मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले

गरीबों द्वारा अमीरी का आडम्बर

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
रोम के एक दार्शनिक के मन में भारत की महत्ता देखने की ललक उठी। समय और धन खर्च करके आए, घूमे और रहे। लौटे तो उदास थे। साथियों ने पूछा तो केवल इतना कहा ‘‘भारत में जहाँ गरीब अधिकांश रहते हैं, वहाँ भी अमीरों जैसा स्वाँग बनाया जाता है।’’ ऐसा ही कथन एक जापानी शिष्टमण्डल का भी है। उन्होंने भ्रमण के बाद कहा था। यहाँ अमीरी का माहौल है, परन्तु उसकी छाया में पिछड़े, गए- गुजरे लोग रहते हैं।

    प्रश्न उठता है कि ऐसी विडम्बना क्यों कर बन पड़ी? अमीरों में जो दुर्गुण पाए जाते हैं, वे यहाँ जन- जन में विद्यमान हैं, किन्तु प्रगतिशीलों में जो सद्गुण पाए जाने चाहिए, उनका बुरी तरह अभाव है। इस कमी के रहते गरीबी ही नहीं, अशिक्षा, गन्दगी, कामचोरी जैसी अनेकों पिछड़ेपन की निशानियाँ बनी ही रहेंगी। वे किसी बाहरी सम्पत्ति के बलबूते दूर न हो सकेंगी। भूमि की अपनी उर्वरता न रहे, तो बीज बोने वाला सिंचाई- रखवाली करने वाला भी उपयुक्त परिणाम प्राप्त न कर सकेगा।

    मनुष्य की वास्तविक सम्पदा उसका निजी व्यक्तित्व है। वह जीवन्त स्तर का हो, तो उसमें वह खेत- उद्यानों की तरह अपने को निहाल करने वाली और दूसरों का मन हुलसाने वाली सम्पदाएँ प्रचुर मात्रा में उत्पन्न हो सकती हैं, पर चट्टान पर हरियाली कैसे उगे? व्यक्तित्व अनायास ही नहीं बन जाता है। वह इर्द- गिर्द के वातावरण से अपने लिए प्राणवायु खींचता है। जहाँ विषाक्तता छाई हुई हो, वहाँ साँस लेना तक कठिन हो जायेगा। लम्बे समय तक जीवित रहने की बात तो वहाँ बन ही कैसे पड़ेगी?

    लम्बे समय तक दुर्बलता के शिकार रहने वालों को धीरे- धीरे कई प्रकार की बीमारियाँ घेरती और दबोचती रहती हैं। छूत की बीमारियाँ एक से दूसरों को लगती और भले चंगों को चपेट में लेती चली जाती हैं। लम्बे समय की गुलामी और अवांछनीयता स्तर की मूढ़ मान्यताओं, दुष्प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में भी यही बात है। वे यदि निर्बाध गति से बढ़ती रहें, तो किसी भी समुदाय को खोखला किए बिना नहीं रहतीं।

    देश की दरिद्रता प्रख्यात है। अशिक्षा, गन्दगी और कुटेबों की बात भी छिपी हुई नहीं है। पर इस बात को समझने में जरा अधिक जोर लगाना पड़ेगा कि भारत में अमीरी का प्रदर्शन क्यों होता है? यहाँ अमीरों के साथ जुड़े हुए, प्रमुख दीख पड़ने वाले काले पक्ष को विशेष रूप से देखना होगा। यों इसके अपवाद भी देखे जाते हैं। अमीरी सदा अंवाछनीयताएँ ही उत्पन्न नहीं करतीं। सदुपयोग कर सकने वाले, उसका अपने तथा दूसरों के लिए समुचित लाभ भी उठा लेते हैं, पर आमतौर से वैसा कुछ नहीं बन पड़ता।

    अपने देश में बड़प्पन का अर्थ आलस्य और अपव्यय है। दुर्व्यसनों की एक पूरी बटालियन भी साथ लग जाती है। देखा गया है कि अपने देश में परिश्रम करना पड़े तो उसे दुर्भाग्य का चिह्न माना जायेगा। राजा, सामन्त, अमीर- उमराव सन्त- महन्त स्तर के आदमी मेहनत करने में अपना अपमान समझते हैं। वे अपनी शारीरिक सेवाओं के लिए भी समीपवर्ती लोगों पर आश्रित रहते हैं। लड़की की शादी उस घर में करना चाहते हैं, जहाँ वह पलंग पर बैठी राज करे। जिसे दिन भर काम करना पड़े, उसे नीचा समझा जाता है। नेक- भले व्यक्तियों को भी छोटा इसलिए ही माना जाता है कि वे दिनभर कड़े परिश्रम में लगे रहते हैं। अमीर या मालदार तो उन्हें ही समझा जाता है, जिन्हें कुछ न करने की सुविधा हो। यह कामचोरी- हरामखोरी की आदत जहाँ भी जड़ जमाने लगेगी, वहाँ से ‘‘बेशरम, बेल’’ की तरह हटने का नाम ही न लेगी।

    अमीरों के साथ जुड़ा- अपव्यय एक भारी रोग है। इसी के सहारे तो किसी को अमीर होने के भ्रम में डाला जा सकता है। फैशन, जेवर, ठाटबाट, नशेबाजी जैसे दुर्व्यसन तो अमीरी के प्रतीक बन गए हैं। विवाह- शादियों के अवसर पर तो यह अमीरी सिर पर चढ़ बैठती है और आवश्यक साधनों को भी बेच कर उन्हें उसकी फुलझड़ी जलाने के लिए आकुल- व्याकुल कर देती है। दूल्हे और दुल्हन को इस तरह सजाया जाता है मानो वे राजकुमार और राजकुमारी से कम न हों। बरातों और दावतों को देखकर यह कोई अनुमान नहीं लगा सकता कि यह लोग दैनिक जीवन में रोटी का जुगाड़ भी मुश्किल से जुटा पाते होंगे। ऐसा लगता है मानों इन्हें कहीं से मुफ्त का खजाना मिल गया हो?

औसत भारतीय को दिनभर में कुछ घण्टे का ही काम मिलता है। शेष तो वे ज्यों- त्यों मटरगश्ती, आवारागर्दी, निठल्लेबाजी में ही बिताते रहते हैं। यदि इस समय को कठोर श्रम के साथ नियोजित किया जा सके, तो कोई कारण नहीं कि उसके बदले वे साधन न मिल सकें, जिनके सहारे खुशहाली की परिस्थितियों में रहा जा सकता है। कृषि कार्य में निरत व्यक्ति यदि चाहे, तो अपने प्राय: आधे समय में खालीपन को कुटीर उद्योगों में लगा सकता है और अतिरिक्त आजीविका का कोई सुयोग बिठा सकता है।

    जिन्हें पैसे की आवश्यकता या तंगी नहीं, वे बचत वाले समय को शिक्षा संवर्धन में, गन्दगी के स्थान पर स्वच्छता नियोजित करने में लगा सकते हैं। परिवार के साथ मिल जुलकर उस परिकर को सभ्यजनों जैसा बना सकते हैं। स्वास्थ्य- रक्षा आजीविका अभिवृद्धि, कलाकौशल, शिक्षा- विस्तार जैसे अनेक कार्य हैं, जिनके लिए यदि उत्साह उभरे तो कोई कारण नहीं कि आज की अपेक्षा कल अधिक सम्पन्न, शिक्षित, सभ्य एवं प्रतिभाशाली न बना जा सके।

    अपव्ययों को रोकने पर, पेंदे में छेद वाले घड़े का सूराख बन्द कर देने की तरह पानी भरा रह सकता है और प्यासे मरने की शिकायत से बचा जा सकता है, किन्तु उस दुर्भाग्य को क्या कहा जाए, जो समय के साथ श्रम को जुड़ने ही नहीं देता? अमीरी प्रदर्शन के प्रेत पिशाच का उन्माद सिर से उतरने ही नहीं देता? इस मूर्छना के रहते उठने, आगे बढ़ने और उपलब्ध क्षमताओं के सदुपयोग का उत्साह उभर ही नहीं पाता। इस मानसिकता के रहते न दरिद्रता से पीछा छूटने वाला है, न अशिक्षा से। प्रगति के दूसरे भी अनेकानेक आधार हैं, पर वे हस्तगत कैसे हों, जबकि पिछड़ापन अपने गुण, कर्म, स्वभाव का अविच्छिन्न अंग बन गया हो?

    अच्छा होता, हमें ऐसे उत्साहवर्धक प्रगतिशील वातावरण में रहने का अवसर मिला होता अथवा जहाँ ऐसी प्रेरणाएँ विद्यमान हैं, उनके साथ घनिष्ठता का सम्बन्ध स्थापित किया गया होता। इर्द- गिर्द ऐसा उत्साह उभरता दीख नहीं पड़ता, नहीं तो अन्यत्र अथवा भूतकाल में सम्पन्न हुए उन पुरुषार्थों से अवगत, प्रभावित होने का प्रयत्न किया ही जा सकता है, जो अभी भी प्रगतिशीलों की यशगाथा के रूप में कहीं- कहीं तो विद्यमान हैं ही। ऐसी साक्षियाँ, इतिहास के पृष्ठों पर कम परिमाण में नहीं हैं।

    जिसे विपन्नता से उबर कर, प्रगतिशील सम्पन्नता की दिशा में अग्रसर होना है, उसे उस अभ्यस्त मानसिकता को निरस्त करना पड़ेगा, जो हमें अमीरी के मुखौटा पहन कर वस्तुतः: गई- गुजरी परिस्थितियों में रहने के लिए बाधित किए हुए हैं।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118