संत तुकाराम

वैराग्य और एकांतवास

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ऐसी परिस्थिति में भी तुकाराम घर छोड़कर साधू- संत नहीं बने, पर उन्होंने चित्त शुद्धि के उद्देश्य से कुछ समय एकांतवास करने का निश्चय किया। इसलिये वे निकटवर्ती 'भामनाथ' पर्वत पर चले गये और वहाँ पंद्रह दिन तक भगवान् का ध्यान ही करते रहे। जब यह खबर गाँव में फैली तो तुकाराम की पत्नि जीजाबाई बडी़ दुखी हुई। स्वभाव से वह लड़ा़का और झगड़ा करने वाली अवश्य थी, पर साथ ही पतिव्रता भी थी। उसने तुकाराम के छोटे भाई कान्हाजी को उन्हे ढूँढ लाने को भेजा। इधर- उधर फिरते- फिरते भामनाथ पर उसकी तुकाराम से भेंट हुई। वह उन्हे समझा- बुझाकर घर ले आया। अब तुकाराम ने संसार के झगडों को सदा लिए मिटाने का निश्चय किया। उन्होंने पिता के समय के सब दस्तावेज (ऋण- पत्र) निकाले, जो कर्ज लेने वालों ने लिखकर दिये थे। उन सबको वह गाँव के पास वाली इंद्रायणी नदी में डुबाने चले। यह देखकर छोटे भाई ने कहा- "आप तो 'साधू' हो गये।' परन्तु मुझे तो बाल- बच्चों का पेट पालना करना होगा। अगर आप इन सब रुपयों को इस तरह डुबा देंगे तो मेरा काम कैसे चलेगा ?? "" तुकाराम ने उत्तर दिया- "ठीक है, तुम उनमें से आधे दस्तावेज निकाल लो और अलग रहकर अपनी गृहस्थी चलाओ। मेरा सब भार तो विट्ठल भगवान् पर है। अब मेरा जीवन- क्रम सदा ऐसा ही रहेगा और मेरा जीवन निर्वाह भगवान् पांडुरंग ही करेंगे। पर मैं यह नहीं चाहता कि मेरे कारण तुमको किसी तरह की हानि पहुँचे। इसलिए तुम अपना भाग लेकर अलग हो जाओ और मेरी चिंत्ता न करो।" यह कहकर उसने आधे ऋण- पत्र कान्हाजी को दे दिये और अपने हिस्से के उसी समय नदी में प्रवाहित कर दिए। इस घटना का वर्णन करते हुए कुछ समय पश्चात् संत तुकाराम के एक शिष्य ने लिखा था- "जब तक अनुभव न हो तब तक पुस्तकों में लिखा ज्ञान प्रायः निरर्थक रहता है। इसी प्रकार हमारा जो धन दूसरों के कब्जे में है, वह भी व्यर्थ होता है। इससे मन में हमेशा खराबी पैदा होती रहती है। अमुक मनुष्य के पास से इतना लेना है, पर देगा या नहीं देगा ?? न जाने क्या होगा ?? इस प्रकार की तरह- तरह की चिंताएँ और दुराशा मन में लगी रहती हैं। इसलिए तुकाराम ने अपने सारे कागज- पत्र इंद्रायणी नदी में डाल दिये। इसके पीछे उन्होंने कभी द्रव्य का स्पर्श नहीं किया। दरिद्रता के सब प्रकार के दुःख उन्होंने सहन कर लिए, माँगकर भी निर्वाह कर लिया, पर द्रव्य को कभी न छूने का निश्चय करके वे धन के फंदे से सदा के लिए छुटकारा पा गये।"

जीवन को सुखी बनाने के लिए ऐसे कार्यों से बचना आवश्यक है, जिनमें अन्य लोगों से विवाद, झगड़ा और संघर्ष होने की विशेष रूप से संभावना रहती है। लेन- देन अथवा ब्याज पर रुपया उधार देने का पेशा प्रशंसनीय नहीं है। इसमें प्रायः अभावग्रस्थ व्यक्तियों के शोषण की भावना निहित रहती है और इसलिए इस पेशे को करने वाले व्यक्तियों में स्वार्थपरता की भावना बढ़ जाती है, साथ ही अन्य व्यक्तियों के प्रति उनमें सहानुभूति की भावना भी कम हो जाती है। तुकाराम की प्रवृति जन्म से ही इस कार्य के अनुकूल नहीं थी, इसलिए उन्हें इस पुश्तैनी पेशे में आरंभ से ही असफलता होने लगी। और बाद में तो उसके कारण वे नई- नई कठिनाईयों में फँसते चले गये। इसिलए दस्तावेजों को नष्ट करके अपने मन को इस उलझन से मुक्त कर लेना उचित ही था। अध्यात्म मार्ग के पथिक को जीवन निर्वाह का पेशा भी ऐसा चुनना चाहिए, जो अपनी आंतरिक प्रकृति के अनुकूल हो और जिसमें अन्य व्यक्तियों के अनहित की कोई संभावना न हो। वाराणसी गया पाहिली द्वारका! परि नये तुका पढरी च्या!! अथार्त्- "काशीजी की यात्रा की और द्वारका भी देखी, पर हमको तो पंढरपुर ही सर्वोत्तम लगता है।"

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