मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले

परिवर्तन का आधार तो ढूँढ़ें

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स्वर्ग और नरक की दीवारें आपस में जुड़ी हुई हैं। घर वही है, पर एक दरवाजे से घुसने पर गन्दगी से भरीपूरी नरक वाली कोठरी में पहुँचना पड़ता हैं, किन्तु यदि दूसरे दरवाजे से होते हुये भीतर जाया जा सके तो स्वच्छता, सज्जा और सुगन्धि से भरापूरा वातावरण ही दीख पड़ेगा।

    हम अब झगड़ने, हड़पने, निगलने और समेटने- भरने पर उतारू होते हैं, तो हाथों- हाथ अनीतिजन्य आत्म प्रताड़ना सहनी पड़ती है। बाहर की भर्त्सना और प्रताड़ना को तो सहा भी जा सकता है, पर जब अन्तरात्मा कचोटती है, तब उसे सहन करना कठिन पड़ता है। पैर में लगी चोट और हाथ में लगी लाठी उतनी असह्य नहीं होती, जितना कि अपेन्डिसाइटिस, यों हृदय घात जन्य दर्द से आदमी बेहतर तिलमिला जाता है और प्राणों पर आ बीतती है।

    मानवी गरिमा को खोकर मनुष्य से ऐसा कुछ बन ही नहीं पड़ता, जिस पर वह सन्तोष या गर्व कर सके, प्रसन्नता व्यक्त कर सके और समुदाय के सम्मुख सिर ऊँचा उठाकर चल सके। बाहर की वर्षा से छाता लगाकर भी बचा जा सकता है, पर जब भीतर से लानत बरसती है तो उससे कैसे बचा जाये? धरती पर नरकीटक, नर- पशु और नर- पिशाच भी भ्रमण करते रहते हैं। देखने में उनकी भी आकृति मनुष्य जैसी ही होती है। अन्तर तो आदतों को स्वभाव बनकर जमी हुई प्रकृति को देखकर ही किया जा सकता है।

    हेय स्तर में गिने जाने वाले पशु- पक्षियों को कोई नीति मर्यादा मान्य नहीं होती। गिद्ध, कौए और सियार कुछ भी पशुओं को न तो पत्नी और भगिनी- पुत्री के बीच अन्तर करना आता है, और न बीच चौराहे पर यौनाचार करने में कुछ अनुपयुक्त लगता है। इन प्राणियों का कहीं मल- मूत्र त्यागने में भी हिचक नहीं लगती। वे किसी का भी खेत खा सकते हैं। छोटे जल जन्तुओं को बगुले बिना कोई दया भाव दर्शाए नि:संकोच भाव से निगलते रहते हैं। यह एक निराली दुनिया है और उसकी अपनी सीमाएँ हैं, पर मनुष्य तो कुछ विशेष उपलब्धियाँ लेकर जन्मा है। उसकी गरिमा को सृष्टि में सर्वोच्च ठहराया गया है। ऐसी दशा में उसके कन्धों पर कुछ विशेष जिम्मेदारियाँ भी आती हैं और कड़ी मर्यादाओं का परिपालन एवं वर्जनाओं का अनुशासन भी आवश्यक हो जाता है।

    किसी के पास तलवार होने का तात्पर्य यह तो नहीं कि वह कहीं भी कत्लेआम कर डाले? अतिरिक्त बुद्धिमत्ता का तात्पर्य यह तो नहीं हो सकता कि इसके सहारे संसार की सुव्यवस्था को बर्बाद करके रख दें? अनीति बरतने के लिए उसे स्वेच्छाचार का लाइसेंस मिला हुआ नहीं है। इस स्तर की चतुरता अपना लेने का प्रतिफल यह तो नहीं होना चाहिए कि वह आत्मा और परमात्मा की आँखों में धूल झोंककर, अहंकार से उन्मत्त होकर, अपने क्रिया- कलापों से वातावरण को उद्वेगों और अनाचारों से भर दे?

    दृष्टि पसार कर जिस ओर भी देखा जाये, उसी ओर समस्याओं, उलझनों, विडम्बनाओं, विपत्तियों, विग्रहों, विद्रोहों और संकटों के घटाटोप उमड़ते- उभरते दिखाई देते हैं। जिस प्रकृति का पयपान करके, जिसकी गोद में हम सब क्रीड़ा कल्लोल कर रहे थे। आश्चर्य है कि हम उसी की गर्दन घोंट डालने के लिए उतारू हो गये? जहाँ से हम अन्न- जल और वनस्पति प्राप्त करके जीवन धारण किये रहा करते थे, वह सम्पदा जिसके साथ हमारा सम्बन्ध सहोदर भाई जैसा है, यदि उसे इसी प्रकार नष्ट करते चले गए तो अर्धांग पक्षाघात पीड़ित की तरह हमारा जीवन भी स्थिर न रह सकेगा। भूगर्भ का असीम उत्खनन उसे बाँझ बनाकर छोड़ेगा। जलाशयों की सम्पदा को मारक तत्त्वों से भरते कारखाने, पीने योग्य पानी छोड़ेंगे भी या नहीं? आकाश- वायुमण्डल जिस प्रकार प्रदूषण से, विकिरण से, कोलाहल से निरन्तर भरता चला जा रहा है, उससे पृथ्वी का रक्षा कवच फट रहा है और बाढ़ हुआ तापमान हिम क्षेत्रों को पिघलाकर समुद्र में ऐसी बाढ़ लाने का ताना- बाना बुन रहा है, जिससे जितना थल भाग अभी भी बचा है, उसका अधिकांश भाग उस बाढ़ में समा जायेगा।

    बिच्छू के बारे में सुना जाता है कि उसके बच्चे माँ का पेट खा पीकर तब बाहर निकलते हैं। लगता है मनुष्य ने कहीं बिच्छू की रीति- नीति तो नहीं अपना ली हैं, जिससे वह उस प्रकृति का सर्वनाश करके रहे, जो उसके जीवन धारणा करने का प्रमुख आधार है। खीझी हुई प्रकृति क्या बदला ले सकती है? अणु उपकरणों के बदले क्या प्रकृति ही सर्वनाश, महाप्रलय सामने लाकर खड़ी कर सकती है? यह सब सोचने की मानो किसी को फुरसत ही नहीं हैं।

    मनुष्य का मनुष्य के प्रति व्यवहार निराशाजनक स्तर तक नीचे गिर गया है। उसने अपनी सत्ता और महत्ता को किस प्रकार फुलझड़ी की तरह जलाने का कौतुक अपना लिया है, उससे प्रतीत होता है कि इस सुहावनी धरती पर रहते हुए भी हम सब प्रेत- पिशाचों की तरह एक दूसरे को काटने, गलाने, जलाने पर उतारू हैं। इसके प्रतिफल स्वरूप परस्पर सहयोग की बात बनना तो दूर, हम अविश्वास के ऐसे वातावरण में रह रहे हैं, जिससे अपनी छाया तक से डर लगता है। विश्वास और विश्वासघात दोनों परस्पर हमजोली बनकर चल रहे हैं। असंयम के अतिवाद ने शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक दूरदर्शिता को मटियामेट करके रख दिया है। धन की इतनी बड़ी भूमिका बताई है कि उसे पाने के लिए कोई किसी के साथ कितनी ही बढ़ी- चढ़ी दुष्टता कर बैठे, तो उसे कम ही समझना चाहिए। ऐसे अभ्यस्त अनाचार के बीच कोई शरीर मस्तिष्क, परिवार, समाज, स्वयं समुन्नत रह सकेगा, इसकी आशा ही छोड़ देनी चाहिए, छूट भी गई है।

समय को अत्यन्त दुरूह समझा जा रहा है और मान्यता बनती जा रही है कि यह बढ़ते हुए कदम मानवी महत्ता ही नहीं, सत्ता का भी समापन करके रहेंगे। क्या हम सब अगले ही दिनों सामूहिक आत्महत्या का यह विनाश आयोजित करके रहेंगे?

    स्थिति को कैसे बदला जाये? इसके सम्बन्ध में तरह तरह के उत्पादनों, उपकरणों, निर्धारणों की बात सोची जाती है। वैज्ञानिक, मनीषी, सत्ताधारी, शक्तिशाली, अपने- अपने ढंग से यह भी सोचते हैं कि प्रस्तुत अनर्थ को यदि सुसंरचना में बदला जा सके, तो इसकी तैयारी के लिए बड़े साधन, बड़े- बड़े आधार खड़े किये जाने चाहिए। ऐसी योजनाएँ भी आए दिन सुनने को मिलती हैं और जताई- बताई भी जाती है कि अधिक साधन सम्पन्न संसार विनिर्मित करने के लिए बड़े लोग कुछ बड़े कदम उठाने, बड़े विधान बनाने जा रहे हैं। इतने पर भी निराशा को हटाने में राई रत्ती भी सफलता मिलती दीख नहीं पड़ती, क्योंकि वस्तुत: मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। यदि मानसिकता को आदर्शवादी उत्कृष्टता के साथ न जोड़ा जा सका, तो स्थिति सुधरेगी, सुलझेगी नहीं, वरन् विपत्तियाँ और भी नजदीक आती, और भी रौद्र रूप धारण करती चली जायेंगी। समस्याओं का समाधान भले ही आज हो या आज से हजार वर्ष बाद, पर उसका समाधान मात्र एक ही उपाय से सम्भव होगा, कि मनःस्थिति में संव्याप्त अवाञ्छनीयता को पूरी तरह बुहार फेंका जाये जो प्रस्तुत उलटे प्रवाह को अपनी प्रचण्ड शक्ति के सहारे उलटकर सीधा कर सके।





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