तुकाराम ने अपने मन को वश में करने के लिए बड़ा प्रयत्न किया था और उन्होंने अन्य अध्यात्म-प्रेमियों को यही उपदेश दिया है मनोजय के बिना आत्मजय की बात करना दंभ मात्र है। पर मन को जीतना सहज नहीं और यही कारण है कि सार्वभौम सम्राटों की अपेक्षा भी अपने मन पर विजय प्राप्त करने वाले एक लंगोटीधारी साधु को संसार में अधिक महत्व दिया जाता है। इस तथ्य को समझाते हुए तुकाराम ने कहा-
मन करा रे प्रसन्न, सर्व सिद्धि चे साधन।
मोक्ष अथवा बंधन, सुख समाधान इच्छातें।।
अर्थात्-
"भाईयों ! मन को प्रसन्न करो, जो कि सब सिद्धियों का मूल और बंधन तथा मोक्ष का कारण है। उसको स्वायत करके ही सुख की इच्छा की जा सकती है।" आगे चलकर वे कहते हैं "मन पर अंकुश रखना चाहिए कि जिससे जाग्रति का नित्य नवीन दिवस उदय होता रहे।" पर यह बात कहने में जितनी सहज है, उतनी ही करने में कठिन है, इस बात को भी तुकारम बहुत अच्छी तरह समझते थे। इसलिए उन्होंने भगवान् से बार-बार यही प्रार्थना की है कि वे उन्हें मन को वश में करने कि शक्ति दें। इस दृष्टि से वे निरंकुश मन की निंदा करते हुए कहते हैं- "मन को रोकने की इच्छा करें तो भी यह स्वेच्छाचारी नहीं रुकता। मेरा मन मुझे ही हानि पहुँचाता है। इसके भीतर सांसारिक प्रपंच भरा है, भक्ति तो बाहर ही दिखलाई पड़ती है। इसलिए हे भगवान् ! इस मन को मैं आपके चरणों में रखता हूँ। इस मन के कारण हे भगवान् मैं बहुत ही दुःखी हूँ। क्या मन के इन विकारों को आप भी नहीं रोक सकते? इसने मेरे मार्ग में काम, क्रोध के पर्वत खडे़ कर दिये हैं, जिससे भगवान् दूसरी तरफ ही रह गये। मैं इन पहाडो़ को लाँघ नहीं सकता और कोई रास्ता भी दिखलाई नहीं पड़ता। अब नारायण मेरे सुहृद कहाँ रहे? वे तो मुझे छोड़कर चल दिये। मन ऐसा चंचल है कि एक घडी़ या एक पल भी स्थिर नहीं रहता। इसको मैंने बहुत रोका, बाँधकर रखा, पर इससे ये और भी बिगड़ने लगता है और चाहे जहाँ भागता है। इसको न भजन प्रिय लगता है और न शास्त्र-कथा रुचिकर जान पड़ती है। यह तो केवल विषयों की तरफ ही दौड़ता है।"