मरने के बाद हमारा क्या होता है ?

भूत बाधा और उनका निवारण

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साधारण श्रेणी या निकृष्ट कोटि का जीवन बिताने वाले वे व्यक्ति जो लालसा, पीड़ा एवं मोहग्रस्त अवस्था में शरीर छोड़ते हैं अक्सर प्रेत योनियों में पड़ जाते हैं यह पिछले पृष्ठों में बताया जा चुका है। इस योनि में आत्मा की कोई विशेष उन्नति नहीं होती, अतृप्ति, द्वेष, कुढ़न आदि से प्रेरित होकर यह दूसरों को कष्ट देने, डराने या हानि पहुंचाने का प्रयत्न किया करते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जो अत्यन्त मोह ग्रस्त होने के कारण प्रेत हुये हैं और अपने प्रियजनों के साथ रहना चाहते हैं, यह हानि तो कुछ नहीं पहुंचाते परन्तु अपनी वासनाओं को तृप्त करने के लिए कुछ न कुछ याचना करते रहते हैं। स्थूल मनुष्य शरीर की भांति इन प्रेतों का शरीर नहीं होता और न उन्हें अन्न जल की आवश्यकता होती है वायु रूप सूक्ष्म शरीर से अन्न जल जैसी स्थूल चीजें खाई भी नहीं जा सकती। तो भी इनकी वासनाएं जागृत रहती हैं और पूर्व जन्मों में अनुभव किए हुए इन्द्रिय भोगों को भोगना चाहती हैं।

आपने देखा होगा कि मृत्यु शय्या पर पड़े हुए कुछ रोगी नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन मांगते हैं। वे चीजें उन्हें दी जाती हैं तो खाईं एक आधे तोले भी नहीं जातीं। करीब करीब ऐसी ही दशा इन प्रेतों की होती है, वे मनुष्य शरीर में भोगे हुए भोगों को भोगना चाहते हैं, पर जिस शरीर में है उनके द्वारा उनको भोगना सम्भव नहीं। वृक्ष के शरीर में जो आत्मा है वह पशु शरीर के भोगों को नहीं भोग सकती और न कोई पशु उन भोगों के भोगने में समर्थ है जो वृक्षों को प्राप्त है। हर शरीर की स्वादेन्द्रियां प्रथक ढंग की होती हैं। इस लिये प्रेत इच्छा करते हुए भी मनुष्य शरीर के स्वादों को चखने में असमर्थ रहते हैं इस असमर्थता का अनुभव करके वे और भी अशान्त रहने लगते हैं। और झुंझलाहट को अपने निकटस्थ व्यक्तियों पर निकालते हैं। उन्हें कष्ट देते हैं।

हां, कभी कभी कोई वृद्ध उनका अपवाद करते देखे जाते हैं। मृत्यु के समय उनकी समझ परिपक्व होती है, बच्चों के लिये उनकी ममता, स्नेह, सहायता व क्षमा का भाव होता है इन्द्रियां भी इनकी अधिकांश में तृप्त होती हैं। ऐसे प्रेत जिस घर में रहते हैं उस घर में लोगों की सहायता किया करते हैं आपत्तियों से सचेत करते हैं और कष्टों के निवारण में जो कुछ वे थोड़ी बहुत सहायता पहुंचा सकते हैं, पहुंचाते हैं। इनके द्वारा जानबूझ कर कोई ऐसा कार्य नहीं किया जाता जो संबंधियों को हानिकारक हो। मन की एक प्रवृत्ति ऐसी है कि यदि वह स्वयं जिस इच्छा को पूर्ण नहीं कर पाता तो उसे दूसरे से पूर्ण करा कर स्वयं तृप्ति का आनन्द अनुभव करता है। बड़ा हो जाने पर आदमी छोटे खिलौने से लोक लाज की वजह से नहीं खेलता, परन्तु वह अपने बच्चों के लिए अच्छे अच्छे खिलौने लाता है और उन्हें खेलते देखकर अपनी तृप्ति का अनुभव करता है। इसी प्रकार प्रेत अपनी वासना को तृप्त करने के लिए दूसरों को भोजनादि कराने का आदेश करते हैं और उनकी तृप्ति से स्वयं भी संतोष लाभ करते हैं। अक्सर देखा गया है कि किसी ब्राह्मण या अमुक व्यक्ति को अमुक भोजन कराने की प्रेत लोग मांग किया करते हैं। इसका यही कारण है। उनकी आज्ञानुसार कार्य हुआ है और उनके बताए हुए अमुक व्यक्तियों ने तृप्ति लाभ की है। यह देखकर उन्हें संतोष हो जाता है और उद्विग्नता घट जाती है।

भूत प्रेतों का श्रेणी विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है (1) काल्पनिक भूत—जिन्हें मनुष्य अपने भय, आशंका, विश्वास एवं संकल्प द्वारा स्वयं उत्पन्न करता है (2) रोग का भूत (3) मत जीवित व्यक्तियों के शरीर-विद्युत के परमाणु जो पुनः जागृत होकर अपनी एक स्वतन्त्र सत्ता बना लेते हैं (4) इन्द्रिय भोगों में अमृत लालसा, वासना, प्रतिहिंसा से जलते हुए पिशाच (5) अपने वैभव, स्थान, कुटुम्ब या मित्रों में अतिशय आसक्त (6) तांत्रिक साधना द्वारा सिद्ध की हुई संकल्प प्रतिमाएं। छाया पुरुष, यक्षिणी आदि (7) जीवन मुक्त आत्माएं, जो सत्कर्मों में प्रेरणा और सहायता किया करता है। इन सात श्रेणियों में सभी प्रकार के भूत प्रेत आ जाते हैं। इनमें आरम्भिक पांच तो मनुष्यों को हानि ही हानि पहुंचाते हैं। पांचवें के द्वारा हानि और लाभ दोनों हो सकते हैं। छठवें सातवें केवल लाभ ही पहुंचाते हैं। अब इनके अस्तित्व संबंधी कुछ परिचय और उनसे छुटकारा पाने के लिए कुछ उपाय बताये जाते हैं।

(1) काल्पनिक भूत-भय का मूर्तस्वरूप है। आशंका और भय जब दृढ़ीभूत होकर विश्वास का रूप धारण कर लेते हैं तो उनकी आकृति दिखाई देने लगती है। हिप्नोटिज्म द्वारा तन्द्रित किए व्यक्ति को ऐसी वस्तुएं दिखाई देने लगती है जिनका वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं होता। लकड़ी को आदमी ओर आदमी को लकड़ी समझने का भ्रम हो जाता है। भय के कारण बुद्धि भ्रमित हो जाती है और आशंका की छाया को इन्द्रियां अनुभव करने लगती हैं। आंखें देखती हैं कि भूत सामने खड़ा है, कान सुनते हैं, वह अमुक बात कह रहा है या शब्द कर रहा है। त्वचा अनुभव करती है कि पकड़ रहा है, छू रहा है। या भीतर घुस रहा है। वह अनुभव उसे बिलकुल सत्य प्रतीत होते हैं। सत्य असत्य का निर्णय बुद्धि और चेतना द्वारा होता है जब वे विपन्न अवस्था में हैं तो जो कुछ भी अनुभव होगा वह सत्य प्रतीत होगा। काल्पनिक भूतों की पीड़ा से जो पीड़ित हैं उन्हें ऐसा जरा भी नहीं लगता कि हम भ्रम ग्रस्त अवस्था में हैं वे तो अपने अनुभवों को बिलकुल सत्य के रूप में ही मानते हैं। जब भी इनका भय और आशंका जागृत होने का अवसर पाते हैं तभी वह भूत सामने आ खड़ा होता है और तरह तरह के उत्पात करता है।

(2) मस्तिष्क सम्बन्धी कोई खराबी हो जाने पर पागलपन उन्माद सरीखे रोग उत्पन्न होते हैं। जिनके कारण मनुष्य की चेष्टा, आकृति, आदत, वाणी तथा रुचि विचित्र हो जाती है। वह बेढंगी बातें करता है और विचित्र प्रकार के आचरण करता है। आयुर्वेद शास्त्रों में उन्माद रोगों की विशद व्याख्या की गई है। उनमें भूत पिशाच आदि के उन्मादों को रोगी श्रेणी में लिया गया है। कोई अतृप्त इच्छा गुप्त मन में दबी पड़ी रहे तो वह समय पाकर मृगी मूर्छा आदि के रूप में उभरती है। कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में पड़ा हुआ हो जिसे वह पसन्द नहीं करता परंतु उस दशा में से निकलने का उसे अवसर नहीं तो ऐसी झुझलाहट भरी स्थिति के कारण मस्तिष्कीय ज्ञान तन्तु बहुत उलझ जाते हैं भूतावेश जैसे स्थिति हो जाती है। देखा गया है कि कई किशोर लड़कियां अपनी ससुराल जाती है परन्तु वहां का वातावरण उन्हें पसन्द नहीं आता ऐसी दशा में उद्विग्नता और लाचारी का क्षोभ उनके मानसिक तन्तुओं पर घातक असर डालता है जिसके कारण भूत बाधा जैसे लक्षण उसमें दृष्टिगोचर होने लगते हैं। अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने की एक वृत्ति मनुष्य में पाई जाती है इससे प्रेरित होकर कई मनुष्य झूठ मूठ भूतावेश का बहाना करते हैं अथवा ऐसे किस्से गढ़ लेते हैं। यह भी एक प्रकार की मानसिक कमजोरी है। अप्रसन्न और असन्तुष्ट लोग अपने परिवार को परेशान करने नुकसान पहुंचाने और पैसा खर्च कराने के लिए भूतबाधा की सृष्टि करते देखे गये हैं। चालाक नौकर, बदमाश पड़ौसी, ठग ओझा आदि की करतूतें भी भूत उत्पात के समान ही आडम्बर खड़ा कर लेती हैं। यह सामाजिक रोग है।

(3) पिछली फसल में जो अनाज खेत में पैदा हुआ था उसके कुछ पौधे अगली फसल में भी उग आते हैं। कारण यह है कि पिछली फसल में जो दाने खेत में गिरे थे वे नष्ट नहीं हुए वरन् समय पाकर उग आये। इस प्रकार किसी मकान में कोई असाधारण (नीच या ऊंच) स्वभाव का मनुष्य रहा हो अथवा कोई असाधारण घटना घटी हो तो सम्बन्धियों के सूक्ष्म शरीर के कुछ परमाणु उसमें विशेष रूप से चिपक जाते हैं। यह परमाणु अनुकूल परिस्थितियां पाकर पुष्ट होते हैं और एक अदृश्य व्यक्ति जैसी स्वतन्त्र सत्ता कायम कर लेते हैं।

एक घर में बहुत समय तक एक वेश्या रही, पीछे वे चली गई, उसी मकान में कुछ दिन बाद एक सदाचारी भद्रपुरुष का रहना हुआ। वे बहुत संयमी, ब्रह्मचारी और अच्छे विचारों के थे। किन्तु जिस दिन से उस मकान में रहे उसी दिन से उन्हें नित्य स्वप्नदोष होने लगा। स्वप्न में उन्हें एक सुन्दर स्त्री दिखाई पड़ती थी और उसी की कुचेष्टाएं उन्हें गिरा देती थीं। एक दिन वे बाजार में जा रहे थे तो देखा कि साक्षात् वही स्त्री कोठे पर बैठी हुई है जो उन्हें रात को दिखाई पड़ती है वे बहुत असमंजस में पड़े कि यह क्या मामला है। वे घबराते हुए हमारे पास आये हमें सारी घटना उन्होंने बताई। तलाश करने पर मालुम हुआ कि वह वेश्या उस मकान में रहती थी। हमने उन भद्रपुरुष को बताया कि उस वेश्या के कुछ विद्युतकण उस मकान में रह रहे हैं और परिस्थितियों के कारण उन्होंने अपनी अलग सत्ता कायम करली है, वे एक प्रकार से जीवित व्यक्ति का प्रेत बन गये हैं। वे ही इस तरह कार्य करते हैं। आप उस मकान को खाली कर दीजिये। उन भद्रपुरुष ने मकान छोड़ कर दूसरा ले लिया इसके बाद न उन्हें स्वप्नदोष हुआ और न कभी वह स्त्री दिखाई दी।

ऐतिहासिक स्थानों या तीर्थ स्थानों में कभी कभी वहां के प्राचीन पुरुषों की झलक दिखाई दे जाती है। वृन्दावन की सेवा कुंज में कभी कभी श्रीकृष्ण जी की एक अस्फुट सी झांकी लोगों को हुई है, किन्हीं ने रासलीला होती देखी है। ऐसे दृश्यों का कारण यह है कि ऊंची आत्माओं का तेज बहुत बढ़ा चढ़ा होता है, उस तेज के विद्युत कण हजारों वर्षों तक वहां बने रहते हैं और समय समय पर उनका मूर्त रूप देखने में आता रहता है। कुरुक्षेत्र, इन्द्रप्रस्थ आदि के ऐतिहासिक स्थानों में किन्हीं को महाभारत कालीन पुरुषों की झांकियां हुई हैं। तीर्थों के वातावरण में एक विशेषता यह होती है कि वहां जो प्रख्यात मनस्वी महापुरुष हुए हैं उनका प्रभाव किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता है और वह अनुकूल मनोभूमि वाले लोगों को विशेष रूप से प्रभावित करता है।

स्पष्ट है कि जहां मनुष्य शरीरों का कुछ असाधारण प्रयोग हुआ तो वहां भूत बाधा जैसी गड़बड़ें बहुत देखी जाती हैं। श्मशान, कब्रिस्तान, फांसी घर, जिवहखाने आदि स्थानों का वातावरण बड़ा आतंकित रहता है। इन स्थानों में शरीर यन्त्र का असाधारण उपयोग किया जाता है, जिसके कारण उन शरीरों के कुछ परमाणु वहां जम जाते हैं और समय समय पर अपना अस्तित्व प्रकट करते हैं। उन स्थानों की समीपता में आने वालों को भय और आतंक उत्पन्न करने वाले कई प्रकार के अनुभव होते हैं। जिन घरों में हत्याएं होती हैं, दुष्ट कर्म होते हैं उनमें भी ऐसा ही भयानक वातावरण बना रहता है। इन भयंकरताओं की मूल में वे परमाणु हैं जो भूतपूर्व व्यक्तियों के शरीर से असाधारण प्रतिक्रिया द्वारा निकले हैं। वे आत्माएं भले ही मर चुकी हों, दूसरी जगह जन्म ले चुकी हों या जीवित हों, जो भी स्थिति हो पर उनके सूक्ष्म शरीर से निकले हुए यह प्रेत स्वतंत्र रूप से बहुत काल तक अपना अस्तित्व बनाये रहते हैं और परिचय देते रहते हैं। इन परिमाणु प्रेतों द्वारा भी वैसे ही विस्मयजनक भयंकर कार्य होते हैं जैसे अन्य प्रकार के भूतों द्वारा हो सकते हैं।

(4) इन्द्रिय भोगों से अतृप्त वासना ग्रस्त प्रेत, अपने प्रियजनों पर विशेष रूप से आतंक जमाते हैं। क्योंकि उनका पहले से ही उनसे परिचय होता है और अपने पूर्व अनुभव के आधार पर वे सोचते हैं कि इच्छाएं इनके द्वारा पूरी हो सकती हैं। खाने पीने की चीजों की उनकी इच्छा अधिक होती है, कोई अपने लिए चबूतरा, वृक्ष आदि रहने योग्य स्थान चाहते हैं, किन्हीं को दान पुण्य, तीर्थ यात्रा, देवदर्शनादि शुभ कर्मों में रुचि होती है। कोई अपनी आज्ञा पालन करा के अपने अहंकार को पूरा करना चाहते हैं। जो भी उनकी इच्छा हो उसे पूर्ण कराने के लिए वे उपद्रव करते हैं। और जब उनकी इच्छा पूर्ण हो जाती है तो सन्तुष्ट हो जाते हैं। इनके निवास स्थानों को अपवित्र करने वाले, वहां विघ्न बाधा उपस्थित करने वाले ही अक्सर उनके क्रोध भाजन बनते हैं। मध्यान्ह या मध्यरात्रि के समय उनका क्षोभ बढ़ता है, इस समय में निकटस्थ व्यक्ति पर अकारण भी वे आक्रमण कर बैठते हैं। पिछले जन्म का बदला चुकाने के लिए उनके उत्पात होते हैं।

(5) अपने प्रियजनों में अतिशय मोह करने वाले मनुष्य मृत्यु के उपरांत अपनी प्रबल मोह भावना के वशीभूत होकर प्रेत योनि पाते हैं और अपने उसी घर के आस पास फिरते रहते हैं। अपने बाल बच्चों को हंसता खेलता देखकर प्रसन्न होते हैं। वृद्धजन अक्सर इस कोटि में आते हैं, वे किसी को हानि नहीं पहुंचाते वरन् समय समय पर कुटुम्बियों को आपत्तियों से सचेत किया करते हैं और विपत्ति निवारण में सहायता दिया करते हैं। इन्हें पितर कहते हैं।

जो तरुण अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होते हैं और जिनकी लालसाएं अत्यन्त उग्र एवं स्वार्थ पूर्ण होती हैं वे अपने प्रियजनों को अपनी जैसी प्रेत अवस्था में ले जाकर साथ रखने की इच्छा करते हैं और उसी भावना से वे अपने प्रियजनों को मार डालने का भी आयोजन करते हैं। तरुण स्त्रियां जो अपने बाल बच्चों को छोटा केवल अनाश्रित छोड़ कर मर जाती हैं वे इस प्रकार के कार्य अधिक करती हैं, अपने बच्चों को अपने साथ रखने की मोहमयी लालसा उनसे इस प्रकार का कार्य कराती है।

(6) तान्त्रिक साधनाओं द्वारा छाया पुरुष, भैरव भवानी बैताल, पीर, जिन्न, पिशाचिनी आदि की सिद्धि की जाती है, उन्हें वश में किया जाता है। उनकी सहायता से अमुक वस्तुएं प्राप्त की जाती हैं, अमुक कार्य पूरे किए जाते हैं और अमुक व्यक्तियों को अमुक प्रकार की हानियां पहुंचाई जाती हैं। सेवक की तरह यह संकल्प-प्रतिमाएं काम करती हैं। जो भूत, पिशाच, देव, इस प्रकार वशीभूत किए जाते हैं वे साधक की निजी मानसिक और शारीरिक शक्तियों के मन्थन से उत्पन्न हुए एक प्रकार के अदृश्य प्राणी होते हैं। शारीरिक विद्युत के परिमाणु अवसर पाकर अपने आप एक स्वतन्त्र इकाई बन जाते हैं किंतु यह देव दानव तांत्रिक विधियों द्वारा अपनी सूक्ष्म शक्तियों का मन्थन करके स्वयमेव उत्पन्न किये जाते हैं। इस प्रकार से अपने ही ‘‘मानस पुत्र’’ होते हैं परंतु प्रतीत ऐसा होता है कि पहले से ही कोई स्वतन्त्र सत्ता रखते थे। वास्तव में उनकी कोई स्वतन्त्र सत्ता पहले से नहीं होती है साधक उन्हें स्वयं उत्पन्न करता है। जितनी दृढ़ उसकी श्रद्धा और साधना होती है उसी अनुपात से इन देव दानवों की कार्य शक्ति होती है दुर्बल मानसिक बल वाले ऐसी कोई प्रतिमा वशीभूत करलें तो भी उसकी कार्य शक्ति बहुत ही तुच्छ रहेगी, उसके द्वारा कोई महत्वपूर्ण कार्य न हो सकेगा। हां, जिनका मानसिक बल बढ़ा चढ़ा है उसका देव दानव भी सशक्त होगा। एक की सिद्ध-प्रतिमा दूसरी प्रतिमा से लड़ भी जाती है और जो बलवान होती है वह दूसरे को परास्त करके अपना कार्य पूरा करती है। मरण आदि की भयंकर क्रियाएं इन संकल्प पुत्रों द्वारा ही की जाती हैं।

(7) जीवन मुक्ति आत्माओं के बारे में पीछे स्वतन्त्र रूप से बहुत कुछ कहा जा चुका है। यह आत्माएं मनुष्यों को सदा शुभ मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहन करती हैं। शुभ कर्म करने वालों पर प्रसन्न रहती हैं। अपनी स्वाभाविक उदारता के कारण लोगों को उन्नति के कार्यों में सहायता दिया करती हैं। इनके द्वारा जन समाज का हित ही होता है, अनहित नहीं। अन्तरिक्ष में ऐसे अनेक सिद्ध महात्मा तथा महापुरुषों के सूक्ष्म शरीर उड़ते रहते हैं और वे समय समय पर मानव प्राणियों को सत्कर्मों में सहायता प्रदान किया करते हैं।

उपरोक्त सात प्रकार के प्रेतों का परिचय जानने के उपरांत पाठक इस नतीजे पर पहुंचे होंगे कि जीवनमुक्त आत्माओं के अतिरिक्त छहों प्रकार के प्रेत हमें लाभ कर्म और हानि अधिक पहुंचाते हैं। लाभ का विषय ऐसा है कि उस पर विचार करने की कुछ आवश्यकता नहीं, क्योंकि लाभ किसी को बुरा नहीं लगता। यदि किन्हीं प्रेतों के द्वारा कुछ लाभ पहुंचता है तो उसके लिए किसी को कुछ चिन्ता नहीं होती। चिन्ता तब उत्पन्न होती है जब किसी को उनके द्वारा क्षति पहुंचती है। जब प्रेतों द्वारा किसी प्रकार की हानि पहुंचती है तब उसका निवारण करने के लिए हमें चिन्तित होना पड़ता है।

अब यह जानना है कि प्रेतों के उत्पात से किस प्रकार अपना बचाव किया जा सकता है। यद्यपि ऐसे उत्पात बहुत ही कम होते हैं तो भी जिन्हें उस अवस्था में पड़ जाने का दुर्भाग्य प्राप्त होता है उनके भय कष्ट और दुख का ठिकाना नहीं रहता। अनुभव से ज्ञात हुआ है कि जितने भी भूत उत्पात होते हैं उनमें से दो तिहाई भय एवं कल्पना से उत्पन्न हुए भूतों के होते हैं। अपनी मानसिक निर्बलता के कारण लोग आशंका ओर भय की मूर्तिमान प्रतिमा तैयार कर लेते हैं और उसी से भयभीत होते रहते हैं। अज्ञान, कुसंस्कार, आत्मिक निर्बलता और अन्ध विश्वास के कारण काल्पनिक भूत उत्पन्न होते हैं और उन्हीं लोगों को डराते, धमकाते हैं। यदि साहस और आत्म विश्वास का अभाव न हो और भय दिखाने वाली बात की गम्भीरता पूर्वक खोज करने की आदत डाली जाय तो इन काल्पनिक भूतों की करतूत मान बैठते हैं अंधेरे में झाड़ी की टहनियां यदि हाथ पांव से दिखाई देने लगीं तो भूत ही दीख पड़ता है। रात को जंगल में जुगनू उड़ते दिखाई दे रहे हों या केंचुओं की मिट्टी बिखर रही हो तो मशाल जलाकर भूतों की बरात निकलती समझी जाती है, घर में बन्दर ने ईंटें या पत्थर फेंक दिए हों तो वह भी भूत की हरकत समझी जाती है। कोई मसखरा या धूर्त व्यक्ति ऐसे आडंबर रच डालता है जिसे सहज ही भूत की माया समझा जा सकता है। इस प्रकार की घटनाओं की गम्भीरता पूर्वक छान बीन की जाय तो कारण का पता चल जाता है और भ्रम से सहज ही छुटकारा मिल जाता है।

मिथ्या भ्रमों के विरुद्ध जोरदार आन्दोलन किया जाय और मिथ्या विश्वासों को लोगों के मन से हटा दिया जाय तो भूतों की दो तिहाई बाधा मिट सकती है। शेष एक तिहाई में आधा भाग मनुष्य शरीर के निकले हुये विद्युत परमाणुओं की स्वतन्त्र सत्ता का होता है। इसका प्रभाव किसी स्थान विशेषज्ञ में होता है, एक नियत घेरे के अन्दर ही यह अपना प्रभाव दिखा सकती हैं। वह भी तब जब कोई अकेला आदमी वहां सुनसान समय में रहे। बहुत से मनुष्यों की भीड़ में उनकी शक्ति निर्बल हो जाती है। इन परमाणु प्रतिमाओं में बहुत थोड़ी ताकत होती है, अपना रूप दिखा देना, स्वप्न व तन्द्रावस्था में पड़े हुए व्यक्ति को अपना परिचय देना, कोई शब्द या दृश्य प्रकट करना आदि कार्यों द्वारा उनका अस्तित्व दिखाई पड़ता है, उससे डर कर कोई स्वयं ही अपनी हानि कर ले यह बात दूसरी है वैसे उन परमाणु प्रतिमाओं में ऐसी शक्ति नहीं होती कि किसी को कुछ हानि लाभ पहुंचा सकें। सैकड़ा पीछे पन्द्रह बीस घटनाएं इन प्रतिमाओं के द्वारा होती हुई देखी जाती हैं।

जिन घरों में इस प्रकार की गड़बड़ें दिखाई पड़ें उन्हें कई बार अच्छी तरह चना, गोबर, फिनायल आदि से साफ करना चाहिए। नीम की पत्तियां घरों में जलाकर बाहर से दरवाजे बन्द कर देने चाहिए। ताकि पत्तियों का धुआं घर में भर जाय। इसके अतिरिक्त हवन, यज्ञ आदि का भी अच्छा प्रभाव पड़ता है, जागरण धार्मिक गीत वाद्य, संकीर्तन, शंख-ध्वनि से इस प्रकार की अणु मूर्तियों को हटाने में सहायता मिलती है।

प्रेमोन्माद के मानसिक रोग की चिकित्सा आरम्भ करते हुए रोगी को बल वीर्य वर्धक भोजन देना चाहिए। मस्तक को बल देने के लिए भी दूध की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। ब्राह्मी, शतावरी, आंवला, सालभ, गोरखमुण्डी, शंख पुष्पी, बच, प्रभृति औषधियां सेवन करना, ब्राह्मी तथा आंवले का तेल सिर एवं शरीर पर मलवाना हितकर रहता है। जिस स्थान से रोगी का जी उचट रहा हो, वहां से हटा कर कुछ दिन के लिये इच्छित स्थान में रखना भी उचित है। जहां तक सम्भव हो उसे सन्तुष्ट और प्रसन्न रखने का प्रयत्न किया जाय। सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करने और मस्तिष्क को शक्ति देने वाली चीजें सेवन कराने से ऐसे रोगी बहुत अच्छे हो जाते हैं।

जिन्हें ऐसा विश्वास जम गया हो कि मुझे किसी बलवान भूत ने पकड़ रखा है और अब मुझ से कुछ नहीं हो सकता। ऐसे निर्बल स्वभाव वाले व्यक्तियों के सामने कुछ ऐसा आडम्बर रचना होता है जिससे प्रभावित होकर वे यह विश्वास करलें कि हमारे ऊपर जो भूत था वह संतुष्ट कर दिया या मार भगाया गया। कांटे से कांटा निकालने की और विष मारने की नीति से यहां काम लेना पड़ता है, इसके अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। जिनके अन्तर्मन में यह विश्वास गहरा उतर चुका है कि मेरे ऊपर भूत चढ़ा है, उसका भ्रम यह कहने मात्र से नहीं मिट सकता कि—‘‘तुम्हें कुछ नहीं है, केवल तुम्हारी काल्पनिकता और मानसिक निर्बलता है।’’ रोगी इस बात को नहीं मान सकता, उसे इस पर विश्वास नहीं हो सकता। हर व्यक्ति की मानसिक स्थिति भिन्न होती है। जो लोग अपने विश्वास के आधार पर भूत ग्रस्त हो जाते हैं उनमें भावुकता की मात्रा अधिक होती है, ऐसे लोगों को नाटकीय ढंग से कुछ अद्भुत विचित्र और आतंक उत्पन्न करने वाली पद्धति से अच्छा किया जाता है।

योरोपीय रीतियों के अनुसार प्लेनचिट आटोमेटिक राइटिंग करने की पद्धति का हमारे देश में भी प्रचार हो गया है। पहले हम भी उसे ठीक समझते थे परन्तु नये अनुभवों के आधार पर ऐसा प्रतीत हुआ कि यह अपनी ही मानसिक शक्तियों का एक खेल है। इन उपायों द्वारा किसी मृतात्मा के सन्देश आना बहुत संदेहास्पद है। इसलिए इस साधनों का प्रयोग करने के लिए हम अपने पाठकों को सलाह नहीं दे सकते। अपनी ओर से भूत प्रेतों के सम्बन्ध में अधिक रुचि लेना भी ठीक नहीं। हां किसी को अनायास भूत बाधा का शिकार होना पड़े तो उससे छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करना आवश्यक हैं।
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