लोक-मानस का परिष्कृत मार्गदर्शन

समाज को सुधारा और उभारा जाये

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
निर्माण का मोर्चा एकाकी ही नहीं चलता रह सकता, उसके साथ सुधार का प्रकरण भी जुड़ा रहना चाहिए। खेत में खाद-पानी भी लगता है। और उसकी निराई, गुड़ाई, रखवाली भी होती है। इस काट-छांट के बिना न कोई खेत पनप सकता है न उद्यान। समाज में सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन हेतु ज्ञान, कर्म, भक्ति की शिक्षा देना, कथा-प्रवचन करना भी आवश्यक है, पर है एक पक्षीय एकांगी ही। रसोईघर की तरह शौचालय, स्नान घर, कूड़ेदान और नाली को साफ-सुथरी रखना चाहिए अन्यथा वहां उत्पन्न हुई सड़न, जो श्रेष्ठ है उसे भी बिगाड़ने, बरबाद करने में कोई कमी शेष न रहने देगी।

पुराने मकान जहां-तहां से जीर्ण होकर टूटते-फूटते रहते हैं, उनकी हाथोंहाथ मरम्मत करा देने से इसी घर से मुद्दतों काम लिया जा सकता है किन्तु यदि बिगड़ने की उपेक्षा बरती जाय तो जिस प्रकार एक सड़ा हुआ अवयव दूसरे समीपवर्ती अंगों को भी काटने योग्य बना देता है, पीछे बड़ी परेशानी का कारण बनता है, उसी तरह समाज का सारा ढांचा गड़बड़ा जायेगा। इसकी अपेक्षा तो यह अच्छा है कि सुधार के लिए आवश्यक साधनों-उपकरणों को सदा तैयार रखा जाय।

द्रोणाचार्य हाथ में शास्त्र और कन्धे पर शस्त्र रखकर चलते थे। गुरु गोविन्दसिंह ने एक हाथ में माला और दूसरे में भाला रखने की नीति अपनाई थी। सज्जनों को प्यार एवं विवेक से भी समझाया जा सकता है किन्तु पशु प्रवृत्ति के लिए प्रताड़ना ही एक मात्र शिक्षा विधि है। हिंसक पशुओं को धमकाये बिना न आत्मरक्षा का साधन सधता है और न उन्हें सर्कस में कोई कौतूहल दिखा सकने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। जिस प्रकार समाज को अध्यापकों, साहित्यकारों, शिल्पियों की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार पुलिस और सेना को भी सशक्त बनाना पड़ता है। कचहरी-जेल का प्रबन्ध इसीलिए किया जाता है कि उद्दण्डता पर नियन्त्रण किया जा सके अन्यथा वे विरोध न होने की दशा में दूने-चौगुने उत्साह से कुचक्र रचते एवं अनाचार फैलाते हैं। खेत का पानी मेंड़ बांधकर रोका न जाय तो वह पौधे सींचने की अपेक्षा जमीन को काटकर खाई-खड्ड बना देगा।

अपना देश, धर्म और समाज विश्व के प्राचीनतम निर्धारणों में से है। इसलिए स्वाभाविक ही है कि उसमें विकृतियों का अनुपात बढ़े और वह पूर्वजों की गरिमा पर कलंक-कालिमा लगाने में निरत रहे और विनाश के विष बीज बोये। यही कारण है कि सदा-सदा से सुधारक वर्ग की आवश्यकता अनुभव की जाती रही है, उसे सेना या पुलिस की उपमा दी जाती है। यदि वह सतर्क न रहे तो किसी की सम्पदा एवं इज्जत सुरक्षित न रहे। सुधारक रूपी सफाई कर्मचारी अपनी झाड़ू-टोकरी को निरन्तर गतिशील न रखें तो समाज रूपी नगर में हैजा जैसी महामारी फैलने में देर न लगे।

धर्मोपदेशकों, संत, सदाचारी, परमार्थी, पुण्यात्माओं की भक्ति भावना को जितना महत्व और सम्मान दिया जाता है उससे किसी भी प्रकार सुधारकों की गरिमा कम नहीं है। वे अगर अपना काम मुस्तैदी से न करें तो फिर समझना चाहिए कि वही स्थिति फिर आ पहुंचेगी जिसमें राम ने ऋषि आरण्यकों में अस्थि समूहों के पर्वत खड़े देखे थे और तपसी वेशधारी भगवान ने भुजा उठाकर प्रतिज्ञा की थी ‘निशिचर हीन करहुं महि।’ समाज सुधारकों को इसी वर्ग के रघुवंशी, तेजस्वी, क्षत्रिय कहा जा सकता है जो अपनी जान हथेली पर रखकर अनीति से टकराते और उसे उखाड़ फेंकने के उपरान्त दम लेते हैं।

भारत दो हजार वर्ष तक इसलिए पराधीन नहीं रहा कि यहां योद्धाओं या शस्त्रों की कमी थी। बात यह हुई कि समाज को कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं, अन्धविश्वासों ने जराजीर्ण कर दिया था और वह आक्रान्ताओं के छोटे-मोटे आघात भी सह न सका।

सामाजिक कुरीतियों में कितनी तो ऐसी हैं जिनकी भयंकरता किसी प्राणघातक महामारी से कम नहीं ऑकी जा सकती। बाल-विवाह, बहु विवाह, पर्दा प्रथा, स्त्रियों को पालतू पशुओं की श्रेणी में रखा जाना वह अनर्थ है जिसके कारण आधी जनसंख्या की स्थिति अपंग-असहाय जैसी हो जाती है और अविकसित नारियां पीढ़ी दर पीढ़ी अधिक अयोग्य सन्तानें जनती जाती हैं। यह पतन का एक क्रमबद्ध सिलसिला है जिसे हर कीमत पर रोका जाना चाहिए। दहेज, खर्चीली शादियां, वर विक्रय, कन्या विक्रय, वधू दाह, वेश्यावृत्ति इन्हीं कुरीतियों का प्रतिफल है। मध्यकाल में तो विधवाओं के भरण-पोषण के दायित्व से बचने के लिए परिवार वाले उन्हें सती हो जाने के लिए उकसाते थे और नशा पिलाकर अर्धमूर्च्छित स्थिति में पति की चिता पर धकेल देते थे। यह अनाचार राजाराम मोहन राय ने अपनी भावज की लोमहर्षक मृत्यु के रूप में देखा था, उनने प्रतिज्ञा की कि इस नारी वध को वे किसी भी कीमत पर रुकवा कर रहेंगे। इसके लिए उनने साहित्य लिखा, आंदोलन चलाया और सरकारी सहायता लेकर कानून बनवाया। सती प्रथा विरोध और विधवा विवाह की मान्यता उन्हीं के भागीरथ प्रयत्नों से सम्भव हो सकी।

मात्र अनीति रोकना ही काफी नहीं, उसका उत्तरार्ध सत्प्रवृत्तियों की स्थापना से बनता है। महर्षि कर्वे ने नारी शिक्षा के लिए ऐसा कारगर प्रयत्न किया कि न केवल महाराष्ट्र में वरन् समूचे देश में उसकी हवा फैली। जयपुर वनस्थली में हीरालाल शास्त्री ने बालिका विद्यालय की शानदार स्थापना की जो अब विश्वविद्यालय स्तर तक जा पहुंचा है। अलीगढ़, सासनी की एकाकी महिला लक्ष्मीदेवी ने जंगल में वीरान पड़ी भूमि को समतल बनाकर कन्या गुरुकुल बनाया। गांवों से कन्याओं को लाने-पहुंचाने, पढ़ाने तक का आद्योपान्त कार्य उनने किया और कन्या शिक्षा की लहर एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंची। प्रयत्नकर्ताओं का ही प्रभाव है कि जो कार्य कभी निरन्तर असंभव प्रतीत होते थे वे सरल और संभव ही व्यापक भी हो गये। आज की बढ़ती नारी शिक्षा हेतु श्रेय इन्हीं शुभारम्भ करने वाले नर-रत्नों को दिया जा सकता है। दूसरी भयावह कुरीति है जाति-पांति के आधार पर ऊंच-नीच की मान्यता। यह सवर्ण और अस्वर्णों में अपने-अपने ढंग से सर्वत्र फैली हुई है। परिणाम यह हुआ है कि एक समाज हजारों टुकड़ों में बंटकर रह गया। जाति-पांति के साथ सम्प्रदायवाद और भाषावाद का जहर भी घुलकर त्रिदोष जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी।

इस अराजकता जैसी अव्यवस्था से लोहा लेने के लिए कितने ही सुधारक कटिबद्ध होकर आगे आये और उन्होंने कुप्रचलनों के दुष्परिणाम सर्वसाधारण को समझाते हुए उससे विरत करने तक का घनघोर प्रयत्न किया और वह प्रयत्न इतना सफल रहा कि उस कृत्य में अनेक भावनाशील जुट गये। स्वामी दयानन्द का नाम इस सन्दर्भ में बढ़-चढ़कर लिया जा सकता है। महात्मा गांधी का हरिजन सेवक संघ, ठक्कर बापा जैसे समर्पितों की टोली साथ लेकर उस प्रयास में निरत ही रहा। इसके पूर्व कबीर, रैदास, तिरुवल्लुवर जैसे संत इस सुधार के लिए मजबूत पृष्ठभूमि बनाते रहे। सिख धर्म, बौद्ध धर्म, आर्य समाज आदि ने भी इस सन्दर्भ में बढ़-चढ़कर काम किया। अब संविधान और शासन ने भी इस प्रकार के भेदभाव को दण्डनीय अपराध ठहरा दिया है तो भी प्रगति वैसी नहीं हुई जैसी कि होनी चाहिए थी। कानून तो दहेज और रिश्वतखोरी, व्यभिचार आदि के विरुद्ध भी बना हुआ है, पर मूढ़मति और धूर्तराज उस शिकंजे से अपने आपको किसी प्रकार बचा ही लेते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि प्रज्ञा अभियान इन कमियों की पूर्ति करने के लिए अपने को पूर्णाहुति की तरह समर्पित करे और किसी भी परिवार में जाति-भेद, स्त्री उत्पीड़न की कहीं कोई भी घटना घटित न होने पाये। परिवार, व्यक्ति और समाज की मध्यवर्ती कड़ी है, भावी पीढ़ियों और वर्तमान जन समुदाय में से नररत्न निकालने की खदान भी। इसलिए परिवार निर्माण में जहां श्रमशीलता, मितव्ययिता, शिष्टता, सहकारिता, उदारता जैसे सद्गुणों का समावेश आवश्यक है उतना ही यह भी अभीष्ट है कि नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्र की किसी भी दुष्प्रवृत्ति को प्रश्रय न मिले। समाज सुधार के लिए मार्टिन लूथर ने जिस प्रकार काम किया था और पोप के पंडावाद के शोषण को उखाड़ फेंका था, उसी प्रकार की विचार क्रान्ति-धर्म क्रान्ति अपने देश में भी होनी चाहिए। मात्र वंश और वेश के कारण किसी को सम्मान न मिले और देवताओं का एजेण्ट बनकर कोई जन साधारण को भ्रम-जंजाल में न फंसाये। निषाद व्यापारों में एक भिक्षा व्यवसाय की कड़ी भी जुड़नी चाहिए, लोकसेवी ब्राह्मण कहलाते हैं, उन्हें निर्वाह प्राप्त करने का अधिकार है। इसी प्रकार जो अपंग, असमर्थ या विपत्तिग्रस्त हैं उन्हें भी स्वावलम्बी न होने तक सहायता ग्रहण करते रहने का अधिकार है, पर जो ऋद्धि-सिद्धि, स्वर्ग-मुक्ति कमाने की स्वार्थ साधना में निरत होते हुए भी भगवान की दुहाई देकर अपनी श्रमशीलता से बचते हैं, मुफ्त का सम्मान और धन लूटते हैं उन्हें रास्ते पर लाया जाना चाहिए और बताया जाना चाहिए कि देश के 7 लाख गांवों के लिए 60 लाख सन्त-महात्मा यदि लोकसेवी के रूप में उभरें तो नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक स्थिति में उत्साहजनक परिवर्तन कर सकते हैं।

समाज को ऊंचा उठाने के लिए शिक्षा क्रान्ति आवश्यक है। निरक्षरों को साक्षर बनाया जाय, वयस्क नर-नारियों के लिए प्रौढ़ पाठशाला चलायी जायं। स्कूली बच्चों को अवकाश के समय में बाल संस्कारशाला में सम्मिलित किया जाय ताकि जो कमी स्कूली पढ़ाई में रह जाती है उसकी पूर्ति हर गांव, हर मुहल्ले में स्थापित संस्कारशालाओं में पूरी की जा सके। 78 करोड़ की आबादी में 70 प्रतिशत अशिक्षित भरे पड़े हैं। इन सबको शिक्षा और संस्कार प्रदान करने के लिए हर सुशिक्षित से शिक्षा-ऋण वसूल करने का अभियान चलाया जाय। यदि लोग अध्यापन के लिए निःशुल्क सेवायें देने लगेंगे और प्रतिभाशाली लोग जन सम्पर्क बनाकर अशिक्षितों को पढ़ाने के लिए तैयार कर सकेंगे तो जन आन्दोलन के रूप में शिक्षा समस्या का समाधान हो सकेगा।

शेखावाटी के स्वामी केशवानन्द ने यही किया था। उनने घर-घर में अनाज के मुट्ठी फण्ड रखवाये थे और उसी संग्रहीत अन्न के सहारे हर गांव में पाठशाला स्थापित करायी थी। वह सिलसिला उनके जीवन भर चलता ही रहा। इसी आधार पर अनेक हाईस्कूल-कॉलेज खुले और सफलतापूर्वक चले। राठ-हमीरपुर में भी स्वामी ब्रह्मानन्द जी ने अकेले ही अपने उस पिछड़े देहात में एक कॉलेज खड़ा किया। हम सभी को इस सामयिक शिक्षा चुनौती को स्वीकार करना चाहिए।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: