स्वर्ग नरक की स्वचालित प्रक्रिया

इष्टापूर्ति एवं तीर्थयात्रा

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परिशोधन में प्रायश्चित्त साधना तथा क्षतिपूर्ति का समावेश है। चान्द्रायण तप जैसी विशिष्ट साधनाएं परिशोधन के साथ ही अभिवर्धन-आत्मविकास का भी आधार बनती हैं। पापों के तीन वर्ग प्रधान हैं—(1) निरपराध सताना, आक्रमण (2) व्यभिचार बलात्कार, (3) आर्थिक शोषण, अपहरण, चोरी, बेईमानी।

पाप कर्मों का प्रायश्चित करने में पश्चात्ताप वर्ग की पूर्ति, व्रत उपवास से—शारीरिक कष्ट सहने से, तितीक्षा कृत्यों से होती है। किन्तु क्षति पूर्ति का प्रश्न फिर भी सामने रहता है। इसके लिए पुण्य कर्म करने होते हैं, ताकि पाप के रूप में जो खाई खोदी गई थी वह पट सके पुण्य-पाप का पलड़ा बराबर हो सके। दुष्प्रवृत्तियों को सत्प्रवृत्तियों से ही पाटा जा सकता है। इसलिए दुष्कर्म करके जो व्यक्ति-विशेष को हानि पहुंचाई गई—समाज में भ्रष्ट अनुकरण की परम्परा चलाई गई—वातावरण में विषाक्त प्रवाह फैलाया गया, उसको निरस्त तभी किया जा सकता है, जब सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन करने वाले पुण्य कर्म करके उसकी पूर्ति की जाय। समाज को सुखी और समुन्नता बनाने वाली सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन आवश्यक माना जाय। इसके लिए समय, श्रम एवं मनोयोग लगाया जाय। धर्म प्रचार की पदयात्रा करके लोग प्रेरणा देने वाले तीर्थ यात्रा जैसे पुण्य कर्म किये जायें। जो घटना घट चुकी वह अनहोनी तो नहीं हो सकती। आक्रामक कुकर्मों की क्षति पूर्ति इसी में है कि लगभग उतने ही वजन के सत्कर्म सम्पन्न किए जायं। इसे ही शास्त्रीय शब्दावली में इष्ट पूर्ति भी कहते हैं।

व्यभिचारजन्य पापों का प्रायश्चित्त यही है कि नारी को हेय स्थिति से उबारने के लिए उसे समर्थ एवं सुयोग्य बनाने के लिए जितना प्रयास पुरुषार्थ बन पड़े उसे लगाने के लिए सच्चे मन से प्रयत्न किया जाय।

आर्थिक अपराधों का प्रायश्चित्त यह है कि अनीति उपार्जित धन उसके मालिक को लौटा दिया जाय अथवा सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के श्रेष्ठ कामों में उसे लगा दिया जाय। इस अर्थ दान को प्रायश्चित्त विधान का आवश्यक अंग इसलिए माना गया है कि अधिकांश पाप अर्थ लोभ से किये जाते हैं और उनमें न्यूनाधिक मात्रा में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में भौतिक लाभ उठाने का उद्देश्य रहता है। यह अनीति उपार्जित धन अपने लिए और अपने परिवार वालों के लिए समयानुसार, भयंकर विपत्तियां ही उत्पन्न करता है। भले ही तत्काल उससे कोई कमाई होने और सुविधा मिलने जैसा लाभ ही प्रतीत क्यों न होता हो।

जो कमाया गया है उसे बगल में दाबकर रखा जाय। अनीति उपार्जित सुविधाओं का परित्याग न किया जाय। मात्र घड़ियाल के आंसू बहाकर व्रत, उपवास जैसी लकीर पीट दी जाय तो उतने भर से कुछ बनेगा नहीं। व्रत, उपवास तो अनीति अपनाने से आत्मा पर चढ़ी कषाय-कल्मषों की परत धोने भर के लिए हैं। क्षति पूर्ति का प्रश्न तो फिर भी जहां का तहां रहता है। जो अनीति बरती है उसकी हानि की भरपाई कर सकना वर्तमान परिस्थितियों में जितना अधिक से अधिक सम्भव हो उसके लिए उदार साहस जुटाना चाहिए। घटनाओं की क्षति पूर्ति अर्थ दण्ड सहने से भी हो सकती है। रेल दुर्घटना आदि होने पर मरने वालों के घर वालों को सरकार अनुदान देती है। उसमें क्षति पूर्ति के लिए आर्थिक प्रावधान को भी एक उपाय माना गया है। प्रायश्चित्त विधानों से क्षति पूर्ति की दृष्टि से दान को महत्व दिया गया है। दानों में गौ दान, अन्न दान, उपयोगी निर्माण आदि के कितने ही उपाय सुझाये गये हैं। वे जिससे जितने बन पड़े उन्हें वे उतनी मात्रा में करने चाहिये। कुछ भी न बन पड़े तो श्रम दान, सत्कर्मों में योगदान तो किसी न किसी रूप में हर किसी के लिए सम्भव हो सकता है। शास्त्र कहता है—

सर्वस्व दानं विधित्सर्व पाप विशोधनम् । —कूर्म पुराण अनीति से संग्रह किये हुए धन को दान कर देने पर ही पाप का निवारण होता है। दत्व वापहृतं द्रव्यं धनिकस्याभ्यु पापतः । प्रायश्चित्तं ततः कुर्यात् कलुषस्य पापनुत्तये ।। —विष्णु स्मृति

जिसका जो पैसा चुराया हो उसे वापिस करे और उस चोर कर्म का प्रायश्चित्त करे। वापिसी सम्भव न हो या आवश्यक न हो तो अनीति उपार्जित साधनों का बड़े से बड़ा अंश श्रेष्ठ सत्कर्मों में लगा देना चाहिए। आचार्य बृहस्पति के अनुसार—‘‘उपवासः तथा दानः उभौ अन्योन्याश्रितः ।’’ प्रायश्चित में उपवास की तरह दान भी आवश्यक है। दोनों एक दूसरे के साथ परस्पर जुड़े रहते हैं। प्राज्ञः प्रतिग्रहं कृत्वा तद्धनं सद्गति नयेत् यज्ञाद्धा पतितोद्धार पुन्यात् न्याय रक्षणेवापी कूप तड़ागेषु ब्रह्मकर्म समुत्सृजेत् । —अरुण स्मृति

अनुचित धन जमा हो तो उसे यज्ञ, पतिद्वार, पुण्यकर्म, न्याय रक्षण, बावड़ी, कुंआ, तालाब आदि का निर्माण एवं ब्रह्मकर्मों में लगा दें। अनुचित धन की सद्गति इसी प्रकार होती है। तेनोदपानं कर्त्तव्यं रोपणीयस्तथा वटः । —शातायन

सच्छास्त्र पुस्तकं दद्यात् विप्राय स दक्षिणम् । —पाराशर

वापी कूप तडागादि देवता यतनानि च । पतितान्युद्धरेद्यस्तु व्रत पूर्ण समाचरित् ।। —यम

सोपि पाप विशुद्धयर्थ चरेच्चान्द्रायण व्रतम् । व्रतान्ते पुस्तकं दद्यात् धेनु वत्स समन्वितम् ।। —शातायन

सुवर्ण दानं गोदानं भूमिदानं तथैव च । नाशयन्त्याशु पापानि अन्यजन्म कृतान्यपि ।। —सम्वर्त

इन अभिवचनों में सत्साहित्य वितरण, विद्यादान, वृक्षारोपण, कुंआ, तालाब, देवालय आदि का निर्माण, यज्ञ, दुःखियों की सेवा, अन्याय पीड़ितों के लिए संघर्ष आदि अनेक शुभ कर्मों में क्षति की पूर्ति के रूप में अधिक से अधिक उदारतापूर्वक दान देने का विधान है। इस दान श्रृंखला में गौ दान को विशेष महत्व दिया गया है। गौ की गरिमा को शास्त्रों में अत्यधिक महत्व दिया गया है। इसलिए गौदान की महिमा बताते हुए प्रायश्चित व्रतों के साथ उसे भी जोड़कर रखा गया है। यथा—

गोदानं च तथा तेषु कर्त्तव्यं पाप शोधनम् । —वृद्ध सूर्यारुण

अर्थात् पाप शोधन के साथ ही गोदान भी करना चाहिये।

धर्म प्रचार की पदयात्रा—तीर्थयात्रा

पाप निवृत्ति और पुण्य वृद्धि के दोनों प्रयोजनों की पूर्ति के लिए तीर्थयात्रा को शास्त्रकारों ने प्रायश्चित की तप साधना में सम्मिलित किया है। तीर्थयात्रा का मूल उद्देश्य है धर्म प्रचार के लिए की गई पदयात्रा। दूर-दूर क्षेत्रों में जन-सम्पर्क साधने और धर्म धारणा को लोक-मानस में हृदयंगम कराने का श्रमदान तीर्थयात्रा कहलाता है। श्रेष्ठ सत्पुरुषों के सान्निध्य में प्रेरणाप्रद वातावरण में रहकर आत्मोत्कर्ष का अभ्यास करना भी तीर्थ कहलाता है। यों गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने के लिए किये गये प्रबल प्रयासों को भी तीर्थ कहा गया है। तीर्थ का तात्पर्य है तरना। अपने साथ-साथ दूसरों को तारने वाले प्रयासों को तीर्थ कहते हैं। प्रायश्चित विधान में तीर्थ यात्रा की आवश्यकता बताई गई है।

आज की तथाकथित तीर्थयात्रा मात्र देवालयों के दर्शन और नदी सरोवरों के स्नान आदि तक सीमित रहती है। यह पर्यटन मात्र है। इतने भर से तीर्थयात्रा का उद्देश्य पूरा नहीं होता है। सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन के लिए किया गया पैदल परिभ्रमण ही तीर्थयात्रा कहलाता है। यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए श्रेष्ठ उपचार भी है। धर्म प्रचार के लिए जन-सम्पर्क साधने का पैदल परिभ्रमण जन-समाज को उपयुक्त प्रेरणायें प्रदान करता है। साथ ही उससे श्रमदान से कर्त्ता की सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन भी होता चलता है। ऐसे ही अनेक कारणों को ध्यान में रखकर तीर्थयात्रा को ऐसा परमार्थ कहा गया है जिसे कर सकना प्रत्येक श्रमदान करने में समर्थ व्यक्ति के लिए संभव हो सकता है। तीर्थयात्रा का स्वरूप और माहात्म्य शास्त्रकारों ने इस प्रकार बताया है—

नृणा पापकृतां तीर्थे पापस्य शमनं भवेत् । यथोक्त फलद तीर्थ भवेच्छुद्धात्मनां नृणाम् ।। पापी मनुष्यों के तीर्थ में जाने से उनके पाप की शान्ति होती है। जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, ऐसे मनुष्य के लिए तीर्थ यथोक्त फल देने वाला है।

तीर्थान्यनुसरन् धीरः श्रद्धायुक्तं समाहितः । कृतपापो विशद्धश्चेत् किं पुनः शुद्ध कर्मकृत् ।। जो तीर्थों का सेवन करने वाला, धैर्यवान्, श्रद्धायुक्त और एकाग्र चित्त है, वह पहले का पापाचारी हो तो भी शुद्ध हो जाता है, फिर जो शुद्ध कर्म करने वाला है, उसकी तो बात ही क्या है।

तीर्थानि च यथोक्तेन विधिना संचरन्ति ये । सर्वद्वन्द्वसद्वा धीरास्ते नराः स्वर्गगामिनः ।। जो यथोक्त विधि से तीर्थयात्रा करते हैं, सम्पूर्ण द्वन्द्वों को सहन करने वाले हैं, वे धीर पुरुष स्वर्ग में जाते हैं।

यावत् स्वस्थोऽस्ति में देहो यावन्नेन्द्रियविक्लवः । तावत् स्वरेयसां हेतुः तीर्थयात्रा करोम्यहम् ।। जब तक मेरा शरीर स्वस्थ है, जब तक आंख, कान आदि इन्द्रियां सक्रिय हैं, तब तक श्रेय प्राप्ति के लिए तीर्थयात्रा करते रहने का निश्चय करता हूं। तीर्थयात्रा का पुण्यफल धर्मशास्त्रों में पग-पग पर भरा पड़ा है। उसके कारण पाप प्रवृत्तियों का विनाश और उत्कृष्ट सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन का जो प्रयास बन पड़ता है वही पुण्य फल बनकर परम कल्याणकारी सिद्ध होता है। तीर्थयात्रा का पुण्यफल बताते हुए कहा गया है

निष्पापत्वं फलं बिद्धि तीर्थस्य मुनिसत्तम ? कृषेः फलं यथा लोके निष्पन्नान्नस्य भक्षणम् ।। —देवी भागवत जिस प्रकार कृषि का फल अन्न उत्पादन है। उसी प्रकार निष्पाप बनना ही तीर्थयात्रा का प्रतिफल है।

तीर्थस्तरन्ति प्रवतो महीरिति यज्ञकृतः सुकृतो येन यन्ति । अन्नादधुर्यजमानाय लोकं दिशो भूतानि यद कल्पयन्त ।। —अथर्ववेद जिस तरह यज्ञ करने वाले यजमान यज्ञादि द्वारा बड़ी-बड़ी आपत्तियों से मुक्त होकर पुण्यलोक की प्राप्ति करते हैं, उसी प्रकार तीर्थयात्रा करने वाले तीर्थयात्री तीर्थादि द्वारा बड़े-बड़े पापों और आपत्तियों से मुक्त होकर पुण्यलोक की प्राप्ति करते हैं।

अनुपातकिनस्त्वेते महापातकिनो यथा । अश्वमेधेन शुद्धयन्ति तीर्थानुसरणेन च ।। —विष्णु स्मृति महापातकी और उपपातकी को शुद्ध करने वाले दो ही साधन हैं—यज्ञ और तीर्थाटन।

अनुपोथ्य त्रिरात्राणि तीर्थान्य नाभिजम्य च । अदत्वा काचनं गाश्च दरिद्रो नाम जायते ।। —महाभारत जो तीन रात्रि तक उपवास नहीं कर सका, जिसने कभी तीर्थ यात्रा नहीं की, जिसने परमार्थ के लिए दान नहीं किया, ऐसा व्यक्ति दरिद्र होता है। ऋषीणां परमं गुह्यमिदं भरत सत्रम । तीर्थाभिगमनं पुण्यं यज्ञैरपि विशिष्यते ।। —महाभारत ऋषियों का गुह्य मत यह है कि यज्ञों में भी तीर्थ यात्रा की विशेषता है। तीर्थाटन की महिमा का बखान करने वाले कई प्रसंग तुलसीकृत रामचरितमानस में आते हैं।

तीर्थाटन साधन समुदाई, विद्या विनय विवेक बड़ाई । जहँ लगि साधन वेद बखानी, सब कर फल हरि भगति भवानी ।। —उत्तरकाण्ड चरन राम तीरथ चलि जाहीं । राम बसहु तिन्ह के उर माहीं ।। —अयोध्याकाण्ड सूरसागर में महात्मा सूरदास तीर्थयात्रा न कर सकने को एक दुर्भाग्य मानते हैं और उसका सुयोग न बन पड़ने पर दुःख प्रकट करते हुए कहते हैं—

मन की मन ही मांहि रही, ना हरि भजे न तीरथ सेये, चोटी काल गही ।। —सूरदास विधिपूर्वक तीर्थ करने से तात्पर्य है उस परिभ्रमण के साथ-साथ अपनी दुष्प्रवृत्तियों को छोड़ने और सत्प्रवृत्तियां अपनाने के लिए भाव भरा प्रबल प्रयास करना।

तीर्थानि च यथोक्तेन विधिनां संचरन्ति ये । सर्व द्वन्द्वसहा धीरास्ते नराः स्वर्गगामिनः ।। —नारद पुराण जो यथोक्त विधिपूर्वक तीर्थयात्रा करते हैं, सम्पूर्ण द्वन्द्वों को सहन करने वाले वे धीर पुरुष स्वर्ग में जाते हैं।

कामं क्रोधं च लोभं च यो जित्वा तीर्थ माविशेत् । न तेन किंचिदप्राप्तं तीर्थाभिगमनाद् भवेत् ।। —नारद पुराण जो काम, क्रोध और लोभ को जीतकर तीर्थ में प्रवेश करता है, उसे तीर्थ यात्रा से सब कुछ प्राप्त हो जाता है। यदि तीर्थाटन पर्यटन मनोरंजन के लिए किया गया है, तो उसका उतना ही लाभ है, किन्तु यदि उसे आत्म परिष्कार के लिए प्रबल प्रयत्न करने के उद्देश्य रूप से किया गया है तो उसका प्रतिफल श्रद्धा के अनुरूप ही होगा। धर्म प्रयोजनों में यह श्रद्धा ही प्रमुख निमित्त है।

मन्त्रे तीर्थो द्विजे दैवे दैवेज्ञे भेषजे गुरौ । यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवतिं तादृशी ।। तीर्थ, मन्त्र, ब्राह्मण, देवता, औषधि, गुरु तथा ज्योतिषी में जिसकी जैसी जितनी श्रद्धा भावना होती है, उसे वैसा ही फल मिलता है।

येनैकादश संख्यानि यन्त्रितानीन्द्रियाणि वै । स तीर्थ फलमाप्नोति नरोऽन्यः क्लेशभाग् भवेत् ।। जिसने अपनी ग्यारह (दस इन्द्रियां और मन) इन्द्रियों को तश में कर रखा है, वही तीर्थयात्रा का वास्तविक फल पाता है दूसरे अजितेन्द्रिय मनुष्य तो केवल क्लेश के ही भागी होते हैं। तीर्थ में व्यक्ति का परिष्कार होता है यह ठीक है। पर यह भी सत्य है कि उत्कृष्ट स्तर के ब्रह्मज्ञानी किसी स्थान को तीर्थ बना देते हैं।

यो न क्जिष्टोऽपि भिक्षेत ब्राह्मणस्तीर्थ सेवकः । सत्यवादी समाधिस्थः स तीर्थस्योपकारकः ।। जो तीर्थ सेवी ब्राह्मण अत्यन्त क्लेश पाने पर भी किसी से दान नहीं लेता, सत्य बोलता और मन को वश में रखता है, वह तीर्थ की महिमा बढ़ाने वाला है।

भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूताः स्वयं विभो । तीर्थो कुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तः स्थेन गदाभृता ।। —भागवत युधिष्ठिर विदुर से कहते हैं, आप जैसे भक्त स्वयं ही तीर्थ रूप होते हैं। आप लोग अपने हृदय में विराजित भगवान के द्वारा तीर्थों को महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं। तीर्थयात्रा का एक उद्देश्य है उन क्षेत्रों में निवास करने वाले मनीषियों से आत्म कल्याण एवं उज्ज्वल भविष्य निर्माण के लिए उपयुक्त मार्गदर्शन प्राप्त करना।

तीर्थेषु लभ्यते साधु ब्रह्मज्ञान परायणः । यद्दर्शन नृणां पापराशिदाहाशुशुक्षणिः ।। —पद्म पुराण तीर्थों में ब्रह्म परायण, साधु सज्जन मिलते हैं। उनका दर्शन मनुष्यों की पाप-राशि को जला डालने के लिए अग्नि के समान है।

तस्मात् तीर्थेषु गन्तव्यं नरैः संसार भीरुभिः । पुण्योदकेषु सतत साधुश्रेणि विराजिषु ।। —पद्म पुराण इसलिए जो लोग पाप से डरे हुए हैं और उसके बन्धन से छूटना चाहते हैं उन्हें पवित्र जल वाले तीर्थों में, जो साधु सज्जनों के समूह से सुशोभित हैं, अवश्य जाना चाहिए।

‘तरति अनेन इति तीर्थ’ तारने वाले को तीर्थ कहते हैं। तरना सत्कर्मों, सद्भावनाओं, सद्विचारों एवं सज्जनों के द्वारा ही हो सकता है। इसलिए इन्हीं को तीर्थ कहते हैं। जिन स्थानों में इन प्रवृत्तियों को बढ़ाने वाला वातावरण होता है उन्हें ही तीर्थस्थान कहा गया है।

साधुनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थ फलति कालेन सद्यः साधु समागमः।। साधुओं का दर्शन बड़ा पुण्यकारक होता है, क्योंकि साधु तीर्थ रूप ही हैं। तीर्थ तो समय पर फल देते हैं, किन्तु साधु समागम का तत्काल फल मिलता है।

मुख्या पुरुष यात्रा हि तीर्थ यात्रा प्रसंगतः । सद्भिः समागमो भूमिभागस्तीर्थ तयोच्य ते ।। —स्कन्ध पुराण तीर्थ यात्रा के प्रसंग से महापुरुषों के दर्शन के लिए जाना ही तीर्थयात्रा का मुख्य उद्देश्य है, अतः जिस भूभाग में सज्जन निवास करते हैं वही ‘तीर्थ’ कहलाता है।

ब्राह्मणा जंगमं तीर्थ निर्मल सार्वकामिकम् । येषां वाक्योदकेनैव शुद्धयन्ति मलिना जनाः ।। —शातातपस्मृति साधु-ब्राह्मण चलते तीर्थ हैं। जिनके सद्वाक्स रूपी निर्मल जल से मलिन जन भी शुद्ध हो जाते हैं। सम्पूर्ण भारत वर्ष ही तीर्थ स्वरूप है। उसके किसी भी भाग की यात्रा की जाय उसे तीर्थ यात्रा ही माना जायगा।

त्रयाणपि लोकानां तीर्थं मध्यमुदाहृतम् । जाम्बवे भारतं वर्ष तीर्थ त्रैलोक्य विश्रुतम ।। कर्म भूमिर्यतः पुत्र तस्मात्तीर्थं तदुच्यते ।। —ब्रह्म पुराण तीनों लोकों के मध्य में स्थित कर्म भूमि भारत वर्ष साक्षात् तीर्थ स्वरूप है। छोटों के लिये बड़े शिष्यों के लिए अज्ञान निवारण करने वाले गुरुजन भी तीर्थ के समान ही श्रद्धास्पद होते हैं।

अज्ञानाख्यं तमस्तस्य गुरुः सर्वं प्रणाशयेत् । तस्माद् गुरुः परं तीर्थ शिष्याणामवनी यते ।। —पद्म पुराण हे राजन् ! शिष्य के हृदय के अज्ञानान्धकार को नष्ट करने वाले गुरु, शिष्यों के लिए परम तीर्थ हैं। तीर्थ स्थान में जाकर पाप परित्याग का अभ्यास करना चाहिए। वहां अपने ऊपर कठोर नियन्त्रण करके यह प्रयत्न करना चाहिए उस पुण्य क्षेत्र में कोई अभ्यस्त दुष्प्रवृत्ति भी सक्रिय न होने पावे। तीर्थ मर्यादा का उल्लंघन करके वहां किये गये पाप तो और भी अधिक दुःखद एवं दुर्भाग्य पूर्ण सिद्ध होते हैं।

यदन्यत्र कृतं पापं तीर्थे तद् याति लाघवम् । न तीर्थकृत मन्यत्र क्वचि देव व्ययोहति ।। दूसरे स्थान पर किया हुआ पाप तीर्थ में क्षीण हो जाता है, परन्तु तीर्थ में किया हुआ पाप अन्य स्थानों में कभी नष्ट नहीं होता।

अन्य क्षेत्रे कृतं पापं पुण्य क्षेत्रे विनश्यति । पुण्य क्षेत्रे कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ।। —स्कन्ध पुराण दूसरे क्षेत्रों के पाप पुण्य क्षेत्रों में नष्ट हो जाते हैं। किन्तु पुण्य क्षेत्रों में किये हुए पाप नहीं नष्ट नहीं होते। तीर्थ यात्रा पद यात्रा के रूप में ही होनी चाहिए। सवारी पर नहीं। तभी उसका समुचित लाभ मिलता है।

इति ब्रुवन् रसनया मनसा च हरिं स्मरन् । पादचारी गतिं कुर्यात् तीर्थ प्रति महोदयः ।। वाणी से कीर्तन करते हुए तथा मन में भगवान का स्मरण करते हुए, पैदल तीर्थ यात्रा करने वाले का महान् अभ्युदय होता है।

ऐश्वर्य लोभान्मोहाद् वा गच्छेद् यानेन यो नरः । निष्फलं तस्य तत्तीर्थ तस्माद्यानं विवर्जयेत् ।। —मत्स्य पुराण ऐश्वर्य के गर्व से, मोह से या लोभ से जो सवारी पर चढ़कर तीर्थ यात्रा करता है, उसकी तीर्थ यात्रा निष्फल हो जाती है।

आज की स्थिति में ब्रह्म वर्चस् साधना के अन्तर्गत आरम्भ की गई धर्म प्रचार यात्रा मण्डलियां ही तीर्थ यात्रा का वास्तविक उद्देश्य पूरा कर सकती हैं। ऋषि प्रणीत इस पुण्य परम्परा को नव जीवन देने के लिए ऐसी ही सार्थक तीर्थ यात्रा प्रक्रिया देश के कोने-कोने में प्रारम्भ होनी चाहिए।

प्राचीन काल में ब्राह्मण ज्ञान के लिए क्षत्रिय राज्य के लिए, यात्रा करते थे। वैश्य व्यापार के लिए यात्रा करता था। यात्रा के महत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता—15 वीं, 16 वीं सदी से ही योरोप के विविध देशों में ज्ञान पिपासा, नये-नये देशों की खोज और ज्योतिष, भूगर्भ शास्त्र, भौतिक विज्ञान, रसायन तथा चिकित्सा आदि विविध क्षेत्रों में अनुसंधान की होड़-सी लग गई है। सत्य के ज्ञान और प्रकृति के रहस्यों के उद्घाटन के लिए वैज्ञानिकों और दूसरे यात्रियों ने अपने प्राण संकट में डालकर दुस्साहस के अनेक कार्य किये थे। साहसी यात्रियों की गौरव गाथाएं सर्वत्र गाई जाती हैं। प्रगतिशीलता का दूसरा नाम यात्रा है। वस्तुतः जीवन की पुकार ही ‘चरैवेति, चरैवेति’ चलना है, चलना है, सब चलते हैं, जीवन गतिमान है।

यात्रा से मनुष्य की दृष्टि विस्तृत होकर उदार होती है। यात्रा से मस्तिष्क विराट होता है और हृदय विशाल।

प्राचीन काल में इसी दृष्टि से 12 वर्ष गुरुकुल में अध्ययन करने के बाद 2 वर्ष देश भ्रमण करने की व्यवस्था रहती थी। प्रकृति की विविधता उसके सौन्दर्य और भयानकता से जहां यात्री आनन्द प्राप्त करता है वहां ज्ञान की वृद्धि भी होती है। इस प्राकृतिक आदान-प्रदान से मनुष्य में आध्यात्मिकता की शक्ति एवं सत्यं शिवं सुन्दरम् की भावना जागृत होती है।

वैदिक ऋषि ने गाया है—‘जो व्यक्ति चलते रहते हैं। उनकी जंघाओं में फूल खिलते हैं। उनकी आत्मा में फलों के गुच्छे लगते हैं। उनके पाप थककर सो जाते हैं, इसलिए चलते रहो, चलते रहो।’ तीर्थ यात्रा मातृभूमि के प्रति उत्कट प्रेम की सर्वथा अभिव्यक्ति है। यह देश पूजा की ऐसी विधि है जिससे धार्मिक भावों को बल मिलता है। साथ ही भौगोलिक चेतना बढ़ती है। तीर्थ यात्रा से मिलने वाले पुण्य लाभ के पीछे और भी कितने ही लाभ छिपे हैं।

यात्रा केवल चरणों से ही नहीं की जाती वरन् मन, बुद्धि, चित्त सभी यात्रा करते हैं। यह सृष्टि का विकास है। तन, मन, सब धुलकर निखर जाते हैं।

स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में कहा गया है कि तीर्थों के दो भेद हैं। मानस तीर्थ और भौम तीर्थ। जिनके मन शुद्ध हैं जो आचरणवान, ज्ञानी और तपस्वी हैं ऐसे लोग मानस तीर्थ हैं, जितेन्द्रिय जहां रहते हैं वही वे तीर्थ बनाते हैं। भौमतीर्थ चार प्रकार के हैं— (1) अर्थ तीर्थ—नदियों के तट और संगम पर व्यापार केन्द्र। (2) धर्म तीर्थ—प्रजाओं के धर्म पालन के निमित्त पवित्र धर्म नीति के केन्द्र। (3) काम तीर्थ—कला और सौन्दर्य साधना के केन्द्र। (4) मोक्ष तीर्थ—विद्या, ज्ञान और अध्यात्म के केन्द्र।

जहां इन चारों का समुदाय हो और जीवन की बहुमुखी प्रवृत्तियों के सूत्र मिलते हों, वे बड़े तीर्थ महापुरियों के रूप में प्रसिद्ध हो जाते हैं। जैसे काशी, प्रयाग, मथुरा, उज्जयिनी आदि। महाभारतकार ने बन पर्व 80।34-40 में कहा है कि ऋषियों ने वेदों में बहुत से यज्ञ कहे हैं। उनका फल जीते जी और मरकर लोगों को मिलता है। लेकिन दरिद्र जनता को वह फल कैसे मिल सकता है? यज्ञों हेतु विद्वान्, विधि विशेषज्ञ एवं साधन सामग्री की आवश्यकता होती है, निर्धन लोग अकेले बिना बहुत व्यय के यज्ञों का फल पा सकें इसकी युक्ति तीर्थ यात्रा है। तीर्थों में जाने का पुण्य यज्ञों से भी अधिक है।

इस प्रकार जनता को सांस्कृतिक आन्दोलन में सम्मिलित करने हेतु तीर्थ यात्रा बड़ी सहायक हुई। सुदूर क्षेत्रों, ग्रामों, जंगलों में रहने वाले लोग जो धर्म, संस्कृति, क्रिया और सदाचार की प्रवृत्तियों से अपरिचित रहते थे वे भी तीर्थयात्रा के निमित्त स्वेच्छा से तीर्थ केन्द्रों में आते और उनके संस्कार ले जाते थे।

ऋषियों की जीवन प्रक्रिया का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि उनका अधिकांश समय परिभ्रमण में बीता। यही कारण है कि जहां अन्य वर्ग के महापुरुषों के स्थान, स्मारकों के चिन्ह मिलते हैं वहां ऋषियों के इतने महत्वपूर्ण व्यक्तित्व होते हुए भी न तो किसी स्थान विशेष पर टिके और न उनके स्थान बने। मध्यकालीन सन्तों में से प्रायः प्रत्येक की क्रिया-प्रक्रिया यही रही है। उन्होंने अध्ययन एवं विशिष्ट तप साधना के लिए जितने समय जहां रुकना आवश्यक समझा, वहां रुके और इसके पश्चात् परिभ्रमण के लिए निकल पड़े। सिखाना और सीखना यही उनकी प्रधान प्रवृत्ति रही।

तीर्थयात्रा का पुण्य उस प्रयोजन के लिए बने नगरों, देवालयों एवं नदी सरोवरों से जोड़कर भूल की गई है। वस्तुतः तीर्थ यात्रा धर्म प्रचार की एक सुव्यवस्थित योजना है। जिसमें विराम-विश्राम के लिए प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व के स्थानों को चुना गया है। इन यात्रियों के लिए कई तरह की सुविधाएं यहां साधन सम्पन्न लोग जुटा दिया करते थे। भोजन, वस्त्र, पात्र, मार्ग व्यय, पुस्तक, पूजा उपकरण, औषधि आदि जिन वस्तुओं की आवश्यकता होती वे सभी तीर्थ मठों में संचित रहती थीं और धर्म प्रचारकों को आवश्यकतानुसार वे साधन सरलतापूर्वक मिल जाते थे। सत्संग, शिक्षण और अन्य ज्ञातव्य साधन यहां रहते थे और आगे की यात्रा के लिए साथियों, सहयोगियों का हेर-फेर भी यहीं बन जाता था। इन्हीं कारणों से अमुक स्थान तीर्थ घोषित किये गये। उन विराम स्थलों पर प्रचारकों का पारस्परिक मिलन, सम्पर्क एवं कई तरह का आदान-प्रदान भी होता रहता था। जंक्शन की तरह कितने ही मार्गों के यात्री उधर से गुजरते और अनेक प्रकार के पारस्परिक सम्पर्क साधते हुए लाभान्वित होते थे। स्थानों को महत्व मिलने के ऐसे ही कुछ कारण हैं। इतने पर भी स्थान विशेष पर जाकर कुछ देखने करने को नहीं, धर्म प्रचार के लिए पैदल यात्रा को ही तीर्थ यात्रा का लक्ष्य एवं प्रयोजन माना गया है। वह उद्देश्य जहां न बन पड़े तो समझना चाहिए कि मात्र प्राण विहीन कलेवर ही लटक रहा है।

प्राचीन काल की तीर्थ यात्रा मण्डलियों में दो वर्ग के लोग रहते थे। एक वे मनीषी जो अपने साथियों तथा सम्पर्क क्षेत्रों को अपने ज्ञान तथा अनुभवों का लाभ पहुंचाते चलते थे। दूसरे वे जिज्ञासु जो मण्डली के वातावरण में अपने को श्रेष्ठता के लिए प्रशिक्षित करते थे, ताकि भविष्य में वे इस आधार पर उपार्जित किये चरित्र ज्ञान एवं कौशल के आधार पर प्रचारकों की अगली भूमिका निभा सकें। यात्रा में कई व्यक्ति रहने से सुविधा भी रहती है और शोभा भी। भोजन आदि की दैनिक व्यवस्था और किसी के रुग्ण हो जाने पर परिचर्या, सुविधा का लाभ भी मण्डली में ही बन पड़ता है। सम्पर्क में कई प्रकार के कितने ही लोगों से वार्त्तालाप आदान-प्रदान करना पड़ता है इसमें कई व्यक्तियों का होना ही उपयुक्त रहता है। एक या दो व्यक्ति हों तो निजी व्यवस्था एवं सम्पर्क जन्य समस्याओं का निपटारा कठिन पड़ जाय ऐसे ही अनेक कारणों को ध्यान में रखते हुए तीर्थयात्रा एकाकी नहीं वरन् टोलियों के रूप में निकलती थी। यों निषेध एकाकी का भी नहीं है। द्रुतगामी वाहनों के उपयोग से शारीरिक सुविधा तो रहती है पर अधिक लोगों से अधिक सम्पर्क उस जल्दबाजी में बन ही नहीं पड़ता। पैदल चलते हुए तो मार्ग में भी कितनों से बातें होती चलती हैं। वाहनारूढ़ व्यक्ति के लिए वैसा कर सकना सम्भव नहीं है।

नदियों, पर्वतों, पुण्य क्षेत्रों की परिक्रमाएं अभी भी होती हैं नर्मदा के उद्गम से लेकर अन्त तक की परिक्रमा हर साल निकलती है। गिरनार और गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा का पुण्य है। ब्रज चौरासी कोस, प्रयाग की पंचकोशी परिक्रमाएं प्रसिद्ध हैं। शिवरात्रि पर लोग कन्धों पर गंगाजल की ‘कांवरे’ उठाते हैं और अमुक शिवालय पर उन्हें चढ़ाते हैं। मार्ग में यह यात्री लोग भजन-कीर्तन गाते हुए चलते हैं ताकि चलते-चलते भी उद्बोधन का प्रयोजन पूरा होता चले। अब चिन्ह पूजा प्रधान और लक्ष्य तिरोहित हो गया है। यदि लक्ष्य को प्रधान और चिन्ह पूजा को आवश्यकतानुरूप बना लिया जाय तो तीर्थ यात्रा की पुण्य परम्परा अपने युग की आवश्यकता पूरी करने में भी प्राचीन काल की तरह ही अतीव श्रेयस्कर सिद्ध हो सकती है।

भक्ति और तीर्थ यात्रा प्राचीन काल में परस्पर सघनतापूर्वक जुड़ी रही है। तपश्चर्याओं में उसे प्रधान माना गया है। तितिक्षा के अन्य साधन भी तप के रूप में बताये गये हैं, पर तीर्थ यात्रा के साथ जो व्यक्ति एवं समाज का विविध-विधि हित साधन होता है उसे ध्यान में रखते हुए इसका प्रचलन बहुत हुआ है और महत्व अधिक मिला है। प्रख्यात धर्म पुरुषों में से अधिकांश ने अपनी कार्य पद्धति में तीर्थ-यात्रा तप को प्रधान रूप से सम्मिलित रखा है। छोटे या बड़े सन्तों की जीवन चर्या पर दृष्टिपात करने से यह तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आ खड़ा होता है।

देवर्षि नारद जी निरन्तर यात्रा निरत रहे। कहते हैं दो घड़ी से अधिक कहीं न ठहरने का उन्हें अभिशाप था। देवर्षि नारद जी तो नित्य परिव्राजक हैं, उनका काम ही है अपनी वीणा की मनोहर झंकार के साथ भगवान के गुणों का गान करते हुए सदा यात्रा करना। भक्ति सूत्र निर्माता नारद जी के सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि उन्होंने प्रतिज्ञा की थी—सम्पूर्ण पृथ्वी पर घर-घर में एवं जन-जन में भक्ति की स्थापना करना।

दक्षिण में असुरों के बढ़ते हुए अत्याचार को रोकने के लिए अगस्त्य ऋषि ने दक्षिण की यात्रा कर वहां अपना आश्रम बनाया। लक्ष्मण को अगस्त्याश्रम का परिचय देते हुए राम कहते हैं—

यदा प्रभृति चक्रान्ता दिगियं पुण्य कर्मणा । तदा प्रभृति निर्वैराः प्रशान्ता रजनीचराः ।। वाल्मी. रामा. उन पुण्यकर्म महर्षि अगस्त्य ने जब से इस दक्षिण दिशा में पदार्पण किया है, तब से यहां के राक्षस शान्त हो गए हैं तथा उन्होंने दूसरों से बैर विरोध करना छोड़ दिया है। भगवान श्री राम का तीर्थ यात्रा प्रेम अद्भुत था। उनकी तीर्थ यात्रा के बारे में स्कन्ध, पद्म, अग्नि, ब्रह्म, गरुड़ तथा वायु आदि पुराणों में विस्तार से बताया गया है। योग वाशिष्ठ में राम के बचपन में ही वशिष्ठ आदि ब्राह्मणों के साथ अनेकों नदियों तथा मानसरोवर आदि तीर्थों में भ्रमण करने का विस्तार से वर्णन है। आनन्द रामायण में भगवान राम की अपने अनुचरों के साथ की गई तीर्थ यात्रा का ‘यात्रा काण्ड’ में विस्तार से वर्णन किया गया है। इस यात्रा में भगवान राम ने देश के सभी तीर्थों का भ्रमण किया था।

भगवान राम सारे जीवन यात्रा ही करते रहे। इस यात्रा में पुराने तीर्थों का उद्धार, नये तीर्थों की स्थापना, धर्म प्रचार, दुष्टता का उन्मूलन आदि अनेक उद्देश्य निहित थे। चौदह वर्ष के वनवास काल में भगवान जहां-जहां गये वे स्थान तीर्थ बन गये।

वनवास गतो रामो यत्र यत्र व्यवस्थितः । तानि चोक्तानि तीर्थानि शतंभष्टोत्तरं क्षितौ ।। —कूर्म पुराण वनवास के समय राम जहां-जहां रहे वहीं तीर्थ बन गये, ऐसे तीर्थों की संख्या 108 हो गई थी। लोक कल्याण के व्रती महात्मा बुद्ध ने लगातार 45 वर्ष तक देश भर में भ्रमण करके जनता को सत्य धर्म का उपदेश दिया और उनको अनेकों कुरीतियों और अन्धविश्वासों से छुड़ाकर कल्याणकारी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।

सम्राट अशोक ने तेईस वर्ष तक राज्य करने के उपरान्त ईसा पूर्व 249 में अपने राज्य के तीर्थ स्थानों का भ्रमण किया। पांच लाटों में अंकित वृत से यह पता चलता है कि वे मुजफ्फरपुर और चम्पारन होते हुए हिमालय की तराई तक गये और वहां से पश्चिम की ओर मुड़कर लुम्बिनी वन पहुंचे जहां तथागत का जन्म हुआ था। अपनी यात्रा के स्मारक के रूप में उन्होंने लुम्बिनी वन में भी एक लाट स्थापित की थी। आचार्य उपगुप्त के साथ फिर कपिलवस्तु, सारनाथ श्रावस्ती गये। इस प्रकार बौद्ध तीर्थों की यात्रा करते-करते सम्राट अशोक कुशीनगर पहुंचे। तीर्थयात्रा के उपरान्त अशोक ने संन्यास धारण कर लिया। एवं सारा समय धर्म-चर्या एवं धर्मोपदेश में बिताया।

जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य ने दिग्विजय का समारम्भ किया। अनन्तशयन, अयोध्या, इन्द्रप्रस्थपुर, उज्जयिनी, कर्नाटक, कांची, चिदम्बर, बदरी, प्रयाग आदि तीर्थ क्षेत्रों और महानगरों में आत्मज्ञान और धर्म का प्रचार किया। काश्मीर से रामेश्वर तक की विद्वन्मण्डली ने उनकी विद्वता का लोहा मान लिया। उन्होंने पर यात्रा के अन्तर्गत दक्षिण में श्रंगेरी, पूर्व में जगन्नाथपुरी में गोवर्धन, पश्चिम द्वारका में शारदा और उत्तर बदरिकाश्रम में ज्योतिर्मठ की स्थापना की।

सन्त ज्ञानेश्वर ने अलन्दी से, नेवा से वापिस आने पर, पन्द्रह वर्ष की आयु में सं. 1347 वि. में ‘ज्ञानेश्वरी गीता’ का प्रणयन किया तदुपरान्त तीर्थयात्रा आरम्भ की। उनके साथ निवृत्तिनाथ सोपानदेव, मुक्तबाई, नरहरि सोनार, चोखामेला आदि तत्कालीन सन्त थे। वे पण्डरपुर गये। वहां से सन्त नामदेव उनके साथ हो गये। फिर उक्त सन्त मण्डली ने उज्जैन, प्रयाग, काशी अयोध्या, गया, गोकुल, वृन्दावन, गिरिनार आदि तीर्थ क्षेत्रों की यात्रा की। लोगों को अपने सत्संग से सचेत कर जागरण का सर्वत्र सन्देश सुनाया। सन्त ज्ञानेश्वर की इस ऐतिहासिक, लोक-शिक्षण परक तीर्थ यात्रा की बड़ी ख्याति सुदूर क्षेत्रों में फैल गई। वे मारवाड़ और पंजाब की ओर भी गये। तीर्थयात्रा से लौटने पर पण्ढरपुर में सन्त नामदेव ने इस यात्रा-यज्ञ की पूर्ति स्वरूप एक विशाल उत्सव का आयोजन किया।

सन्त एकनाथ अपने अनुष्ठान की पूर्ति के बाद गुरु आज्ञा से तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े। उनकी तीर्थयात्रा में जनार्दन पन्त ने नासिक त्र्यम्बकेश्वर तक उनका साथ दिया। ब्रह्मगिरि की परिक्रमा के उपरान्त गोदावरी, ताप्ती, गंगा और यमुना का स्नान किया। आठों विनायक और बारह ज्योतिर्लिंग के दर्शन किये। वृन्दावन, काशी, प्रयाग, गया, बदरिकाश्रम एवं द्वारका की यात्रा की। सन्त एक नाथ ने 13 साल तक यात्रा की। 25 वर्ष की अवस्था में वे पेठठा लौट आये।

चैतन्य महाप्रभु ने भी सामूहिक एवं एकाकी रूप से अनेक स्थलों का परिभ्रमण किया। गया गये, फिर नील्काचल के उपरान्त दक्षिण की यात्रा की। अपने भक्त और अनुचर गोविन्द को लेकर वे हाजीपुर, मिदनापुर होते नयनगढ़ गये। चैतन्य ने अलौकिक प्रेम भाव का ही उपदेश दिया। ढलेश्वर, जलेश्वर, हरिहरपुर, बलशोर होते हुए नीलगढ़ गये। अपनी तीर्थयात्रा में उन्होंने जनमानस का परिष्कार किया। सत्याबाई और कमलबाई वेश्याओं का हृदय परिवर्तन किया। महाप्रभु कांचीपुरम् गये, शिव कांची, पक्षी तीर्थ, काल तीर्थ, सन्धि तीर्थ आदि पवित्र तीर्थों के दर्शन करते हुए वे तिरुचिरापल्ली पहुंचे। तज्जाबूर, कुन्ती, कर्ण, पड़ा, पह्नकोट, त्रिपत्रद्व श्रीरंगम, रामेश्वर आदि दक्षिण भारत के अनेक तीर्थों का महाप्रभु ने भ्रमण किया। महाराष्ट्र के बाद गुजरात द्वारका, सोमनाथ, जूनागढ़, प्रभास क्षेत्र होते हुए मध्य भारत के अनेक स्थलों के दर्शनार्थ गये। अन्त में उत्तर भारत की यात्रा अकेले पैदल की। मथुरा-वृन्दावन, प्रयाग, काशी गये। काशी का मन जीत श्री चैतन्य ने भारत का मन जीत लिया। मात्र 48 वर्ष की आयु पाकर ही। उन्होंने तीर्थयात्रा द्वारा लाखों पतित पददलितों का उद्धार किया। जो समाज में पद्चयुत थे उन्हें नई हैसियत दी। समग्र समाज को जीने के लिए एक नयी आस्था प्रदान की।

गोस्वामी तुलसीदास ने 14 वर्ष तक तीर्थ यात्रायें कीं। वे प्रयाग, जगन्नाथ, रामेश्वर, द्वारिका, बदरिकाश्रम आदि पावन स्थलों के दर्शनार्थ गये। तीर्थयात्रा के बाद वे काशी में रहकर सन्तों का संग और राम की कथा कहने लगे।

सन्त तुकाराम ने तत्कालीन महाराष्ट्र को ही नहीं सम्पूर्ण भारतीय राष्ट्र को आत्मदर्शन एवं भगवद् दर्शन प्रदान किया। पण्ढरी की यात्रा का उन्होंने आजीवन पालन किया। गुरु नानक जी लगभग तीस वर्ष की आयु में सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर भटकती हुई मानवता को सत्य मार्ग का उपदेश देने निकल पड़े। गुरु नानक ने देश-विदेश की व्यापक यात्राएं कीं। उन्होंने 15 वर्ष तक भारतवर्ष की चारों दिशाओं में सभी प्रमुख स्थानों की यात्राएं की और अन्त में अफगानिस्तान, ईरान, अरब और ईराक तक गये।

समर्थ गुरु रामदास ने 12 वर्ष के तप के उपरान्त 12 वर्ष तक तीर्थयात्रा की एवं सं. 1701 के वैशाख मास में कृष्णानदी के तट पर आये। तीर्थ यात्रा के प्रसंग में श्री समर्थ जहां-जहां गये, वहां-वहां इन्होंने मठ स्थापित किये। लोग कल्याण की भावना से धर्म स्थापनार्थ उस युग में जब रेल, तार, जहाज, अखबार प्रेस आदि का सर्वथा अभाव था, समस्त देश घूमे, वे सर्वप्रथम काशी गये। फिर मथुरा-वृन्दावन से पंजाब, श्रीनगर एवं काश्मीर पहुंचे। वहां से चलकर हिमालय में केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा की। उत्तराखण्ड के उपरान्त जगन्नाथ गये। लंका से वापिस होते हुए केरल, मैसूर फिर महाराष्ट्र आ गये। यहां उन्होंने गोकर्ण, बैंक्टेश, मल्लिकार्जुन बालनरसिंह, पालन नरसिंह का दर्शन किया, इसके बाद पठ्यसर शिष्यमूक, करवीर क्षेत्र पढरपुर आदि होकर पंचवटी लौट आये।

पुष्टिमार्गी सन्त गोस्वामी विट्ठलनाथ ने गुजरात तथा दक्षिण और मध्यभारत के तीर्थों की यात्रा की। बादशाह अकबर, मानसिक, बीरबल, महारानी दुर्गावती, राजा आसकरण आदि उन्हें बड़े सम्मान एवं आदर की दृष्टि से देखते थे।

कृष्णोपासक सन्त दयारामभाई ने तीर्थयात्रा सम्पादित की। दयाराम भाई श्रीनाथ द्वारा से काकरोली गये। काकरोली से मथुरा, वृन्दावन, गोकुल आदि की यात्रा की। उन्होंने सम्पूर्ण ब्रज मण्डल चौरासी कोस की परिक्रमा की। तीर्थयात्रा से लौटने पर दयाराम भाई ने बड़ौदा के गोस्वामी श्रीबल्लभ लाल जी महाराज से ब्रह्म सम्बन्ध लिया।

सन् 1888 में स्वामी विवेकानन्द देश भ्रमण के लिए निकले। उन्होंने लगातार कई वर्ष तक देश व्यापी यात्रा परिभ्रमण किया। इस यात्रा से उन्होंने भारतीय विभिन्न वर्गों की अच्छी जानकारी प्राप्त की। राजस्थान में पहले वे अलवर गये। घूमते-घूमते ज्ञानोपदेश करते लिम्बड़ो काठियाबाड़ गये। फिर मैसूर पहुंचे। फिर वे रामेश्वर होकर कन्याकुमारी पहुंचे। बाद में अमेरिका इंग्लैण्ड एवं अन्य पाश्चात्य देशों की यात्रा की।

स्वामी रामतीर्थ ने अपनी देश-विदेश की यात्राओं में अध्यात्म का सच्चा स्वरूप प्रतिपादित किया। सनातन धर्म सभा के प्रसिद्ध उपदेशक दीनदयाल शर्मा के साथ उन्होंने ब्रज, प्रयाग और काशी की तीर्थयात्रा की। उत्तराखण्ड की भी यात्रा की। हिमालय के अंचल से मैदान में उतर कर उन्होंने मथुरा, फैजाबाद, लखनऊ आदि की यात्रा कर वेदान्त पर महत्वपूर्ण भाषण दिया। स्वामी रामतीर्थ ने अमेरिका, जापान तथा मिश्र आदि देशों की जनता को सत्य, शान्ति और प्रेम का सन्देश दिया।

स्वामी दयानन्द विद्याध्ययन के उपरान्त प्रायः परिभ्रमण ही करते रहे। आर्य समाजों की स्थापना, उन्हें गति देना, शास्त्रार्थ, साहित्य लेखन आदि सभी कार्य उन्होंने अपने प्रवास कार्य के साथ ही सम्पन्न किये थे।

कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर ने विलायत से लौटकर तीर्थयात्रा की। उन्होंने देश के गरीबों की स्थिति का अध्ययन करने हेतु कलकत्ते से पेशावर तक बैलगाड़ी में यात्रा की। यद्यपि उस समय रेलगाड़ी चल निकली थी किन्तु रेलयात्रा से पिछड़े हुए गांवों और भूखे-नंगे कृषकों की अवस्था का क्या पता लग सकता था?

अफ्रीका से लौटने पर गांधी जी ने एक वर्ष तक समस्त देश का भ्रमण किया। एक वर्ष तक देश की यात्रा करने के उपरान्त गांधी जी अहमदाबाद लौटे और वहां साबरमती नदी के किनारे उन्होंने अपने सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की। उनकी डांडी नमक सत्याग्रह यात्रा एवं नोआखाली की साम्प्रदायिक सद्भाव यात्रा तो प्रसिद्ध ही है।

सन्त विनोबा ने पूरे देश में पैदल घूम-घूमकर लाखों गरीबों की जीविका की व्यवस्था करने से साथ भारतीय जनता की दशा का निरीक्षण किया और उसकी समस्या को समझा। पाकिस्तान की भी पदयात्रा की। चौदह वर्ष सन् 1951 से 1964 तक लगभग 43 लाख मील की पैदल यात्रा करके विनोवा ने जब पुनः अपने आश्रम में प्रवेश किया तो उस समय उनको 4,236-827 एकड़ जमीन भूदान में मिली और 7560 ग्राम दान में मिले।

ईसामसीह ने अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा की पूर्ति के लिए विदेशों की यात्रा की थी। डा. नोटोविच की कृत्ति ईसामसीह का अज्ञात जीवन चरित्र के अनुसार चौदह वर्ष की आयु में ईसा सौदागरों के एक दल के साथ भारत (सिंध) आ पहुंचे। इसके बाद वे जगन्नाथ गये। वहां उन्होंने वेदशास्त्र का अध्ययन किया। फिर बनारस आदि स्थानों की यात्रा में 6 वर्ष व्यतीत हो गये। फिर कपिलवस्तु पहुंचे। बौद्ध शास्त्रों का भी उन्होंने अध्ययन किया। उसके पश्चात् वे नेपाल और हिमालय से होते हुए ईरान पहुंच गये। तदुपरांत वे नेपाल और हिमालय से होते हुए ईरान पहुंच गये। तदुपरान्त स्वदेश पहुंच स्वजातीय भाइयों में इस आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार करने लगे जो उन्होंने इतने वर्ष के अध्ययन और स्वानुभव से प्राप्त किया था।

अन्यान्य धर्म संस्थापकों ने भी यही किया इस्लाम धर्म के पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब ने अपनी धर्म प्रचार यात्रा जारी रखी। पारसी, यहूदी, ताओ आदि संसार के प्रधान धर्म सम्प्रदायों के संस्थापकों एवं प्रचारकों को अपना अधिकांश समय धर्म प्रचार की तीर्थयात्राओं में ही व्यतीत करना पड़ा है।

यह तो कुछ उदाहरण मात्र हैं। इसकी गणना की जाय और सूची बनाई जाय तो ऐसे प्रख्यात धर्मात्मा कहे जाने वाले प्रायः सभी लोग धर्म प्रचार की तीर्थ यात्रा को अपनाये हुए मिलेंगे। जिन्हें एक स्थान पर बैठकर शोध, लेखन, शिक्षण आदि कार्य करने पड़े हैं उनने भी कभी न कभी लम्बी तीर्थयात्राओं का पुण्य सम्पादित किया है। सामान्य गृहस्थ भी अपनी व्यस्तता में से भी अवकाश निकालकर इस पुण्य लाभ के लिए समय निकालते रहे हैं। स्व-पर कल्याण का इससे अच्छा रोचक एवं उपयोगी धर्म कृत्य दूसरा कोई भी नहीं है।

तीर्थ यात्रा के नाम पर स्थान दर्शन को आज महत्व मिल गया है। इस भगदड़ में मात्र निहित स्वार्थों को ही धन बटोरने का अवसर मिलता है। पर्यटन अपनी जगह पर कायम रहे, पर उसे तीर्थ यात्रा का नाम न मिले। इन विडम्बनाओं को बदला जा सके और युग की आवश्यकता पूरी कर सकने वाली तीर्थयात्रा प्रक्रिया को योजनाबद्ध रीति से सुनियोजित किया जा सके तो यह महान धर्म परम्परा आज की स्थिति में भी पूर्वकाल की तरह ही व्यक्ति और समाज के लिए सर्व प्रकार हित कारक सिद्ध हो सकती है।

इस प्रकार तप-साधना तीर्थयात्रा, क्षतिपूर्ति या इष्टापूर्ति के द्वारा प्रायश्चित-प्रक्रिया सम्पन्न कर जो साधक आत्मशोधन कर डालते हैं उन्हीं की चान्द्रायण-साधना एवं अन्य योग साधनाएं शक्ति-संवर्धन, आत्मविकास, जीवनलक्ष्य की प्राप्ति का आधार बनती हैं। अतः आत्मविकास के इच्छुक साधकों को, जीवन को सार्थक बनाने के आकांक्षी प्रत्येक व्यक्ति को कर्मफल का अटल सिद्धांत एवं प्रारब्ध का यथार्थ स्वरूप ठीक-ठीक समय लेना चाहिए तथा अपनी स्थिति का चिन्तन-मनन कर आत्मशोधन, आत्मनिर्माण एवं आत्मविकास के पथ पर संकल्पपूर्वक बढ़ चलना चाहिए। आवश्यक प्रायश्चित्त-प्रक्रिया को अपनाए बिना प्रारब्ध के अनिष्ट-भोग से बचने के लिए अपनायी जाने वाली सस्ती तरकीबें और तिकड़में, बाधाओं-व्यवधानों, कष्टों-क्लेशों को और अधिक बढ़ाएंगी और तब दैव को व्यर्थ ही दोष देने से अपनी पीड़ा-परेशानियां ही बढ़ेंगी। प्रायश्चित की शास्त्रीय प्रक्रिया का सही स्वरूप समझकर उसे अपनाने पर ही अभीष्ट-सिद्धि हो सकती है तथा न केवल स्वयं के पूर्वकृत पापों का क्षय हो सकता है, अपितु दूसरों को भी पुण्य-प्रवृत्तियों में नियोजित करने, औरों की सेवा-सहायता करने तथा जीवन को उत्कृष्ट-धन्य बनाने की शक्ति अर्जित की जा सकती है।
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