समयदान ही युग धर्म

दृष्टिकोण बदले तो परिवर्तन में देर न लगे

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कब किस दान की महिमा अत्यधिक बढ़ी- चढ़ी मानी जाती है? इस प्रश्न के उत्तर में एक ही बात कही जा सकती है, कि जब जिस विपत्ति का अत्यधिक प्रकोप हो, तब उसके निराकरण का उपाय ही सर्वश्रेष्ठ दान है। प्यास से संत्रस्तों को पानी, भूख से तड़पतों को अन्न, अग्निकाण्ड का शमन करने के लिए जल, बाढ़ की चपेट से घिरों को नाव, दुर्घटनाग्रस्तों को चिकित्सा उपचार जैसे उन साधनों की आवश्यकता पूर्ति की जाती है, जिसके कारण संकटग्रस्तों को अत्यधिक त्रास सहन करना पड़ रहा हो।

    वर्तमान समय में आस्था संकट के रूप में घोर दुर्भिक्ष, जन- जन के ऊपर प्रेत- पिशाच की तरह चढ़ा हुआ है। लोग बेतरह भूल- भुलैयों में भटक रहे हैं। दृष्टिकोण में ऐसी विकृति समा गई है कि उल्टा- सीधा और सीधा- उल्टा दीखता है। कौरवों को नवनिर्मित राजमहल में प्रवेश करते समय जल में थल और थल में जल दीख पड़ा था। इस कारण वे मतिभ्रम में पड़े, दुर्गति को प्राप्त हुए और उपहासास्पद बने। सोचा इस प्रकार जाना चाहिए कि एकता और समता की मान्यता अपनाई जाए। मिल- बाँट कर खाया जाए, हँसते- हँसाते रहा जाए। सहयोग और सहकार की रीति- नीति अपनाई जाए। वह बरताव दूसरों के साथ न किया जाए जो हमें अपने लिए पसंद नहीं। हर कोई अपनी प्रामाणिकता अक्षुण्ण रखे। अनीति न कोई करे न सहे। न कोई अमीरी का अहंकार जताए और न किसी को अभावग्रस्त रहने के लिए बाधित रहना पड़े। चरित्र में शालीनता और व्यवहार में सज्जनता का गहरा पुट रहे। मानवी गरिमा के उपयुक्त मर्यादाओं के परिपालन में कोई कोताही न बरते और न वर्जनाओं के उल्लंघन की उद्दंडता बरतने की छूट किसी को मिले। उच्च विचारों को मान्यता देते हुए, सादा जीवन जीते हर किसी को देखा जा सके । मानवी कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के परिपालन के लिए समाज व्यवस्था बने और उसका पालन करने के लिए हर किसी को सहमत अथवा बाधित किया जा सके।

    किंतु जो चिंतन, प्रचलन, व्यवहार एवं लक्ष्य अपनाया जा रहा है, वह लगभग उलटे स्तर का है। हर किसी को आपाधापी पड़ी है। जो जितना भी, जिस प्रकार भी बटोर सकता है, उसमें कमी नहीं रहने दे रहा है। साथ ही जो उपलब्ध है, उसका थोड़ा उपयोग करने में ही अहंकार की पूर्ति मानी जा रही है। उद्दंडता ही समर्थता का पर्यायवाचक बनने का प्रयत्न कर रही है। आदतों में घुसी- पड़ी विकृतियाँ अशांति और उद्विग्नता को दिन- दिन बढ़ावा दे रही है। असंतोष, खीझ, थकान निराशा के साथ- साथ आक्रमण और प्रतिरोध का कुचक्र ऐसा चल रहा है, जिसका ओर- छोर कहीं दीख नहीं पड़ता।

    विज्ञान भी बढ़ा और बुद्धिवाद भी। पर दोनों के ही दुरुपयोग से बीमारी, गरीबी, बेकारी निरंतर बढ़ रही है। प्रदूषण की विषाक्तता जीवन के लिए चुनौती बन रही है। नशेबाजी, प्रपंचों की बहुलता के प्रचलनों को देखते हुए, प्रतीत होता है कि लोग धीमी गति से सामूहिक आत्म हत्या की योजनाबद्ध तैयारी कर रहे हैं। इस सबका निष्कर्ष एक शब्द में ‘‘बुद्धि विपर्यय’’ कहा जा सकता है। आस्था संकट यही है।

अपने समय मेें सबसे बड़ा अभाव और कष्ट यह है कि लोगों को मानवोचित स्तर पर सोचना और तदनुरूप क्रिया-कलापों का जीवन में ढाल सकने में सफल होना कठिन जान पड़ता है। पानी ढलान की ओर से सहज बह निकलता है, पर उसे ऊँचा उठाने में असाधारण कठिनाई का सामना करना पड़ता है। सत्साहस के क्षेत्र में चरम सीमा की दुर्बलता छाई हुई है। भ्रष्ट चिंतन अपनाते ही दुष्ट आचरण बन पड़ने का सिलसिला तो तेजी से चल ही पड़ता है। यही सामाजिक विकृतियों की उद्गम स्थली है, जहाँ उभरने वाला प्रवाह अपने प्रभाव में कीचड़ ही कीचड़ भरता है। पाचन तंत्र खराब हो जाने पर बढ़ती हुई विषाक्तता, असंख्यों आकार-प्रकार के रोग उत्पन्न करने लगती है। ठीक इसी प्रकार विकृत चिंतन का अंधड़ उमड़ पड़ने पर आँखों में धूल भर जाती है और यथार्थता को सही रीति से देख पड़ना कठिन पड़ता है। क्रियाएँ स्वत: ही नहीं बन पड़ती। उनके पीछे आकांक्षाओं, मान्यताओं एवं विचारधाराओं का गहरा पुट रहता है। शरीर मन का वाहन है । उसे वही करना पड़ता है, जिसके लिए मन रूपी संचालक उसे निर्देश देता और दबाव डालता है। कठपुतली को बाजीगर के इशारे पर ही तो नाचना पड़ता है।

    सुधार उपचार करना हो तो एक ही उपाय अपनाना पड़ेगा कि कुविचारों के प्रभावों को मोड़ा और उसकी दिशा धारा को सदुद्देश्यों के साथ जोड़ा जाए। इतना बन पड़ने पर वह सरल हो जाएगा, जो इन दिनों सर्वत्र अपेक्षित है। यहाँ चेचक की फुंसियों पर मरहम न लगाने के लिए नहीं कहा जा रहा है पर प्रतिवेदन यही प्रस्तुत किया जा रहा है कि उस रक्त विकार का भी उन्मूलन किया जाए, जो चेचक से लेकर गलित कुष्ठ तक अनेकानेक विकृतियों का मूल कारण बन जाता है। नाली के ऊपर चूना छिड़क देने से काम नहीं चलता। उसमें भरी हुई सड़ी कीचड़ की परतें उठाने और पानी की तेज धार से उसे बहाने की आवश्यकता पड़ती है। अन्यथा चूना छिड़कने से क्षणिक संतोष भर किया जा सकता है। किंतु विषाक्त कृमि-कीटकों का निरंतर चल रहा उत्पादन स्थायी रूप से रोका न जा सकेगा।

    संसार के कोने-कोने में स्थानीय परिस्थितियों और प्रचलनों के अनुरूप असंख्यों प्रकार की अवांछनीयताएँ अनेक रूपों में उभरती देखी जाती हैं। सोचने वाले उन सबको स्वतंत्र समस्या समझकर सामयिक एवं स्थानीय उपाय ही अपनाते हैं। इसका परिणाम आहत स्थान पर सुन्न करने वाले लेप लगा देने जैसा होता है। हाथों-हाथ तो कुछ सुधार दीख पड़ता है, पर जैसे ही उस लेप का प्रभाव हलका होता है, व्यथा ज्यों को त्यों फिर उभर आती है। इस खिलवाड़ में समय नष्ट करते रहने की अपेक्षा, उपयुक्त यही है कि विचारक्रान्ति का तूफानी सरंजाम जुटाया जाए और उसे प्रचंड बनाया जाए। प्राकृतिक सफाई तो तूफानी अंधड़ और घटाटोप वर्षा का प्रबल प्रवाह ही व्यापक रूप से संपन्न कर पाता है। यों घर-आँगन में बुहारी लगाकर सफाई की चिह्न पूजा तो किसी प्रकार होती ही रहती है?

    भटकाव में पड़ने की अपेक्षा हमें लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए और उसे प्राप्त करने के लिए अपनी समूची तन्मयता एवं तत्परता को उसी में नियोजित करना चाहिए। इसके लिए तर्क और तथ्यों पर आधारित यथार्थता का प्रबल प्रतिपादन बहुत हद तक काम दे जाता है। इन शताब्दियों में प्रजातंत्र और साम्यवाद की विचारधारा दो मनीषियों ने इस प्रकार प्रस्तुत की है, कि उन्होंने संसार के दो तिहाई मस्तिष्कों को अपने प्रभाव की परिधि में जकड़ लिया। जो एक तिहाई शेष है, वे अपने निहित स्वार्थों की वकालत प्रकट करते देखे जाते हैं। विरोध उनका ऐसा उथला होता है कि जिसका खंडन किए जाने पर बगलें झाँकने और खींसें निपोरने के अतिरिक्त और कुछ नहीं बन पड़ता। शालीनता की पक्षधर विचारक्रांति की दृढ़ता और यथार्थता के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। उसके प्रयोग जहाँ कहीं, जितनी सशक्तता के साथ प्रयुक्त किए गए हैं, उन्होंने अपना चमत्कारी प्रतिफल प्रस्तुत किया है। यह बात अलग है कि संकीर्ण स्वार्थों का समूह उनके साथ पूर्वाग्रह की तरह जुड़ा हुआ हो और जैसा प्रभाव परिणाम हो सकता था वैसा न हुआ हो। विचारक्रांति का ही परिणाम है कि उसके एक झकझोर ने इन्हीं दिनों राजशाही, सामंतशाही, साहूकारी व्यवसाय, जातिगत, ऊँच-नीच दास-दासी प्रथा जैसे चिरकाल से जड़ जमाए बैठे अनौचित्यों को जड़ मूल से उखाड़कर फेंक दिया है। अब उनके खंडहरों पर इतिहास के विद्यार्थियों की ही नजर पड़ती है। पुरातन काल जैसा वैभव और जलजला उनका कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता।

    कई विचारक्रांति में व्यक्तित्वों का परिमार्जन प्रमुख है। इन दिनों निजी जीवन में व्यक्तिवादी संकीर्ण स्वार्थपरता का बोलबाला है। इनके स्थान पर प्रतिष्ठापना यह की जाती है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसकी समाजनिष्ठा अक्षुण्ण रहनी चाहिए। भले ही इसके लिए निजी लोभ, मोह और अहंकार को नियंत्रित-अनुबंधित करना पड़े। नीर-क्षीर विवेक वाली दूरदर्शिता को प्रश्रय मिले, भले ही इसके लिए कितने ही पुराने प्रचलनों को ताक पर उठाकर रखना पड़ता हो। जन-जन को ऐसी रीति-नीति अपनाने के लिए बाधित किया जाए, जिससे मानवी गरिमा के साथ जुड़ी हुई सद्भाव संपन्न शालीनता के अनुरूप ही आचरण करते बन पड़े। सहकार, शिष्टाचार, सज्जनता के उदार समावेश का हर कार्य में भली प्रकार संपुट हो। बड़ी मछली छोटी को खाती है, यह एक उद्धत उदाहरण है। आमतौर से तो दुर्बलों,, अबोधों पर स्नेह सहयोग ही बरसता है। यदि यह परंपरा न रही होती तो हर मानव अपनी संतान का भक्षण कर रही होती और सृष्टि का समापन अब से बहुत पहले ही हो गया होता।

इन दिनों मनुष्य की निजी आदतों से लेकर समाज, शासन, व्यवसाय आदि में अवांछनीयता के ऐसे तत्त्वों का असाधारण रूप से समावेश हो गया है। जिन्हें पनपना नहीं चाहिए था, आवश्यकता इसी सफाई की है। इसके लिये प्रतिभाशाली हर व्यक्तित्व को अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप योगदान देना पड़ेगा। मनीषियों की लेखनी और वाणी को सशक्त अस्त्र-शस्त्रों की भूमिका निभानी चाहिए। वक्ता की वाणी इतनी मुखर होनी चाहिए, कि उसकी यथार्थता मिश्रित ओजस्विता हर सुनने वाले को ध्यान देने और अनौचित्य से विरत होने के लिए बाधित कर सके। युग गायक सरसता की ऐसी स्वर लहरी निर्धारित कर सकता है, जिससे उसके ऊपर लगा, कामुकता भड़काने का कलंक धुल सके । धनिकों के लिए प्रायश्चित का ठीक यही समय है। व्यक्तिगत संपदा को शासकों से लेकर ईर्ष्यालुओं तक कोई भी सहन नहीं करेगा। अगले दिनों की उथल-पुथल में यह बिजली सबसे पहले संचित-संपदा पर ही गिरेगी, क्योंकि अनेकानेक समस्याओं, संकटों और विडम्बनाओं का प्रमुख कारण लोभ-लिप्सा को ही माना जाता रहा है। अच्छा हो जिसके पास अनावश्यक संग्रह है वे उसे युग धर्म की पुकार को सुनने समझने के उपरांत उसी हेतु विसर्जित कर दें।

    जन मानस को प्रभावित करने वाले और भी अनेक तंत्र हैं। इसमें प्रेस ने अपना मजबूत स्थान बना लिया है। अभिनय भी बल कौशल का प्रतीक प्रतिनिधि बनकर रह रहा है। जिनमें नेतृत्व कर सकने की प्रतिभा हो, वे उसे अपनी विशिष्टता सिद्ध करने के लिए यत्र-तत्र लोलुपता में खर्च न करें; वरन् लोकमानस के साथ गुँथकर ऐसा प्रबल प्रयत्न करें कि बुद्ध, गाँधी, शंकर, दयानंद, विवेकानंद, विनोबा की तरह सही मार्गदर्शन की आवश्यकता पूरी कर सकें । इस संबंध में किसी को भी अपनी क्षमता कम करके नहीं आँकनी चाहिए। टिटहरी का समुद्र सुखाने का संकल्प अगस्त्य की सहायता से पूरा होकर रहा था। कार्लमार्क्स, लेनिन, रूसो जैसे विचारक किसी यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक नहीं थे। कबीर और रैदास जैसों ने यथार्थता के प्रतिपादन में इतना साहस दिखाया कि जमाने के सामने अकेले ही अड़ जाने की उनकी प्रतिज्ञा अंत तक निभी रही। हजारी किसान ने नितांत अनपढ़ होते हुए अपने संपर्क क्षेत्र में हजार आम्र उद्यान लगाने में सफलता पाई थी। धुन के धनी इतने शक्ति संपन्न होते हैं कि साधनों और सहयोगियों की परवाह न करते हुए भी वे अपनी नाव चलाते और उसमें बिठाकर अनेकों को पार करते हैं।

    युग धर्म ने जिस एक आधार को प्रमुख घोषित किया है वह है- ‘‘विचारक्रांति’’, जन मानस का परिष्कार, प्रचलनों में विवेक सम्मत निर्धारणों का समावेश। यह सब क्रियापरक कम, भावना प्रधान अधिक हैं। इसके लिए विचारणा से लेकर भाव-संवेदनाओं की मानसिकता को झकझोरने से काम चल जाएगा। दृष्टिकोण में बदलाव आने पर प्रचलनों में उलट-पुलट होकर रहेगा। जिस दिशा में प्रतिभाएँ समूचे मनोयोग के साथ बढ़ेंगी उस पर पीछे चलने वाले अनुयायियों की कमी रहने वाली है ही नहीं।

    आँखों पर जिस रंग का चश्मा पहन लिया जाता है सभी वस्तुएँ उसी रंग की दिखाई पड़ती हैं। दर्पण में अपना ही चेहरा दीखता है। गुंबज में अपनी ही आवाज गूँजती है, छाया अपने साथ-साथ ही चलती है। मनुष्य का विकसित व्यक्तित्व जब आदर्शवादी मार्ग पर चलने का संकल्प करता है, तो उसकी शक्ति हजारों गुनी हो जाती है। सहयोगियों और साधनों की भी कमी नहीं रहती। आवश्यकता केवल एक है-अपनी मनस्वी सत्ता के जागरण की और उसकी उत्कृष्टता के साथ जोड़ते हुए आदर्शवादिता के मार्ग पर धकेल देने की।

 

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