मरने के बाद हमारा क्या होता है ?

मृत्यु की तैयारी

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यह निर्विवाद है कि जो पैदा हुआ है, उसे मरना पड़ेगा। हमें भी मृत्यु की गोद में जाना है। उस महान यात्रा की तैयारी यदि अभी से की जाय तो इस समय जो भय और दुख होता है वह न होगा ‘‘मृत्यु के अभी बहुत दिन हैं, या तब की बात तब देखी जायगी’’ ऐसा सोच कर उस महत्वपूर्ण समस्या को आगे के लिए टालते जाना अन्त में बड़ा दुखदायक होता है। मनुष्य जीवन एक महान उद्देश्य के लिए मिलता है, लाखों करोड़ों योनियां पार करके बड़े समय और श्रम के बाद हमने उसे पाया है ऐसे अमूल्य रत्न का सदुपयोग न करके योंही व्यर्थ गंवा देना भला इससे बढ़कर और क्या मूर्खता हो सकती है।

जीवन का महान उद्देश्य है, कि हम ईश्वर का साक्षात्कार करें, परमपद को पावें। किन्तु कितने हैं, जो इस ओर ध्यान देते हैं? किसी को तृष्णा से छुटकारा नहीं, कोई इन्द्रिय भोगों में मस्त है, कोई अहंकार में ऐंठा जा रहा है, तो कोई भ्रम जंजालों में ही मस्त है। इन विडम्बनाओं को उलझाते सुलझाते यह स्वर्ण अवसर बड़ी तीव्र गति से व्यतीत होता जा रहा है, किन्तु हमारा भूसी फटकने का कार्य-क्रम उसी गति से चलता जाता है। मृत्यु सिर के ऊपर नाच रही है, पल का भरोसा नहीं न जाने किस घड़ी गला दबा दे, आज क्या क्या मनसूबे बांध रहे हैं, हो सकता है कि कल यह सब धरे के धरे रह जावे और हमारा डेरा किसी दूसरे देश में ही जा गढ़े। ऐसी विषम बेला में अचेत रहना बड़े दुर्भाग्य की बात है। पाठको! अब तक भूले पर अब मत भूलो! आंखें खोलो सचेत होओ, जीवन क्या है? हम क्या हैं? संसार क्या है? हमारा उद्देश्य क्या है? इन प्रश्नों को उतना ही महत्व पूर्ण समझो जितना कि रोटी को समझते हो। निरन्तर इन प्रश्नों पर विचार करने से आप उस मार्ग पर चल पड़ेंगे जिसे मृत्यु की तैयारी कहते हैं। जो काम कल करना है, उसका बन्धन आज से सोचना होगा, आपकी मृत्यु का समय निर्धारित नहीं है इसलिए उसकी तैयारी आज से इसी क्षण से आरम्भ करनी चाहिए।

अनासक्ति कर्मयोग के तत्व ज्ञान को समझकर हृदयंगम कर लेना मृत्यु की सबसे उत्तम तैयारी है। माया के बन्धन हमें इसलिए बांध देते हैं कि हम उनमें लिपट जाते हैं, तन्मय हो जाते हैं। आप नित्य ‘‘मैं क्या हूं’’ पुस्तक में बताये हुए साधनों को किया कीजिए और मन में यह धारणा दृढ़ करके प्रति क्षण प्रयत्न करते रहिए कि ‘‘मैं अविनाशी, निर्विकार सच्चिदानन्द आत्मा हूं। संसार एक क्रीड़ा क्षेत्र है, मेरी सम्पत्ति नहीं’’ यह विश्वास जितने जितने सुदृढ़ होते जाते हैं, मनुष्य के ज्ञान-नेत्र उतने ही खुलते जाते हैं। स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब, परिवार का बड़े प्रेम पूर्वक पालन कीजिए, उन्हें अपनी सम्पत्ति नहीं पूजा का आधार बनाइए। सम्पत्ति उपार्जन कीजिए पर किसी उद्देश्य से, न कि शहद की मक्खियों की तरह कष्ट सहने के लिए। सब काम उसी प्रकार कीजिये जैसे संसारी लोग करते हैं, पर अपना दृष्टिकोण दूसरा रखिए। गिरह बांध लीजिए, बार बार हृदयंगम कर लीजिए कि ‘‘संसार की वस्तुएं आपकी वस्तु नहीं हैं। दूसरी आत्माएं आपकी गुलाम नहीं है। या तो सब कुछ आपका है या कुछ भी आपका नहीं है। या तो ‘मैं’ कहिए। या ‘तू कहिए’। ‘मेरा’ ‘तेरा’ दोनों एक साथ नहीं रह सकते। बस, माया की सारी गांठ इतनी ही है। योग का सारा ज्ञान इसी गांठ को सुलझाने के लिए है। पाप कर्म हम इसलिए करते हैं कि हमारा ‘‘अहंभाव’’ बहुत ही संकुचित होता है। आप अपनी महानता को विस्तृत कीजिए दूसरों को अपना ही समझिए, पराया कोई नहीं सब अपने ही हैं। यह अपनापन ऊंचे दर्जे का होना चाहिए, जैसा माता का अबोध पुत्र के प्रति होता है। वैसा नहीं जैसा चोर का दूसरों की तिजोरी पर होता है। सांसारिक जीवों में प्रभु की मूर्ति विराजमान देखिये और उनकी पूजा के लिए अपना हृदय बिछा दीजिये। स्त्री को आप दासी नहीं देवी मानिए, वैसी, जैसी मन्दिरों में विराजमान रहती है। पुत्र को आप वैसा ही महान समझिए जैसा गणेश जी को मानते हैं। सांसारिक व्यवहार के अनुसार उनके प्रति अपने उत्तरदायित्वों का पालन कीजिए। स्त्री की आवश्यकताएं पूरी कीजिये और पुत्र की शिक्षा दीक्षा में दत्तचित्त रहिए, पर खबरदार! होशियार! सावधान! उन्हें अपनी जायदाद न मानना। नहीं तो देखा, बुरी तरह मारे जाओगे। बड़ा भारी धोखा खाओगे, और ऐसी मुसीबत में फंस जाओगे कि बस, मामला सुलझाने से नहीं सुलझेगा संसार के समस्त दुखों का बाप है ‘मोह’। जब आप कहते हैं कि मेरी जायदाद इतनी है तो प्रकृति गाल पर तमाचा मारती है और कहती है कि मूर्ख! तू तीन दिन से आकर इस पर अधिकार जमाता है, यह प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है। सोना चांदी तेरी नहीं है यह प्रकृति का है जिसे तू स्त्री समझता है, यह असंख्यों बार तेरी मां हो चुकी होगी। आत्माएं स्वतन्त्र हैं कोई किसी का गुलाम नहीं। अज्ञानी मनुष्य कहता है—‘यह तो सब मेरा है इसे तो अपने पास रखूंगा।’ तत्वज्ञान की आत्मा चिल्लाती है—‘अज्ञानी बालकों! विश्व का कण कण जो बड़ी द्रुत गति से नाच रहा है। कोई वस्तु स्थिर नहीं, पानी बह रहा है, हवा चल रही है, पृथ्वी दौड़ रही है, तेरे शरीर में से पुराने कण भाग रहे हैं और नये आ रहे हैं तू एक तिनके पर भी अधिकार नहीं कर सकता। इस प्रकार बहती हुई नदी का आनंद देखना है तो देख, रोकने खड़ा होता तो लात मार कर एक ओर हटा दिया जायगा।’

दुख, विपत्ति, व्यथा और पीड़ा का कारण अज्ञान है। मृत्यु के समय दुख प्राप्त करने का, नरक की ज्वाला में जलने का भूत प्रेतों में भटकने का, जन्म मरण की फांसी में लटकने एक ही कारण है—अज्ञान, केवल अज्ञान! हे पाठको अन्धकार से प्रकाश की ओर चलो मृत्यु से अमृत की ओर चलो। ईश्वर प्रेम रूप है, प्रेम की उपासना करो। स्वर्ग पैसे से नहीं खरीदा जा सकता, खुदामद से मुक्ति नहीं मिल सकती, मजहबी कर्मकांड आत्मा का कल्याण नहीं कर सकते। दूसरों की ओर मत तकिए कि कोई हमें पार कर देगा, क्योंकि वास्तव में किसी भी दूसरे में ऐसी शक्ति है नहीं। ‘‘उद्धरेत आत्मनात्मानम्’’ आत्मा का आत्मा से ही उद्धार कीजिए, अपना कल्याण आप ही करिए। अपने हृदय को विशाल, उदार, उच्च और महान बना दीजिए। अहंभाव का प्रसार करके सबको आत्म दृष्टि से देखिये, जड़ पदार्थ प्रकृति के हैं आपके नहीं। उनका मोह छोड़िये अपनी अन्तरात्मा को प्रेम में सराबोर कर लीजिए और उस प्रेम का अमृत समस्त संसार पर बिना भेद भाव के छिड़किए अपना कर्त्तव्य धर्मनिष्ठा पूर्वक पालन कीजिए, व्यवहार कर्मों में रत्ती भर भी शिथिलता मत आने दीजिए, पर रहिए ‘कमल पत्रवत्’। राजा जनक की तरह कर्मयोगी बनिए, अनासक्त रहिए सर्वत्र आत्मीयता की दृष्टि से देखिये, अपनी महानता का अनुभव कीजिए और गर्व के साथ सिर ऊंचा उठा कर कहिए—‘‘सोऽहम्’’ वह मैं हूं।

आत्म ज्ञान द्वारा आप परलोक को परिपूर्ण आनन्दमय बना सकते हैं, मृत्यु फिर आपको दुख न देगी, वरन् एक खेल प्रतीत होगी, आप ऊंचे उठेंगे और महान् उद्देश्य को प्राप्त कर लेंगे। मृत्यु की तैयारी के लिए आज से ही आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का चिन्तन आरम्भ कर देना चाहिए। अपनी महानता का ज्ञान होते ही माया मोह सारे बन्धन टूट कर गिर पड़ेंगे और आनन्ददायक दृष्टि प्राप्त हो जायगी। अपने तुच्छ और स्वार्थ पूर्ण विचार को त्याग कर अपनी महान् आत्मा के दरवाजे पर सिंहनाद कीजिए—‘‘सोऽहम्’’ वह मैं हूं।
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