मरने के बाद हमारा क्या होता है ?

स्वर्ग नर्क

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ईश्वर बड़ा दयालु है, उसने प्राणियों को भरपूर स्वतन्त्रता दी है कि वे इच्छा पूर्वक कार्य करते हुए सत् चित् आनन्द की प्राप्ति करें। जो लोग गलती करते हैं उनसे परमात्मा क्रुद्ध नहीं होता और न किसी द्वेष भाव से दण्ड देता है, वरन् उसने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि जीव अपनी त्रुटियों से अनुभव प्राप्त करें। स्वर्ग नर्क की रचना इसी दृष्टिकोण से की गई है। न्याय मूर्ति जज किसी को जेलखाने में बुरी नीयत से नहीं भेजते उनकी हार्दिक इच्छा यह होती है कि यह आदमी त्रुटियों का परिणाम अनुभव करें और इसमें शिक्षा ग्रहण करके भावी जीवन को उत्तमता से बिताने का प्रयत्न करे। मृत्यु के उपरांत जीव को नर्क या स्वर्ग प्राप्त होता है इस बात को संसार के समस्त धर्म एक स्वर से स्वीकार करते हैं। इसमें कोई सन्देह की बात नहीं है। निश्चय ही हमें मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच में स्वर्ग नरक का अनुभव प्राप्त करना पड़ता है, परमात्मा की इच्छा है कि इस व्यवस्था द्वारा पूर्व त्रुटियों का संशोधन हो जाय और भावी जीवन का मार्ग निरापद बन जावे।

तीन वर्ष या जितना समय जीव को परलोक में ठहरने के लिए अदृश्य चेतना आवश्यक समझती है उसका पहला एक तिहाई भाग निद्रा में व्यतीत होता है, क्योंकि पूर्वजन्म के परिश्रम की उस काल में इतनी थकान होती है कि प्राणी इस समय अचेतन सा हो जाता है, इस समय वह दण्ड शिक्षा का कुछ अनुभव उसी प्रकार नहीं कर सकता, जैसे कि क्लोरोफार्म सुंघाकर बेहोश किया हुआ रोगी अपने शरीर की चीर फाड़ का अनुभव नहीं करता। प्रारम्भिक एक तिहाई भाग बीत जाने पर जीव स्वस्थ होकर जागृत होता और पीछे के कार्यक्रम पर ध्यान देता है। तीसरी तिहाई में वह अपने पिछले जीवन पर ध्यान देता है। सारे बुरे भले कर्मों के परत उसकी चेतना के साथ बड़ी मजबूती के साथ चिपके हुए होते हैं। यह पर्त एक एक करके खुलते हैं तब तक उन कर्मों के बीज पक चुके होते हैं और वे फल के रूप से उपस्थित होते हैं। इस समय वे केवल स्मरण मात्र ही नहीं होते वरन् अपना एक फल साथ लाते हैं। जीवन में हम जो कुछ बुरे भले काम करते हैं साधारण तौर से कुछ दिन बाद उन्हें भूल जाते हैं, किन्तु साक्षी रूप आत्मा जो अन्तःकरण में बैठा हुआ है उन सब बातों को नोट करता है। मान लीजिए आपने चोरी की। चोरी करते समय अन्तरात्मा धिक्कारती जाती है और उस कार्य के न करने का आदेश करती है, पर हम उसे नहीं सुनते और चोरी कर डालते हैं। किसी ने उस चोरी को देख नहीं पाया तदनुसार प्रत्यक्ष रूप से कुछ दण्ड न मिला। आत्मा के क्षेत्र में वह काम, बीज रूप से उसी प्रकार बो जाते हैं जैसे खेत में गेहूं। कुछ समय बाद बाहर का मस्तिष्क उस चोरी को भूल जाता है पर आत्मा नहीं भूलती। उसके खेत में वह बीज बराबर बढ़ता रहता है। खजूर की गुठली जब बोई गई थी तो उसका रूप दूसरा था किन्तु उसका परिवर्तित रूप खजूर का वृक्ष-दूसरी तरह का होता है। पाप का स्वरूप दूसरा होता है किन्तु उसका परिवर्तित रूप दुःख होते हैं।

नरकों का वर्णन अनेक प्रकार से होता है। विभिन्न धर्मावलम्बी उनकी रूपरेखा में कुछ फर्क बताते हैं। कुम्भी पाक, वैतरणी, रौरव, दोजख, हैल आदि के वर्णन कुछ अलग हैं। यह विभिन्नताएं अधूरी हैं। फिर भी सत्य हैं। हमारा मत है कि हर प्राणी के लिए अलग प्रकार नरक होना सम्भव है। इस तरह जितने प्राण हो चुके उतने नरक हुए होंगे और आगे जितने होने वाले हैं उतने नये होंगे। कारण यह है कि हर व्यक्ति का दृष्टि कोण अलग होता है। एक पण्डित जी को पाखाने में बन्द कर दिया जाय तो उन्हें मृत्यु के समान कष्ट होगा, पर एक मेहतर को दिन भर टट्टी साफ करते रहना कुछ भी नहीं अखरता। एक मनुष्य को छोटा सा फोड़ा हो जाय तो वह बड़ा दुःख अनुभव करेगा, दूसरे वे भिखारी होते हैं जो अधिक भिक्षा प्राप्त करने के लिए अपने घावों को बढ़ाते हैं, यदि उनका फोड़ा अच्छा हो जाय तो उन्हें दुःख होता है। फांसी से मृत्यु के दण्ड से कुछ लोग अत्यन्त भयभीत होते हैं, किन्तु कुछ लोग फांसी के तख्ते को प्यार से चूमते हैं और गीत गाते हुए रस्से को अपने हाथ से गले में बांधते हैं। कुम्भीपाक के बारे में कहा जाता है कि यह नरक भीतर पोले कुंए की तरह होता है। और उसके ऊपर के भाग में एक छोटा सा छेद होता है। कूटा खोदने वाले, या कुंए की कोठी पानी में चलाने वाले यदि इस नरक में बन्द कर दिए जावें तो उन्हें कुछ भी बुरा न लगेगा। एक आदमी में चांटा मार दिया जाय तो उसे तलवार के आघात जैसा दुःख होता होगा किंतु दूसरे में पचास जूते मारे जायं तो भी दस मिनट बाद हंसता नजर आवेगा। इन्हीं सब कारणों से अलग अलग मानसिक स्थिति वाले लोगों के लिये अलग अलग प्रकार के नरकों की आवश्यकता है।

पुराणों में ऐसा वर्णन है कि यमदूत घसीट कर नरक में ले जाते हैं। ये यमदूत कोई स्वतंत्र प्राणी नहीं हैं केवल जीव के मानस पुत्र हैं। अन्तःकरण अपने क्रम परिपाक में इन यमदूतों को भी उपजाता है। यह दूत केवल उतने ही दिन तक जीते हैं जितने दिन तक प्राणी को नरक में रहने की आवश्यकता होती है कार्य समाप्त होते ही वह मर जाते हैं। एक के लिए पैदा हुए यमदूत दूसरे को दण्ड देने के लिए जीवित नहीं रहते। वास्तविक बात यह है कि परलोक में भौतिक जीवन समाप्त हो जाता है और आध्यात्मिक जीवन प्रस्फुटित रहता है। वैज्ञानिकों के मत से बाह्य मन मर जाता है और अन्तर्मन जीवित रहता है। वकीलों की काट छांट, पण्डितों की शास्त्रार्थ शक्ति यहां ढूंढ़ने पर भी दिखाई नहीं देती। छिपाने का दम्भ बिलकुल विदा हो जाता है। जिस अन्तरात्मा में पाप बीज बोये थे। यह खेत प्रौढ़ रूप से उस प्रकार सचेत हो जाता है जैसे कि जीवित अवस्था में बाह्य मस्तिष्क। मन, बुद्धि, चित्त अहंकार का चतुष्टय, दसों इन्द्रियां, इन सबके संमिश्रण से बना हुआ सूक्ष्म शरीर उस समय वैसा ही अचेतन रहता है जैसा कि जीवित अवस्था में गुप्त मस्तिष्क। हम देखते हैं कि एक मैस्मरेजम करने वाला बाहरी मस्तिष्क को निद्रित कर देता है और भीतरी मस्तिष्क को यह आज्ञा देता है कि ‘तुम पानी में तैर रहे हो’ तो वह व्यक्ति बिलकुल यही अनुभव करता है कि मैं पानी में तैर रहा हूं। सचमुच पानी में तैरने और इस झूठ मूठ के तैरने में रत्ती भर भी फरक उसे मालूम नहीं होता। यही बात उस नरक की है, उस नरक को, उन यमदूतों की कोई अलग सत्ता नहीं होती और न परलोक कोई अलग न्यायाधीश, जज, मुंशी, पेशकार बैठते हैं। प्रतिदिन अरबों खरबों जीव मरते हैं इन सबको दण्ड देने के लिए उनसे दूने चौगुने तो यमदूत चाहिए, और असंख्य, दफ्तर, जेलखाने नरक आदि। इतने अलग बखेड़ों को ‘स्वतन्त्र रूप’ से होना किसी प्रकार सम्भव और सत्य दिखाई नहीं पड़ता। बेशक हर व्यक्ति के लिए अलग अलग नरक हो सकते हैं क्योंकि वह उसके साथ पैदा होते हैं और नष्ट हो जाते हैं।

अन्तरात्मा में जमे हुए पाप—संस्कार प्रकाश के रूप में जब प्रकट होते हैं तो इतनी शक्ति रखते हैं कि सूक्ष्म शरीर की बलात उसके सन्मुख आना पड़ता है। सर्प के नेत्र—तेज से खिंच कर पक्षी उसके मुख में चले जाते हैं। सम्भव है वे अपने मन में उस समय ऐसा ख्याल करते हों कि हमें कोई स्वतन्त्र जीव पकड़ लिए जा रहा है। कर्मफल की भोगनीय शक्ति द्वारा फल पाने के लिए आकर्षित किए जाते समय सम्भव है सूक्ष्म शरीर ऐसा ख्याल करता हो कि कोई यमदूत मुझे पकड़ कर खींचे लिये जा रहे हैं। इन यमदूतों का रंग रूप आकार प्रकार भी अलग हो जाता है। हिन्दू के लिये तिलक लगाये हुए गदा धारण किए हुए, राक्षसों की आकृति के हिन्दू आते हैं। मुसलमानों के फरिश्ते दाढ़ी रखते हैं और शायद टर्की टोपी भी लगाये हुए हैं। अंग्रेजी यमदूत कोट, टोपी, नैक्टाई से सुसज्जित हैं। यह दूत बातचीत भी हिन्दी, अरबी अंग्रेजी या उस भाषा में करते हैं जिससे कि वह पूर्व जन्म में बोलता है। उनकी आकृतियां भी अलग अलग विश्वासों के कारण अलग होती हैं। एक व्यक्ति बड़े दांतों में दिलचस्पी रखता है, दूसरा बड़ी आंखों में, तो एक का यमदूत बड़े दांतों वाला होगा, दूसरे का बड़ी आंखों वाला। यह यमदूत जिन्हें ‘‘संस्कारों का तेज’’ भी कह सकते हैं। सूक्ष्म शरीर उसकी इच्छा के विरुद्ध भी दण्ड देने के लिए हाजिर करते हैं। दुष्कर्मों का फल है दुख। सूक्ष्म शरीर को वेदना; पीड़ा, कष्ट देने के लिए अंतरात्मा एक स्वतंत्र नरक बना देती है। उनमें गिद्ध, कौए, खोंट खाने वाले, वैतरणी पार करने उलटे लटकने, पिटने, भाग में जलने के दृश्य उपस्थित होते हों या केवल अपमान करने, खरी खोटी सुनाकर लज्जित करने की व्यवस्था होती हो। यह अलग अलग मानसिक स्थिति के ऊपर है। इस नारकीय यन्त्रणा का मन्तव्य यह है, कि जीव दुःख अनुभव करे। पाप कर्म और उनके फल इन दोनों को साथ साथ देखकर वह यह समझ ले कि इसका यह फल होता है।

.दण्ड कितने समय तक और कितनी मात्रा में मिलना चाहिये इसका माप यह है कि जितने से वह अपना सुधार करले। जज छोटे अपराधों के लिए छोटी सजा देता है और बड़े अपराधों के लिए बड़ी। कारण यह है कि छोटे अपराध वालों की मनोभूमि पाप में अधिक लिप्त नहीं समझी जाती इसलिए उसका सुधार शीघ्र और थोड़े दण्ड से हो जाता है, किन्तु गुरुतर अपराध करने वालों की कठोर मनोभूमि में से आदतों को उखाड़ने के लिए अधिक परिश्रम और समय चाहिए। इसी दृष्टि से नरक की यातनाओं की सीमा होती है। दुष्ट कर्मों के परत एक एक करके उखड़ते आते हैं और अपना प्रभाव दिखाकर नष्ट हो जाते हैं। सूक्ष्म शरीर में इन्द्रियां भी होती हैं और मन भी, इसलिये शारीरिक पापों के लिए शारीरिक दण्ड और मानसिक पापों के लिए मानसिक वेदना प्राप्त होती है। जैसे कि अधिक खा लेने से अपने आप पेट में पीड़ा होती है, मिर्च के सेवन से अपने आप दाह होता है, वैसे पाप कर्मों का फल प्राप्त करने की व्यवस्था अन्तरात्मा स्वयमेव ही कर लेती है इसके लिए किसी दूसरे की जरूरत नहीं पड़ती। जो पाप प्रकट हो जाते हैं उनका फल तो प्रायः जीवित अवस्था में ही मिल जाता है। किन्तु जो पाप भुगत नहीं पाते उनको परलोक में भुगतना पड़ता है। प्रभु ने ऐसी व्यवस्था की है कि नवीन जन्म धारण करने से पूर्व ही जीवन अपने पिछले अधिकांश पापों को भुगत ले और अगले जन्म के लिए पवित्र होकर जावे, ताकि अगला जीवन इन पाप मारो के दुष्परिणामों से मुक्त हो। सेनापति अपने घायल सिपाहियों को तब अस्पताल में रखता है जब तक उसके घाव भर न जायं क्योंकि यदि घायल को ही पुनः युद्ध में भेज दिया जावे तो वह सेना पति का उद्देश्य पूरा न कर सकेगा उसके लिए हथियार चलाना तो अलग रहा अपने घावों की कराह से ही फुरसत न मिलेगी। इसलिए कुछ विशेष अवस्थाओं को छोड़कर (जिनका वर्णन पुनर्जन्म अध्याय में होगा) प्रायः सारे पाप परलोक में भुगत जाते हैं और जीव निर्मल बन जाता है नरक का केवल इतना ही लाभ नहीं है कि पाप क्षीण हो जावे वरन् यह भी उद्देश्य है कि आगे के लिए बुरी आदतें छूट जायं और लगती के परिणाम का स्मरण रहे। चोरी करते समय चोरों के कण्ठ सूख जाते हैं, दुराचारियों के पांव कांपने लगते हैं, हत्यारों की धुक-धुकी चलने लगती है, यह पूर्व जन्मों में प्राप्त हुये दण्डों का सूक्ष्म स्मरण है। पर हाय, लोग उस आन्तरिक आवाज को बिलकुल भुला देते हैं और फिर उसी पाप के पैशाचिक फन्दे में फंस जाते हैं।
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