मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले

साधनों से भी अधिक सद्गुणों की आवश्यकता

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जहाँ भी आवश्यकताओं और अभावों की चर्चा होती है, वहाँ साधन- संवर्धन के लिए प्रयत्नरत होने का सुझाव दिया जाता है। इसमें कुछ अनुचित भी नहीं है। बढ़े हुए साधनों के सहारे अनेकों उपयोगी कार्य किये जा सकते हैं। इसलिए आप्तजन ‘‘सौ हाथों से कमाने'' का उत्साह उभारते हैं, पर उनके साथ ही ‘‘हजार हाथों से खर्च करने’’ का निर्देश भी दिया जाता है। यहाँ दुरुपयोग कर गुजरने के लिए नहीं वरन् सदाशयता भरे प्रगतिशील प्रयोजन के लिए उस उपार्जन को नियोजित करने के लिए प्रोत्साहन दिया गया है। वैसा अनावश्यक संचय न किया जाये, जिसकी परिणति आमतौर से दुर्व्यसनों के लिए ही होती है, जो ईर्ष्या उभारती है और दूसरों को भी उसी अवाञ्छनीय मार्ग पर चल पड़ने के लिए बरगलाती है।

    पारा पचता नहीं। वह शरीर के विभिन्न अंगों में से फूट- फूट कर निकलता है। इसी प्रकार अनावश्यक और बिना परिश्रम का कमाया हुआ अथवा निष्ठुरता की मानसिकता से विलासिता, जैसे दुष्प्रयोजनों में उड़ाया गया धन, हर हालत में अनर्थ ही उत्पन्न करेगा। इसके दुष्परिणाम ही सामने आयेंगे। खुले तेजाब को, जलती आग को कोई कपड़ों में लपेट कर नहीं रखता। इसी प्रकार उत्पादन में लगी हुई पूँजी के अतिरिक्त, निजी खर्च के लिए मौज मजे में उड़ाने के लिए कुछ सञ्चय जमा नहीं किया जाना चाहिए, अन्यथा उससे मात्र गलत परम्पराएँ ही जन्म लेंगी। अमीरों की सन्तानें, आमतौर से आरामतलब, निकम्मी और दुर्गुणी ही देखी गयी हैं। जो कुछ परिश्रमपूर्वक ईमानदारी से नहीं कमाया गया है, जिसे उपयोगी प्रयोजन में लगाने से रोककर अनियन्त्रित संकीर्ण स्वार्थपरता के लिए जमा कर रखा गया है, उसकी अवाञ्छनीय प्रतिक्रिया न केवल संचयकर्ता को, वरन् उससे किसी भी रूप में प्रभावित होने वाले को भी पतनोन्मुख प्रवृत्तियों में धकेले बिना न रहेंगी।

    दुरुपयोग की तरह निष्क्रियता- निरुत्साह भी अनिष्टकारक है। आलसी- प्रमादी ही आमतौर से दरिद्र पाये जाते हैं। उत्साह का अभाव ही उन्हें शिक्षा से वंचित रखता है। सभ्यता के अनुशासन को अभ्यास में न उतार पाने के कारण ही लोग अनगढ़ और पिछड़ी स्थिति में पड़े रहते हैं। यदि उनके इन दोष दुर्गुणों को हटाया घटाया जा सके, तो इतने भर से निजी प्रतिभा में नया उभार आ सकता है और उस दरिद्रता से छुटकारा मिल सकता है, जिसके कारण कि आए दिन अभावों, असन्तोषों और अपमानों का दबाव सहना पड़ता है।

    कहने को तो यों भी कहा जाता है कि अभावग्रस्त परिस्थितियों के कारण मनुष्य को त्रास सहने पड़ते हैं, पर गम्भीरता के साथ निरीक्षण- परीक्षण करने पर तो दूसरी ही बात सामने आती है। व्यक्तित्व की गहराई में घुसी हुई अवाञ्छनीयताओं के कारण ही मनुष्य गई गुजरी परिस्थितियों में पड़ा रहता है। श्रमिकों में कितनी ही अच्छी कमाई करते हुये भी देखें जाते हैं, पर उनकी आदत में नशेबाजी, जुआ, आवारागर्दी जैसी कितनी ही बुरी आदतें जुड़ जाती हैं। जो कमाते हैं, उसे गँवा देते हैं और अभावों की शिकायत करते हुए ही जिन्दगी गुजारते हैं। उनका परिवार भी इसी अनौचित्य की चक्की में पिसता और बरबाद होता रहता है। बात श्रमिकों तक ही सीमित नहीं हैं, वह धनिकों के ऊपर और भी अधिक स्पष्ट रूप से लागू होती है। दुरुपयोग उन्हें भी दुर्गुणी, दुर्व्यसनी बनाता ही है। 

अपव्यय के रहते किसी के पास खुशहाली रह सकेगी या उसके माध्यम से उपयोगी प्रगति सम्भव हो सकेगी, इसकी आशा अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

धनिकों की विद्वानों की, समर्थों की, कलाकारों की अपने देश में कमी नहीं। देश में गरीब और अशिक्षितों का बाहुल्य होते हुए भी, प्रतिभावानों का इतना बड़ा वर्ग मौजूद है, जो अपने साधनों को सर्वतोमुखी प्रगतिशीलता के लिए नियोजित कर सके, तो उतने भर से ही उत्थान उत्कर्ष और अभ्युदय का वातावरण देखते देखते बन सकता है। महापुरुषों का आँकलन दो ही आधारों पर होता है, एक तो उनने समर्थता अर्जन के लिए कठोर प्रयत्न किया है, दूसरा उन उपलब्धियों को उदारतापूर्वक प्रगतिशीलता के पक्षधर सत्प्रयोजनों के लिए नियोजित कर दिया होता है। यह दो कदम उठाने पर कोई महामानवों की पंक्ति में बैठ सकने की स्थिति में पहुँच जाता है। ऐसे लोगों का बाहुल्य जिस भी समुदाय में, क्षेत्र में होगा, वहाँ न सौहार्द्र की कमी रहेगी, न समर्थता की, न प्रगतिशीलता की।

    उदारता, प्रामाणिकता और परमार्थ- परायणता यह तीन ही ऐसे गुण हैं, जिनका उपार्जन- अभिवर्धन करने पर व्यक्ति न केवल अपने को सुखी समुन्नत बना सकता है, वरन् उसके क्रियाकलापों से सम्बद्ध समूचा परिकर ऊँचा उठता, आगे बढ़ता चला जाता है।

    अगली शताब्दी में उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ विनिर्मित करने के लिए क्या सम्पदा जुटानी पड़ेगी? किस प्रकार की योजना और विधि व्यवस्था बनानी जुटानी पड़ेगी? किस स्तर की समृद्धि जुटानी पड़ेगी? इसका ऊहापोह करना समय रहते उचित भी है और आवश्यक भी, किन्तु इतना तो ध्यान रखना ही पड़ेगा कि लोगों की मानसिकता यदि घटिया रही, तो जो इच्छित एवं उपयुक्त है, उसे उपलब्ध कर सकना शताब्दियों सहस्राब्दियों में भी सम्भव न हो सकेगा।

    साधनों का महत्त्व तो आवश्यक है, पर इतना नहीं कि उन्हें व्यक्तित्व के स्तर से भी ऊँचा माना जा सके। गरीब देशों के लोग सर्वथा निठल्ले- निकम्मे ही रहते हों, ऐसी बात भी नहीं है। शरीर संरचना भी उनकी एक जैसी ही होती है। कई तो उनमें से शिक्षित और समर्थ भी रहते हैं, इतने पर भी गई गुजरी परिस्थितियाँ उनका पीछा नहीं छोड़ती। अभावों, कष्टों, विद्रोहों और संकटों का माहौल कहीं न कहीं से आ ही धमकता है ।। व्यक्ति को गरिमा सम्पन्न बना सकने में अड़ा रहने वाला अवरोध ही प्रधान इसका कारण होता है, जिसके कारण या तो वे अभीष्ट अर्जन- उत्पादन कर ही नहीं पाते, या फिर से उसे स्वभावगत अस्त- व्यस्तता के कारण ऐसे ही गँवा- उड़ा देते हैं।

    इसके ठीक विपरीत यह भी पाया गया है कि साधु, सज्जन, सद्गुणी, सेवाभावी लोग, नगण्य साधनों से सदाशयता की रीति नीति अपनाए हुए हँसता- हँसाता और खिलता- खिलाता जीवन जी लेते हैं। उन्हीं परिस्थितियों में न केवल स्वयं को वरन् अन्य पिछड़े हुओं को भी ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने में समर्थ होते हैं। ऐसे ही आदर्शवादी, शालीनता सम्पन्नों का अपना पुरातन इतिहास जीवन्त स्थिति में रहा है। वह साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजकों का समुदाय, न केवल अपने देशवासियों का स्तर असाधारण रूप से ऊँचा उठाने में समर्थ हुआ था, वरन् उन्हीं मुट्ठी भर लोगों ने देश- देशान्तरों में प्रगतिशीलता का, सर्वतोमुखी सुसम्पन्नता का, सुसंस्कारिता का वातावरण बनाकर रख दिया था। गरीबी किसी के मार्ग में बाधक नहीं होती। मात्र कुपात्रता ही उसकी आड़ में छिपकर सर्वत्र गन्दगी फैलाती और पतन- पराभव का माहौल बनाती रहती है।


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