स्वर्ग नरक की स्वचालित प्रक्रिया

प्रायश्चित प्रक्रिया से भागिये मत

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रसौली (एक प्रकार उभरी हुई गांठ की बीमारी) की मरीज एक स्त्री एक बार श्रीमती जे.सी. ट्रस्ट के पास गईं और अपने रोग की चिकित्सा के लिए कोई औषधि देने की प्रार्थना करने लगीं। श्रीमती ट्रस्ट अमेरिका की विश्व विख्यात सन्त हैं जिन्होंने धर्म और अध्यात्म को वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न ही नहीं किया अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों से सैकड़ों पीड़ित और पतित लोगों का भला भी किया है। उनके प्रवचन और आध्यात्मिक गवेषणायें सुनने के लिए बड़े बड़े वैज्ञानिक तक पहुंचते थे।

ट्रस्ट ने उस महिला को बहुत ध्यान से देखा और कहने लगीं—आप नहीं समझ सकतीं पर जिन्हें प्रकाश की गति और अवस्था का ज्ञान होता है वे यदि कोई न भी बताये तो भी, किसी के भी अन्तरंग की बात जान लेते हैं। आप के शरीर में मुझे कुछ काले रंग के अणु दिखाई देते हैं जो इस बात के प्रतीक हैं कि आपके जीवन में कहीं कोई त्रुटि, विकृति या ऐसी अनैतिक प्रवृत्तियां हैं जो आप दूसरों से छिपाती रहती हैं। आप प्रायश्चित का साहस कर सकें तो हम विश्वास दिलाते हैं आपका यह छोटे से छोटा रोग तो क्या भविष्य में अवश्यम्भावी कठिन रोगों का निवारण भी उससे हो सकता है।

स्त्री बोली—माता जी! मैं आपके पास चिकित्सा के लिए आई हूं उपदेश तो बहुतेरे पादरियों सन्त और धार्मिक व्यक्तियों से सुन चुकी। औषधि दें सकती हैं तो दीजिये, अन्यथा हम यहां से जायें। उस महिला की तरह सैकड़ों लोगों के जीवन विकार ग्रस्त होते हैं मन में दूषित—काम, क्रोध, लोभ, मद मत्सर आदि विकार उठते रहते हैं, उनसे प्रेरित जीवन से जो पाप सम्भव हैं उन्हें लोग एक सामान्य ढर्रे की तरह अपना लेते हैं। काम वासना से पीड़ित व्यक्ति किसी भी नारी को देखकर उत्तेजित हो उठता है, क्रोधी व्यक्ति हर किसी को दुश्मन की तरह देखता और वैसा ही कटु व्यवहार करता, लोभी व्यक्ति ही चोरी से लेकर रिश्वत छल, कपट, और मिलावट तक करते हैं भले ही उससे समाज का कितना ही अहित क्यों न हो? जब उससे यह कहा जाता है कि पाप और विकारों का कर्म भोग भोगना पड़ेगा। यह पाप ही आधि-व्याधि, रोग शोक और बीमारियों के रूप में फूटते हैं इन्हें अभी सुधार लो, अभी प्रायश्चित कर पाप के बोझ से मन को हलका कर लो तब वह इन विचारों को दकियानूसी पिछड़ापन कहता है और तर्क देता है कि विकास के लिए संघर्ष अनौचित्य प्राकृतिक सत्य है प्रकृति यही सब कर रही है मनुष्य क्यों न करें? वह कर्मफल के सिद्धान्त को मानने को तैयार नहीं होता। विकारों को वह विकार न मानकर शारीरिक आवश्यकताएं मानता है और उनकी किसी भी उपाय से पूर्ति—धर्म । इन मान्यताओं के कारण ही आज न केवल सामाजिक व्यवस्थाएं विश्रृंखलित हुईं वरन् लोगों के जीवन रोग शोक से भरते चले जा रहे हैं। पाप और मनोविकार सचमुच रोग और भविष्य के लिए अन्धकार उत्पन्न करते हैं यह बात अब न केवल तर्क संगत रही, वरन् विज्ञान सम्मत भी हो गई है।

श्रीमती ट्रस्ट के समझने से उस महिला पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उसने अपने जीवन के सारे दोष स्वीकार किये और बताया कि उसे क्रोध बहुत आता है उसी दुर्भाव के कारण वह अनेकों पाप कर चुकी है। उसने कई बार चोरी भी की है और झूठ-मूठ कहकर लोगों को लड़ाया भी। उसने अपने सारे ऐब स्वीकार कर लिये इसके बाद ट्रस्ट के कहने से उसने कुछ दिन उपवास किया, उससे उसकी गांठ भी अच्छी हो गई और मन की अशान्ति भी दूर हो गई। श्रीमती ट्रस्ट ने इसी तरह एक नवजात शिशु के रोग उसकी मां से प्रायश्चित कराकर ठीक किये। उन्होंने ऐसे सैकड़ों व्यक्तियों से निष्कासन तप कराकर उन्हें शरीर और मन से शुद्ध बनाया वह सब उपरोक्त वैज्ञानिक सत्य का ही प्रतिफल था।

अपराध यदि व्यक्त है, किसी की चोरी की गई, किसी की हत्या हुई, मिलावट के अपराध में पकड़ा गया, रिश्वत में मिले नोटों में किसी अधिकारी के हस्ताक्षर थे उसने आकर पकड़ लिया। ऐसे अपराधी जेल भेज दिये जाते हैं किसी-किसी को शारीरिक दण्ड देकर छोड़ दिया जाता है और मान लिया जाता है कि उससे अपराधी का दोष परिमार्जन हो गया।

भारतीय मान्यतायें इससे भिन्न हैं। शाश्वत जीवन की कल्पना और कर्म-अकर्म के फल भोग के लिये बार-बार जीव-शरीरों में आने वाली अमर चेतना यदि स्वतः अपने पापों का अपराधों का परिष्कार नहीं कर लेती तो वह निरन्तर अधोगति की ओर अग्रसर होती चली जाती है और नरक के पतन के गड्ढे में जा गिरती है। कूकर, शूकर योनियों में जन्म, सर्प और भेड़िये के शरीर में आना आत्म चेतना के गुप्त मन की वह प्रेरणायें ही होती हैं जो उसे शारीरिक और मानसिक पाप करने की प्रेरणा देती रहती हैं। शास्त्रकार ने उसका उपाय बताते हुए लिखा है—

एतैर्द्विजातयः शोध्या व्रतैराविष्कृतैनसः । अनाबिष्कृपापास्तु मन्त्रैर्होमैश्च शोधयेत ।। मनुस्मृति 11।226

प्रकट पाप की शान्ति के लिये द्विजों को पूर्वोक्त चान्द्रायण आदि व्रत करना चाहिए और गुप्त पाप की शान्ति के लिये मन्त्रों का जप और होम करें।

पाप कैसा भी हो उसके लिये उत्तरदायी व्यक्ति स्वयं ही होता। एक बार डा. सिगमंड फ्रायड से किसी ने पूछा—स्वप्न कौन दिखाता है तो फ्रायड ने छूटते ही उत्तर दिया—मनुष्य का मन। उन सज्जन का अभिप्राय यह था कि मनुष्य सामाजिक जीवन की अनेक परिस्थितियों से घिरा होता है, कोई उसे डांट देता है तो गुस्सा आता है कोई कामुक प्रदर्शन करता है तो मन में काम वासना के विकार उठ खड़े होते हैं, खाने-पीने का भी प्रभाव पड़ता है यह सब मिलकर स्वप्न में प्रभाव डालते हैं इसलिये स्वप्न का कारण व्यक्ति के मन को मानना उसकी दृष्टि में एक पक्षीय निर्णय था किन्तु विचारक फ्रायड उस मत के नहीं थे। यद्यपि काम जैसे नाजुक विज्ञान का भी वे शालीन विश्लेषण नहीं कर पाये तथापि पाप के प्रति उनकी विवेचना भारतीय विचारकों के विवेचन से मेल खाती है। पाप और अपराध किसी और कारण से नहीं व्यक्ति की अपनी मानसिक कमजोरी से होते हैं और उसका दण्ड भुगते बिना वह उस मानसिक दुर्बलता से बच नहीं सकता। यह कहना गलत है कि इन्द्रिय लिप्सायें और महत्वाकांक्षायें व्यक्ति की प्राकृतिक प्रेरणायें हैं पाप नहीं। मनोविज्ञान अभी उस स्थिति में तो नहीं पहुंच सका जिससे इस जन्म के अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार ही अगले जन्म होने की बात साबित हों पर गुप्त मन के विकारों के दुष्परिणाम अब स्पष्ट हो चुके हैं। 22 दिसम्बर 1958 को लंदन से प्रकाशित होने वाले ‘‘संडे टाइम्स’’ में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के सदस्य श्री मांटगुमरी हाइड ने जो कि अमरीका के अपराधी समाज का अध्ययन करने गये थे—एक लेख छापा उसमें लिखा था—आज संयुक्त राज्य अमेरिका में जो सबसे अधिक वस्तु परेशान किये है वह है बाल अपराध की समस्या। वहां 2 वर्ष से कम आयु के बच्चे चाहे जब चाहे जिसे गोली मार देते हैं। लास एन्जिल्स में एक लड़के ने एक लड़की को केवल इसलिये गोली मार दी क्योंकि वह एक ऐसी लड़की के चेहरे से मिलती-जुलती थी जो उसके एक प्रतिद्वन्दी लड़के के घर की थी। उस लड़की को देखते ही उसे कुढ़न हुई और उसने गोली मार दी। ओहियो की एक बाल अपराध अनुसंधान समिति ने 54 बाल अपराधियों के स्वभाव का परीक्षण कर, पाया कि 53 अपराधी ऐसे थे जिन्होंने बिना कुछ सोचे-समझे अज्ञात प्रेरणा से अपराध किया। इन अपराधों का कारण माता-पिता की भावुक अस्थिरता को, पारिवारिक असंगठन और मनोमालिन्य को दिया जाता है किन्तु हर जगह ऐसा नहीं होता। बच्चों के जन्मजात संस्कारों का अपना महत्त्व होता है और उसकी वैज्ञानिकता से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। ऐसे अपराधों के व्यापक अध्ययन और अमेरिकन सुधार (करेक्शन) संघ में 35 वर्षों तक निरन्तर काम करने वाले महामन्त्री श्री एडवर्ड कांस ने भी यही निष्कर्ष निकाला और कहा—अपराध वृद्धि का कोई सरल उत्तर दें सकना कठिन है अधिक से अधिक उसके लिये माता-पिता और परिवार को ही दोष दिया जा सकता है पर कुछ अप्रकट भी है उसका मूल्य और महत्व कम नहीं आंका जाना चाहिये।

मन एक प्रकार की विद्युत है जिस प्रकार संसार के सभी पदार्थ नष्ट नहीं होते केवल रूपान्तरित होते हैं मन भी नष्ट नहीं होते। मनुष्य अपने व्यक्ति जीवन में जो भी विचार और कर्म करता है वह सब संस्कार रूप से मन में जमते और अपनी गांठें मजबूत बनाते चले जाते हैं। ऊपर से देखने पर मनुष्य वही रहता है पर शारीरिक परिवर्तन के समान ही उसके मानसिक संस्कार परिवर्तन भी प्रौढ़ होते चले जाते हैं और यदि उनका समय रहते निदान नहीं कर लिया जाता तो वे काले अणुओं के रूप में जीवात्मा के साथ चले जाते हैं वही कुसंस्कार अगले जन्मों में मनोविकार अपराध भावना आदि के रूप में फूट पड़ते हैं और मनुष्य जीवन को अज्ञात गंदगी की ओर बढ़ा ले जाते हैं ऊपर से देखने पर मनुष्य कितना ही अच्छा क्यों न दिखाई देता हो उसकी असलियत उसके मन में छिपी रहती है। वही व्यक्ति के संस्कारों में अज्ञात कल्पना और विचारों के रूप में स्वप्नों में अभिव्यक्त होती रहती है। वास्तव में इन संस्कारों का विश्लेषण ही सच्चा मनोविज्ञान हो सकता है केवल मात्र किसी के बाह्य स्वभाव का अध्ययन मनोविज्ञान नहीं।

हिटलर युवावस्था में साही, धीर, और वीर प्रकृति का व्यक्ति था किन्तु अपनी महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित होकर जब उसने हिंसा बरतनी शुरू की, हजारों निरीह व्यक्तियों को उसने मौत के घाट उतार दिया तो दूसरों का कितना अनर्थ हुआ उससे अधिक उसने अपना पतन कर लिया। 1945 में जब कि उसे आत्म रक्षार्थ एक बंकर में भूमिगत होना पड़ा तब उसकी स्थिति यह थी कि वह अपने बड़े से बड़े विश्वासपात्र को भी सन्देह से ही देखता। वह इतना भयभीत रहता था कि ताजी हवा लेने के लिये बंकर से ऊपर भी नहीं आता था। गोरिग लुफ्तवाफ को उसने जर्मन वायुसेना का प्रधान सेनापति अपना वफादार मानकर नियुक्त किया था, उसने विद्रोह किया भी नहीं था पर उसने ग्रीम से उसके देशद्रोही होने की बात कही। ग्रीम सारी स्थिति जानता था पर भयवश खुद भी सच्ची बात नहीं कर सकता था। हिटलर का मानसिक संताप इतना अधिक बढ़ गया कि उसे पैर में लकवा मार गया। दो दिन पूर्व तक उसके बाल काले थे पर एक दिन में ही उसके बाल सफेद कैसे पड़ गये इस बात पर स्वयं उसकी प्रेमिका इवा और गोबेल्स की पत्नी फ्रा भी आश्चर्य चकित हो उठी थीं। अन्ततः अपनी मानसिक स्थिति नियन्त्रण से बाहर पाई तो हिटलर को आत्म-हत्या ही उससे बचने का एक मात्र उपाय सूझा और उसने आत्महत्या करली।

मन के कुसंस्कारों को छुपाना पाप का भी पाप है। इसलिये भारतीय आचार्यों ने निष्कासन तक का सिद्धान्त बनाया था लोगों को चान्द्रायण आदि कराते समय उनसे सारे पाप कबूल कराये जाते थे। देखने में प्रायश्चित कर्त्ता को अपना स्वाभिमान सा नष्ट होता दीखता है, उससे औरों की हंसी का डर भी रहता है किन्तु भूलें स्वीकार कर लेने से मन में जो गांठें पड़ सकती थीं पड़ने से बच जाती हैं और मनुष्य एक व्यवस्थिति जीवन के लिए, शुद्ध संस्कार जीवन के लिए तैयार हो जाता है।

बम्बई का एक समाचार है—25 वर्ष पूर्व सिन्ध हैदराबाद में देश विभाजन के समय मजिस्ट्रेट बी.ए. गहानी की अदालत में एक केस आया—गहानी ने यह बात स्वयं ही तब बताई जब वे बम्बई के मुख्य प्रेसीडेन्ट मजिस्ट्रेट थे। केस एक वृद्ध के खिलाफ था—सुनवाई की तारीख के दिन श्री गहानी फैसला तैयार नहीं कर सके थे। वृद्ध बीमार था इसलिये वह स्वयं नहीं आ पाया था, तारीख बढ़ाने के लिये लड़के को भेज दिया लड़के को तारीख बढ़ाने की प्रार्थना नहीं करनी पड़ी। मजिस्ट्रेट ने तारीख बढ़ाने की घोषणा करादी। वृद्ध ने उसका अर्थ यह लगाया कि फैसला उसके विपरीत गया होगा तभी तारीख बढ़ाई गई। इस सदमे से उसकी मृत्यु हो गई। अगली तारीख में जब मजिस्ट्रेट ने उसे निर्दोष घोषित किया, तब लड़के ने बताया कि वह तो उसी दिन मर गये। इससे मजिस्ट्रेट के मन में अपने छिपाव का मनस्ताप रहने लगा। 25 वर्ष तक इस मनोव्यथा की स्थिति में रहने के बाद जब बोझ असह्य हो चला तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी भूल स्वीकार की उन्हें तभी अपनी मनोव्यथा से मुक्ति मिली। भले ही अकर्तव्य के लिये उन्हें उपहास और फटकार ही क्यों न मिली हो। इसके साथ ही यदि उपवास या व्रत आदि कर लिया जाता तो दोष और भी शान्त हो जाता। अरब के प्रसिद्ध हकीम श्री इब्न सीना ने अपनी पुस्तक ‘‘कानून’’ में एक दिलचस्प उदाहरण दिया है जो ‘‘पूर्व जन्म कृतं पापं व्याधि रूपेण तिष्ठति’’ वाली भारतीय मान्यता का समर्थन करता है। गजनी का महमूद इब्नसीना को अपने पास रखना चाहता था। पर जब इब्नसीना ने इनकार कर दिया तो उसने बल प्रयोग करना चाहा। इब्नसीना हर्केनियां भाग गये। वहां का शासक बीमार था जिसे कोई भी अच्छा नहीं कर सका था। इब्नसीना उसे देखने गये। नब्ज़ पकड़ कर बोले—आप अनेक शहरों के नाम बोलिये। एक खास शहर का नाम लेने पर रोगी की नब्ज़ फड़की। फिर एक ऐसा आदमी बुलाया गया जो उस शहर की हर गली को जानता हो। इस बार गलियों के नाम पुकारे गये। एक विशेष गली का नाम लेने पर फिर वैसी ही नब्ज़ फड़की। इस तरह इब्नसीना ने उस युवती का पता लगा लिया जिसे शाह ने देखा था और उसे व्याहता बनाना चाहता था, पर उसे जानता नहीं था। मन के अज्ञात सागर में कहां के किस जन्म के संस्कार भरे हैं, यह इस उदाहरण से स्पष्ट है, हमारे शरीर की हर ज्ञात अज्ञात क्रिया पूर्व कृत कर्म और विचारणा के आधार पर चलती है इसलिये जीवन शुद्धता सुख शान्ति का आधार ही यही है कि मन शुद्ध हो, सात्विक विचारों वाला संकल्पशील हो।

अब ऐसे यन्त्र भी बन चुके हैं जिनके प्रयोग से पता चलता है कि मन में रागात्मक अनुभव जितना तीव्र होगा त्वचा का विद्युत अवरोध उतना ही घट जायेगा। इसी आधार पर सच और झूठ का विश्लेषण करने वाली मशीनें बनाई गई हैं। यह मशीन ‘‘स्फिंग्मोमैमीटर’’ तथा ‘‘न्यूमोग्राफ’’ से बनाई गई है। एक फीते पर सच या झूठ का ग्राफ त्वचा की प्रतिरोधकता के अनुसार खिंच जाता है। आगे अज्ञात संस्कारों की जानने वाली मशीनें भी बन सकती हैं पापों की पोल खोलने वाले यन्त्र भी प्रकाश में आ सकते हैं उन सबका निष्कर्ष यही होगा कि मनुष्य अपनी भावनाओं को शुद्ध रख कर ही सुखी रह सकता है। उसका एक मात्र उपाय प्रायश्चित प्रक्रिया ही होगी। अपनी भूलें स्वीकार करने और उचित दण्ड के लिये सहर्ष तैयार होने के अतिरिक्त हमारी सुख-शान्ति और सद्गति का दूसरा उपाय नहीं। उससे बचने का अर्थ अपना ही अहित, आत्मघात होगा जिसका बुरा फल न जाने कितने जन्मों तक भोगना पड़ेगा। शास्त्रों में इसीलिए पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त के विधान निर्दिष्ट हैं—

यावंत्तो जंतवः स्वर्गे तावंतो नरकौकसः । पापकृद्याति नरकं प्रायश्चित्तपराङ्गमुखः ।। गुरूणि गुरूभिश्चैव लघूनि लघुभिस्तथा । प्रायश्चित्तानि ह्यन्येच मनुः स्वायम्भुवोऽव्रबीत् । —शिवपुराण

जो मनुष्य अपने किये हुए दुष्कर्मों का कोई भी प्रायश्चित शास्त्रानुसार नहीं किया करते हैं वे ही पापात्मा प्राणी नरक में जाया करते हैं। स्वायम्भु मनु ने तथा अन्य महर्षियों ने भी बड़े पापों के बड़े प्रायश्चित और छोटे-छोटे पाप कर्मों के छोटे प्रायश्चित्त बतलाये हैं।

पश्चात्तापः पापकृतां निष्कृतिः परा । सर्वेषां वर्णितं सद्भिः सर्वपापविशोधनम् । यथोपदिष्टं सद्भिर्हि सर्वपापविशोधनम् ।। प्रायश्चित्तमधीकृत्य विधिवन्निर्भयः पुमान् । स याति सुगतिं प्रायः पश्चात्तापी न संशयः ।। —शिवपुराण

पश्चात्ताप ही पापों की परम निष्कृति है। विद्वज्जनों ने पश्चात्ताप से सब प्रकार के पापों की शुद्धि होना कथन किया है। पश्चात्ताप करने से जिसके पापों का शोधन न हो, उसे प्रायश्चित्त करना चाहिए। विद्वानों ने इससे सब पापों का शोधन होना कहा है। विधिपूर्वक अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त करने पर भी मनुष्य भय रहित नहीं हो पाता। परन्तु पश्चात्ताप करने वाले को सुगति की प्राप्ति होती है।

विकर्मणा तप्यमानः पापाद् विपरिमुच्यते । न तत् कुर्यां पुनरिति द्वितीयात् परिमुच्यते । —महाभारत वन पर्व

जो मनुष्य पापकर्म बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चात्ताप करता है, वह उस पाप से छूट जाता है तथा ‘फिर कभी ऐसा कर्म नहीं करूंगा’ ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर वह भविष्य में होने वाले दूसरे पाप से भी बच जाता है।

पापों का प्रायश्चित्त न करने वाले मनुष्य नरक को तो जाते ही हैं अगले जन्मों में उनके शरीरों में उन पापों के चिन्ह भी प्रकट होते हैं।
प्रायश्चित न किया जाय तो अनेकों जन्मों तक वे पाप चिन्ह प्रकट होते हैं। उसका निवारण प्रायश्चित करने पर ही होता है।
महा पापों के चिन्ह सात जन्मों तक, मध्यम पापों के चिन्ह पांच जन्मों तक, छोटे पापों के चिन्ह तीन जन्मों तक रहते हैं।

प्रायश्चित्त-प्रक्रिया के चार चरण

प्रायश्चित्त के चार चरण हैं—
(1) जीवन भर के दुष्कर्मों की सूची बनाकर उनके द्वारा दूसरों को पहुंची हानि का स्वरूप समझना भारी पश्चात्ताप।

(2) दुष्कर्मों का चिन्तन कर आत्म-विश्लेषण करना, उन्हें न दोहराने का संकल्प एवं विज्ञजनों के समक्ष उनका प्रकटीकरण करते हुए प्रायश्चित्त का संकल्प लेना अर्थात् आत्मस्वीकृति एवं संकल्प। इन चारों चरणों का अधिक स्पष्टीकरण यह है कि पाप कर्म इसलिए बनते और बढ़ते रहते हैं कि कर्त्ता उनके द्वारा होने वाली हानियों पर ध्यान नहीं देता। उन्हें अन्य लोगों द्वारा भी अपनाई जाने वाली सामान्य क्रिया प्रक्रिया मान लेता है और ऐसे ही हलके मन से उन्हें करता चला जाता है। बाद में वे अभ्यास बन जाते हैं। धन, अधिकार, आतंक, उपयोग जैसे कई लाभ मिलने लगते हैं तो उनका आकर्षण और भी अधिक बढ़ जाता है। पीछे वह आदत, स्वभाव का अंग बन जाती है और बाहर वालों के समझाने, बुझाने एवं डांट-डपटने से भी नहीं छूटती। कुमार्ग से विरत होने का एक ही मार्ग है कि उस मार्ग पर चलने वाले को उसकी हानियां स्वयं दृष्टिगोचर हों और प्रतीत हो कि इस दिशा में चलकर वह अब तक अपना तथा दूसरों का कितना अहित कर चुका। गतिविधियां जारी रहीं तो और भी कितनी हानि हो सकती है।

दुष्कर्मों, दुष्प्रवृत्तियों और दुर्भावनाओं से दूसरों का अहित और अपना हित होने की बात सोची जाती है, पर वस्तुस्थिति इसके सर्वथा विपरीत हैं। कुमार्ग की कंटीली राह पर चलने से अपने ही पैर कांटों से विंधते हैं, अपने ही अंग छीलते और कपड़े फटते हैं। झाड़ियों को भी कुछ हानि तो होती होगी, पर इससे क्या? घाटे में तो अपने को ही रहना पड़ा। अपना मस्तिष्क विकृत होने से प्रगति के रचनात्मक कार्यों में लग सकने वाली शक्ति नष्ट हुई। अनावश्यक पढ़ने से यह बहुमूल्य यन्त्र विकृत हुआ। शारीरिक और मानसिक रोगों की बाढ़ आई। मनःस्थिति गड़बड़ाने से क्रिया-कलाप उलटे हुए और विपरीत परिस्थितियों की बाढ़ आ गई। हर दृष्टि से यह अपना ही अहित है। अस्तु बुद्धिमत्ता इसी में है कि सन्मार्ग पर चला जाय, सत्प्रवृत्तियों को अपनाया जाय और अन्तःकरण को सद्भावनाओं से भरा-पूरा रखा जाय।

इस प्रकार के चिन्तन से ही यह विरोधी प्रतिक्रिया उत्पन्न हो सकती है जिसके कारण दुष्कर्मों के प्रति भीतर से घृणा उपजती है, पश्चात्ताप होता है। यह घृणा और पछतावा ही वे आधार हैं जिनके सहारे भविष्य में वैसा न होने की आशा की जा सकती है। अन्यथा कारणवश उपजा सदाचरण का उत्साह, श्मशान-वैराग्य की तरह ठण्डा हो जायगा और फिर उसी पुराने ढर्रे पर गाड़ी के पहिये लुढ़कने लगेंगे। प्रथम चरण पश्चात्ताप की उपयोगिता इसी दृष्टि से है कि अन्तःकरण में अनाचार विरोधी प्रतिक्रिया इतने उग्र रूप से उभरे कि भविष्य में उस प्रकार के अनाचरण की गुंजाइश ही शेष न रह जाय।

दूसरा चरण मन की गांठें खोल देने का है। इसमें दूसरों का नहीं अपना ही लाभ है। अनैतिक दुराव के कारण मन की भीतरी परतों में एक विशेष प्रकार की मनोवैज्ञानिक ग्रन्थियां बनती हैं। उनके कारण केवल शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोग भी उठ खड़े होते हैं। यह प्रकृति निर्मित—स्वसंचालित दण्ड व्यवस्था है जिसके कारण अपना आपा ही न्यायाधीश बनकर अनाचार के दुष्परिणाम प्रस्तुत करता रहता है। यह ग्रन्थियां व्यक्तित्व को बुरी तरह लड़खड़ा देती हैं। उसे विकृत बेढंगा, बेहूदा और बेसिलसिले का बना देती हैं। ऐसा व्यक्ति कुढ़ता-कुढ़ाता, खीजता-खिजाता देखा जाता है। हंसाने, सहने का सहयोग देने, पाने की उसकी स्थिति ही नहीं रह जाती। यदि इस स्थिति से छुटकारा न मिले तो अर्ध विक्षिप्त, अर्ध मृतक, अर्धांगग्रसित रोगी की तरह गया-गुजरा—उपहासास्पद, तिरस्कृत जीवन बिताना पड़ता है। विकसित व्यक्तित्व का लाभ यदि समझा जा सके तो उसका मूल्य चुकाने की भी तैयारी करनी चाहिए। खुला मन, स्वच्छ मन, दुराव रहित मन ही व्यक्तित्व को गौरवान्वित स्थिति तक पहुंचाने में समर्थ हो सकता है।

मानसोपचार में रोगी के अब तक के जीवन के सामान्य जीवन-क्रम को विस्तारपूर्वक सुनाने के लिए कहा जाता है। चिकित्सक उन संस्मरणों को रुचिपूर्वक सुनता जाता है। उस प्रसंग में उन घटनाओं की भी चर्चा हो जाती है जिनने अचेतन मन पर कोई अवांछनीय छाप डाली और मानसिक स्तर लड़खड़ा गया। मन में चुभा वह कांटा यदि निकल गया तो वह विक्षिप्त व्यक्ति स्वयमेव अच्छा होने लगता है और कष्ट कट जाता है। शरीर में विष का प्रवेश हो जाय तो उसे किसी न किसी उपाय से निकाल बाहर करना ही प्राण रक्षा का एकमात्र उपाय होता है। ठीक उसी प्रकार अनैतिक दुराव की ग्रन्थियों को निकाल बाहर करने से ही वह मनःस्थिति प्राप्त होती है जो सुविकसित जीवन-क्रम बनाने के लिए नितान्त आवश्यक है। इस दृष्टि से उन दुरावों को प्रकट करना आवश्यक है।

असत्य को सबसे बड़ा पाप माना गया है। कपट और छल-छिद्र को रामायण में अध्यात्म मार्ग का सबसे बड़ा अवरोध और ईश्वर-विरोधी विग्रह माना गया है। व्यभिचार में यो हत्या, अपहरण जैसा कोई अत्याचार नहीं है, पर चूंकि उसमें दुराव अपनाना पड़ता है; अस्तु उतने भर से अतीव हानिकारक परिस्थितियां बन जाती हैं और अनिष्टकारक प्रतिक्रियाएं होने लगती हैं। असत्य के कई विशेष प्रसंगों को अपवाद रूप से समय की आवश्यकता के रूप में अपनाना पड़ता है। किन्तु सामान्यतः उसे इसी कारण पाप ठहराया गया है कि उसमें दुराव का भयंकर दोष छिपा हुआ है और इस कारण विकृतियों की अवांछनीय श्रृंखला ही चल पड़ती है।

अनैतिक दुरावों के प्रकटीकरण में यह खतरा भी है कि ओछे व्यक्ति उन जानकारियों का अनुचित प्रयोग कहने वाले की बदनामी करने तथा हानि पहुंचाने के लिए कर सकते हैं। अस्तु निस्संदेह इस प्रकटीकरण के लिए ऐसे सत्पात्रों को ही चुनना चाहिए जिनकी उदारता एवं दूरदर्शिता असंदिग्ध हो। चिकित्सक के आगे रोगी को अपने यौन रोगों की वस्तुस्थिति बतानी पड़ती है। उदार चिकित्सक उन कारणों को प्रकट करते नहीं फिरते जिनकी वजह से वह रोग उत्पन्न हुए। उनका दृष्टिकोण रोगी की कष्ट निवृत्ति भर होता है। ऐसे ही उदार चेता एवं उपयुक्त मार्गदर्शन कर सकने में समर्थ व्यक्ति ही इस योग्य होते हैं जिनके सामने अपने मन की दुराव ग्रन्थियां खोली जा सकें। हर किसी के सामने इस प्रकार के वर्णन करते फिरने में और भी उलटी और नई झंझट भरी परिस्थितियां उठ खड़ी होने की सम्भावना रहती है। अस्तु इस सन्दर्भ में जहां रोगी और चिकित्सक की स्थिति हो वहीं प्रकटीकरण की बात सोचनी चाहिए।

ईसाई धर्म में प्रवेश करने वाले को ‘वपतिस्मा’ लेना पड़ता है। उस संस्कार के समय मनुष्य को अब तक के अपने पाप पादरी के सम्मुख एकान्त में कहने होते हैं। उस धर्म में मृत्यु के समय भी यही करने की धर्म परम्परा है। मरणासन्न के पास पादरी पहुंचता है। उस समय अन्य सब लोग चले जाते हैं। मात्र पादरी और रोगी ही रहते हैं। वह व्यक्ति अपने पापों को पादरी के सामने प्रकट करता है। इस प्रकार उसके मन पर चढ़ा भार हलका हो जाता है। पादरी शान्ति सद्गति की प्रार्थना करता है और रोगी को आश्वस्त करके महा प्रयाण के लिए विदा करता है। वपतिस्मा और मरण काल में इस स्वीकारोक्ति को—‘कन्फैशन’ को अत्यन्त पवित्र और आवश्यक माना गया है। मनःशास्त्र के अनुसार यह प्रथा नितान्त श्रेयस्कर ठहराई गई है।

प्रायश्चित में प्रकटीकरण को एक अति महत्वपूर्ण अंग माना गया है। अनैतिक कृत्यों के दुराव को कभी किसी के सामने प्रकट न किया जाय तो मनःक्षेत्र में वह उर्वरता उत्पन्न न हो सकेगी जिसमें आध्यात्मिक सद्गुणों का अभिवर्धन सम्भव होता है।

प्रायश्चित का तीसरा चरण है—दण्ड स्वरूप ऐसे अपने ऊपर दबाव डालना जिनकी स्मृति देर तक बनी रहे और उस परिवर्तन की छाप को अन्तःचेतना गहराई तक धारण कर ले। बच्चे को कभी अधिक गड़बड़ी फैलाने पर अभिभावक हलकी चपत जड़ देते हैं या दूसरे प्रकार से धमका देते हैं। उससे बच्चे पर सामान्य समझाने-बुझाने की अपेक्षा अधिक गहरा असर पड़ता है और वह सीख जाता है कि इस प्रकार की गड़बड़ी पर अभिभावक कितने अधिक रुष्ट होते हैं। इस दृष्टि से वह धमकाना थोड़ा कष्टकर होने पर भी परिणाम की दृष्टि से श्रेयस्कर होना है उससे गड़बड़ी के दुहराये जाने की सम्भावना घटती है।

स्कूलों में भी बच्चों को पैसे का जुर्माना, खड़ा कर देना, परीक्षा से रोक लेना आदि दण्ड दिये जाते हैं ताकि उनकी अनुचित गतिविधियों को रोका जा सके। जेल में जो कैदी गड़बड़ी करते हैं उन्हें बेड़ी, खड़ी हथकड़ी, कड़ा परिश्रम, तनहाई, छूटने में मिलने वाले समय की रिआयत को काट लेना आदि कई तरह के सामयिक दण्ड मिलते हैं। इसका उद्देश्य इतना भर होता है कि जेल व्यवस्था तोड़ने पर अधिकारी वर्ग रुष्ट हैं और दण्ड देने पर उतारू हैं। इससे कैदी के मन पर छाप पड़ती है और भविष्य में उस गलती को दुहराने से डरता है। प्रायश्चित्त रूप में अपने आपको दण्ड देने में यह पद्धति तप-तितीक्षा के नाम से विनिर्मित की गई है।

व्रत, उपवासों में कई तरह के विधि-विधान हैं चान्द्रायण, कृच्छ चान्द्रायण आदि का विशेष रूप से उल्लेख है और भी कई हलके-भारी व्रत-उपवास, अस्वाद आहार, एक समय खाना आदि की विधि-व्यवस्थाएं मिलती हैं। पैदल तीर्थयात्रा, परिक्रमा इसी प्रकार है जैसे पुलिस फौज में अपराधी सिपाहियों को दौड़ने की ‘दलील’ कराई जाती है। सर्दी-गर्मी का सहना, कम वस्त्र पहनना, नंगे पैर रहना, भूमिशयन, मौन धारण, रात्रि जागरण, खड़े रहना आदि कितने ही विधानों का शास्त्र में उल्लेख मिलता है। जप, अनुष्ठान, पाठ आदि भी इस सन्दर्भ में कराये जाते हैं। इन सब में थोड़ी-सी शारीरिक एवं मानसिक कठिनाई सहन करनी पड़ती है। इससे अनीति आचरण के दुष्परिणाम और छोड़ देने के लिए किये संकल्प का ध्यान भविष्य में भी बना रहता है। यह अन्तःचेतना पर परिवर्तन की छाप छोड़ने का अच्छा उपाय है। इसलिए इस तीसरे पर परिवर्तन की छाप छोड़ने का अच्छा उपाय है। इसलिए इस तीसरे चरण को प्रायश्चित्त विधान में समुचित स्थान दिया गया है। चौथा चरण सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक है। प्रथम तीन चरणों को उसकी भूमिका माना जा सकता है। असली और प्रभावशाली बात है—क्षति पूर्ति। जो हानि पहुंचाई गई है उसकी पूर्ति होनी चाहिये। सड़क पर गड्ढा खोदकर यदि दूसरों के लिए उसमें गिरने का कष्टकारक आचरण किया गया है तो उसकी क्षति पूर्ति इसी प्रकार होगी कि जितना श्रम गड्ढा खोदने में किया गया था। उतना ही उसे पूरा करने के लिए किया जाय। गड्ढा पट जाने पर ही उस अनाचार की भरपाई होगी, जिसके कारण अनर्थ होता रहा। विघातक कृत्य के वजन का विधेयात्मक कार्य करने पर ही सन्तुलन बनता है और क्षति पूर्ति संभव होती है। पाप के वजन के बराबर पुण्य करने पर तराजू के पलड़े बराबर होते हैं।

हमारी भावी रीति-नीति, सज्जनता युक्त होनी चाहिए। इन दिनों मनःक्षेत्र में जो दोष, दुर्गुण भरे हों उन्हें भविष्य में चरितार्थ न होने देने का निश्चय करना चाहिये। सज्जनता ही हर दृष्टि से लाभदायक नीति है। यदि अनाचार से लड़ना पड़े तो बहादुरी से उस धर्म युद्ध में उतरा जाय, पर उस मोर्चे पर भी शालीनता को हाथ से न जाने दिया जाय। द्वेष के स्थान पर सुधार को लक्ष्य कर कुमार्गगामियों से लड़ा जा सकता है। उसमें अनीति का प्रतिकार भी हो जाएगा और द्वेष की लपट से अपने आपको जलाने की, प्रतिपक्षी की अपेक्षा अपने को ही अधिक हानि पहुंचाने वाली विपत्ति भी सिर पर न बरसने पायेगी। आत्म-रक्षा की आवश्यकता समझी गई हो तो सब से पहले भीतर घुसे दुर्भावों से और व्यवहार में आने वाले दुष्कर्मों से अपना पिण्ड छुड़ाना चाहिये।

सरकारी खजाने की कोई खजांची रकम लेकर भागे। पीछे वह अपनी भूल स्वीकार करे और प्रायश्चित करना चाहे तो उसे पहला कदम यही उठाना पड़ेगा कि जो रकम उड़ाई गई थी, उसमें से जितना कुछ बचा हो उसे तो तत्काल वापिस जमा करा दिया जाय और शेष के लिए किश्तों में धीरे-धीरे चुका देने की पेशकश की जाय तो समझौता होने की, मुकदमा न चलने और जेल न भुगतने की संभावना बन सकती है। जो रकम हड़पी गई थी उसे डकार लिया जाय और ऐसे ही व्रत, उपवास करके क्षमा याचना करके दण्ड से छुटकारा पा लिया जाय ऐसा नहीं हो सकता।

प्रायश्चितों के साथ दान-पुण्य के विधान जुड़े रहते हैं। इसमें धनदान और श्रमदान दोनों की ही व्यवस्था है। क्षति पूर्ति इसी रूप में हो सकती है। श्रम और धन वस्तुतः एक ही तथ्य के दो पहलू हैं। क्षति पूर्ति के लिये एक का या दोनों का प्रयोग किया जा सकता है। क्षति यदि शारीरिक, मानसिक की गई है तो आवश्यक नहीं कि उसी रूप में उसे पूरा किया जाय। धन के रूप में भी उसे चुकाया जा सकता है। कारखानों में, दुर्घटनाओं में किसी का अंग-भंग हो जाने पर उसकी क्षति पूर्ति मुआवजे का धन दिलाकर कराई जाती हैं। मान हानि के मुकदमे के बदले में मानहानि नहीं कराई जाती, वरन् अपराधी से कहा जाता है कि वह धन देकर क्षति पूर्ति करे।

यदि धन न हो तो श्रम देकर उसकी पूर्ति हो सकती है। जुर्माना न दें सकने वाले अपराधी को अमुक समय तक जेल में रहकर समाज की क्षति पूर्ति करनी पड़ती है। अपराध व्यक्ति विशेष के साथ अथवा किसी संस्थान के साथ हुआ, पर सरकार उसका जुर्माना वसूल करती है। कारण स्पष्ट है। सरकार समाज की प्रतिनिधि है। व्यक्ति विशेष के साथ हुए अपराध भी प्रकारान्तर से समाज के साथ बरता गया अनाचार ही है। अस्तु समाज को अधिकार है कि वह अपने किसी घटक के साथ बरती गई अनीति का प्रतिशोध ले और शासनतन्त्र के माध्यम से उसे दण्डित करे। आवश्यक नहीं कि जिस व्यक्ति को जिस तरह हानि पहुंचाई गई हो उसकी, उसी रूप में पूर्ति की जाय। बहुत बार वैसा सम्भव ही नहीं रहता। यौन सदाचार नष्ट करने पर उसकी क्षति पूर्ति ठीक उसी रूप में सम्भव नहीं हो सकती। जो व्यक्ति मर गये हैं या अविज्ञात स्थान को चले गये हैं उनका उसी रूप में कैसे बदला चुकाया जाय? यहां यही मानकर चलना होता है कि सारा समाज एक है। व्यक्ति उसी के घटक हैं। शरीर के एक अंग के साथ किया गया दुर्व्यवहार समूचे शरीर को कष्ट पहुंचाता है। गाल पर चपत मार देने से मात्र गाल को ही कष्ट नहीं हुआ समूचे व्यक्ति का अपमान है। ठीक इसी प्रकार व्यक्ति विशेष के साथ किये गये दुर्व्यवहार को पूरे समाज की क्षति माना जा सकता है और उसका बदला समाज सेवा के रूप में चुकाया जा सकता है। फैलाई गई दुष्प्रवृत्तियों की भरपाई के लिए आवश्यक है कि उतने ही परिमाण में सत्प्रवृत्तियां फैलाने वाले लोक-मंगल के कार्य किये जायं। इस प्रयोजन में धन एवं श्रम का अधिकाधिक उपयोग करना चाहिये। यदि हानि पहुंचाने के बदले उससे अधिक वजन के सेवा कार्य किये गये तो इसमें भी लाभ ही लाभ है। पुण्य की बढ़ी हुई मात्रा अपने लिए उज्ज्वल भविष्य का आधार बनेगी। चिन्ता तो तब होनी चाहिये जब पाप की तुलना में पुण्य कम परिमाण में बन पड़ रहा हो।

यहां यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि पाप तो बहुत भारी किये हैं उनके बदले में उतना पुण्य तो बन नहीं पड़ेगा। इसलिए थोड़ा करने से क्या लाभ? तब न करना ही ठीक है। हमें सोचना चाहिये कि जितना चुक सके उतना चुकाने के लिए तो पूरी ईमानदारी और पूरी शक्ति के साथ प्रयत्न किया ही जाय। यदि वस्तुतः विवशता ही होगी तो परमेश्वर परिस्थितियों को समझते हैं वे भावना के अनुरूप निर्वाह भी कर सकते हैं। दिवालिये से एक अंश लेकर ही ऋण देने वाले उसका छुटकारा कर देते हैं। बैंक भी अपनी पूंजी डूबती देख कर कर्जदार से समझौता करती हैं और कम लेकर भी झगड़ा समाप्त कर लेती हैं। साहूकार जब देखते थे कि आदमी के पास कुछ नहीं है तो जितना वह दे सके, लेकर छुटकारा लिख देते थे ताकि भविष्य के लिए लेन-देन फिर शुरू हो सके। ऐसी व्यवस्था भगवान के यहां तथा समाज के विधान में भी है। यदि प्रायश्चित की क्षति पूर्ति के लिए सच्ची व्याकुलता है और ईमानदारी के साथ शक्ति भर प्रयास किया गया है तो उस सद्भावना की यथार्थता को परखते हुए विधिविधान से भी इतनी लोच-लचक विद्यमान है कि उतने भर से पाप कृत्यों का समाधान हो सके और अन्तःकरण के परिमार्जन का वह लाभ मिल सके जो प्रायश्चित विधान का मूलभूत उद्देश्य है।
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