नहीं की जा रही है, क्योंकि वे पानी के बबूले की तरह उबलते और तनिक- सी उछल- कूद दिखाकर अदृश्य के गर्त में समा जाते हैं। यहाँ विवेचन उनका हो रहा है, जिन्हें किसी भूखंड या समुद्र में दीप्तिमान प्रकाश स्तंभ कहते हैं। शेषनाग फन पर धरती को धारण किए है या नहीं, इसमें मतभेद हो सकता है; पर यह बात निर्विवाद है कि मनुष्यता की गरिमा और महिमा मात्र उन आदर्शवादियों के कंधे पर टिकी हुई हैं, जिनसे चिरस्थायी शांति और प्रगति की आशा की जा सकती है। विचारशील और विवेकवान इन्हीं को कहा जा सकता है।

चतुर लोग प्रचलित क्रिया- कलापों में अपनी विशिष्टता का परिचय देते और जिस- तिस प्रकार लाभ अर्जित कर दिखाते हैं किंतु विवेकवानों को तो वही सोचना एवं कराना पड़ता है, जिससे मर्यादाएँ निभती रहें और शालीनता की उमंगें उभरती रहे; ऐसे गौरवशाली मान्यता के धनी लोगों के सामने तीन समस्या प्रमुख रहती हैं। एक यह कि अन्य प्राणियों के लिए सर्वथा दुर्लभ इतना कलात्मक जीवन सृष्टा ने किस प्रयोजन के लिए प्रदान किया तथा उस विशिष्ट अनुदान का अधिकारी समझा? दूसरा यह कि जो आवश्यक साधन एवं वैभव प्राप्त है, उसका आज की परिस्थितियों में सर्वश्रेष्ठ उपयोग क्या हो सकता है? तीसरा यह कि जन्म की तरह मरण निश्चित है। वह कल भी हो सकता है और परसों भी। तब जिस दरबार में हाजिर होना होगा, वहाँ किस प्रकार, किस रूप में अपनी जीवनचर्या का निर्धारण प्रस्तुत करना पड़ेगा? इन तीन प्रश्नों का सही उत्तर देने के लिए, जो व्यक्ति परीक्षार्थी जैसी तैयारी करता है, जो सही उत्तर देकर ससम्मान उत्तीर्ण होता है, समझा जाना चाहिए कि उसने मनुष्य जीवन के महत्त्व को समझा और तदनुरूप व्यवहार करके उपलब्धियों को सार्थक कर दिखाया। ऐसे लोग संख्या में भले ही थोड़े हों, पर प्रतिभा प्रखरता और प्रामाणिकता से संपन्न उन्हें ही कहा जाएगा।

    जिन्हें इन प्रश्नों से कुछ लेना- देना नहीं है, जो इस तरह कभी सोचते नहीं, सोचने की आवश्यकता नहीं समझते, फुरसत नहीं पाते वे मनुष्य समुदाय के घटक तो हो सकते हैं, पर वे वस्तुतः: किसी अन्य लोक के प्राणी ही कहे जा सकते हैं। व्यंग में उन्हें पृथ्वी के यक्ष, गन्धर्व, किन्नर भी कह सकते हैं। फूहड़ शब्दों में इन्हें बड़े आदमी चतुरता के धनी, बहेलिये, कलावंत भी कहा जा सकता है। वे अपनी चतुरता के बल पर, खोटे सिक्के की तरह दाँव लगाते ही चले तो जाते हैं, पर मनुष्यता की हर कसौटी पर अनुपयुक्त ही सिद्ध होते हैं। खरे सोने वे हैं जो कसौटियों पर कसे जाने और आदर्शों की आग में तपने पर भी अपनी गरिमा अक्षुण्य बनाए रहते हैं। वही तो पवन की तरह प्राण बाँटते हैं, बादलों की तरह बरसते और सूर्य की तरह स्वयं प्रकाशवान- गतिशील रहकर, हर कहीं आभा और ऊष्मा बिखेरते हैं। इन्हीं के लिए उन तीन प्रश्नों का उत्तर सही रूप दे सकना संभव होता है कि जीवन किसलिए मिला है? उसके साथ किन कर्तव्य उत्तरदायित्वों का अनुबंध जुड़ा? और सृष्टा के दरबार में पहुँचने पर, गर्दन ऊँची उठाकर अपने क्रिया कलापों का संतोषजनक विवरण प्रस्तुत करते बन पड़ा?

    पेट प्रजनन के लिए तो कृमि- कीटक भी जी लेते हैं। दोनों प्रयोजनों को वे अधिक निश्चिंततापूर्वक पूरा करा लेते हैं। फिर मनुष्य जीवन जैसी सुर दुर्लभ, सृष्टा की अनुपम कला कृति का भी निष्कर्ष इतना ही निकला, तो समझना चाहिए कि दुर्भाग्य की चरम सीमा हो चली। मनुष्य का अगला स्तर देवता है। उसकी प्रगति के लिए उपयुक्त पद यही है। इसके विपरीत चौरासी लाख के कुचक्र में भ्रमण करना और नारकीय दुर्गति में पिटते- पिसते रह जाना ही शेष रह जाता है। अच्छा हो उल्टा चलने और औंधे मुँह गिरने की नीति नहीं अपनाई जाए।

    साधारण समय में साधारण रीति से भी सोचा और धीमा कदम उठाया जा सकता है; किंतु कभी- कभी ऐसे समय भी आते हैं, जिनमें निर्णय तुरंत करने और कदम अविलम्ब उठाने पड़ते हैं। पड़ोस में अग्निकाण्ड भड़क रहा हो और उसकी चिनगारियाँ अपने छप्पर तक पहुँच रही हों, तो ऊँघते नहीं रहा जा सकता। गाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी हो, गार्ड की सीटी बजने वाली हो, तो चढ़कर, अपनी जगह पकड़ने में फुर्ती ही दिखानी पड़ती है। परीक्षा की अवधि में पूरी एकाग्रता से पर्चे हल करने पड़ते हैं। उन क्षणों कुकल्पनाओं में निरत रहना भारी घाटे का सौदा होता है। दुर्घटना घटित होने पर आहत का उपचार तुरंत करना पड़ता है, अन्यथा रक्त स्राव न रुकने पर प्राण संकट का खतरा स्पष्ट है।

    इन दिनों ऐसा समय है जिसमें एक पैर उत्थान की और दूसरा पतन की नाव पर रखा है। दोनों में से एक का चयन करने में विलंब नहीं किया जा सकता। अन्यथा विपरीत दिशा में जाने वाली नौकाएँ नासमझ वाले मुसाफिर का कबाड़ा ही बनाकर रख देंगी। गया समय फिर वापस लौटता कहाँ है? हनुमान ने, विभीषण ने, अर्जुन ने, बुद्ध ने अपने निर्णय तत्काल कर लिए थे। यदि वे बात को फिर कभी के लिए टालते रहते, तो उस सुयोग से वंचित ही रह जाते, जो उन्हें समय को पहचान लेने के कारण सरलतापूर्वक उपलब्ध हो सका। फसल के बोने और काटने की कुछ दिन की अवधि निर्धारित रहती है। जो उसे गँवा देते हैं उनके हाथ से फसल की आधी कमायी निकल जाती है। प्रमाद यों सदा ही अतिशय घाटे का निमित्त कारण है, पर कई बार अलभ्य अवसर सामने होता है और वह अवसर अन्यमनस्कता तनिक भी सहन नहीं करता। घुड़दौड़ में अच्छे घोड़ा वाला भी यदि अस्त- व्यस्त गति का हो, तो उसके हाथ पराजय के अतिरिक्त और क्या लगने वाला है? नारद का परामर्श मानने में जिन्होंने आना- कानी नहीं की वे ध्रुव, प्रहलाद, उमा, सावित्री की तरह अजर- अमर हो गये। अन्यथा मूढ़ मति, बहुमूल्य संकेतों और संदेशों को भी इस कान सुनते और उस कान निकालते रहते हैं। ज्ञान की सार्थकता कर्म के साथ जुड़ने पर ही बन पड़ती है इस प्रयोजन को चरितार्थ करने का ठीक यही समय है।
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