संक्षिप्त हवन विधि

रक्षा विधानम्

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                                                                                  रक्षा विधानम्

आत्म रक्षा तथा यज्ञ कार्य की रक्षा के लिये रक्षा विधान कहलाता है। यज्ञ कार्य में आसुरी शक्तियां अक्सर विघ्न फैलाती रहती हैं। पूर्व कार्य में आसुरी शक्तियां अक्सर विघ्न फैलाती रहती हैं। पूर्व काल में भी राक्षस लोग यज्ञ विध्वंस के लिए प्रयत्न करते थे। शुभ कार्यों में बहुधा कोई कोई विघ्न आते रहते हैं। उनसे रक्षा करने के लिए रक्षा विधान किया जाता है। जल, सरसों या चावल का निम्न मन्त्रों से दसों दिशाओं में फेंके।

पूर्वे रक्षतु वाराहः अग्नेय्यां गरुड़ध्वजः

दक्षिणे पद्मनामस्तु नैऋर्त्या मधुसूदनः ।।1।।

पश्चिमे चैव गोविन्दो वायव्यां तु जनार्दनः

उत्तरे श्रीपति रक्षेदैशान्यां हि महेश्वरः ।।2।।

ऊर्ध्व रक्षतु धाता वो ह्यधोऽनन्तश्च रक्षतु

अनुक्तमपि यत् स्थानं रक्षत्वीशो ममाद्रिधृक् ।।3।।

अप सर्पन्तु ये भूता ये भूताभुवि संस्थिताः

ये भूता विघ्न कर्तारस्ते गच्छन्तु शिवाज्ञया ।।4।।

अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतोदिशम्

सर्वेषामविरोधेन यज्ञकर्म समारभे ।।5।।

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(12) * अग्नि स्थापनम् *

तत्पश्चात् किसी पात्र या चमची में अग्नि रखकर या कपूर जलाकर नीचे लिखे हुए मन्त्र का उच्चारण करते हुए श्रद्धा और भक्ति के साथ हवन कुण्ड में अग्नि स्थापन करे

यजु. 35

भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीवव्वरिम्णा

तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायदधे

अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवापमुहब्रुबे देवोंऽआसादयादिह ।। अग्नये नमः ।। अग्निं आबाहयामि स्थापयामि इहागच्छ इह तिष्ठ इत्यावाह्य पञ्चोपचारैः पूजयेत् ।।

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(13) * गायत्री स्तवन *

यन्मण्डलं दीप्तिकरं विशालं,

रत्न प्रभभ् तीव्रमनादि रूपम्

दारिद्र्य दुःखक्षय कारणांच,

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।1।।

यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितम्,

विप्रैऽस्तुतं मानवमुक्ति कोविदम्

तं देवदेवं प्रणामामि भर्ग,

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।2।।

यन्मण्डलं ज्ञान घनत्व गम्यं,

त्रैलोक्य पूज्यं त्रिगुणात्मरूपं

समस्त तेजोमय दिव्य रूपं,

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।3।।

यन्मण्डलं गूढ़यति प्रबोधम्,

धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम्

यत् वसर्व पापक्षय कारणं ,

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।4।।

यन्मण्डलं व्याधि विनाशदक्षम,

यद्रग् यजुः सामसु सम्प्रगीतम्

प्रकाशितं ये भूर्भुवः स्वः,

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।5।।

यन्मण्डलं वेद विदो वदन्ति,

गायन्ति यच्चारण सिद्ध संघाः

यद्योगिनो योगजुषां संघाः,

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।6।।

यन्मंडलं सर्व जनेषु पूजितम्,

ज्योतिश्च कुर्यादिह मर्त्यलोके

यत्काल कालादिमनादि रूपम्,

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।7।।

यन्मंडलं विष्णु चतुर्मुखास्यम्,

यदक्षरं पाप हरं जनानाम्

यत्काल कल्पक्षय कारणं ,

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।8।।

यन्मंडलं विश्वसृजां प्रसिद्धम्,

उत्पतिरक्षा प्रलय प्रगल्भम्

यस्मिन् जगत् संहरतेऽखिलञ्च,

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।9।।

यन्मंडलं सर्व गतस्य विष्णोः,

आत्मा परं धाम विशुद्ध तत्वम्

सूक्ष्मा तरैर्योगपथानुगम्यम्,

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।10।।

यन्मंडलं ब्रह्म विदो वदन्ति,

गायन्ति यच्चारण सिद्धसंघाः

यन्मंडलं वेदविदः स्मरन्ति,

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।11।।

यन्मंडलं वेद विदोपगीतम्,

यद्योगिनां योग पथानुगम्यम्

तत्सर्ववेदं प्रणमामि दिव्यं,

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।12।।

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(14) * अग्नि प्रदीपनम् *

तत्पश्चात् अग्नि पर छोटे छोटे काष्ठ और कपूर धर कर निम्न मन्त्र पढ़कर व्यंजन (पंखा) से अग्नि को प्रदीप्त करें

उद्बुध्यस्बाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टा पर्तेस सृजेथामयं अस्मिन्त्सधस्थे अघ्युत्तरस्मिन् विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत ।।

(यजु. 1554)

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(15) * समिधा धानम् *

तत्पश्चात् निम्न चार मन्त्रों से आठ आठ अंगुल की पलाशादि की चार समिधाएं प्रत्येक मन्त्र के उच्चारण के बाद क्रम से घी में डुबो कर डालें :

(1) अयं इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसे नान्नाद्येन समेध यस्बाहा ।। इदमग्नये जातवेदसे इदं मम ।।

(2) समिधग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयता तिथिम् अस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा ।। इदमग्नये इदं मम ।।

(3) सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन अग्नये जातवेदसे स्वाहा ।। इदमग्नये जातवेदसे इदं मम ।।

(4) तंत्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धंयामसि बृहच्छोचा यविष्ठ्या स्वाहा ।। इमग्नयेऽङ्गसे इदं मम ।।

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(15) * जलप्रसेचनम् *

तत्पश्चात् अञ्जलि (आचमनी) में जल लेकर यज्ञ कुण्ड (वेदा) के पूर्व दिशा आदि चारों ओर छिड़कावें। इसके मन्त्र ये हैं :

अदितेऽनुमन्यस्व ।। इात पूर्वे

अनुमतेऽनुमन्यस्व ।। इति पश्चिमे

सरस्वत्यनुमन्यस्व इति उत्तरे

देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु ।। इस मंत्र से यज्ञकुंड (वेदी) के चारों ओर जल छिड़कावें।

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(17) * आज्याहुति होमः *

बड़े हवनों में सभी आवाहित एवं प्रतिष्ठापित देवताओं के लिये आहुतियां दी जाती हैं। छोटे हवनों में सात आहुतियां केवल घृत की देते हैं और स्रुवा से बचा हुआ घृत इदन्नमम उच्चारण के साथ प्रणीता में हर आहुति के बाद टपकाते जाते हैं। यही टपकाया हुआ घृत अंत में अवघ्राण के काम आता है।

[1] पजापतये स्वाहा इदं प्रजापतये इदं मम

[2] इन्द्राय स्वाहा इदमिद्राय इदं मम

[3] अग्नये स्वाहा इदमग्नये इदं मम

[4] सोमाय स्वाहा इदं सोमाय इदं मम

[5] भूः स्वाहा इदमग्नये इदं मम

[6] स्वः स्वाहा इदं सूर्यांय इदं मम

इसके पश्चात् गायत्री मंत्र से जितनी आहुतियां देनी हों सो देनी चाहिये। मंत्र :

भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् स्वाहा। इदंगायत्र्यै इदं मम।

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(18) * स्विष्टकृत् होमः *

प्रत्येक कर्म ठीक ठीक रीति से ही करना चाहिये, तभी फलदायक होता है। पर मनुष्य से त्रुटि या अशुद्धि हो जाना स्वाभाविक है। अतः यह आहुति उस त्रुटि वा अशुद्धि की पूर्ति के प्रायष्चित रूप से है। निर्धारित संख्या में गायत्री मंत्र से आहुतियां देने के पश्चात् मिष्ठान्न, खीर, हलुआ, आदि पदार्थों से आहुति देनी चाहिये :

यदस्य कर्मणो त्यरीरिचं यद्वान्यनमिहाकरम् अग्निष्टत् स्विष्टकृद्विद्यात्सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्धयित्रे सर्वान्नः कामान् समर्धय स्वाहा इदमग्नये स्विष्टकृते इदन्नमम ।।

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(19) * पूर्णाहुति *

स्रुचि में सुपाड़ी या नारियल घृत समेत रख कर पूर्णाहुति दे।

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।

पूर्णादर्विपरापत सुपूर्णा पुनरापत

वस्नेव विक्रीणा वहाऽइषमूर्ज शतक्रतो स्वाहा ।।

सर्वं वै पूर्ण स्वाहा

वसोधारा मन्त्र

वसो पवित्र मसि शतधारं वसो पवित्रमसि सहस्र धारम् देवस्त्वा सविता पुनातु वसो पवित्रेण शत धारेण सुप्वा कामधुक्षः स्वाहा ।।

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