6 अगस्त 1945 को जापान पर दो अणु-बम फेंके गये थे, उसमें हिरोशिमा में 78 हजार मनुष्य मरे और 56 हजार घायल हुए थे। नागाशाकी में 74 हजार मरे और 77 हजार घायल हुए थे। साढ़े नौ सौ वर्गमील का क्षेत्र पूरी तरह नष्ट हो गया था। इसके अतिरिक्त रेडियो-धर्मी प्रभाव से पीड़ित लोगों की संख्या लाखों तक जा पहुंचती है।
इन अणु-बमों को गिराने के लिए प्रख्यात मेजर इथरली को अपने इस कुकृत्य से भारी आत्म-ग्लानि हुई। पहले वह सोचता था कि इतना बड़ा साहसिक काम करने के लिए उसे जो ‘यश’ मिलेगा, उससे उसे प्रसन्नता होगी, पर वैसा हुआ नहीं। आत्म-प्रताड़ना ने उसे विक्षिप्त बना दिया। वह आत्महत्या करने अथवा आत्मदण्ड पाने के लिए इतना आकुल रहने लगा, मानो इसके अतिरिक्त आत्म-प्रताड़ना के दुःसह-दुःख से बचने का और कोई रास्ता हो ही नहीं सकता।
अन्ततः उसने आत्म-दण्ड का सहारा चुना। कई अपराध किये और बन्दूक लेकर एक दुकान में डाका डालने के लिए घुस पड़ा और पुलिस द्वारा पकड़ा गया और न्यू अर्लियेन्स के जेलखाने में बन्द कर दिया गया। उसने अपनी सफाई देने का कोई प्रयत्न नहीं किया। खुले रहने की अपेक्षा उसने जेल पसन्द की उसके ऊपर सरकार बनाम इथरली नाम से मुकदमा चला। पर उसका मानसिक और शारीरिक सन्तुलन इतना बिगड़ा हुआ था कि अदालत में खड़ा तक न हो सका। जेल से उसे अस्पताल भेजना पड़ा। मानसिक व्याधि ने उसका शेष जीवन नष्ट कर डाला।
नागासाकी [जापान] पर अणुबम गिराने वाले विमान संचालक फ्रेडओलीवी ने अपने मार्मिक-वक्तव्य में कहा—‘‘इस युग की सबसे दर्दनाक, सबसे अमानुषिक और सबसे भयानक घटना का जब भी मैं स्मरण करता हूं तो सिर घूम जाता है और रात-रात भर उसी सोच-विचार में जागना पड़ता है। मुझे हैरत होती है कि विज्ञान ने क्या अजीब परिस्थितियां उत्पन्न कर दीं? जिस कार्य के लिए अनेक नेपोलियन मिलाकर भी कम पड़ते, उसे मुझ जैसे नाचीज व्यक्ति को कर गुजरने में समर्थ बना दिया गया। यह ऐसा भयानक कृत्य था जिसका प्रभाव मनुष्यों पर पीढ़ी दर पीढ़ी तक पड़ता चला जायगा।’’
‘‘हमें कोकुरा पर अणु-बम गिराना था, पर उस दिन वहां घने बादल छाये हुए थे—सो कुछ दीख नहीं पड़ रहा था। अस्तु दूसरे आदेश के अनुसार उसे नागासाकी पर गिराया। जहरीले धुंए का छत्तेदार बादल प्रति मिनट एक मील की चाल से ऊपर उठता हुआ हमने देखा। मेरे मन में इस घड़ी इतनी प्राण-घातक भय की भावना उठी, जितनी मनुष्य के इतिहास में शायद कभी किसी ने अनुभव न की होगी। भागते-भागते हमें अणुतरंगों के एक के बाद एक झटके लगे। जहाज का नियन्त्रण हाथ से छूटते-छूटते बचा और हम किसी प्रकार बाल-बाल बच निकलने में सफल हो गये। एक सेकिण्ड की भी देर हो जाती तो फिर हमारा भी खात्मा ही था। उस दस्ते के हम सब उड़ाका यही अनुभव करते रहे, सिर्फ एक बम ही नहीं गिराया गया है, वरन् एक बड़ी पिशाच-शक्ति को इस विश्व को निगल जाने के लिए छुटल कर दिया गया है। इस घटना को काफी दिन बीत गये, पर आज भी जब मैं आंखें बन्द करता हूं तो महादैत्य जैसी उस दिन की नीली रोशनी अभी भी आसमान में छाई दीखती है, जिसके सामने सूरज बुझती मोमबत्ती जैसा लगता था। ईश्वर न करे, मानव इतिहास में फिर कभी ऐसा भयानक दृश्य देखने को मिले।
‘‘जब मैं अणुबम गिराकर लौटा तो मेरी बूढ़ी मां अत्यधिक दुखी थीं। उनके चेहरे पर कातरता और करुणा बरस रही थी। जैसे ही घर में घुसा तो मां ने कड़ककर पूछा—कैडी, तुम्हारी आत्मा तुम्हें कचोटती नहीं? अपराधी की तरह सिर नीचा किये मैं खड़ा रहा, एक शब्द भी मुंह से निकला नहीं।’’
‘‘वे रात को अक्सर चौंककर उठ बैठतीं और घुटने टेक कर प्रार्थना करती रहतीं—हे भगवान्! मेरे बेटे को क्षमा करना।’’ फ्रेड ओलोवी जीवनभर अपने उस दुषकृत्य के कारण पश्चात्ताप की आग में जलता। यद्यपि बम गिराने का निर्णय उसका नहीं था, वह तो विमान चालक का कर्तव्य ही निभा रहा था। तो भी पाप-कर्म में सहभागी होने, मानवता के प्रति नृशंस व्यवहार का साथ देने की सजा उसके भीतर बैठे न्यायाधीश ने उसे दी ही। वह अन्त तक बिलखता ही रहा।
पाप, अहंकार और अत्याचार संसार में आज तक किसी को बुरे कर्मफल से बचा न पाये। रावण का असुरत्व यों मिटा कि उसके सवा दो लाख सदस्यों के परिवार में दीपक जलाने वाला भी कोई न बचा। कंस, दुर्योधन, हिरण्यकशिपु की कहानियां पुरानी पड़ गयीं। हिटलर, सालाजार, चंगेज और सिकन्दर, नेपोलियन जैसे नर-संहारकों को किस प्रकार दुर्दिन देखने पड़े, उनके अन्त कितने भयंकर हुए, यह भी अब अतीत की गाथाओं में जा मिले हैं। नागासाकी पर बम गिराने वाले अमेरिकन वैज्ञानिक फ्रेड ओलोवी और हिरोशिमा के विलेन (खलनायक) सेजर ईथरली का अन्त कितना बुरा हुआ, यह देखकर-सुनकर सैकड़ों लोगों ने अनुभव कर लिया कि संसार संरक्षक के बिना नहीं है। शुभ-अशुभ कर्मों का फल देने वाला न रहा होता, तो संसार में आज जो भी कुछ चहल-पहल, हंसी-खुशी दिखाई दे रही है, वह कभी नष्ट हो चुकी होती।
जलियावाले हत्याकांड की जब तक याद रहेगी तब तक जनरल डायर का डरावना चेहरा भारतीय प्रजा के मस्तिष्क से न उतरेगा। पर बहुत कम लोग जानते होंगे कि डायर को भी अपनी करनी का फल वैसे ही मिला जैसे सहस्रबाहु, खर-दूषण, वृत्रासुर आदि को।
हंटर कमेटी ने उसके कार्यों की सार्वजनिक निन्दा की, उससे उसका मन अशान्त हो उठा। तत्कालीन भारतीय सेनापति ने उसके किये हुए काम को बुरा ठहराकर त्यागपत्र देने का आदेश दिया। फलतः अच्छी खासी नौकरी हाथ से गई, पर इतने भर को नियति की विधि-व्यवस्था नहीं कहा जा सकता। आगे जो हुआ, प्रमाण तो यह है, जो यह बताता है कि मरने के फल विलक्षण और रहस्यपूर्ण ढंग से मिलते हैं।
सन् 1921 में जनरल डायर को पक्षाघात हो गया, उससे उसका आधा शरीर बेकार हो गया। प्रकृति इतने से ही सन्तुष्ट न हुई, फिर उसे गठिया हो गया। उसके मित्र उसका साथ छोड़ गये। चलना-फिरना तक दूभर हो गया। ऐसी ही स्थिति में एक दिन उसके दिमाग की नस फट गई और फिर लाख कोशिशों के बावजूद वह ठीक नहीं हुई। डायर सिसक-सिसक कर तड़प-तड़प कर मर गया। अन्तिम शब्द उसके यह थे—
‘जो अपने को मुझ जैसा चतुर और अहंकारी मानते हैं, जो कुछ भी करते न डरते हैं न लजाते हैं, उनका क्या अन्त हो सकता है? यह किसी को जानना हो तो इन प्रस्तुत क्षणों में मुझसे जान ले।’ डायर का यह स्वगतालाप उसके भीतर बैठे न्यायाधीश का ही निर्णय-वाचन था।
‘‘डा. वारमन विन्सेंट पीले’’ अमेरिका के गिरजों के परामर्शदाता मन्त्री थे और मनोवैज्ञानिक चिकित्सक भी। अपने जीवन में उन्होंने सैकड़ों पीड़ित व्यक्तियों का मानसोपचार किया। विश्लेषण में उन्होंने यह पाया कि रोग-शोक और कुछ नहीं, पूर्व कृत बुरे कर्मों का ही परिणाम होता है। मस्तिष्क में जड़ जमाये हुए काम, क्रोध, लोभ, चोरी के भाव, व्यभिचार आदि शरीर में अपनी सहायक ग्रन्थियों से एक प्रकार का रस (जिसे विष कहना उपयुक्त होगा) स्रावित करते रहते हैं, बीमारियों और व्याधियों का कारण यह स्रावित रह ही होता है, जिसका मूल व्यक्ति के दुर्भाव, दुर्गुण और दुष्कर्म होते हैं।
कर्मों की गति यद्यपि विचित्र है मानवीय दृष्टि से यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि किस पाप का परिपाक कहां जाकर होगा। उसका फल कब मिलेगा। चोरी करने वाले को तत्काल कोई दण्ड नहीं मिलता, व्यभिचार करने वाला उस समय पकड़ में नहीं आता, पर इन कर्मों का फल कालान्तर में प्रकृति जन्य रूप में उसी प्रकार मिलता है, जिस तरह मक्का का फल दो महीने, जौ, गेहूं सात महीने में और अरहर के बीज का दस में। पर प्रत्येक कर्म का फल मिलता अवश्य है।
पूर्वजन्म में किये हुये पाप व्यक्ति को रोग बनकर सताते हैं, इसका उल्लेख आयुर्वेद में आता है कि—‘‘पूर्वजन्म कृतं पापं व्याधि रूपेण पीड़ति’’। आज के भौतिकवादी युग में यह बातें कुछ असम्भाव्य लगती हैं पर अब मनोविज्ञान का एक पक्ष ऐसा भी उभर रहा है, जिसने अनेक तथ्यों की खोज के आधार पर यह मानना प्रारम्भ कर दिया है कि इस जन्म के रोग-शोक पूर्वजन्मों या जीवन के दुष्कर्मों का फल होता है।
अमेरिका में एक बहुत बड़े क्लीनिक डा. सी.डब्लू. लेब हुए हैं। उनके पास एक ऐसा रोगी आया करता था, जो आये दिन एक नये रोग की शिकायत किया करता था। कभी सिर दर्द, कभी डिसेन्टरी, कभी तनाव, कभी थकावट डॉक्टर ने हारकर एक दिन कह दिया—लगता है, तुम कोई ऐसा काम कर रहे हो, जिसके लिए तुम्हें अपनी आत्मा को दबाना पड़ता है। कोई पाप कर रहे हो उसी के कारण तुम्हारे भीतर से रोग फूटते रहते हैं। पहले तो वह इनकार करता रहा पर बाद में उसने स्वीकार किया कि उसका एक भाई किसी दूसरे देश में रहता है। जब पिता जीवित थे तो वे यह व्यवस्था कर गये थे कि उसकी जायदाद का समान भाग दोनों को मिलता रहे पर उक्त सज्जन अपने भाई को थोड़े से डालर भेजते थे शेष स्वयं हड़प कर जाते थे।
जब अपना सारा पाप बयान कर चुके तो उस सज्जन ने बड़ा हल्कापन अनुभव किया, उसी दिन उसने अब तक भाई के हिस्से की जितनी धनराशि थी, वह सब भेज दी साथ में पूर्वकृत पाप के लिये क्षमा भी मांगी। इसके बाद उन्हें किसी शारीरिक पीड़ा ने कष्ट नहीं दिया। इससे क्लेशों, कष्टों के सूक्ष्म आधार स्पष्ट होते हैं।
कुसंस्कारों का परिपाक कष्टों के रूप में
जैसे-जैसे हम स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करते हुए आगे बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे हमें संकटों और अभावों के वास्तविक कारणों को समझने में सुविधा मिल रही है। मोटी बुद्धि सदा संकटों का कारण बाहर ढूंढ़ती है। व्यक्तियों, परिस्थितियों पर ही प्रस्तुत विपन्नताओं का दोष थोपकर चित्त हलका करने की विडम्बना चलती रहती है। समझदारी बढ़ने पर ही यह पता चलता है कि घटिया व्यक्तित्व ही पिछड़ेपन से लेकर समस्त संकटों के घाट हैं। मनःस्थिति के अनुरूप परिस्थिति बनती है उसे विचारशील ही स्वीकार करते हैं। अन्यथा आमतौर से कठिनाइयों के कारण बाहर ही ढूंढ़े जाते हैं। गहराई में प्रवेश किये बिना न तो वास्तविकता जानी जा सकती है और न उनके निवारण का कारगर उपाय ही बन पड़ता है। व्यक्तित्व का घटियापन सूझ ही न पड़े—उनके सुधार की कोई योजना बने ही नहीं तो परिस्थितियों की विपन्नता का समाधान ही नहीं सकता। वे एक से दूसरा रूप भर बदलती रहेंगी।
बहुत समय पहले शारीरिक रोगों को बाहरी भूत-पलीतों का आक्रमण माना जाता था। पीछे बात, पित्त, कफ का ऋतु प्रभाव का कारण उन्हें माना गया। उसके बाद रोग कीटाणुओं के आक्रमण की बात समझी गई। रोगों की शोधों में अगला चरण यह बना कि आहार की विकृति से पेट में सड़न पैदा होती है और उस विष से रोग उत्पन्न होते हैं। यह क्रम अधिकाधिक गहराई में प्रवेश करने का—अधिक बुद्धिमत्ता का—स्थूल से सूक्ष्म में उतरने का है। इस प्रगतिक्रम में उतरते-उतरते इन दिनों आरोग्य शास्त्र के मूर्धन्य क्षेत्र में इस तथ्य को खोज निकाला गया है कि शारीरिक रोगों के सन्दर्भ में आहार-विहार, विषाणु, आक्रमण आदि को तो बहुत ही स्वल्प मात्रा में दोषी ठहराया जा सकता है। रुग्णता का असली कारण व्यक्ति की मनःस्थिति है। मनोविकारों की विषाक्तता यदि मस्तिष्क पर छाई रहे तो उसका अनुपयुक्त प्रभाव नाड़ी संस्थान के माध्यम से समूचे शरीर पर पड़ेगा। फलतः दुर्बलता और रुग्णता का कुचक्र बढ़ते-बढ़ते अकाल मृत्यु तक का संकट खड़ा कर देगा। नये अनुसंधान जीवनी शक्ति का केन्द्र हृदय को नहीं मस्तिष्क को मानते हैं। रक्त की न्यूनाधिकता या विषाक्तता को रुग्णता का उतना बड़ा कारण नहीं माना जाता जितना कि मानसिक अवसाद एवं आवेश को।
इन शोध प्रयासों में नये-नये तथ्य सामने आये हैं। उनसे पता चलता है कि शरीर की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष क्रियाओं पर पूरी तरह मानसिक अनुशासन ही काम करता है अचेतन मन की छत्र-छाया में रक्ताभिषण, आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास-प्रश्वास, निमेष-उन्मेष, ग्रहण-विसर्जन, निद्रा-जागृति आदि की अनैच्छिक कहलाने वाली क्रियाएं चलती रहती हैं। चेतन मन के द्वारा बुद्धिपूर्वक किये जाने वाले क्रिया-कलापों और लोक व्यवहारों का ताना-बाना बुना जाता है। शरीर की परोक्ष और प्रत्यक्ष क्षमता पूरी तरह अचेतन और चेतन कहे जाने वाले मनःसंस्थान के नियंत्रण में रहती है, उसी के आदेशों का पालन करती है। शरीर का पूरा-पूरा आधिपत्य मन मस्तिष्क के ही हाथों में रहता है। उस क्षेत्र की जैसी भी कुछ स्थिति होती है उसका प्रभाव शरीर पर पड़ता है। यदि मस्तिष्क आवेशग्रस्त होगा तो शरीर के अवयवों में उत्तेजना और बेचैनी छाई रहेगी। इस स्थिति में ऐसे रोग उत्पन्न होंगे जिनसे शरीर के उत्तेजित होने, गरम होने, फटने-फूटने जैसे अनुभव होने लगेंगे। यदि मस्तिष्क उदास-हताश, शिथिल हो जायगा तो उस अवसाद का प्रभाव अंग अवयवों की दुर्बलता के रूप में देखा जा सकेगा।
यह मोटा निष्कर्ष हुआ। बारीकी में उतरने पर पता चलता है कि अमुक शारीरिक रोग, अमुक मनोविकार के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं और वे तब तक बने ही रहते हैं जब तक कि मानसिक स्थिति में कारगर परिवर्तन न हो जाय। इस अनुसंधान ने उस असमंजस को दूर कर दिया है जिसके अनुसार रोगियों को चिकित्सकों के दरवाजे पर ठोकरें खानी पड़ती हैं। नित नई दवाएं बदलनी पड़ती हैं। किन्तु आशा निराशा के झूले में झूलते हुए समय भर बीतता रहता है। रोग हटने का नाम ही नहीं लेते। तेज औषधियां अधिक से अधिक इतना कर पाती हैं कि बीमारी के स्वरूप और लक्षण में थोड़ा-बहुत फेर बदल प्रस्तुत कर दें। जीर्ण रोगियों में से अधिकांश का इतिहास यही है। जिससे औषधि उपचार की निरर्थकता ही सिद्ध होती रहती है। आहार-विहार जन्य साधारण रोग तो शरीर की निरोधक जीवनी शक्ति ही अच्छे करती रहती है। उसी का श्रेय चिकित्सकों को मिल जाता है। सचाई तो यह है कि एक भी छोटे या बड़े रोग का शर्तिया इलाज अभी तक संसार के किसी भी कोने में किसी भी चिकित्सक के हाथ नहीं लगा है। कोई भी औषधि अपने आश्वासन को पूरा कर सकने में सफल नहीं हुई है। अंधेरे में ढेले फेंकने जैसे प्रयास ही चिकित्सा क्षेत्र में चलते रहते हैं, उसी भगदड़ में कभी-कभी किसी अन्धे के हाथ बटेर लग जाती है यदि ऐसा न होता तो कम से कम चिकित्सकों को खुद तो रुग्ण रहना ही न पड़ता और उनके घर वाले सम्बन्धी तो बीमारियों से ग्रसित नहीं ही रहते। देखा यह गया है कि दवाओं की भरमार बीमारियों को घटाती नहीं वरन् उस नई विषाक्तता के शरीर में घुस पड़ने से नये-नये उपद्रव और खड़े होते हैं। सच तो यह है कि चिकित्सकों के शरणागत रहने वालों की अपेक्षा वे कहीं अधिक नफे में रहते हैं जिन्हें चिकित्सा का सौभाग्य या अभिशाप प्राप्त कर सकने का अवसर ही नहीं मिल सका।
शरीर शास्त्री अब इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि आरोग्य और रुग्णता की कुंजी मनःक्षेत्र में सुरक्षित है। मानसिक असन्तुलन और प्रदूषण का निराकरण किये बिना किसी को भी स्वस्थ शरीर का आनन्द नहीं मिल सकता। जीवनी शक्ति का पिछले दिनों बहुत गुणगान होता रहा है। उसे प्राप्त करने के लिए आकाश पाताल के कुलावे भी मिलाये जाते रहे हैं। टानिकों, हारमोन और ग्रन्थि आरोपणों जैसे प्रयोग परीक्षणों की भरमार रही है। किन्तु गरीबों की बात तो दूर कोट्याधीश, शासनाध्यक्ष एवं स्वयं चिकित्सकों तक को उस प्रयास में कुछ पल्ले न पड़ा। अब यह निर्णय निकला है कि जीवनी शक्ति कोई शरीर गत स्वतन्त्र क्षमता नहीं है वरन् जिजीविषा की मानसिक प्रखरता ही अपना परिचय जीवनी शक्ति के रूप में देती रहती है। मानसिक स्थिति के उतार-चढ़ावों के अनुरूप यह जीवनी शक्ति भी घटती बढ़ती रहती है। शरीर की बलिष्ठता, सक्रियता, स्फूर्ति ही नहीं कोमलता, सुन्दरता और कान्ति तक मानसिक स्थिति पर अवलम्बित है। विपन्नता की मनःस्थिति में भय, शोक, क्रोध आदि के अवसर आने पर तो तत्काल आकृति से लेकर शरीर की सामान्य स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ते प्रत्यक्ष देखा जाता है। यदि मनोविकार जड़ जमा लें तो समझना चाहिए कि शरीर एक प्रकार से विपन्नता में फंस ही गया और उस दलदल से निकल सकना चिकित्सा उपचार के बलबूते की बात भी नहीं रह गई है।
अब आरोग्य दशा और रोग निवृत्ति की दोनों ही आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनःसंस्थान की खोज-बीन करना आवश्यक हो गया है और समझा जाने लगा है कि यदि मनुष्य के चिन्तन क्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों की ओर ध्यान नहीं दिया गया। वहां जमी हुई वितृष्णाओं और विपन्नताओं का समाधान न किया गया तो आहार-विहार का सन्तुलन बनाये रहने पर भी रुग्णता से पीछा छूट नहीं सकेगा। चिकित्सा उपचार से भी मन बहलाने के अतिरिक्त और कुछ प्रयोजन सिद्ध हो नहीं सकेगा। अब क्रमशः औषधि उपचार का महत्व घटता जा रहा है और मानसोपचार को प्रमुखता दी जा रही है। मानसिक बीमारियों की पिछले दिनों अलग से गणना होती रही है और उनका क्षेत्र अलग रहा है। अब नये शोध प्रयोजनों ने कुछ दुर्घटना जैसे आकस्मिक कारणों से उत्पन्न होने वाले रोगों को ही शारीरिक माना है और लगभग समस्त बीमारियों को मनःक्षेत्र की प्रतिक्रिया घोषित किया है। गहरी खोजों के फलस्वरूप आरोग्य जैसे मानवी-जीवन के अति महत्वपूर्ण प्रयोजन पर नये सिरे से विचार करना होगा और आहार-विहार के ही गीत न गाते रहकर यह देखना होगा कि मनस्विता बनाये रहने के लिये क्या कुछ किया जा सकता है?
मानसिक विकृतियों में से सामयिक उलझनों के कारण तो बहुत थोड़े-से ही होती हैं। अधिकतर उनका कारण नैतिक होता है। छल, दुराव एवं ढोंग, पाखण्ड के कारण मनुष्य के भीतर दो व्यक्तित्व उत्पन्न हो जाते हैं। एक वास्तविक दूसरा पाखण्डी। दोनों के बीच भयंकर अंतर्द्वंद्व खड़ा रहता है। दोनों एक दूसरे के साथ शत्रुता बनाये रहते हैं और विरोधी को कुचलकर अपना वर्चस्व बनाने का प्रयत्न करते हैं। यह देवासुर संग्राम सारे मनःक्षेत्र को अशान्त उद्विग्न बनाये रहता है। इस विग्रह के फलस्वरूप अनेकों रोग उठ खड़े होते हैं और वे वैसे ही मानसिक स्थिति बने रहने तक हटने का नाम नहीं लेते।
शारीरिक रोग प्रत्यक्ष होते हैं। इसलिए उनकी जानकारी भी सहज ही मिल जाती है और दवा दारू से इनका इलाज होने के भी साधन मौजूद रहते हैं। मानसिक रोगों के प्रायः विक्षिप्त स्तर के ऐसे लोग गिने जाते हैं जो अपना सामान्य काम-काज चला सकने में असमर्थ हो गये हों, जिनका शरीर निर्वाह और लोक व्यवहार लड़खड़ाने और अटपटाने लगा हो जो अपने लिए और साथी सम्बन्धियों के लिए भार बन गये हों। ऐसे रोगियों की संख्या भी लाखों से आगे बढ़कर करोड़ की संख्या अपने ही देश में छूने लगी है। यह विज्ञान विक्षिप्त हुए हैं। ऐसे लोगों की संख्या का कोई ठिकाना नहीं जो रोजी रोटी तो कमा लेते हैं और खाते सोते समय भी साधारण लगते हैं, पर उनका चिन्तन विचित्र और विलक्षण होता है। कितने ही दुष्टता की भाषा में सोचते और हर किसी पर दोषारोपण करते हुए शत्रुता की परिधि में लपेटते हैं। कितने ही आशंकाओं, सन्देहों, आक्षेपों के इतने अभ्यस्त होते हैं कि उन्हें अपनी पत्नी, बेटी, बहिन आदि तक के चरित्र पर अकारण सन्देह बना रहता है।
सम्बन्धियों और पड़ौसियों को अपने विरुद्ध कुचक्र रचते हुए देखते हैं। दुर्भाग्य और ग्रह नक्षत्रों के प्रकोप से कितने ही हर घड़ी कांपते रहते हैं और विपत्ति का पहाड़ अपने ऊपर टूटता ही अनुभव करते हैं। शेख चिल्लियों के से मनसुये बांधते रहने वाले, सम्भव, असम्भव का विचार किये बिना अपने सपनों की एक अनोखी दुनिया बनाये बैठे रहते हैं। न अपनी पटरी दूसरों के साथ बिठा पाते हैं न किसी और को अपना घनिष्ठ बनने का अवसर देते हैं। परिस्थिति का मूल्यांकन कर सकना दूसरों की मनःस्थिति और परिस्थिति समझ सकना उनके लिए सम्भव ही नहीं होता। अटपटे अनुमान लगाते और बेतुके निष्कर्षों पर पहुंचते हैं। विचार जो भी उठें वे एक पक्षीय सनक की तरह बिना किसी तर्क-वितर्क का आश्रय लिये बेलगाम के घोड़े पर चढ़कर दौड़ते चले जाते हैं। जो सोचा जा रहा है उसका आधार क्या है—और उस सनक पर चढ़े रहने का अन्ततः परिणाम क्या निकलेगा इतना समझ पाना उनके क्षत-विक्षत मस्तिष्क के लिए सम्भव ही नहीं होगा। अकारण मुंह लटकाये बैठे रहने वाले, जिस-जिस पर दोषारोपण करने वाले—दुर्भाग्य की कुरूप तस्वीरें गढ़ने में उन्हें देर नहीं लगती। दुनिया को निस्सार बताने वाले आत्म हत्या की बात सोचते रहने वालों की संख्या अपने ही इर्द-गिर्द ढेरों मिल सकती है। हंसी-खुशी से उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। कहीं न कहीं से मुसीबत की कल्पना ढूंढ़ लाते हैं और स्वयं दुःख पाते—साथियों को दुःख देते—जिन्दगी की लाश ढोते रहते हैं। यह सनक कभी-कभी आक्रामक हो उठती है तो जो भी उसकी चपेट में आता है उसे सताने में कसर नहीं छोड़ते। मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र समझने में उनकी अदूरदर्शिता पग-पग पर झलकती रहती है। ठगों के आये दिन शिकार होते रहते हैं। आयु बड़ी हो जाने पर भी सोचने का तरीका बालकों जैसा ही बना रहता है। किसी महत्वपूर्ण प्रसंग में उनका परामर्श तनिक भी काम का सिद्ध नहीं होता। अपनी कार्य पद्धति को किसी उद्देश्य के साथ जोड़ सकना उनसे बन नहीं पड़ता। जैसे-तैसे समय गुजारते हुए—ज्यों-त्यों करके ही मौत के दिन पूरे कर लेते हैं। इन्हें पागल तो नहीं कह सकते, पर व्यक्तित्व की परख की दृष्टि से उससे कुछ अच्छी स्थिति में भी उन्हें नहीं समझा जा सकता।
विक्षिप्त-अर्धविक्षिप्त और विक्षिप्तता के सन्निकट-सनकी लोगों से प्रायः आधा समाज भरा पड़ा है। मूढ़ मान्यताओं-कुरीतियों, अन्धविश्वासों से जकड़े हुए लोगों में तर्क शक्ति एवं विवेक बुद्धि का अभाव रहता है। उनके लिए अभ्यस्त ढर्रा ही सब कुछ होता है। उस लक्ष्मण रेखा से बाहर जाने में उन्हें भय लगता है। स्वतन्त्र चिंतन का प्रकाश उनकी आंखें चौंधिया देता है और औचित्य को समझने स्वीकार करने का साहस ही नहीं पड़ता। यह सुसंस्कारहीनता का, अविकसित एवं विकृत व्यक्तित्व का परिणाम ही है।
संचित पाप कर्म : संकटों के कारण
शारीरिक रोग मानसिक विक्षेप, दरिद्रता, दुर्घटना, अकाल मृत्यु, विपत्ति, संकट आदि अनेकों आकस्मिक आपत्तियों के कारण प्रायः पूर्व संचित पाप ही होते हैं। उनका कारण मात्र व्यवहार व्यतिक्रम ही नहीं होता वरन् संचित पाप प्रारब्ध की भी बहुत बड़ी भूमिका होती है। मरने के उपरान्त नरक, प्रेतयोनि, निकृष्ट योनियों में जन्म जैसी दुर्गतियों का कारण भी यह कुसंस्कारी संचय ही होता है। शास्त्र कहता है—
पापेन जायते व्याधिः पापेन जायते जरा ।
पापेन जायते दैन्यं दुःखं शोको भयङ्करः ।।
पाप से व्याधि, वृद्धत्व, दीनता, दुःख और भयंकर शोक की प्राप्ति होती है। छोटे और बड़े पापों के क्रम से छोटे और बड़े फल प्राणी को भोगने पड़ते हैं।
आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम् ।
दारिद्रयदुःखरोगानि बन्धनव्यसनानि च ।।2।।
—चाणक्य
मनुष्य को अपने अपराध रूपी वृक्ष से दरिद्रता, रोग, दुःख बन्धन और विपत्ति आदि फल मिलते हैं।
उभयमेव तत्रोपयुज्यते फलं धर्मस्यैवेतरस्य च ।।
—महाभारत
राजन्! धर्म और पाप दोनों के पृथक्-पृथक् फल होते हैं और उन दोनों का ही उपभोग करना पड़ता है।
आचराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिताः प्रजाः ।
आचाराद्धनमक्षय्यमाचारो हन्त्यलक्षणम् ।।
दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः ।
दुःखभागी च सततं व्याधितीऽल्यायुरेव च ।।
—मनु.
श्रेष्ठ आचरण का जीवन जीने वाला दीर्घजीवी होता है। श्रेष्ठ सन्तान पाता और सम्पन्नता प्राप्त करता है। बुरों को भी सुधार देता है।
दुराचारी निन्दित होता है। दुःख भोगता है। अल्पजीवी होता है। रोगी रहता है।
इतना सब जान लेने के उपरान्त हमें एक ही निश्चय निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि चेतन की मूल सत्ता अन्तःकरण को प्रभावित करने वाले नैतिक और अनैतिक विचार एवं कर्म ही हमारी भली और बुरी परिस्थितियों के लिए पूर्णतया उत्तरदायी हैं। इसी उद्गम से हमारे उज्ज्वल भविष्य का आधार खड़ा होता है और यहीं से विपत्तियों के जाल गिराने वाली दुःखद सम्भावनायें विनिर्मित होती हैं। इस मूल केन्द्र का परिशोधन करना ही एक प्रकार से आन्तरिक काया-कल्प जैसा प्रयास है। प्रस्तुत संकटों से छुटकारा पाने और निकट भविष्य में फलित होने वाले संचित प्रारब्धों का निराकरण करने के लिए आन्तरिक परिशोधन का प्रयास इतना अधिक आवश्यक है कि उसे अनिवार्य की संज्ञा दी जा सकती है और कहा जा सकता है कि विष वृक्ष की जड़ काटने से ही काम चलेगा। टहनियां तोड़ने और पत्तियां गिराने से स्थायी समाधान बन नहीं पड़ेगा।
साधारणतया समझाने-बुझाने की पद्धति ही सुधार परिवर्तन के लिए काम में लायी जाती है; पर देखा यह गया है कि भीतरी परतों पर जमे हुए कुसंस्कार इतने गहरे होते हैं कि उन पर समझाने-बुझाने का प्रभाव बहुत ही थोड़ा पड़ता है। देखा जाता है कि नशेबाजी जैसी आदतों से ग्रसित व्यक्ति दूसरे अन्य समझदारों की तरह ही उस बुरी आदत की हानि स्वीकार करते हैं। दुःखी भी रहते हैं और छोड़ना भी चाहते हैं, पर उस आन्तरिक साहस का अभाव ही रहता है जिसकी चोट से उस अभ्यस्त कुसंस्कारिता को निरस्त किया जा सके। इस विवशता से कैसे छूटा जाय? इसका उपयुक्त उपाय सूझ ही नहीं पड़ता। लगता रहता है कि कोई दैवी दुर्भाग्य ऐसा पीछे पड़ा है जो विपत्ति से उबरने का कोई आधार ही खड़ा नहीं होने देता। पग-पग पर अवरोध ही खड़े करता और संकट पटकता भी वही दीखता है। यह दुर्भाग्य और कोई नहीं, अपने अन्तरंग पर छाये हुए कषाय−कल्मष कुसंस्कार ही हैं, जो अभ्यास और स्वभाव का अंग बन जाने के कारण छुड़ाये नहीं छूटते और पटक-पटककर मारते हैं। नरक के यमदूतों जैसा त्रास देते हैं। इस विपन्नता को उलटने का समर्थ उपचार आन्तरिक परिशोधन ही है।
दुष्कर्मों के संग्रहीत प्रतिफल को प्रारब्ध एवं भाग्य विधान को सुधारने और सरल बनाने के लिए भारतीय धर्म शास्त्रों में एक मात्र विधान प्रायश्चित्त का ही है। प्रायश्चित्त का एक सुविस्तृत तत्वज्ञान और सुनिश्चित विधि-विधान है। यों सस्तेपन की बचकानी घुस-पैठ ने इस क्षेत्र को भी अछूता नहीं छोड़ा है और प्राचीन विधि-विधानों को ओछी और बचकानी नकलें बनाकर उस महान प्रयोजन को भी उपहासास्पद ही बना दिया गया है। वस्तुतः प्रायश्चित्त विधान का वजन किये गये पाप कर्मों के फलस्वरूप मिलने वाले दण्ड के समतुल्य ही जा पहुंचता है।अन्तर थोड़ा-सा ही रह जाता है। किसी की चोरी करने पर पुलिस और अदालत द्वारा कठोर जेल-दण्ड भुगतना पड़ता है या अपनी भूल स्वयं समझकर जिसकी चोरी की है उसके सामने दुःखी होते और जितना सम्भव है उतना लौटा देने से अपेक्षाकृत कम कष्ट सहने में काम चल जाता है। यही बात प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में भी है। भूल स्वीकार करने-किये का पश्चात्ताप करने और भविष्य में वैसा न करने की भावभरी मनःस्थिति में अपराधी मनोवृत्ति का परिवर्तन का चिह्न है। यह चिह्न ही पाप दण्ड को हलका करने का प्रधान आधार होता है। उसके उपरान्त क्षति-पूर्ति का प्रश्न सामने आता है। जो हानि पहुंचाई गई है। अनाचरण से अन्तःकरण को कलुषित और वातावरण को दूषित करने का सदाचार बन पड़ा है। उसकी क्षति पूर्ति दो प्रकार से हो सकती है एक तो अनाचार का जितना गहरा गड्ढा खोदा गया है उसे पाटा जाय अर्थात् क्षति पूर्ति कर सकना वर्तमान परिस्थितियों में जितना कुछ सम्भव रह गया है उसे पूरा किया जाय उसके अतिरिक्त अन्तःकरण पर उन कुकर्मों के कुसंस्कार जमे हों उन्हें कुछ नये पुण्य कर्म करके सुसंस्कारों की नई स्थापना की जाय। जिनका श्रेष्ठ प्रभाव नये सिरे से अन्तःकरण पर जमे और मलीनता की संचित परतों को हटा सकने में समर्थ बन सके। इसी नीति को अपनाने में समाज की पहुंचाई गई क्षति पूर्ति भी सम्भव हो सकती है।
इन्हीं सब तत्वों का सम्मिश्रण प्रायश्चित्त विधान है। उसमें वे सिद्धान्त बीज रूप से मौजूद हैं जो अशुभ भाग्य विधान को काट सकने में—अन्धकारमय भविष्य की विभीषिका को निरस्त करने में समर्थ हो सकते हैं। अपराध कर्त्ता की इसी में शालीनता, सज्जनता और साहसिकता भी है। जिस दुस्साहस से प्रेरित होकर कुकर्म किये हैं उसी स्तर का सत्साहस जुटाने वाला ही अपने संचित दुष्प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह करते और उसके उन्मूलन में जुट जाने का सत्साहस कर सकता है। उस साहस में वीरता और शालीनता के चिह्न हैं। इसलिए उसका परिणाम परिवर्तनकारी—सुधार परायण एवं मंगलमय सिद्ध होता है तो यह उचित ही है।
प्रायश्चित का अर्थ गिड़गिड़ाना या सस्ते मोल में विधि-विधान से बच निकलना नहीं, वरन् क्षति पूर्ति करना है। दुष्कर्मों से अपने अन्तःकरण की—विचार संस्थान की तथा काय कर्मों में जिस प्रकार दुष्प्रवृत्तियों से भर दिया गया था उसी साहस और प्रयास के साथ इन तीनों संस्थानों के परिमार्जन, परिशोधन एवं परिष्कार की प्रक्रिया को प्रायश्चित कहा गया है। पाप कर्मों से समाज को क्षति पहुंचती है। सामान्य मर्यादा प्रवाह में व्यवधान उत्पन्न होता है। लोक परम्परायें नष्ट होती हैं। अनेकों को कुमार्ग पर चलने के लिए अनुकरण का उत्साह मिलता है। जिन्हें क्षति पहुंची है वे विलाप करते हैं और उससे वातावरण विक्षुब्ध होकर सार्वजनिक सुख-शान्ति के लिए संकट उत्पन्न करता है। ऐसे-ऐसे अन्य अनेकों कारण हैं जिन्हें देखते हुए समझा जा सकता कि जिसे पाप कर्म द्वारा क्षति पहुंचाई गई अकेले उसी की हानि नहीं हुई प्रकारान्तर से सारे समाज को क्षति पहुंची है। विराट् ब्रह्म को—विश्व मानव को ही परमात्मा कहा गया है। यह एक प्रकार से सीधा परमात्मा पर आक्रमण करना, उसे आघात पहुंचाना और रुष्ट करना हुआ। अपराध भले ही व्यक्ति या समाज के प्रति किये गये हों उनका आघात सीधे ईश्वर के शरीर पर पड़ता है और उसे तिलमिलाने वाले कभी सुखी नहीं रहते।
अवांछनीयताओं का तत्काल परिशोधन होता रहे। गन्दगी जमा न होने पाये यह उचित है। देर तक जमा रहने के उपरान्त गन्दगी की सड़न अधिकाधिक बढ़ती जाती है। शरीर में जमा हुआ विजातीय द्रव्य जितने अधिक समय तक ठहरेगा। उसी अनुपात से विष बढ़ता जायगा और सामान्य रोगों की अपेक्षा उससे असाध्य बीमारी उपजेगी। पुराना कर्जा ब्याज समेत कई गुना हो जाता है।
मनोमालिन्य बहुत समय तक टिका रहे तो वह द्वेष प्रतिशोध का रूप धारण कर लेता है। संचित पाप कर्मों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उनका प्रतिफल भुगतने में जितनी देर होगी उतनी ही प्रतिक्रिया भयंकर होगी। नया अपच जुलाब की एक गोली से साफ हो जाता है किन्तु यदि कई दिन तक मल रुका रहे तो उसकी पत्थर जैसी कठोर गांठें बनकर ऐसे भयंकर उदर शूल का कारण बनती हैं, जिनके लिए पेट फाड़ कर गांठें निकालने के अतिरिक्त और कोई चारा ही शेष नहीं रह जाता। गन्दगी को जितनी जल्दी हटाया जा सके उतना ही उत्तम है।
इस जन्म के विदित और स्मृत पापों से लेकर जन्म-जन्मान्तरों तक के पापों का निराकरण आवश्यक है। उन्हें निकालना और निरस्त करना आवश्यक है। विष खा जाने की गलती का परिमार्जन इसी प्रकार हो सकता है कि पेट और आंतों की धुलाई करके वमन विरेचन आदि द्वारा उसे जल्दी से जल्दी निकाल बाहर किया जाय। प्राण संकट उसी उपाय से टल सकता है। प्रायश्चित ही परिशोधन का एक मात्र उपाय है। नदी, तालाबों में स्नान करने से—देव मन्दिरों का दर्शन करने से या छुट-पुट से ही अन्य ऐसे ही उपचार कर देने से पाप नष्ट हो जायेंगे ऐसा सोचना भूल है। यदि ऐसे ही दुष्कर्मों के दण्ड से छुटकारा मिल जाया करेगा तो फिर निर्भय होकर लोग वैसे ही कुकृत्य करते रहेंगे और दण्ड से बच निकलने के लिए ऐसे ही सस्ते तरीके ढूंढ़ लिया करेंगे। राज दण्ड से बचने के लिए रिश्वत का पहले ही बोलबाला है। लोक-सेवी और धर्मात्मा का आडम्बर रचकर उसकी आड़ में समाज दण्ड से भी बचाव हो जाता है। ईश्वरीय दण्ड ही एक मात्र पाप से डरने का कारण रह गया था। उसी अंकुश से नीति-निष्ठा बनी रहने की सम्भावना है यदि उसे उसे भी सस्ते कर्मकाण्डों के सहारे झुठला दिया गया तो समझना चाहिए कि उसे आधार पर भरपेट पाप करते रहने और सरलता पूर्वक ईश्वरीय दण्ड से बच निकलने का एक और नया भ्रष्टाचार खड़ा हो गया। शारीरिक और मानसिक दुष्प्रवृत्तियों के परिमार्जन का एकमात्र उपाय प्रायश्चित ही है। उसमें दण्ड भुगतने—क्षति पूर्ति करने और भविष्य में वैसी गलती न करने के तीनों ही वे तत्व घुले हुए हैं जिनके सहारे भूल सुधारने और अन्धकार को प्रकाश में बदलने का अवसर मिलता है।