युग परिवर्तन में प्रतिभावान मनुष्यों का पराक्रम तो प्रमुख होगा ही, साथ
ही दैवी सत्ता का सहयोग भी कम न रहेगा। प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदलने
के लिए सृष्टा की अदृश्य भूमिका भी अपना कार्य असाधारण रूप से संपन्न
करेगी।
युग परिवर्तन के इस पराक्रम में दुष्प्रवृत्तियों का
उन्मूलन और सत्प्रवृत्ति संवर्धन- ये दो ही प्रधान कार्य हैं, पर उनकी शाखा
प्रशाखाएँ, क्षेत्रीय परिस्थिति के अनुरूप इतनी अधिक बन जाती हैं, कि
उन्हें अगणित संख्या में देखा जा सकता है। चिंतन, चरित्र और व्यवहार की
उलट- पुलट एक बड़ा काम है, जिसका समस्त संसार में विस्तार करने के लिए
अगणित सृजन- शिल्पी चाहिए।
युगसंधि के इन बारह वर्षों में अपना
परिवार कितना कुछ कर सकेगा, इसकी एक मोटी रूपरेखा बनाई गई है और उसे
कार्यान्वित करने की तत्परता चल पड़ी है।
एक लाख सृजन शिल्पी
बनाए जा रहे हैं, हर परिवार पीछे एक सिख, एक सैनिक, एक साधु निकाले जाने की
परंपरा अपने समाज के कई वर्गों में चलती रही है। इस उत्साह को पुनर्जीवित
किया जा रहा है और ढेरों व्यक्ति शांतिकुंज में प्रशिक्षित किए जा रहे हैं।
उनका परिवार कोई कुटीर उद्योग अपनाकर निर्वाह चला लिया करे और परिवार की
ओर से समाज को अर्पित किया व्यक्ति निश्चिन्ततापूर्वक सेवा कार्य में लगा
रहे, तो उसके लिए वेतन व्यवस्था की चिंता न करनी पड़ेगी। मात्र दस- बीस
पैसा और एक- दो घंटा समय नित्य अंशदान के रूप में निकालने की परंपरा भी
आवश्यक कार्यों की पूर्ति कर दिया करेगी।
प्रतिभाओं को परिष्कृत
करने, सूक्ष्म वातावरण को अनुकूल बनाने और सृजनात्मक प्रवृत्तियों के
प्रचंड गति देने के लिए, ‘‘युग संधि पर्व पर एक सुनियोजित ‘‘धर्म यज्ञ’’
शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में आरंभ किया गया है। यह निर्धारित अवधि तक नियमित
रूप से चलेगा एवं उसकी पूर्णाहुति इक्कीसवीं सदी के आरंभ में एक करोड़
साधकों द्वारा संपन्न होगी। तब तक इतने भागीदार विनिर्मित हो चुके होंगे।
वे जब एकत्रित होंगे और या वेदी पर भावी क्रियाकलापों का संकल्प लेकर
लौटेंगे, तो विश्वास किया जा सकता है कि अपने परिवार का वह पुरुषार्थ भी
स्वर्ग से धरती पर गंगा को उतार लाने वाले भागीरथी प्रयास की समानता करेगा।
शेष काम अन्य लोगों का है। युग निर्माण परिवार से बाहर भी तो असंख्य
भावनाशील प्रतिभाएँ हैं, वे भी चुप क्यों बैठेगी? उनका प्रयास युग निर्माण
परिवार से कम नहीं अधिक ही होगा और लक्ष्य तक पहुँचने की प्रक्रिया पूरी
होकर ही रहेगी।’’
सन् १९५८ में गायत्री तपोभूमि मथुरा में सहस्र
कुंडी गायत्री महायज्ञ संपन्न हुआ था, उसमें उपस्थित लाखों साधकों को उनके
हिस्से का काम बाँट दिया गया था। उसी धक्के का परिणाम है कि इतनी दूरी तक
गाड़ी लुढ़कती चली गई है और इस बीच इतना कार्य बन पड़ा है, जिसका लेखा-
जोखा लेने वाले आश्चर्यचकित होकर रह जाते हैं, प्रयासों को अनुपम बताते
हैं।
अब हमारे जीवन का अंतिम पुरुषार्थ युग संधि महापुरश्चरण की पूर्णाहुति के
रूप में चलेगा। एक करोड़ साधक- भागीदार अपने जिम्मे अगले दिनों करने के लिए
जितना दायित्व स्वीकार कर रहे हैं। उसे देखते हुए हिसाब लगाया जा सकता है
कि वे सन् ५८ के समय लिए गए संकल्प की तुलना में वे पच्चीस गुने अधिक
होंगे। अर्थात् नए २५ युग निर्माण स्तर के प्रयास नए सिरे से चल पड़ेंगे और
अधिकांश जन समुदाय को नव चेतना से आंदोलित करेंगे।
यह कहा जाता
है कि अगले बारह वर्षों तक वर्तमान प्रक्रिया का संचालन करने के लिए हम
जीवित न रहेंगे, तब इतनी बड़ी योजना का कार्यान्वयन कैसे होगा? इस संदर्भ
में हर प्रश्नकर्ता को ध्यान में रखना चाहिए, कि हमारे द्वारा बन पड़े
परमार्थों में ९९ प्रतिशत दैवी चेतना सहयोग करती रही है। इस शरीर से तो एक
प्रतिशत जितना कुछ बन पड़ा है। अगले दिनों प्रेरक सत्ता अपना काम करेगी और
जो हम जीवित रहकर कर सकते थे, उससे सैकड़ों गुनी सुव्यवस्था अपने बलबूते
चला लेगी। चिंता या असफलता का अवसर किसी को देखने के लिए नहीं मिलेगा।
अगले दिन अति महत्त्वपूर्ण हैं, उनमें हमारे कंधों पर आया भार भी अधिक
बढ़ा है। उसे इस वयोवृद्ध स्थूल शरीर से कर सकना संभव न होगा। हाड़- माँस
की काया की कार्य क्षमता सीमित ही रहती है। सूक्ष्म शरीर से हजार गुना काम
अधिक हो सकता है। जूझने और सृजन के दुहरे मोर्चे पर जितना करना- कराना
पड़ेगा, उसके लिए सूक्ष्म और कारण शरीर का आश्रय लिये बिना गुजारा नहीं।
जिम्मेदारी बहुत अधिक बढ़ी है, इसलिए काया स्वस्थ होते हुए भी उसे छोड़कर
शान्तिकुञ्ज काया का आश्रय अनिवार्य हो जाता है। समझा जाना चाहिए कि व्यापक
क्रिया- कलापों का निर्वाह करते हुए भी हम शान्तिकुञ्ज और उनके साथ जुड़ी
हुई जिम्मेदारियों को पूरा करने में तनिक भी प्रमाद नहीं बरतेंगे। सब कार्य
यथावत ही नहीं वरन् और भी अच्छी तरह सम्पन्न होते रहेंगे। एक करोड़ साधकों
वाली पूर्णाहुति भी पूरी होकर रहेगी और उसके आवश्यक साधन भी जुट जाएँगे।
हमें अपने हिस्से के कार्यों की चिंता है, परिजन अपनी जिम्मेदारी की चिंता
करें तो इतना ही बहुत है।
वर्तमान परिजनों में प्रत्येक से कहा
गया है कि वे इन दिनों जितनी सेवा- साधना और ध्यान धारणा बढ़ा सके बढ़ा
लें। साथ ही ‘‘एक से पाँच, पाँच से पच्चीस वाले उपक्रम का भी ध्यान रखें।
अभी तो सभी परिजन निजी जिम्मेदारी उठाने वाले भागीदार मात्र हैं। अगले
दिनों उन्हें अपने प्रेमी- साथी और बनाने हैं, तभी पूर्णाहुति के वर्ष तक
पच्चीस हो सकेंगे। जिनके तत्त्वावधान में पच्चीस भागीदार होंगे, उन्हें
संरक्षक गिना जाएगा और उनका स्थान अधिक प्रमाणित माना जाएगा। पच्चीस न भी
बना सकें तो भी कम से कम पाँच भागीदार तो हर किसी को बना ही लेने चाहिए,
ताकि एक करोड़ संख्या पूरी होने में कमी न पड़ने पाए।
उद्यान
लगाने वालों की पीढ़ी दर पीढ़ी उसका लाभ उठाती रहती है। समझा जाना चाहिए कि
युग संधि पुरश्चरण को खाद पानी देने वाले, किए गए प्रयास की तुलना में
कहीं अधिक लाभ प्राप्त करेंगे। उतनी ही नहीं, उनके पुण्य से उनकी अगली
पीढ़ियाँ भी मोद मनाती रहेंगी। इस अलभ्य अवसर से जो चूकेंगे, उन्हें यही
पश्चाताप ही कचोटती रहेगा, कि एक ऐतिहासिक सुयोग का अवसर आया था और हमने
उसकी अपेक्षा कर उसे आलस्य प्रमाद में गवाँ दिया। आशा की गई है कि वर्तमान
परिजनों में से कदाचित् ही कोई ऐसे रहें, जिनसे युग- धर्म का वर्तमान
निर्वाह न बन पड़े, जो समयदान अंशदान से जी चुराए।
प्रस्तुत
पुरश्चरण मात्र भारत तक सीमित नहीं है। इसमें अन्य देशों और धर्मों के लोग
भी प्रसन्नतापूर्वक सम्मिलित हो सकते हैं। साधक अपना पंजीकरण एक परिपत्र पर
अपना नाम, पता, साथी भागीदारी की संख्या व उनके नाम पते लिखकर भेज दें।
यहाँ से उनकी पंजीयन क्रमांक सूचित कर दी जाएगी। उसी आधार पर भावी पत्र
व्यवहार चलेगा।