शरीर कितना ही सुन्दर- सुसज्जित क्यों न हो, उसकी प्रतिष्ठा- उपयोगिता तभी
है, जब उसमें जीवन चेतना विद्यमान हो। निष्प्राण हो जाने की स्थिति में तो,
तथाकथित प्रेम प्रकट करने वाले भी उसे हटा देने का जुगाड़ बनाने में लग
जाते हैं। सज्जनता की शोभा, उपयोगिता, आवश्यकता कितनी ही क्यों न हो, पर वह
श्रेष्ठ स्तर की तभी मानी जायेगी, जब उसके साथ शालीनता की प्राणचेतना का
सुनिश्चित समावेश हो।
सम्पत्ति से सुविधा साधन भर बढ़ या मिल
सकते हैं किन्तु यदि उनका सदुपयोग न बन पड़े, तो वह दुधारी तलवार बन जाती
है। वह रक्षा भी कर सकती है और अपनी तथा दूसरों की हत्या करने के काम भी आ
सकती है। पिछले दिनों भूल यही होती रही है कि एक मात्र सम्पत्ति के ही गुण
गाए जाते रहे। यहाँ तक समझा जाता रहा है कि उसके सहारे व्यक्ति की प्रतिभा-
प्रतिष्ठा भी बढ़ सकती है। यह मान्यता ही आदि से अन्त तक भ्रान्तियों से
भरी हुई है। यदि ऐसा ही रहा होता, तो धन सम्पन्नों के द्वारा लोकमंगल के
श्रेष्ठ प्रयास बन पड़े होते और पिछड़ेपन का नाम निशान भी शेष कहीं न रहा
होता। यदि सर्वसाधारण को पिछड़ेपन से अभावग्रस्तता से उबारने में सञ्चित
सम्पदाओं को खर्च किया जा सका होता, तो संसार का नक्शा ही बदल गया होता।
संसार में इतनी धन सम्पदा है कि उसे मिल- बाँटकर खाने पर सभी लोग सुख
शान्ति से रह सकें और सन्तोषपूर्वक सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त करते
रहें। विलास, सञ्चय और अहंकार के प्रदर्शन में उसका उपयोग होने लगे, तो
समझना चाहिए कि वह निरर्थक ही नहीं गई, वरन् उसने अनर्थ विनिर्मित करने के
लिए अवाञ्छनीय वातावरण भी बनाकर रख दिया।
हाथी पर अंकुश न लगे,
तो वह खेत- खलिहानों को रौंदता, पेड़ पौधों को उखाड़ता और झोंपड़ों को
धराशायी करता चला जायेगा। उसकी चपेट में जो प्राणी आ जाएँगे, उनकी भी खैर
नहीं। सम्पदा भी उन्मत्त हाथी की तरह है, जिस पर उदारता का अंकुश आवश्यक
है। यदि झरने पानी का सीधे रास्ते से निकलना रोक दिया गया, तो उसका परिणाम
बाढ़ के रूप में भयंकरता दिखाने ही लगेगा।
प्रस्तुत वातावरण में
एक ही सबसे बड़ा अनर्थ दीख पड़ता है कि हर कोई अपने उपार्जन, वैभव को
मात्र अपने लिए ही खर्च करना चाहता है। वह अपनापन भी विलासिता और अहंकारी
ठाट- बाट प्रदर्शन तक ही सीमित है। यह प्रचलन इसी प्रकार बना रहा, तो इसका
दुष्परिणाम अब से भी अधिक भयंकर रूप में अगले दिनों दृष्टिगोचर होगा ।। एक
से बढ़कर एक अनर्थ सँजोए जाते रहेंगे। पेट की एक सीमा है, उसे पूर कर लेने
पर भी अनावश्यक आहार खोजते चले जाने पर वह विग्रह उत्पन्न किये बिना नहीं
रहेगा। उल्टी, दस्त, उदरशूल जैसी अवाञ्छनीय परिस्थितियाँ ही उत्पन्न होंगी।
यह मोटी बात समझी जा सके, तो फिर एक ही नीति निर्धारण शेष बच जाता है कि
नीतिपूर्वक कमाया कितना ही क्यों न जाये, पर उसका उपयोग सत्प्रवृत्ति के
मार्ग में आगे बढ़ने में ही किया जाये।
मात्र पैसा नहीं, शक्ति
सूत्रों में समर्थता, योग्यता, शिक्षा, कुशलता आदि अन्य विभूतियाँ भी आती
हैं। उन्हें भी अपरिग्रही नीतिवानों की तरह पतन को बँटाने और उत्कर्ष को
बढ़ाने में उसी प्रकार नियोजित किया जा सकता है।
भौतिक क्षेत्र
की त्रिविध सम्पदाओं को प्रगति का माध्यम कहा गया है। समृद्धि, समर्थता और
कुशलता के आधार पर व्यक्ति या समाज के सौभाग्य को सहारा जाता है। इसमें कोई
हर्ज भी नहीं है, बशर्ते कि उन पर नैतिकता, सामाजिकता और सद्भावना का
अंकुश ढीला न होने पाए। व्यक्ति कमाये कुछ भी, पर ध्यान इतना अवश्य रखें कि
उसमें अनीति का, मुफ्तखोरी का समावेश तो नहीं, हो रहा है? उस उपार्जन को
भी निजी स्वामित्व के अन्तर्गत ही समझ लिया जाये। ध्यान इस बात का भी रखा
जाये कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है, उसकी आद्योपान्त प्रगति जन सहयोग के
आधार पर ही सम्भव हुई है। जिससे पाया है, उसे चुकाया भी जाना चाहिए अन्यथा
लुटेरेपन की ही तूती बोलने लगेगी। तब ऋण चुकाने, प्रत्युपकार करने या
कृतज्ञता जताने का द्वार ही बन्द हो जायेगा। ऐसी दशा में संसार में दो ही
वर्ग शेष रहेंगे- एक शोषक, दूसरा शोषित। तब उन स्थापनाओं और विधाओं के लिए
कोई स्थान ही नहीं रह जायेगा, जिनमें सहकारिता, सहभागिता और समानता का
संस्थापना पर जोर दिया गया है।
यदि जीवन में भाव संवेदना एवं वैचारिक उदारता के लिए स्थान न रह गया, तो वह
अराजकता ही दीख पड़ने लगेगी, जिसमें समर्थों के लिए पीसना और असमर्थों के
लिए पिसना ही नियति है। ऐसा मत्स्य न्याय ही यदि मनुष्यों के लिए भी
परम्परा बन जाये फिर उस श्रेष्ठता के लिए कोई गुंजाइश ही न रहेगी, जिसके
कारण मनुष्य को देवत्व का उत्तराधिकारी माना गया है। ‘‘कमाने वाला ही
खाये’’ की नीति को यदि मान्यता मिल गई तो संसार में अबोधों अविकसितों,
अपंगो, असमर्थों को जीवित रहने का कोई अधिकार ही न रह जायेगा। उस स्थिति
में अर्थ शास्त्र के अनुसार मनुष्यों में से प्राय: आधों को अपने जीवन का
अन्त करना होगा। तब बूढ़ों को जीवित रहने देने की हिमायत किस तर्क के आधार
पर की जा सकेगी? तब फिर इस संसार में भेड़ियों को भेड़ियों द्वारा ही फाड़
चीर कर खा जाने जैसे दृश्य सर्वत्र उपस्थित होंगे। तब कैसा वीभत्स होगा
संसार?
घर के समर्थ कमाते हैं और उसी कमाई से परिवार के सभी
सदस्य गुजारा करते हैं। यह जिम्मेदारी भी है, परम्परा भी और उदारता भी। सही
वितरण यही है। पुण्य परमार्थ भी इसी को कहते हैं। मानवी गरिमा की सराहना
इससे कम में करते बन ही नहीं पड़ती। सम्पत्ति की सार्थकता भी इसी में है कि
उसे मिलजुल कर सभी लोग काम में लायें। गिरों को उठाने और उठों को आगे
बढ़ाने में इसी प्रक्रिया को अपनाने से काम चलता है।
भारतीय
धर्म परम्परा में गोग्रास, दैनिक पञ्च यज्ञ, मुसलमान धर्म में जकात, सिख
धर्म में कड़ा- प्रसाद जैसे माध्यमों से दैनिक अनुदान निकालने की परम्परा
है। समय भी सम्पदा है और साधनों को भी सम्पत्ति कहते हैं। दोनों ही वैभव
ऐसे हैं, जो हर किसी के पास न्यूनाधिक मात्रा में होते ही हैं। यदि खुशहाली
हो, तब तो कहना ही क्या, पर यदि तंगी और व्यस्तता के बीच भी रहना पड़ता
हो, तो भी आवश्यक सुविधा साधनों में कटौती करके भी परमार्थ प्रयोजनों के
लिए, उनका एक अंश नियमित रूप से निकालते ही रहना चाहिए। इसमें कंजूसी-
कृपणता बरतना एक प्रकार से मानवी श्रेष्ठता को ही झुठलाना है।
दान धर्म भी है और अधर्म भी। हथियार से पुण्य भी बन पड़ता है और पाप भी।
दानशीलता को यदि भाव संवेदनाओं और विचार परिष्कार में लगाया जाये तो ही
समझना चाहिए कि युगधर्म के निर्वाह और उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में उस
सदाशयता का सही नियोजन हो सका। अन्यथा धूर्तों द्वारा, मूर्ख आये दिन जिस
तिस बहाने ठगे ही जाते रहते हैं और यह बहकाया जाता रहता है कि यह नियोजन
पुण्य के लिए किया गया है। स्मरण रहे, उज्ज्वल भविष्य निर्माण की महती
योजना, मन मस्तिष्क में आदर्शवादी भाव संवेदनाओं का उभार उपजाये बिना और
किसी प्रकार सफल- सम्भव नहीं हो सकेगी।