लोक-मानस का परिष्कृत मार्गदर्शन

महामानव जिनने समाज को दिशा दिखाई

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गांधीजी के सभी परिवार वाले चाहते थे कि लड़का मोहनदास एक अच्छा वकील बने। स्वयं कमाये, खाये तथा घर वालों की इज्जत बढ़ाये-सहायता करे। हर एक से एक ही परामर्श सुनते रहने के बाद वे सहमत भी हो गये और पूरी मेहनत करे नियत पढ़ाई पढ़ने लगे।

वकील को बहुत पैसा और बड़ा सम्मान मिलता है, यह मान्यता उनने भी बना ली होगी, पर परिस्थितियों ने साथ न दिया। पढ़ाई पूरी करके वकालत के क्षेत्र में उतरे तो पहले ही मुकदमें में प्रतिभा लड़खड़ा गई। बहस ठीक तरह न हो सकी, फलतः मजिस्ट्रेट भी मुस्कराया और मुवक्किल ने झल्लाकर अपनी दी हुई फीस का पैसा वापस ले लिया। अगर ऐसी ही वकालत जिन्दगी-भर चलती रहती और थोड़ा-थोड़ा सुधार-अभ्यास भी होता रहता तो भी संभावना यह न थी कि वे घर वालों की इच्छा के अनुरूप कोई बड़े वकील बन सके होते, ढेर सारी इज्जत या दौलत कमा सके होते।

किन्तु नियति का दूसरा ही विधान था। गांधीजी ने बचपन में एक जगह राजा हरिश्चन्द्र का ड्रामा देखा। सोचते रहे—यदि अपनी आदर्शवादिता की छाप पीढ़ियों तक लोगों पर छोड़ी जाय और बताये हुए मार्ग पर दूसरों को चलने के लिए प्रोत्साहित किया जाय तो इसमें बुराई क्या है?

विश्वामित्र नवयुग निर्माण की अनेक योजनायें कार्यान्वित करने के लिए व्याकुल थे, पर उनके पास साधन न थे। एक-एक बूंद साधन इकट्ठे करने में वह शक्ति चुक जाती है जिसके द्वारा कोई बड़ा काम सम्पन्न किया जा सकता है। इसलिए उनने सोचा राजा हरिश्चन्द्र को ही यह काम क्यों न सौंपा जाय, उसकी श्रद्धा भी परीक्षा की कसौटी पर कस जायेगी कीर्ति भी अमर हो जायेगी, उनका अनुसरण करने वालों में से असंख्यों महान बनेंगे। इतना ही क्यों, जो उनका धन और वैभव परमार्थ में लग जायेगा उसे वापस लौटाने के लिए स्वयं धर्मराज, वृहस्पति और इन्द्र उनके दरवाजे पहुंचेंगे। इतना बड़ा लाभ कमाने में यदि हरिश्चन्द्र को कुछ आरम्भिक कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं तो यह घाटे का सौदा नहीं है। बीज को भी तो पल्लवित होने के लिए आरम्भ में गलने का साहस संजोना पड़ता है।

गांधीजी ने नाटक को खेल-तमाशे की तरह मनोविनोद के लिए नहीं देखा वरन् उस चरित्र के पीछे समाहित उद्देश्यों और परिणामों पर भी आदि से अन्त तक वे विचार करते रहे। बिना समय गंवाये उनने निश्चय कर लिया कि ऐसे ही आदर्शों के लिए जीवन समर्पित करना है। जीवन की सुनिश्चित रीति-नीति यही बनानी है, शरीर और दिमाग वकालत की पढ़ाई पढ़ता रहा और आत्मा हरिश्चन्द्र बनने के लिए किस कार्यपद्धति को अपनाना होगा इसका ताना-बाना बुनती रही। क्रम संतुलित ढंग से चलता रहा। अन्तःकरण में संकल्प परिपक्व होते रहे और शरीर उनका कहना मानता रहा, जिस अभिभावकों के ऊपर उनके शरीर के निर्वाह का दायित्व था।

वकालत को बीच में ही छोड़कर उनने जो गतिविधियां अपनाई उनकी जानकारी सभी को है। दक्षिण अफ्रीका में जाति-भेद के विरुद्ध संग्राम में डटे, उनका साथ देने के लिए हजारों भारतीय आये और आंदोलन की सफलता को एक बड़ी सीमा तक ले पहुंचे। आशंका यह थी कि दुनिया कायर-कमजोरों से भरी पड़ी है। जिससे प्रत्यक्ष स्वार्थ सिद्ध न होता हो उसे करने के लिए कोई सहज तैयार नहीं होता, बगलें झांकता है, बहाने बनाता है और आंखें चुराता है। आशंका अपनी जगह काम करती रही, पर साथ ही यह भी होता रहा कि एक साहसी के आगे बढ़कर हुंकार जगाने पर जिनके अन्दर भावनायें जीवित थीं वे चुप न बैठ सके और दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह उन विकट परिस्थितियों में भी अपनी शान के साथ चला।

गांधीजी भारत लौटे, गोखले जैसे रत्न पारखी ने इस चरित्र, साहस और आदर्श के धनी को पहचाना, परखा और कांग्रेस आंदोलन में घसीट लिया। गोखले ने पहला काम उनसे भारत भ्रमण का कराया ताकि देश की दयनीय स्थिति को आंखों देखते हुए निर्णय किया जा सके कि इन असहायों की सहायता करना आवश्यक है या अपने लिए वैभव-बड़प्पन जमा करना। एक वर्ष के भारत भ्रमण से उनने दृढ़ संकल्प कर लिया कि भारत माता को विपन्नता के चंगुल से छुड़ाने से बढ़कर जीवन को कोई श्रेष्ठ सदुपयोग हो नहीं सकता। स्वतन्त्रता संग्राम छेड़ने की योजना बनी और वह अनेकों मोह-मरोड़ों, व्यतिरेक व्यवधानों को पार करती हुई गंगा की अविच्छिन्न धारा की तरह बहती रही। रुकी तब जब उसने लक्ष्य को पूरी तरह प्राप्त कर लिया।

अहिंसात्मक स्वतन्त्रता संग्राम की सफलता के रहस्यों पर जिनने गम्भीरतापूर्वक विचार किया है वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि भारत माता को एक ऐसे सपूत का आधार अवलम्बन मिल गया जो अपने व्यक्तित्व, चरित्र, त्याग, साहस और सज्जनता का धनी था। यदि देश को गांधी नहीं मिलते तो एक प्रश्न खड़ा होता है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन को जितनी तीव्रता और सरलता से सफलता मिली, वैसी बन भी पड़ती या नहीं?

गांधीजी ने भ्रमण किया और जनसम्पर्क साधा। इस प्रयास से उन्हें गहरे समुद्र में डुबकी मारकर मणि मुक्तक बटोरने वाले पनडुब्बों जैसी सफलता मिली। लक्ष्य के प्रति दूसरे लोगों में भी व्याकुलता थी, पर नेतृत्व एवं संगठन और निश्चित कार्यक्रम के अभाव में वे कुछ कर नहीं पा रहे थे, मन मसोसे बैठे थे। इन सभी को उन्होंने अपने अंचल में समेट लिया। एक से एक बढ़कर व्यक्तित्व के धनी उन्हें मिलते चले गये। इतने ऊंचे स्तर के और इतनी बड़ी संख्या में अनेक को साथ घसीट ले चलने वाले सत्याग्रही नेता मिल गये जिसकी मिसाल इतिहास में अन्यत्र नहीं मिलती। बिजली छूने वाले को भी करेन्ट पहुंचता है। गांधीजी की लगन ने इतना जन-सहयोग एकत्रित किया जिसने सारे वातावरण को हिला दिया। त्याग-बलिदान के ढेर लग गये और अन्ततः उस सरकार को बोरिया बिस्तर बांधना पड़ा, जिसके साम्राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था। इस असंभव को संभव होते हुए देखकर हर किसी को कहना पड़ा कि खरे व्यक्तित्व में हजार हाथी के बराबर बल होता है और वह औचित्य की आवाज से जमीं आसमान तक उठा सकता है, अदम्य तूफान उठा सकता है।

गांधीजी ‘महात्मा’ कहे जाते थे, पर उनने जप, तप, योगाभ्यास, ध्यान, समाधि, मुद्रा, तन्त्र-मन्त्र आदि कुछ भी नहीं किये थे, वे तो सच्चे मन से जनता में घुल भर गये थे। उनने देश की गरीबी को देखते हुए आधी धोती पहनने और आधी ओढ़ने का रवैया अपनाया था। सदा रेल के थर्ड क्लास में सफर करते थे। एक बार वाइसराय ने जरूरी परामर्श के लिए हवाई जहाज से बुलाया, पर वे अपने व्रत से डिगे नहीं। रेल के थर्ड क्लास में बैठकर ही दिल्ली पहुंचे। उनकी खजूर की चटाई, सरकंडे की कलम, रस्से की बनी चप्पल अभी तक सुरक्षित हैं जो बताती है कि नेता को जनता के स्तर से अधिक खर्च नहीं करना चाहिए। वे उन महात्माओं में से नहीं थे जो सोने-चांदी की अम्बारी वाले हाथी पर चंवर डुलाते हुए निकलते हैं। यदि गांधीजी ने ठाट-बाट बनाया होता तो उसके लिए भी पैसा मिल जाता, पर ठाट और अहंकार को देखकर जनता की श्रद्धा आधी चली जाती।

इस संसार में सभी प्रकार के मनुष्य हैं, बुरे ही नहीं भले भी। चुम्बक लौह कणों को खींचता है। धातुओं के पर्वत इसी आकर्षण शक्ति के आधार पर खड़े होते हैं। गांधीजी पर प्राण न्यौछावर करने वाले और पूरी तरह उनके आदेशों पर चलने वाले हजारों नेता ही नहीं, लाखों सत्याग्रही स्वयंसेवक भी थे। यदि इतना बड़ा परखा हुआ समुदाय साथ में न होता तो खादी आन्दोलन, सर्वोदय, हरिजन सेवा, प्राकृतिक चिकित्सा जैसे अनेक रचनात्मक कार्य भी वे स्वतन्त्रता संग्राम के साथ ही किस प्रकार चला पाते? इन्हें चलाने के लिए समर्थ प्रतिभाओं को जुटाना अनिवार्य रूप से आवश्यक था सो जुट भी गया, अन्यथा अकेले गांधीजी किस सीमा तक क्या कर पाते, यह आकलन करना मुश्किल है।

जौहरी की दुकान पर यहां-वहां टकराते हुए रत्न और स्वर्ण आभूषण पहुंचते हैं। गांधीजी के पास हर काम के लिए उपयुक्त व्यक्ति पर्याप्त संख्या में पहुंच गये थे। एक ब्राह्मणी ने अपने तीन पुत्रों को ब्रह्मज्ञानी-ब्रह्मचारी बनाया और उन्हें परमार्थ के लिए सौंप दिया। बिनोवा, बालकोवा, शिवोबा ऐसे ही साथी थे जो गांधीजी को ऊंचे वेतन पर नहीं, समर्पित स्थिति में मिले थे। विनोबा ने सर्वोदय-भूदान संभाला। वे ब्रह्मविद्या मन्दिर भी चलाते थे और वामन अवतार की तरह अपने डगों से समूची भारतभूमि को नापते फिरे थे। बालकोवा को उरली कांचन का प्राकृतिक चिकित्सालय सौंपा तो उनने बिना रुचि परिवर्तन की बात सोचे सारी जिन्दगी उसी काम में खपा दी। शिवोबा (शिवाजी भाऊ) भी विनोबा के ही पदचिह्नों पर चले। हरिजन सेवा के लिए वरिष्ठ इंजीनियर ठक्कर बापा को एक काम थमाया गया तो दूसरी ओर सिर उठाकर देखने की उन्हें फुरसत ही न मिली।

गांधीजी समुद्र जितने गहरे और हिमालय जितने ऊंचे थे, उनके व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व का उल्लेख यहां कर सकना सम्भव नहीं, पर उस सबका सारतत्व यहां से आरम्भ होता है कि उनने वकालत की शान-शौकत को लात मारकर अपनी समूची प्रतिभा को जनसेवा के लिए समर्पित कर दिया। बदले में जो उनने पाया वह भी कम नहीं था, उनके निमित्त श्रद्धा व्यक्त करने के लिए हजारों शानदार संस्थाओं और इमारतों के नामकरण हुए हैं। राजघाट पर उनकी समाधि के सामने अभी भी इतने आंसू और फूल बरसते हैं मानो देवता आरती उतार रहे हैं। धन्य है ऐसे जीवन जो असंख्यों के सेवक और जननेता बनकर संसार में आदर्शवादी लहर चला सके और पीछे वालों के लिए एक अमर गाथा छोड़ सके।

पिछड़ों की सेवा के लिए समर्पित— कागाबा

जापान का एक मेधावी छात्र कागाबा टोकियो विश्वविद्यालय की स्नातकोत्तर परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। घर के लोग उससे बैरिस्टर बनने का आग्रह कर रहे थे। राजनीति के क्षेत्र में कुछ सम्पर्क था, सो वे उसे चुनाव लड़ने और मिनिस्टर बनने की योजना विस्तारपूर्वक समझा रहे थे। एक साथी मित्र ने अपने मिल में साझीदार बनने का प्रस्ताव किया। पूंजी लगाने के बदले वे मिल की व्यवस्था संभालें, इसके लिए मित्र का पूरा परिवार सहमत था और भी ऐसे ही कई बड़े प्रस्ताव थे, जिनके सहारे वे कोई बड़े अफसर, व्यापारी, राजनेता आदि बन सकते थे। सुखी और सम्पन्न बनाने की सलाह तथा सहायता देने के लिए कितने ही मित्र-सम्बन्धी अपनी तत्परता दिखा रहे थे, उनका व्यक्तित्व हर दृष्टि से आकर्षक जो था।

कागाबा की अपनी और कुछ निजी महत्वाकांक्षा तथा योजना थी, वे दुखियारों का सराहा बनना चाहते थे। धनी अधिकारी बनने पर भी जब पेट ही भरना है तो उतना सेवा कार्य करते हुए भी संभव हो सकता है। एक ओर महत्वाकांक्षाओं के पर्वत थे, दूसरी ओर करुणा जो चुपके से उन्हें सलाह दे रही थी कि किसी की मत मानो, आत्मा की आवाज सुनो। कितने दुखियारों का सहारा बन सकते हो—तुम जरा इसका भी विचार करो। जीवन का मूल्य समझो और इसे अमीरी के लिए न्यौछावर न करो। कागाबा ने आत्मा की पुकार सुनी ही नहीं, स्वीकारी भी, उनने सत्परामर्शदाताओं को निरुत्तर कर दिया।

कागाबा ने अपने नगर का कोना-कोना छान मारा। एक तिहाई हिस्सा ऐसा था जिनमें कंगाली, कोढ़ी, अपंग, भिखारी स्तर के लोग रहते थे, उन्हीं में कुछ उठाईगीरे, शराबी, जुआरी भी शामिल थे। फूस की झोपड़ियों में यह लोग रहते थे और इस तरह का जीवन बिताते थे मानो साक्षात नरक में ही रह रहे हों। दुर्गन्ध का साम्राज्य था, आये दिन चोरी से लेकर हत्याओं तक की घटनायें उस क्षेत्र में होती रहती थीं। आफत की मारी कुछ अनपढ़ महिलाओं ने गुजारे के लिए वेश्यावृत्ति भी अपना रखी थी। सम्पन्न लोगों के महल अलग थे, पर इन कंगालों की अपराधी-बीमारों की संख्या भी कम न थी।

कागाबा ने निश्चय किया कि वे इसी मुहल्ले में रहेंगे और अपना कार्यक्रम इन दुखियारों की सेवा करते हुए जीवन बिताने का बनायेंगे। सेवा करने के हजार उपाय थे जो बिना पैसे के, शरीर सेवा या सत्परामर्श देने से भी हो सकते थे। उनकी सूची और विधि भी उनने बना ली, पर अपने निर्वाह का प्रश्न शेष रहा, इसके लिए उनने परिवार तथा मित्र समुदाय से भी कुछ न लेने का निश्चय किया। उनने कुछ बच्चों को पढ़ाने के लिए ट्यूशन ढूंढ़ ली जो उन्हें आसानी से मिल भी गई। अपनी झोपड़ी, खाना पकाने का थोड़ा-सा सामान, एक सस्ता सा बिस्तर कुल यही थी उनकी पूंजी निजी कामों में सोने समेत आठ घण्टे से अधिक न लगाते। शेष सारा समय उन जीवित भूत-पलीतों की सेवा में रुचिपूर्वक बिता देते।

कई वर्ष इस प्रकार बीत गये, उन मुहल्लों में रहने वाले पिछड़े लोगों में से एक भी ऐसा न बचा जो किसी न किसी सहायता या फरियाद के लिए उनके पास न पहुंचा हो। स्नेह और सहायता ने सारे समुदाय का मन जीत लिया, सभी उन्हें अपना कुटुम्बी- सम्बन्धी मानने लगे और पूरी तरह उनके साथ घुल-मिल गये।

एक उच्च परिवार की ग्रेजुएट महिला उस इलाके में टहलने आया करती थी। एक लोकसेवी का इतना बड़ा परिवार और बिना धन वितरण किए उनका इतना समर्थन, सहयोग एवं उनका स्वयं का उत्थान उसे जादू जैसा लगा। वह अधिकाधिक गम्भीरता से सब देखती गई। अन्त में उसने भी निश्चय किया कि वह इसी प्रकार का जीवन जियेगी और ऐसा ही जीवन बितायेगी। उसने कागाबा के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखा, वे हंसे—अपना घर, कार्यक्रम तथा दारिद्रय बताया, लोकसेवा में व्यस्तता भी। ऐसी दशा में वे पत्नी की नई जिम्मेदारियां कैसे उठा सकते थे। पूरी बात स्पष्ट हो गई। युवती ने कहा—वह भी उसी प्रकार ट्यूशन करके गुजारा करेगी। बच्चे पैदा होने की स्थिति न आने देगी। सिर्फ साथ रहने और कार्यों में हाथ बंटाने की आज्ञा चाहती है। कई महीने प्रसंग चलता रहा ताकि जल्दबाजी में कोई गलत कदम न उठ जाय। विवाह हो गया और साथ ही सेवा कार्य भी दूनी प्रगति से होने लगा। अब तक मात्र शरीर और वचन भर से सेवा थी, अब दोनों ने निश्चय किया कि जरूरतमंदों के लिए वे सम्पन्न लोगों से कुछ मांगकर लाया करेंगे। पैसा मिलने लगा और अनेकों रचनात्मक प्रवृत्तियां उस क्षेत्र में चलने लगीं।

चर्चा धीरे-धीरे पूरे जापान में फैली। धनियों, उदारमनाओं ने कई सुधारात्मक कार्यक्रम उस क्षेत्र में आरम्भ किये। इसके बाद सरकार का ध्यान उस ओर गया, उसने सहायता की और कार्य की उपयोगिता देखते हुए पिछड़ों की सहायता के लिए एक अलग से विभाग ही बना दिया। कागाबा उसके इंचार्ज बनाये गये, करोड़ों रुपया साल का बजट पास हुआ और उस धन का उपयोग ऐसी सुव्यवस्था के साथ हुआ कि कागाबा के जीवनकाल में ही उस देश में कहीं पिछड़ापन न रहा और जो दुष्प्रवृत्तियां उस क्षेत्र में पनपी थी, वे जड़ मूल से उखड़ गयीं।

कागाबा और उनकी पत्नी पूर्ण आयु तक जिए, वे मरते दम तक पिछड़ों की सेवा कार्य में लगे रहे। उन्हें निजी क्षेत्र से तथा सरकारी क्षेत्र से इन कार्यों के लिए विपुल सहायता मिली। इसका कारण था उपलब्ध धन का श्रेष्ठतम सदुपयोग। कहीं एक पैसे की भी गड़बड़ी न होने देना। इस स्थिति ने हर किसी के मन में श्रद्धा उत्पन्न की, सहायता भी दी और उससे भी अधिक उनकी सहायता भी की।

कागाबा अब नहीं हैं, उन्हें और उनकी पत्नी को गुजरे मुद्दतें बीत गईं, पर उनकी चर्चायें पाठ्य पुस्तकों से लेकर छोटे-बड़े इतिहासों, ग्रन्थों के पृष्ठों पर बड़े सम्मान के साथ अंकित हैं। उन दोनों के चित्र जापानवासियों के घरों में अभी भी उसी श्रद्धा के साथ टांगे जाते हैं जैसे कि भारत में शिव-पार्वती या सीता-राम के।

कागाबा को जापान का गांधी कहा जाता है। समीक्षकों और सलाहकारों की कागाबा से अक्सर भेंट होती रहती थी। वे लोग कहते थे—‘हम लोगों की सलाह के अनुसार आप कहीं बैरिस्टर, अफसर, उद्योगपति, नेता या और कुछ बने होते तो स्वयं को अपने देश को और समूची मानवता को संभवतः इस प्रकार धन्य न बना पाते जैसा कि आपने पिछड़े लोगों के लिए श्रम करते हुए, कष्ट सहते हुए बनाया।’ साथियों में से जिनने सम्पदा कमाई और मौज उड़ाई वे अपनी तुलना कागाबा से करते तो अपने को मूर्ख और उन्हें बुद्धिमान बताते। सच्ची बुद्धिमानी और गहरी सफलता इसी मार्ग में है कि मनुष्य अपने को सेवा प्रयोजन के लिए उत्सर्ग करे और असंख्यों के लिए एक आदर्श, एक उदाहरण बने।

उनने खोने से अधिक पाया

सरदार पटेल को सर्वमान्य जन कांग्रेस नेता और सरकार को गृहमन्त्री मानते हैं। काम भी उतने ही याद रखते हैं जितने उन दोनों उत्तरदायित्वों के साथ जुड़े रहे और व्यवस्थापूर्वक सम्पन्न होते रहे। इतना तो हर आंख वाला देख सकता है और हर कान वाला सुन सकता है किन्तु आवश्यकता इस बात की है कि हम कामों के गिनने की अपेक्षा उन गुणों और स्वभावों को ढूंढ़ें जिनके कारण सामान्य स्तर के मनुष्य पर्वत की ऊंचाई तक उठते हैं एवं सभी के लिए आश्चर्य बन जाते हैं।

सरदार पटेल गुजरात के खेड़ा जिले के एक छोटे से गांव में पैदा हुए। खेती मजे में गुजारा कर देती थी, परिवार के दूसरे सदस्य उसी में व्यस्त रहते थे। यदि प्रवाह के साथ बहा गया होता तो बल्लभ भाई भी उसी में बह रहे होते और जुताई, सिंचाई, बुआई-कटाई का पुश्तैनी धन्धा चलाते हुए निर्वाह कर रहे होते। चिन्तन को यदि विशेष रूप से उभारा न जाय तो वह परम्परागत रीति-नीति अपनाता है और कोल्हू के बैल की तरह ऊपरी धुरी के इर्द-गिर्द घूमता है। सामान्य जन इसी प्रकार मौत के दिन पूरा करते हैं, उन्हें न नया सोचने का कष्ट उठाना पड़ता है और न नया करने के लिए मार्ग ढूंढ़ना और नया सरंजाम जुटाने के झंझट में बिखरना पड़ता है।

उन दिनों स्कूली पढ़ाई का शौक शहरों से बढ़कर देहातों तक भी पहुंचने लगा था। पड़ौस के गांव में स्कूल-कॉलेज भी था। इच्छा व्यक्त की तो घर वालों ने रोका भी नहीं, उनके श्रम बिना कोई काम रुका भी न था और इतनी आर्थिक तंगी भी नहीं थी कि पढ़ाई का खर्च पूरा न किया जा सके। वे पढ़ते रहे और अन्ततः पड़ौस की तहसील में ही वकालत करने लगे। प्रतिष्ठित परिवार, प्रतिभाशाली व्यक्तित्व, हाथ में लिए हुए काम के प्रति पूरी दिलचस्पी और मेहनत, इतना होना इस बात के लिए पर्याप्त है कि कोई व्यक्ति महान बने और महानता की हर शोभा सज्जा से अपने आपको सुशोभित करे।

गांधीजी का सत्याग्रह संग्राम आरम्भ हुआ, देश का हर स्वाभिमानी युवक तिलमिला उठा। मातृभूमि की पराधीनता और सारे समाज पर लगी हुई पराधीनता की कलंक कालिमा का जब तक अहसास नहीं हुआ था तब तक लोग उनींदे बैठे रहे पर जब जागृति की लहर आई तो जो जीवित थे वे सभी तनकर खड़े हो गये। कांग्रेस में भर्ती होने का उन दिनों तात्पर्य था—सरकार से दुश्मनी मोल लेना, जेल जाना, जुर्माना वसूल किया जाना और किसी शासकीय संदर्भ में अयोग्य ठहराया जाना। इन कठिनाइयों को वे स्वयं भी जानते थे, विशेष रूप से उनके प्रायः सभी साथी वकीलों ने यह समझाया कि चैन की जिन्दगी और अच्छी कमाई को ठुकराकर अपने को परेशानी में डालना अच्छा नहीं। घर वाले भी विरुद्ध थे, उन दिनों किसी को स्वप्न में भी आशा नहीं थी कि स्वराज्य मिलेगा और उसमें जेल जाने वालों को कोई सम्मानित पद भी मिल सकते हैं। किन्तु इन स्वप्नों से सर्वथा दूर रहते मातृभूमि की स्वाधीनता का प्रश्न ऐसा था जिसके निमित्त गैरतमन्दों को कुछ कर गुजरने की अदम्य उमंग उठी।

पटेल ने आत्मा की पुकार सुनी और सब समझाने वालों को नमस्कार कर लिया। वे कांग्रेस के कार्यकर्त्ता बने और सत्याग्रह में सम्मिलित होकर जेल गये। लड़ाई लम्बी चली और वह दावानल की तरह देश के कोने-कोने में फैली। पटेल ने अपने प्रभाव क्षेत्र बारदोली इलाके को व्यापक लगानबंदी के लिए तैयार कर लिया। इस मार्ग में उन्हें क्या कठिनाई उठाने पड़ेगी—यह भलीभांति समझा दिया। किसान चट्टान की तरह प्रतिज्ञा पर दृढ़ हो गये और उस समूचे क्षेत्र में किसानों ने सरकार से सीधी टक्कर ली। एक भी पैसा लगान के नाम पर देने से इन्कार कर दिया। फलस्वरूप जब्तियां, कुर्कियां और गिरफ्तारियां हुईं, पर पटेल के नेतृत्व में वह समूचा समुदाय इतना दृढ़ निश्चयी निकला कि सरकार को किसानों की शर्तें मानने और समझौता करने पर विवश होना पड़ा।

स्वतन्त्रता मिली, सरदार पटेल पार्लियामेण्ट मेम्बर चुने गये और गृहमन्त्री नियुक्त हुए। उनके सामने एक से एक बड़ी समस्यायें आईं, सबसे बड़ी समस्या थी देश की लगभग 600 रियासतों को केन्द्र शासन में सम्मिलित करना। अधिकांश राजा अपनी सम्पत्तियां और अधिकार छोड़ने को तैयार न थे, पर पटेल ही थे जिनने साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति से सभी राजाओं को केन्द्र में सम्मिलित होने के लिए बाधित कर दिया। हैदराबाद और जूनागढ़ की रियासतों के साथ सख्ती बरतनी पड़ी और गोवा, पांडिचेरी आदि को राजनैतिक दांव-पेचों से काबू में लाया गया। पटेल की इस साहसिकता को संसार भर में अद्भुत माना गया।

मध्यकालीन विदेशी आक्रमणकारियों ने यों मन्दिर तो अनेक तोड़े और लूटे थे, पर उन सबमें सोमनाथ मन्दिर मूर्धन्य था। उसके विनष्ट कर दिये जाने से सारे हिन्दु समाज में भारी क्षोभ और निराशा फैली। उस घाव को भरने के लिए सरदार पटेल ने सोमनाथ मन्दिर के जीर्णोद्धार का काम हाथ में लिया और उस ध्वंसावशेष को नये सिरे से इस प्रकार बनाया कि पुराने की तुलना में उसे दसियों गुना शानदार माना जाने लगा। इस निर्माण से सारे समाज में एक उल्लास और सन्तोष की लहर उभरी।

सरकारी स्कूल-कॉलेजों का जिन दिनों बहिष्कार हुआ था उन दिनों निकले हुए छात्रों की शिक्षा का नया प्रबन्ध करना आवश्यक प्रतीत हुआ। इसके लिए गुजरात विद्यापीठ की स्थापना हुई, उसने हजारों सुयोग्य व्यक्ति ऐसे विनिर्मित करके दिये जो गुजरात के ही नहीं, सारे देश के पुनरुत्थान में भारी योगदान देते रहे। तब की गुजरात विद्यापीठ अब विकसित होकर शानदार युनिवर्सिटी में परिणित हो गई है। इसे सरदार पटेल के कर्तृत्व का एक शानदार स्मारक कह सकते हैं।

पटेल का व्यक्तित्व इतना सरल, सौम्य, कर्मठ और खरा था कि उनका लोहा पक्षधर और विपक्षी समान रूप से मानते रहे। कांग्रेस आन्दोलन को ‘करो या मरो’ का नारा उन्होंने ही दिया था और परिस्थितियां इतनी विकट पैदा करदी थीं जिन्हें पार करना ब्रिटिश सरकार के लिए सम्भव न रह गया था, उन्हें देश का दूसरा चाणक्य समझा जाता था। वस्तुतः पटेल ऐसे हीरक बने जिनकी कीर्ति ने भारत माता के मुकुट को बहुमूल्य रत्न बनकर जगमगाया।

उनके जीवन का मोड़ वहां से शुरू होता है जहां एक ओर पुरातन प्रवाह एवं वकालत का वैभव था और दूसरी ओर देश, धर्म, समाज, संस्कृति का पुनरुत्थान। उनने दूसरा मार्ग चुना, क्या वे घाटे में रहे? एक नया मार्ग चुनकर उनने तात्कालिक प्रलोभनों को कुचला तो जरूर, पर यश, पद, गौरव और आदर्श के क्षेत्र में वे इतने ऊंचे उठे जिसकी प्रशंसा हजारों वर्षों तक मुक्त कण्ठ से होती रहेगी।
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