लोक-मानस का परिष्कृत मार्गदर्शन

सत्कार्यों के लिए साधन-सहयोग

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बुद्ध के धर्म चक्र प्रवर्तन में प्रधान भूमिका तो भिक्षु-भिक्षुणियों की ही रही, पर उनके निर्वाह, निवास एवं यातायात-प्रचार आदि के लिए विपुल साधनों की आवश्यकता पड़ती रही जिसे बिम्बसार, हर्षवर्धन, अशोक जैसे पुण्यात्माओं से लेकर अंगुलिमाल-अम्बपाली जैसे हेय समझे जाने वालों द्वारा समर्पित किये गये साधनों से पूरा किया जाता रहा। यदि यह सब न जुटा होता तो भिक्षुओं-परिव्राजकों के लिए महान परिवर्तन की भूमिका निभा सकना तो दूर, जीवित रहने के लिए कन्द-मूल तलाश करने में ही अपना समय गुजारना पड़ता। देश, धर्म और समाज-संस्कृति की सेवा तो वे कर ही कैसे पाते?

राणाप्रताप साधनों के अभाव में एक बार नितान्त हताश हो गये थे। घास की रोटी भी जब बिलाव उठा ले गया तो अबोध बालिका भूखी मरने लगी। प्रताप का पत्थर जैसा कलेजा मोम जैसा हो गया और वे बादशाह से सन्धि करके हथियार डाल देने और पराधीनता स्वीकार करने की बात सोचने लगे। बेचारे करते भी क्या? साथी सैनिकों को भी तो अन्न-वस्त्र चाहिए। शस्त्रों की निरन्तर रहने वाली आवश्यकता भी तो पूरी होनी चाहिए अन्यथा योद्धा मात्र पत्थर फेंककर तो दुर्दान्त शत्रु का सामना नहीं कर सकता। प्राण त्यागना अपने वश की बात है, वैसा तो चित्तौड़ की रानियों ने भी जौहर के रूप में कर डाला था, पर विजयश्री का वरण करने के लिए अकेले भुजबल से भी काम नहीं चलता। साथ में सैनिक भी चाहिए, शस्त्र भी और राशन-वाहन भी, इसके बिना कर्तव्य निभाना भर हो सकता है। विजय प्राप्त करके दुंदुभी बजाना और जीत का उद्घोष करना संभव नहीं हो सकता। साधनों का भी अपनी जगह महत्व है। विशेषतया तब, जब शरीर सेवा से बढ़कर किसी बड़े अभियान का सरंजाम जुटाना हो तब। प्रताप के सम्मुख प्रस्तुत जीवन-मरण की कठिनाई का हल उदारचेता भामाशाह ने किया। उनके पास व्यवसाय संग्रहीत संपदा थी जिस पर कुटुम्बी और रिश्तेदार दांत लगाये हुए थे। उन सबकी मान्यता थी कि उत्तराधिकार में जो हिस्सा मिलेगा उसी के सहारे मौज की जिन्दगी कटेगी। जब उनने यह सुना कि भामाशाह राणा की सहायता के लिए अपनी सम्पदा समर्पित करने वाले हैं तो वे सभी आग बबूला हो गये, गृहकलह चरम सीमा तक पहुंच गया किन्तु शाह ने अपने विवेक को इतने पर भी जीवित रखा। कर्तव्य भी पाला और आदर्श भी निभाया। उनके पास जो विपुल सम्पदा थी उस सबको समेट कर राणा के चरणों पर सत्प्रयोजनों के निमित्त अर्पित कर दिया। परिवार के किसी सदस्य से सलाह नहीं ली और न उनके विरोध की परवाह की, परिणाम स्पष्ट है। राणा की रगों में नया रक्त उछला। नई योजना बनी, नये सिरे से संग्राम शुरू हो गया और इतिहास के पृष्ठों में वह वीरता अमर हो गई। श्रेय तो वीरता को ही मिला, पर जो गहराई तक प्रवेश कर सकते हैं वे उसके पीछे अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए भामाशाह के उदार साहस को जोड़े बिना नहीं रह सकते।

ऐसे उदाहरण एक नहीं अनेक हैं। नवयुग निर्माण के लिए प्रयत्नरत विश्वामित्र को राजा हरिश्चन्द्र ने अपना धन ही नहीं परिवार और शरीर तक समर्पित कर दिया था। आद्य शंकराचार्य जब देश के चार कोनों में चार मठ बनाने के लिए व्याकुल थे तब साधनों का अभाव उनके सामने प्रमुख बाधा बनकर खड़ा था। मान्धाता ने अपनी सारी सम्पदा उसी प्रयोजन के लिए लगा देने की प्रतिज्ञा की और निभायी। यदि वे वैसा साहस न कर सके होते, कोई और वैसा उदार न मिला होता तो देश के चार कोनों पर चार धाम बनाकर देश की एकता और अखण्डता को सांस्कृतिक आधार पर सुदृढ़ एवं सुनिश्चित बनाने की योजना का कौन जाने क्या होता? इस सम्बन्ध में कौन क्या कह सकता है?

स्वराज्य के दिनों में उठती उमंगों वाले युवकों को प्रशिक्षित करके स्वतन्त्रता संग्राम को अंगद-हनुमान की तरह उठा ले जाने की आवश्यकता अनुभव की गई। राष्ट्रीय कार्यकर्त्ताओं का उत्पादन उस समय की महती आवश्यकता थी, इसके लिए पैसा चाहिए था। अंग्रेज सरकार के डर से सम्पन्न लोग भी ऐसे कामों में कुछ धन देने से अपने ऊपर आफत आने की आशंकायें करते थे। छात्र और उनके अभिभावक भी कुछ अधिक देने की स्थिति में नहीं थे। पैसे के बिना काम अड़ गया, इस व्यवधान को अकेले एक आदमी ने पूरा किया—उनका नाम था महेन्द्र प्रताप। अलीगढ़ जिले के मुरसान कस्बे में उनके पास लगभग सौ गांवों की जागीरदारी थी। उनमें से एक गांव अपने गुजारे के लिए रखकर शेष 99 गांवों को उनके अपने नवजात पुत्र के नाम हस्तांतरित कर दिया। वे निःसन्तान थे, पुत्र की चर्चा चलती रहती थी। उनने अपने संकल्पित विद्यालय को ही ‘मानस पुत्र’ माना और उसी दिन प्रेम महाविद्यालय को जन्म देते हुए अपनी सम्पदा उसके नाम हस्तान्तरित कर दी। प्रेम महाविद्यालय बनने और चलने में देर न लगी, देश के लिए उत्सर्ग होने वाले छात्रों के ठाठ लग गये। उच्चस्तरीय अध्यापक खोजे गये। डॉ. सम्पूर्णानन्द, आचार्य जुगलकिशोर, प्रो. कृष्णचन्द्र जैसे देश के मूर्धन्य समझे जाने वाले नेता प्रविष्ट छात्रों को स्वयं पढ़ाते थे। फलतः पूरा विद्यालय स्वतन्त्रता सैनिकों की छावनी बन गया। आन्दोलन आरम्भ होते ही सरकार ने उसे जब्त कर लिया। विद्यार्थी और अध्यापक अपनी गतिविधियों से इस प्रकार आन्दोलन चलाते रहे कि उस जमाने में उत्तरप्रदेश सत्याग्रही सैनिकों की खदान माना जाने लगा। विचारणीय यह है कि राजा महेन्द्रप्रताप की वह विपुल सम्पदा यदि आड़े समय में राष्ट्र के काम न आई होती तो आन्दोलन में जो चार चांद लगे उसमें निश्चित रूप से कमी रह जाती। जमींदारी देते समय उनके परिवार वाले सहमत रहे हों या मित्रों ने उसे बुद्धिमत्तापूर्ण कदम बताया हो—ऐसी बात नहीं है। सभी कहते थे कि पहले अपने मौज-मजे का प्रबन्ध करना चाहिए और दान के नाम पर इतना थोड़ा सा देना चाहिए जिससे अखबारों में फोटो छपने लगे और चापलूस चमचे-चारणों की तरह कीर्ति-ध्वजा फहराने और जय-जयकार करने की कीमत प्राप्त कर सकें। यह सब अपने स्थान पर होता रहा और महेन्द्रप्रताप का संकल्प अपने स्थान पर फलित होता रहा।

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर उन दिनों 500 रुपये के लगभग वेतन पाते थे, पर उनने अपने परिवार के खर्च के लिए 50 रुपये की राशि ही निश्चित की थी। उतने में ही गुजारा चला लेते थे और शेष बचा हुआ पैसा उन निर्धन विद्यार्थियों की शिक्षा-व्यवस्था में काम आता था, जो पढ़ाई के आवश्यक साधन अपने घरों से प्राप्त नहीं कर सकते थे—ऐसे छात्रों के लिए विद्यासागर ही अभिभावक की भूमिका निभाते थे।

पोलेण्ड में शान्ति के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता एक श्रमिक नेता लेक वालेसा ने अपने को मिली राशि में से एक पाई को भी अपने लिए नहीं छुआ वरन् वह सारा धन श्रमिक आन्दोलन को गतिशील बनाने के लिए हाथोंहाथ हस्तांतरित कर दिया।

ठीक इसी प्रकार एक नोबेल पुरस्कार विजेता उच्च शिक्षित पादरी अलबर्ट श्वाइत्जर ने अपने को अफ्रीका के कोढ़ियों के लिए समर्पित किया। यह छूत उन्हें भी लग गई थी तो भी वे मरते दम तक उस व्रतशीलता को निबाहते रहे। उन्हें भी नोबेल पुरस्कार मिला था, उस लाखों की रकम को उनने कोढ़ी परित्राण के लिए ही दान कर दिया। शरीर और मन तो वे पहले ही दे चुके थे।

अमेरिका के एक करोड़पति पैसे को इतना प्यार करते थे कि उनने शादी तक नहीं कि स्त्री-बच्चों पर खर्च करना पड़ेगा। उनसे कोई मिलने आता था तो सिर्फ एक बत्ती कमरे में जलने देते थे ताकि अधिक बिजली जलने से पैसे की हानि न हो।

उस देश में एक प्रशिक्षकों का विश्वविद्यालय बन रहा था, उसके लिए चन्दा इकट्ठा किया जा रहा था। धन कमेटी ने अनुत्साहपूर्वक उस कृपण के यहां भी चलने का निश्चय किया। घुसते ही एक को छोड़कर सब बत्तियां बुझ गईं तो उनने समझ लिया कि इस कृपण के यहां से कुछ मिलना-जाना नहीं है। संकोचपूर्वक समिति ने पांच हजार डालर की प्रार्थना की, चूंकि योजना धनाढ्य के मन की थी और वह उसी निमित्त एक-एक कौड़ी करके धन जमा करता रहा था—ऐसी यूनीवर्सिटी खुलने की उसे हार्दिक प्रसन्नता हुई। उसने पांच हजार के स्थान पर पचास हजार डॉलर का चैक दिया। जब समिति आश्चर्य व्यक्त करने लगी तो उसने कहा—‘चूंकि काम मेरे मन का है, इसलिए मैं अपनी पचास करोड़ डॉलर की पूरी सम्पदा दूंगा, पर पचीस-पचीस लाख की किश्तों में, ताकि यह देखता चलूं कि काम उसी स्तर का उसी प्रकार हो रहा है या नहीं—जैसा कि मैं चाहता हूं।’ अन्ततः उसकी सारी पूंजी उस विश्वविद्यालय में ही लगी।

यह सम्पन्न लोगों की एकाकी साहसिकता के उदाहरण हैं, पर यह आवश्यक नहीं कि अधिक लोग ऐसी स्थिति में हों और ऐसा बड़ा साहस कर सकें, किन्तु जिसकी जितनी क्षमता और उदार साहसिकता है वह उस अनुपात में कुछ तो दे ही सकता है, उन कामों के लिए जिनकी परिणति असंदिग्ध हो, जिनसे वस्तुतः लोक-कल्याण सधता हो। भगवान बुद्ध ने एक विशाल संघाराम निर्माण के लिए धनिकों की गोष्ठी बुलाई। सभी ने उदारतापूर्वक दान दिया। पीछे यह पूछा गया कि सबसे बड़ी राशि कितनी थी तो एक घसियारे के पचास पैसे की घोषणा की गई। यह उसकी शत-प्रतिशत पूंजी थी और उसे दे चुकने के बाद उस दिन उसे भूखा सोना पड़ा था। पुण्य—धन की मात्रा पर निर्भर नहीं वरन् इस तथ्य पर अवलम्बित है कि किसने अपने साधनों का कितना बड़ा अंश पुण्य कार्य के निमित्त भावपूर्वक समर्पित किया।
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