संत तुकाराम का जन्म पूना के निकट देहूँ गाँव
में संवत् १६६५ वि० में एक कुनवी परिवार में हुआ था। इस जाति वालों को महाराष्ट्र में
शूद्र माना जाता है और वे खेती-किसानी का धंधा करते हैं। पर तुकाराम के घर में पुराने
समय से लेन-देन का धंधा होता चला आया था और उनके पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। इसलिए
उनकी बाल्यावस्था सुखपूर्वक व्यतीत हुई। जब वे तेरह वर्ष के हुए तो उनके माता-पिता
घर का भार उनको देकर स्वयं तीर्थों में भगवत् भजन करने के उद्देश्य से चले गये। तुकाराम
उसी आयु में दुकान का हिसाब-किताब करने में होशियार हो गये थे और पिता ने उनका विवाह
भी कर दिया था, पर वे स्वभाव से अत्यंत सरल, सेवाभावी और सत्यवादी थे। इसका परिणाम
यह हुआ कि दुनियादार लोगों ने उनका कर्ज चुकाना बंद कर दिया और जैसे बने उन्हें ठगने
की कोशिश करने लगे।
लोगों की ऐसी मनोवृत्ति देखकर उनका चित्त सांसारिक
व्यवहारों से विरक्त होने लगा। पर घर में कई प्राणियों स्त्री, भाई, बहिन आदि का निर्वाह
करने का भार उनके ऊपर था, इसलिए फुटकर सामान की दुकान खोल ली। पर वे कभी झूठ नहीं बोलते
थे, कभी किसी को ठगते नहीं थे, सबके प्रति उदारता का व्यवहार करते थे, इससे स्वार्थी
लोग फिर उनके साथ धोखा और ठगी का व्यवहार करने लगे और दुकान में घाटा लग गया। जिन लोगों
को उन्होंने उधार दिया था, वे तो देने का नाम ही नहीं लेते थे, पर जिनको लेना था वे
फौरन नलिश करके घर में 'जब्ती' का हुक्म ले आये। ससुराल वालों ने एकाध बार सहायता भी
की, पर सरलता के कारण लोग उनको किसी न किसी प्रकार ठगते ही रहे और उनकी आर्थिक दशा
गिरती ही रही।
कई बार उन्होंने माल ले जाकर बेचने का कार्य शुरू
किया। एक बार मिर्च लेकर किसी दूर के स्थान में बेचने को गये। वहाँ जो भी रुपया मिला
उसको लोगों ने नकली सोने के कड़े देकर ठग लिया। दूसरी बार स्त्री (द्वितीय पत्नी) ने
दो सौ रुपया कर्ज दिलाकर व्यापार करने को भेजा। उसमें पचास रुपया लाभ भी हुआ। पर वहीं
पर एक ब्राह्मण ने आकर अपना दुःख रोया और इतनी अधिक विनती की कि सब रुपया उसी को देकर
चले आये। इस पर स्त्री ने उनको बहुत खरी- खोटी सुनाई और दंड दिया।
जब उस प्रदेश में भयंकर अकाल पड़ा तो एक बूंद
पानी मिलना कठिन हो गया, वृक्ष सूख गये, पशु बिना पानी के मर गये। तुकाराम के घर में
अन्न का दाना भी न था। किसी के दरवाजे पर जाता तो वह खडा़ भी नहीं होने देता, क्योंकि
दिवाला निकल जाने से उनकी साख पहले ही जाती रही थी। घर वाले भूखों मरने लगे। तुकाराम
हद से ज्यादा परिश्रम करते पर तब भी पेट नहीं भरता। सब पशु और पहली पत्नी तथा बच्चे
इसी में मर गये। इस प्रकार कष्ट सहन करते- करते तुकाराम का मन संसार में विरक्त होने
लगा और वह अपना अधिकांश समय परमात्मा के ध्यान और भजन में लगाने लगे। उसकी दूसरी पत्नी
जीजाबाई का स्वभाव बड़ा झगड़ालू और लडा़का था। इससे घर में रह सकना और भी कठिन हो जाता
था। गाँव के लुच्चे- लफंगे व्यक्ति भी उनको अकसर छेड़ते रहते थे। वे उनको देखकर कहने
लगते- और "भगवान का भजन करो, हरी के नाम ने तुझे निहाल कर दिया।"