स्वर्ग नरक की स्वचालित प्रक्रिया

संसार कर्मफल-व्यवस्था के आधार पर चल रहा है

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यह संसार कर्मफल व्यवस्था के आधार पर चल रहा है—जो जैसा बोता है वह वैसा काटता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। पेण्डुलम एक ओर चलता है तो लौटकर उसे फिर वापिस अपनी जगह आना पड़ता है। गेंद को जहां फेंक कर मारा जाय वहां से लौटकर उसी स्थान पर आना चाहेगी जहां से फेंकी गई थी। शब्द वेधी बाण की तरह भले-बुरे विचार अन्तरिक्ष में चक्कर काट कर उसी मस्तिष्क पर आ विराजते हैं, जहां से उन्हें छोड़ा गया है। कर्म के सम्बन्ध में भी यही बात है। दूसरों के हित-अहित के लिए जो किया गया है उसकी प्रतिक्रिया कर्त्ता के ऊपर तो अनिवार्य रूप से बरसेगी, जिसके लिए वह कर्म किया गया था, उसे हानि या लाभ भले ही न हो। गेहूं से गेहूं उत्पन्न होता है और गाय अपनी ही आकृति-प्रकृति का बच्चा जनती है। कर्म के सम्बन्ध में भी यही बात है, वे वन्ध्य, नपुंसक नहीं होते। अपनी प्रतिक्रिया सन्तति उत्पन्न करते हैं। उनके प्रतिफल निश्चित रूप से उत्पन्न होते हैं। यदि ऐसा न होता तो इस सृष्टि में घोर अन्धेर छाया हुआ दीखता तब कोई कुछ भी कर गुजरता और प्रतिफल की चिन्ता न करता। शास्त्रों का अभिमत इस सन्दर्भ में स्पष्ट है—

यत् करोत्यशुभं कर्म शुभ वा यदि सत्तम । अवश्यं तत् समाप्नोति पुरुषो नात्र संशयः ।।

—महाभारत वन. आ. 208 मनुष्य जो शुभ या अशुभ कार्य करता है, उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है, इसमें संक्षय नहीं है। ज्ञानोदयात् पराऽऽरब्धं कर्म ज्ञानान्न नश्यति । यदत्वा स्वफलं लक्ष्यमुद्दिश्यात्सृष्टबाणवत् ।। —अक्ष्युपनिषद 2।53

ज्ञान का उदय हो जाने पर भी पूर्वकृत कर्मों के प्रारब्ध भोग तो भोगने ही पड़ते हैं। उनका नाश नहीं होता। धनुष से छूटा हुआ तीर प्रहार करता ही है। आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम् । दारिद्र्यदुःखरोगानि बन्धनव्यसनानि च ।।

मनुष्यों को अपने अपराध रूपी वृक्ष के दरिद्रता, रोग, दुःख, बन्धन और विपत्ति आदि फल मिलते हैं। उभयमेव तत्रोपयुज्यते फलं धर्मस्यैवेतरस्य च । —महाभारत, उद्योगपर्व 23 राजन्! धर्म और पाप दोनों के पृथक्-पृथक् फल होते हैं और उन दोनों का ही उपभोग करना पड़ता है। अपने किये हुए पाप अथवा पुण्य के फल मनुष्यों को भोगने ही पड़ते हैं। भोगने से ही कर्मफल भुगता जाता है। भोगे बिना कोई रास्ता नहीं, भोगे बिना शुद्धि नहीं होती और तभी कर्म बन्धन से छुटकारा मिलता है। जो पानी हैं वे दरिद्र हैं। क्लेश, भय और संकट, सन्तापों से घिरे रहते हैं और बेमौत मरते हैं। पुण्यात्माओं के उनके शुभ कर्मों के सत्परिणाम अनेक सुख-साधनों के रूप में उपस्थिति होते रहते हैं।

पादन्यासकृतंदुःखकण्डकोत्थप्रयच्छति । तत्प्रभूततरस्थूलशंकुकीलकसम्भवम् ।। दुःखंयच्छतितद्वच्चशिरोरोगादिदुःसहम् । अपथ्याशनशीतोष्णश्रमतापादिकारकम् ।। —मार्कण्डेय पुराण (कर्मफल)

पैर में कांटा लगने पर तो एक ही जगह पीड़ा होता है। पर पाप कर्मों के फल से तो शरीर और मन में निरन्तर शूल उत्पन्न होते रहते हैं।

न केचित्प्राणिन सन्ति ये न यान्ति यमक्षयम् । अवश्यं हि कृतं कर्म भोक्तव्यं द्विचार्य्यताम् ।। —शिव पुराण

अपना किया हुआ कर्म सभी को अवश्य ही भोगना पड़ता है। इसलिये ऐसे कोई भी प्राणी नहीं हैं जो यमराज के लोग को नहीं जाते हैं। शुभ-अशुभ कर्मों का निर्णय वहां पर ही होता है। आत्मनैव कृतं कर्म ह्यात्मनैवोपभुज्यते । इह वा प्रेत्य वा राजंस्त्वया प्राप्तं यथा तथा ।।

—महाभारत भीष्म. आ. 77 आत्मा से अर्थात् स्वयं किया हुआ कर्म आत्मा से ही अर्थात् स्वयं ही भोगता, चाहे इस जगत में, चाहे परलोक में अपना ही भोगता है। नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्प कोटि शतैरपि । अवश्य एए भोक्तव्यं कृत कर्म शुभाशुभम् ।। —ब्रह्मवैवर्त प्रकृति अ. 37

बिना भोग के सौ करोड़ कल्प तक भी कर्म का नाश नहीं होता। जो कुछ किया है, उसका फल जरूर भोगना पड़ेगा। इस भोग का कारण कर्तृत्वाभिमान है जीव अभिमान के वशीभूत होकर सोचता है कि मैं ही कर्ता हूं, किन्तु वास्तव में जीव अकर्ता है।

स्वयमात्सकृतं कर्म शुभं वा यदि वाऽशुभम् । प्राप्ते काले तु तत्कर्म दृश्यते सर्व देहिनाम् ।।
—हरि. पु. उग्रसेन अभि. 25 संसार के सम्पूर्ण प्राणियों को अपने कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। चाहे वह शुभ कर्म हो या अशुभ कम हो। शुभ कर्मों का परिणाम सुखद होता है और अशुभ कर्मों का फल दुःखद होता है। स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयंन्तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे स्वयंन्तस्माद्विमुच्यते ।।
—चाणक्य

जीव आप ही कर्म करता है, उसका फल भी आप ही भोगता है, आप ही संसार में भ्रमण करता है और आप ही उससे मुक्त भी होता है, इसमें उसका कोई साझी नहीं। तस्मिन् वषें नरः पापं कृत्वा धर्म्मच भो द्विजाः । अवश्यं फलमाप्नोति अशुभस्य शुभस्य च ।।
—ब्रह्म पुराण

मनुष्य पापकर्म करके तथा धर्म का कर्म करके अवश्य ही फल प्राप्त किया करता है चाहे वह कोई शुभ कर्म करे तो उसका अच्छा फल उसे अवश्य मिलता है और चाहे वह अशुभ कर्म करे तो उसका भी वह फल प्राप्त किया करता है।
सुखं वा यदि वा दुःखं यत्किंचित क्रियते परे । ततस्ततु पुनः पश्चात सर्वात्मनि जायते ।।
—दक्ष स्मृति 21

सुख या दुःख जो भी दूसरों के लिये किये जाते हैं वे कुछ बाद में पीछे सब अपने ही लिये उत्पन्न होते हैं।
यथा मृत्यिण्डतः कर्ता कुरुते यद्यदिच्छति । एवमात्मकृतं कर्म मानवः प्रतिपद्यते ।। यथा छाया तपौ नित्यं सुसम्बद्धौ निरन्तरम् । तथा कर्म च कर्ता च सम्बद्धावात्मकमभिः ।। —म.अनु.प.अ. 1।74-75
जैसे मिट्टी के पिण्ड से कर्ता (कुम्हार) जो-जो चाहता है सो करता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने किये हुए कर्मानुसार फल प्राप्त करता है। जैसे छाया एवं धूप निरन्तर नित्य साथ हैं वैसे ही कर्म और कर्ता अपने किये कर्मों से बंधे हैं।

शुभानामशुभाना च नेह नाशोस्ति कर्मणाम् । प्राप्यप्राप्यानुपच्यन्ते क्षेत्रं क्षेत्रं यथा तथा । क्षेत्रं कर्मजमाप्नोति शुभं वा यदि वाऽशुभम् ।। —म.आश्वमे.प.अ. 18।5

इस संसार में शुभ और अशुभ कर्मों का नाश नहीं होता यथा खेत-खेत को प्राप्त कर पकता जाता है, फल लाता जाता है। इसी प्रकार कर्मों के पाक या फल का भी क्रम चलता रहता है। तदनुसार ही शुभ एवं शरीर को मनुष्य कर्मानुसार प्राप्त किया करता है। देर है, अन्धेर नहीं कर्म का प्रतिफल मिलने में थोड़ी देर लगने से अधीर लोग आस्था खो बैठते हैं और दुष्कर्म के दण्ड से बचे रहने की बात सोचने लगते हैं। विलम्ब के कारण कोई आस्था न खोयें यह चेतावनी देते हुए शास्त्र कहते हैं—

नाधर्मः कारणोपेक्षी कर्तामभिमुञ्चति । कर्ताखलु यथा कालं ततः समभिपद्यते ।। (महा.शान्ति.अ. 298)

अधर्म किसी भी कारण की अपेक्षा से कर्त्ता को नहीं छोड़ता निश्चय रूप से करने वाला समयानुसार किये कर्म के फल को प्राप्त होता है ।8। अवश्यमेव लभते फलं पापस्य कर्मण । भतः पर्यागते काले कर्त्ता नास्त्यत्र संशयः ।। (बाल्मी. युद्ध स. 111)

पाप कर्म का फल अवश्य ही प्राप्त होता है। हे पते! समय आने पर कर्त्ता फल पाता है इसमें संशय नहीं है ।25। यदा चरति कल्याणि शुभ वा यदि वा शुभम । तदेव लभते भद्रे कर्ता कर्मजमात्मनः ।। (बाल्मी.अरण्य.स. 63)

अवश्यं लभते कर्ता फलं पापस्य कर्मणः । घोरं पर्य्यागते काले द्रुमः पुष्पमिवार्तपम् ।। (बाल्मी.अरण्य.स. 29)

हे कल्याणी! यदि जो कुछ भी शुभ-अशुभ करता है करने वाला वही अपने किये कर्मों के फल को प्राप्त होता है ।6। करने वाला अपने पाप कर्मों का फल घोर काल आने पर अवश्य प्राप्त करता है। जैसे मौसम आने पर वृक्ष फूलों को प्राप्त होते हैं ।8। यथा धेनु सहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् । एवं पूर्व कृतं कर्म कर्तारमनुग्च्छति ।। अचोद्यमानानि यथा पुष्पाणि च फलानि च । तत्कालं नाति वर्तन्ते तथा कर्म पुराकृतम् ।। (महा.अनु.अ. 7)

जैसे हजारों गौवों में से बछड़ा अपनी मां को ढूंढ़ लेता है 22। ऐसे ही पूर्व किया हुआ कर्म कर्त्ता को प्राप्त होता है। बिना प्रेरणा के ही जैसे फूल और फल अपने समय का उल्लंघन नहीं करते। वैसे ही पूर्व में किया हुआ कर्म समय का उल्लंघन नहीं करता ।24।

आज का बोया बीज कुछ समय बाद फल देता है—आज का जमाया हुआ दूध कल दही बनता है—आज का आरम्भ किया अध्ययन, व्यायाम, व्यवसाय तत्काल फल नहीं देता उसकी प्रतिक्रिया उत्पन्न होने में कुछ समय लग जाता है। इसी विलम्ब में मनुष्य की दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता की परीक्षा है। यदि तत्काल फल मिला करते तो किसी के भले-बुरे का निर्णय करने की आवश्यकता ही न पड़ती। झूठ बोलने वाले का मुंह सूज जाया करता, कुदृष्टि डालने वालों की आंखें दर्द करने लगतीं, चोरी करने वालों के हाथों में गठिया हो जाता, तो फिर कोई व्यक्ति कुकर्म करता ही नहीं। ईश्वर ने मनुष्य के निजी विवेक और कर्म स्वातश्य को कार्यान्वित होते रहने के लिए कर्म और फल के बीच अन्तर रखा है। इस धैर्य परीक्षा में जो असफल रहते हैं, वे सत्कर्मों की सुखद सम्भावना पर अविश्वास करके उन्हें छोड़ बैठते हैं और कुकर्मों का हाथों हाथ फल न मिलते देखकर उन पर टूट पड़ते हैं। ऐसी ही अदूरदर्शिता के कारण पक्षी बहेलिये के जाल में फंसते हैं, वे दाना देखते हैं फन्दा नहीं। आटे के लोभ में मछली अपना गला फंसाती है और बेमौत मारी जाती है। चासनी के लोभ में अन्धाधुन्ध घुस पड़ने वाली मक्खी के पंख चिपक जाते हैं और तड़पते हुए प्राण जाते हैं। यह अदूरदर्शी प्राणी दुर्गति के शिकार बनते हैं। कर्मफल के अनिश्चित होने की बात सोच कर ही मनुष्य कुमार्ग पर चलते हैं—कुकर्म करते हैं और दुर्दशा के जंजाल में फंसते हैं।

भगवान ने संसार बनाया और उसके साथ-साथ ही कर्म प्रतिफल का सुनिश्चित संविधान रच दिया। अपनी निज की लीलाओं में भी उसने इस लक्ष्य को प्रकट किया है। भगवान राम ने बलि को छिपकर तीर मारा, अगली बार कृष्ण बनकर जन्मे राम को उस बहेलिया के तीर का शिकार होना पड़ा, जो पिछले जन्म में बालि था। राम के पिता दशरथ ने श्रवण कुमार के तीर मारा, उसके पिता ने शाप दिया कि वधकर्त्ता को मेरी तरह ही पुत्र-शोक में बिलख-बिलख कर मरना पड़ेगा। वैसा ही हुआ भी। राम अपने पिता की सहायता न कर सके और उन्हें कर्म का प्रतिफल भुगतना पड़ा। चक्रव्यूह में फंस कर अभिमन्यु मारा गया, तो उसकी माता सुभद्रा ने अपने भाई कृष्ण से कहा, तुम तो अवतार थे तो फिर अपने भानजे और अर्जुन सखा के पुत्र को क्यों नहीं बचाया। कृष्ण ने विस्तार पूर्वक कर्म फल की प्रबलता का वर्णन करते हुए सुभद्रा का समाधान किया कि भगवान से भी प्रारब्ध बड़ा है। कर्म फल भुगतने की विवशता हर किसी के लिए आवश्यक है। कर्म फल की सुनिश्चितता का तथ्य ऐसा है, जिसे अकाट्य ही समझना चाहिए। किये हुए भले-बुरे कर्म अपने परिणाम सुख-दुःख के रूप में प्रस्तुत करते रहते हैं। दुःखों से बचना हो तो दुष्कर्मों से पिण्ड छुड़ाना चाहिए, सुख पाने की अभिलाषा हो तो सत्कर्म बढ़ाने चाहिए। ईश्वर को प्रसन्न और रुष्ट करना सत्कर्मों एवं दुष्कर्मों के आधार पर ही बन पड़ता है।

कर्मफल-व्यवस्था के प्रति अनास्था ही नास्तिकता

कर्मफल मिलने में विलम्ब होने के कारण ही सत्कर्मों के प्रति उत्साह शिथिल होता है और दुष्कर्मों के प्रति साहस बढ़ता है। यदि तत्काल कर्मफल मिलने का विधान रहा होता तो फिर किसी को भी अनास्था न होती। चोर के हाथ में लकवा मार जाता—झूठे की जीभ बोलने में असमर्थ हो जाती, कुदृष्टि देखने वाले अन्धे हो जाते, कुमार्गगामियों की चलने-फिरने की शक्ति चली जाती तो षड्यन्त्र रचने वाले स्मरण शक्ति खो बैठते, उद्दंडता बरतने पर क्षय जैसे असाध्य रोग घेर लेते तो फिर किसी को भी कुकर्म करने का साहस न होता। इसी प्रकार सज्जनों द्वारा अपनाई गई सत्प्रवृत्तियों के फलस्वरूप उन्हें अच्छी आरोग्यता, विद्वत्ता, सम्पदा, सफलता जैसे लाभ तत्काल मिला करते तो फिर किसी को भी धर्म शिला सुनने या सुनाने की आवश्यकता न रहती। प्रत्यक्ष फल प्राप्त होने की कठोर व्यवस्था बनी रहती तो फिर अवांछनीय गतिविधियों का कहीं दर्शन भी न होता। नाम भी सुनाई न पड़ता। फिर न धर्मोपदेशकों की आवश्यकता होती न शास्त्रों का कोई प्रयोजन रह जाता। पुलिस, कचहरी, कानून, जेल, वकील, गवाह आदि का जंजाल भी कहीं दिखाई ही न पड़ता। जब तत्काल दण्ड मिलने की व्यवस्था ही चल रही होती तो फिर अधर्म के उन्मूलन और धर्म के संस्थापन के लिए ईश्वर को अवतार लेने की भी कोई आवश्यकता न पड़ती। सुधारकों और सेवाभावियों का क्षेत्र भी समाप्त हो जाता। उनका उद्देश्य तो विकृतियों का निराकरण और सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन ही तो होता है, पर जब तत्काल ही कर्मफल मिलने की व्यवस्था रहती तो किसी को यह साहस ही न पड़ता कि मर्यादा तोड़े और सन्मार्ग छोड़े। आग छूने पर जलने की बात प्रत्यक्ष है। फलतः कोई भी जान-बूझकर उसे छूने और जल मरने का प्रयत्न नहीं करता। अनजाने कोई दुर्घटना हो जाय तो बात दूसरी है। ठीक इसी प्रकार अधर्म करने की भी कोई गुंजाइश नहीं रहती। ठण्डा पानी पीते हैं तत्काल प्यास बुझती है, उसी प्रकार यदि सत्प्रवृत्तियों के सत्परिणाम मिला करते तो फिर उनका लोभ छोड़ना उसी तरह सम्भव न रहता जिस प्रकार भोजन, विश्राम आदि प्रत्यक्ष सुविधाओं की कोई उपेक्षा नहीं करता।

विचारणीय यह है कि यदि कर्मफल सचमुच ही नहीं मिलता है—जैसा कि विलम्ब लगने के कारण आभास होता है तो फिर यह स्पष्टीकरण भी साफ होना चाहिए ताकि या तो सभी लोग अनैतिकता के लाभों को समझ कर वैसी ही नीति अपनायें। सर्व साधारण को भी यह अवसर मिले कि कर्मफल जैसी कोई बात ही जब नहीं है तो फिर न्याय, शासन, ईश्वर आदि के सहारे आत्म-रक्षा की आशा न करें और अपने बचाव के जो कुछ उपाय सम्भव हों उसे अपनायें इस स्पष्टीकरण से उथल-पुथल तो बहुत मचेगी, पर सचाई तो सामने आ ही जायेगी। इससे मनुष्य यथार्थवादी ढंग से सोचने का और परिस्थिति का सामना करने का कोई कारगर रास्ता तो सोचने लगेगा।

किन्तु सृष्टि व्यवस्था के बारे में इतनी दूर तक जाने और असमंजस में पड़ने की आवश्यकता है नहीं। इस विश्व का निर्माण कर्त्ता बहुत ही दूरदर्शी और व्यवहार कुशल है। उसने इतना बड़ा सृजन किया है। जड़ में हलचल और चेतन में चिन्तन की इतनी अद्भुत सत्ता का समावेश किया है कि किसी सूक्ष्मदर्शी को आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। निर्माण, व्यवस्था और परिवर्तन की जो रीति-नीति विनिर्मित की है उसके तारतम्य को देखते हुए मनीषियों ने कला की कल्पना की और विज्ञान की धारणा को मूर्त रूप दिया। ऐसे सर्व सम्पन्न सृष्टा से कर्म व्यवस्था के सम्बन्ध में चूक होना यह सोचना अपनी ही बाल बुद्धि का खोखलापन दर्शाना है। जिसकी दुनिया में दिन और रात की, ग्रह नक्षत्रों के उदय अस्त की, पदार्थ की प्रकृति और प्राणियों की परम्परा की विधि व्यवस्था में कहीं राई-रत्ती अन्तर नहीं पड़ता—वह कर्मफल को सन्देहास्पद बनाकर अराजकता का और आत्मघात का विग्रह खड़ा नहीं कर सकता।

फिर देर से कर्मफल क्यों मिलता है? इस प्रश्न के कितने ही उत्तर हैं। पहला तो यही है कि अधिकतर ऐसा होता नहीं है। विलम्ब होने के अपवाद अधिक नहीं कम ही दिखाई पड़ते हैं। सामान्य सृष्टि व्यवस्था में—लोक-व्यवहार में अधिकांश कर्मों के फल यथा समय मिलते रहते हैं। यदि न मिलते तो कृषि, पशुपालन व्यवसाय, शिक्षा चिकित्सा आदि की जो अनेकानेक उपयोगी गतिविधियां चल रही हैं उनमें से किसी का भी क्रम अनिश्चितता की स्थिति में चल नहीं पाता। परस्पर व्यवहार में भी सज्जनता, दुर्जनता की कोई निश्चित प्रतिक्रिया न होती तो मनुष्यों के लिए अपने स्वभाव और आचरण को किसी निश्चित ढांचे में ढालने की आवश्यकता न होती। कार्यों के परिणामों पर विश्वास न होता तो फिर किसी भी योजना की रूपरेखा बन ही न पड़ती। फिर सब कुछ यहां अनिश्चित, अविश्वस्त, अस्त-व्यस्त ही दृष्टिगोचर होता। सभ्यता, संस्कृति, नीति, धर्म, न्याय आदि का कोई रूप ही खड़ा नहीं हो सकता था। फिर विज्ञान की शोधों का, आविष्कारों का, क्रिया-प्रक्रिया का कोई तारतम्य ही नहीं बैठ सकता था। पदार्थों में पाई जाने वाली हलचल की एक सर्वांगपूर्ण विधि-व्यवस्था है। उसी की रूपरेखा प्रस्तुत करने के लिए भौतिक विज्ञान का ढांचा खड़ा हुआ है। प्राणियों की इच्छा, विचारणा एवं क्रिया के पीछे भी कुछ प्रकृति प्रेरणा काम करती है, तालमेल बिठाने वाली व्यवस्था रहती है। जीव विज्ञान, मनोविज्ञान एवं तत्वज्ञान की शाखा-प्रशाखाओं में चेतना के स्वरूप और प्रवाह का ही विवेचन किया जाता है। यह विश्व हर दृष्टि से एक नियति व्यवस्था में बंधा हुआ है। फिर यह हो ही नहीं सकता कि कर्मों का फल न मिले। पुण्य का फल सुख और पाप का फल दुःख मिलने की बात भी इतनी ही स्पष्ट है। अपने ही चारों ओर हम में से प्रत्येक को अनेकानेक प्रमाण उदाहरण सहज ही उपलब्ध हो सकते हैं।

प्रश्न व्यवस्था का नहीं अपवादों का है। ऐसा कभी-कभी ही होता है- कहीं-कहीं ही देखा जाता है कि अनीति करने वाले फले-फूले हों और नीति को पराभव का मुंह देखना पड़ा हो। यदि यह अपवाद अधिक संख्या में बनते हैं तो उस असन्तुलन से सार्वभौम संकट खड़ा होता है। उस सम्भावना के लिए सुधारकों और देवदूतों की सेना को समय-समय पर महाभारत रचने, समुद्र बांधने और गोवर्धन उठाने जैसे प्रचण्ड पुरुषार्थ करने पड़ते हैं।

इतने पर भी यह मानना पड़ेगा कि इन अपवादों का अस्तित्व है और वे देखने को मिलते रहते हैं। वे इतने परिणाम में अवश्य होते हैं कि उतने से भी भ्रम उत्पन्न हो सके। दुष्टता की दिशा में साहस बढ़ सके और सदाशयता के प्रति निराशा उत्पन्न हो सके। विचारणीय तथ्य इतना ही है कि आखिर इतना भी होता क्यों है?

दृश्यमान बुराई के पीछे भी कई बार भलाई के तत्व छिपे रहते हैं। स्पष्ट है कि हर बीमारी कष्टकारक होती है, पर यह भी स्पष्ट है कि उसके पीछे प्रकृति की परिशोधन अनुकम्पा का हाथ रहता है। देह में घुसे हुए विजातीय द्रव्य से, जीवनी शक्ति के प्रचण्ड संघर्ष का नाम ही बीमारी है। यह एक प्रकार की प्रकृति चिकित्सा हैं। यदि प्रकृति को अपना काम करने दिया जाय और उसके प्रयास में यत्किंचित् अनुकूलता बनाई जाय तो उतने भर से रोग ही अच्छे नहीं हो जाते भविष्य के लिए संग्रहीत मलीनता से उत्पन्न होने वाले संकटों से भी छुटकारा मिल जाता है। ठीक इसी प्रकार विलम्ब से कर्मफल मिलने की बात को प्राणियों में सजगता, प्रखरता और दूरदर्शिता बनाये रहने का एक बहुत बड़ा आधार समझा जा सकता है। यदि इतना व्यतिक्रम न रहता तो प्राणियों को विकास मार्ग पर चलने का अवसर ही न मिलता। सजगता की कोई आवश्यकता ही न रहती। पराक्रम करने की जरूरत ही क्या थी? चिन्तन बहुत ही सामयिक रह जाता। बुद्धिमत्ता का विकास उचित-अनुचित का लाभ-हानि का विचार करने पर ही होता है। यदि संसार में सब कुछ ठीक ठाक ही चलता रहता, व्यतिक्रम न होते तो फिर बुद्धि-बल को विकसित करने की आवश्यकता ही न पड़ती। फलतः प्राणी अविकसित स्थिति में ही पड़े रहते। अवांछनीयता के दुष्परिणाम का भय और सत्प्रवृत्ति के सत्परिणामों का लोभ ही है जो प्राणी को क्रमशः आगे धकेलते और ऊंचा उठाते हुए विकास की वर्तमान सीमा तक घसीट लाया है। प्रतिकूलताओं का विपत्तियों का भय भी इतना ही बड़ा प्रगति आधार है जितना कि सृजन प्रयोजनों में संलग्न होने पर मिलने वाले लाभों का प्रलोभन। दिन का महत्व रात्रि के अस्तित्व से ही है। रात न होती तो दिन का आनन्द और लाभ ले सकना ही सम्भव न हो पाता। अवांछनीयताएं जहां वे कष्ट पहुंचाती और अव्यवस्था फैलाती हैं वहां उनसे एक लाभ भी है कि तुलनात्मक अध्ययन करने का, गुण-दोष समझने का अवसर मिल जाता है। यदि कर्मफल में अपवाद न होते, पराक्रम सुनिश्चित विधि से चल रहा होता तो फिर अनौचित्य अपनाने के लिए कभी गुंजाइश ही न रहती और विग्रह का कोई चिन्ह कहीं दिखाई न पड़ता। फलतः सतर्कता और प्रखरता विकसित करने की आवश्यकता ही न होती। जागरूकता और साहसिकता को—दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता को—प्रश्रय देने वाला एक बहुत बड़ा आधार नष्ट हो जाता। ऐसी दशा में सरलता और व्यवस्था तो बनी रहती, पर प्रबल पुरुषार्थ के लिए न आवश्यकता पड़ती न चेष्टा होती। ऐसी दशा में निश्चित रूप से प्रगति क्रम अवरुद्ध हो जाता और मनुष्य को इस स्तर तक पहुंचने का सौभाग्य न मिलता, जहां कि वह इस समय पहुंच सका है। इसमें उसकी सुखेच्छा ही नहीं उन व्यवधानों को हटाने की अभिलाषा भी है, जो अनौचित्य अपनाने के कारण ही संकट बनकर सामने आते हैं। तुलना करने पर ही भले-बुरे का परिचय मिलता है। तुलना से प्रेरणा मिलती है। अच्छाई की गरिमा जानने के लिए बुराई से उत्पन्न दुर्गति को भी जानना चाहिए। संसार में फैली हुई दुष्प्रवृत्तियों का यह एक लाभ भी है। यों हानियां तो उनकी असंख्यों ही हैं।

जिस प्रकार अनास्था से आतंकवादी उच्छृंखलता अपनाने का उत्साह मिलता है। ठीक इसी प्रकार उस अनौचित्य को निरस्त करने के लिए देव मानवों को अधिक प्रखरता उत्पन्न करने—संगठित होने और अनाचार से जूझने की अन्तःप्रेरणा उभरती है। इस प्रयासों के फलस्वरूप न केवल सत्प्रवृत्तियों की मात्रा और सज्जनों की संख्या ही बढ़ती है, वरन् वह शौर्य, साहस, त्याग, बलिदान भी उमड़ता है जो मानवीय शालीनता का पक्ष मजबूत करता है और सर्वतोमुखी प्रगति के अनेकानेक आधार खड़े करता है। भूकम्प, महामारी, बाढ़, विपत्ति, युद्ध आदि के कारण जो क्षति असंख्यों को होती है उसे सभी जानते हैं, किन्तु उसका एक पक्ष यह भी विचारणीय है कि उन संकटों से अनेकों की करुणा उभरती है—सेवा वृत्ति जगती है और परमार्थ में जुट पड़ने के लिए भाव भरी प्रतिस्पर्धा भी उमड़ पड़ती है। उसे कहते हैं बुराई के पीछे अच्छाई का झांकना।

कर्मफल देर से मिलने के अपवादों की हानियों से इनकार नहीं किया जा सकता। उससे अनास्था उत्पन्न होती है और चरित्र संकट खड़ा होता है। इतने पर भी उसका किसी रूप में बने रहना इनके सूक्ष्म कारणों से सृष्टा ने आवश्यक समझा। फलतः उसका नियति क्रम में एक छोटा-सा अस्तित्व बना हुआ है।

सामान्यतया यह देरी वाली परम्परा भी अपनी नियति व्यवस्था का एक साधारण क्रम है। समझदार लोग उसकी धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं और विलम्ब लगने की बात को स्वाभाविक समझ कर अधीर नहीं होते। किन्तु कर्मफल में तनिक सा विलम्ब होते देखकर मनुष्य न जाने क्यों धीरज खो बैठते हैं और अनास्था के संकट में न जाने कैसे जा फंसते हैं। आज का दूध कल दही बनता है। अब का बोया बीज कई महीने बाद फसल बनता है। आरोपित किये गये पौधे वृक्ष बनने और फलित होने में कई वर्ष का समय ले जाते हैं। व्यायामशाला में प्रवेश करने और पहलवान बनने के बीच लम्बा मध्यान्तर रहता है। विद्यार्थी को पाठशाला में प्रवेश पाने के उपरान्त स्नातक बनने की सफलता पाने के लिए वर्षों की अध्ययन साधना करनी पड़ती है। कारखाना खड़ा करने से लेकर लाभ मिलने लगने की प्रक्रिया के बीच समय की काफी लम्बाई रहती है। जब हर बड़ा काम समय मांगता है तो कर्मफल मिलने में थोड़ा विलम्ब लगते देखकर धीरज खो बैठना और यह मान बैठना—तत्काल परिणाम नहीं मिला तो कभी मिलेगा ही नहीं—बाल-बुद्धि का चिन्ह है।

बच्चा अभी कमाता नहीं है, उलटे सेवा और खर्च कराता है तो यह समझ बैठना उचित नहीं कि यह जीवन भर ऐसे ही सेवा लिया करेगा कभी कुछ कमाने और घर का उत्तरदायित्व संभालने लायक न हो सकेगा। साधना आरम्भ करने से लेकर सिद्धि तक पहुंचने में समय लगता है। यात्रा आरम्भ करने के दिन ही लक्ष्य तक कौन पहुंचता है। लम्बी मंजिल पूरा करने में समय तो लग ही जाता है? मुकदमा चलने से लेकर फैसला होने तक में अदालतें बहुत दिन गुजार देती हैं। कर्मफल मिलने में यदि विलम्ब लगे तो समझदारी का परिचय देने वाले मनुष्य को यह विश्वास भी रखना चाहिए कि इस सुनिश्चित सृष्टि व्यवस्था में जो बोया है वही काटना होगा।

स्वर्ग-नरक, दुर्गति, सद्गति, मरणोत्तर जीवन, पुनर्जन्म आदि में मनुष्य को मिलने वाले सुख-दुःख यह सिद्ध करते हैं कि कुछ समय पहले किये गये कर्म समयानुसार फलित हो रहे हैं और परिपक्व होने के बाद अपने फल दें रहे हैं।

समाज की सुव्यवस्था इस बात पर निर्भर है कि मनुष्यों के बीच पारस्परिक सद्भावना और सहकारिता के सूत्र सुदृढ़ बने रहें। सामूहिक प्रगति के पथ पर चलने और सुख-शान्ति की परिस्थितियां बनी रहना इसी वातावरण में सम्भव हो सकता है। समाज व्यक्तियों का समूह है। व्यक्ति अच्छे रहेंगे तो उनका सम्मिलित समुदाय भी समुन्नत और विकसित दिखाई पड़ेगा। व्यक्ति के सज्जन और सुसंस्कृत बनाये रहने के लिए कर्मफल को सुनिश्चितता का तत्व-दर्शन हर किसी की आस्थाओं में गहराई तक प्रतिष्ठापित होना चाहिए।

कर्मफल के समर्थन में हजार तर्क, तथ्य और प्रमाण मौजूद हैं। पर उसमें एक ही खामी रहती है कि अपवाद स्वरूप कई बार भले कर्मों का सत्परिणाम और बुरे कर्मों का दुष्परिणाम उत्पन्न होने में विलम्ब लग जाता है। इस विलम्ब में ही अदूरदर्शी लोग अपना धैर्य खो बैठते हैं और अनास्था अपना लेते हैं। इसे बाल-बुद्धि की क्षुद्रता और विवेकहीनता का अभिशाप ही कहना चाहिए। यह उतावली जीवन की दिशाधारा को भटका देने का प्रधान कारण बनती देखी गई है। इसलिए इस मनःस्थिति की शास्त्रकारों ने तीव्र भर्त्सना की है। ‘नास्तिकता’ का मोटा अर्थ ईश्वर को न मानना समझा जाता है और किसी को ‘नास्तिक’ कहना इसकी सदाशयता पर लांछन लगाना समझा जाता है। विचारणीय है कि ईश्वर को मानने न मानने से उसके अनुदानों में कोई अन्तर नहीं आता। फिर ‘नास्तिकता’ की इतनी तीव्र भर्त्सना क्यों की गई? इसकी तात्विक विवेचना से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर को न मानने से अभिप्राय वस्तुतः उसकी कर्मफल व्यवस्था के प्रति अनास्था रखना है। पूजा-पाठ करने और ईश्वर के गुणानुवाद गाने पर भी यदि कोई कर्मफल के क्रम को झुठलाता है तो भजन, पूजन करते रहने पर भी उसे नास्तिक ही कहा जाना चाहिए। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति ईश्वर की चर्चा नहीं करता किन्तु कर्मफल का अनुशासन सुनिश्चित मानकर अपनी गतिविधियों को सज्जनोचित रखे रहता है तो तात्विक दृष्टि से उसे आस्तिक कहने में आपत्ति नहीं करनी चाहिए। ‘आस्ति’ और ‘नास्ति’ का मोटा अर्थ ईश्वर है और नहीं यह समझा जाता है। यह उथला अर्थ है। सच्चा अर्थ है—कर्म व्यवस्था सुनिश्चित है या नहीं। आस्तिक वह है जो कर्मफल की अकाट्य ईश्वरीय व्यवस्था पर विश्वास करके अपना हित अनहित निश्चित करता है। ऐसा व्यक्ति बुराई से बचने वाला चरित्र-निष्ठ और उदार परमार्थ परायण समाज-निष्ठ ही हो सकता है। पाप से बचकर दुःखों से छूटने और पुण्य अपनाकर सुखी बनने का यही राज मार्ग है।

स्वर्ग-नरक की स्वसंचालित प्रक्रिया को समझ लेने पर अपने अगले कर्मों को पुण्य, पवित्र, सत्, और श्रेष्ठ बनाने की स्पष्ट प्रेरणा प्राप्त होती है।
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