मरने के बाद हमारा क्या होता है ?

मरने के बाद हमारा क्या होता है?

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* मृत्यु का स्वरूप *

जीवन का प्रवाह अनन्त है हम अगणित वर्षों से जीवित हैं और आगे अगणित वर्षों तक जीवित रहेंगे। भ्रमवश मनुष्य यह समझ बैठा है कि जिस दिन बच्चा माता के पेट में आता है या गर्भ से उत्पन्न होता है उसी समय से जीवन आरम्भ होता है और जब हृदय की गति बन्द हो जाने पर शरीर निर्जीव हो जाता है तो मृत्यु हो जाती है। यह बहुत ही छोटा अधूरा और अज्ञान मूलक विश्वास है। आधुनिक भौतिक विज्ञान यह कहता बताया जाता है कि जीव की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं, शरीर ही जीव है शरीर की मृत्यु के बाद हमारा कोई अस्तित्व नहीं रहता, परन्तु बेचारा भौतिक विज्ञान स्वयं अभी बाल्यावस्था में है। विद्युत की गति के सम्बन्ध में अब तक करीब तीन दर्जन सिद्धान्तों का प्रतिपादन हो चुका है। हर सिद्धान्त अपने से पहले मतों का खण्डन करता है। बेशक उन्होंने बिजली चलाई पर असल में अब तक ठीक ठीक यह नहीं जाना जा सका कि वह किस प्रकार चलती है। नित नई सम्मति बदलने वाले जड़ विज्ञान का भौतिक जगत में स्वागत हो सकता है पर यदि उसे ही आध्यात्मिक विषय में प्रधानता मिली तो सचमुच हमारी बड़ी दुर्गति होगी। एक वैज्ञानिक कहता है कि शरीर ही जीव है। दूसरा मृतात्मा आश्चर्यजनक करतबों की पूरी पूरी तरह चुनौती देता है और अपने पक्ष को प्रमाणित करके विरोधियों का मुख बन्द कर देता है। तीसरे वैज्ञानिक के पास ऐसे अटूट प्रमाण मौजूद हैं जिनमें छोटे अबोध बच्चों ने अपने पूर्वजन्मों के स्थानों को और सम्बन्धियों को इस प्रकार पहचाना है कि उससे पुनर्जन्म के विषय में किसी प्रकार के सन्देह की गुंजाइश ही नहीं रहती। बालक जन्म लेते ही दूध पीने लगता है यदि पूर्व स्मृति न होती तो वह बिना सिखाये किस प्रकार यह सब सीख जाता, बहुत से बालकों में अत्यल्प अवस्था में ऐसे अद्भुत गुण देखे जाते हैं जो प्रकट करते हैं कि यह ज्ञान इस जन्म का नहीं वरन् पूर्वजन्म का है।

जीवन और शरीर एक वस्तु नहीं है। जैसे कपड़ों को हम यथा समय बदलते रहते हैं उसी प्रकार जीव को भी शरीर बदलने पड़ते हैं। तमाम जीवन भर एक कपड़ा पहना नहीं जा सकता, उसी प्रकार अनन्त जीवन तक एक शरीर नहीं ठहर सकता। अतएव उसे बार बार बदलने की आवश्यकता पड़ती है। स्वभावतः तो कपड़ा पुराना जीर्ण शीर्ण होने पर ही अलग किया जाता है, पर कभी कभी जल जाने, किसी चीज में उलझ कर फट जाने, चूहों को काट देने या अन्य कारणों से वह थोड़े ही दिनों में बदल देना पड़ता है। शरीर साधारणतः वृद्धावस्था में जीर्ण होने पर नष्ट होता है परन्तु यदि बीच में ही कोई आकस्मिक कारण उपस्थित हो जावें तो अल्पायु में भी शरीर त्यागना पड़ता है। मृत्यु किस प्रकार होती है? इस सम्बन्ध में तत्वदर्शी योगियों का मत है कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व मनुष्य को बड़ी बेचैनी, पीड़ा और छटपटाहट होती है क्योंकि सब नाड़ियों में से प्राण खिंचकर एक जगह एकत्रित होता है, किन्तु पुराने अभ्यास के कारण वह फिर उन नाड़ियों में खिसक जाता है, जिससे एक प्रकार का आघात लगता है यही पीड़ा का कारण है। रोग, आघात या अन्य जिस कारण से मृत्यु हो रही हो तो उससे भी कष्ट उत्पन्न होता है। मरने से पूर्व प्राणी कष्ट पाता है चाहे वह जबान से उसे प्रकट कर सके या न कर सके। लेकिन जब प्राण निकलने का समय बिलकुल पास आ जाता है तो एक प्रकार की मूर्छा आ जाती है और उस अचेतनावस्था में प्राण शरीर से बाहर निकल जाते हैं। जब मनुष्य मरने को होता है तो उसकी समस्त बाह्य शक्तियां एकत्रित होकर अन्तर्मुखी हो जाती हैं और फिर स्थूल शरीर से बाहर निकल पड़ती हैं।

पाश्चात्य योगियों का मत है कि जीव का सूक्ष्म शरीर बैंगनी रंग की छाया लिए शरीर से बाहर निकलता है। भारतीय योगी इसका रंग शुभ्र ज्योति स्वरूप सफेद मानते हैं। जीवन में जो बातें भूल कर मस्तिष्क के सूक्ष्म कोष्ठकों में सुषुप्त अवस्था में पड़ी रहती हैं वे सब एकत्रित होकर एक साथ निकलने के कारण जागृत एवं सजीव हो जाती है। इसलिए कुछ ही क्षण के अन्दर जब अपने समस्त जीवन की घटनाओं को फिल्म की तरह देखा जाता है। इस समय मन की आश्चर्यजनक शक्ति का पता लगता है। उनमें से आधी भी घटनाओं के मानसिक चित्रों को देखने के लिए जीवित समय में बहुत समय की आवश्यकता होती पर इन क्षणों में वह बिलकुल ही स्वल्प समय में पूरी पूरी तरह मानव पटल पर घूम जाती हैं। इस सबका जो सम्मिलित निष्कर्ष निकलता है वह साररूप में संस्कार बन कर मृतात्मा के साथ ही लेता है। कहते हैं कि यह घड़ी अत्यन्त ही पीड़ा की होती है। एक साथ हजार बिच्छुओं के दशन का कष्ट होता है। कोई मनुष्य भूल से अपने पुत्र पर तलवार चला दे और वह अधकटी अवस्था में पड़ा छटपटा रहा हो तो उस दृश्य को देखकर एक सहृदय पिता के हृदय में अपनी भूल के कारण प्रिय पुत्र के लिए ऐसा भयंकर काण्ड उपस्थित करने पर जो दारुण व्यथा उपजती है, ठीक वैसी ही पीड़ा उस समय प्राण अनुभव करता है क्योंकि बहुमूल्य जीवन का अक्सर उसने वैसा सदुपयोग नहीं किया होगा जैसा कि करना चाहिए था जीव जैसी मूल्य वस्तु का दुरुपयोग करने पर उसे उस समय मर्मान्तक मानसिक वेदना होती है। पुत्र के मरने पर पिता को शारीरिक नहीं मानसिक कष्ट होता है उसी प्रकार मृत्यु के ठीक समय पर प्राणी की शारीरिक चेतनाएं तो शून्य हो जाती हैं पर मानसिक कष्ट बहुत भारी होता है। रोग आदि शारीरिक पीड़ा तो कुछ क्षण पूर्व ही जबकि इन्द्रियों की शक्ति अन्तर्मुखी होने लगती है तब ही बन्द हो जाती है। मृत्यु से पूर्व शरीर अपना कष्ट सह चुकता है। बीमारी से या किसी आघात से शरीर और जीव के बन्धन टूटने आरम्भ हो जाते हैं। डाली पर से फल उस समय टूटता है जब उसका डण्ठल असमर्थ हो जाता है। उसी प्रकार मृत्यु उस समय होती है जब शारीरिक शिथिलता और अचेतना आ जाती है। ऊर्ध्व रन्ध्रों में से अक्सर प्राण निकलता है मुख, आंख, कान, नाक प्रमुख मार्ग हैं। दुष्ट वृत्ति के लोगों का प्राण मल मूत्र मार्गों से निकलता देखा जाता है। योगी ब्रह्मरन्ध्र से प्राण त्याग करता है।

शरीर से जी निकल जाने के बाद वह एक विचित्र अवस्था में पड़ जाता है। घोर परिश्रम से थका हुआ आदमी जिस प्रकार कोमल शय्या प्राप्त करते ही निद्रा में पड़ जाता है। उसी प्रकार मृतात्मा को जीवन भर का सारा श्रम उतारने के लिए एक निद्रा की आवश्यकता होती है। इस नींद से जीव को बड़ी शान्ति मिलती है और आगे का काम करने के लिए शक्ति प्राप्त कर लेता है। मरते ही नींद नहीं आ जाती, वरन् इसमें कुछ देर लगती है। प्रायः एक महीना तक लग जाता है। कारण यह है कि प्राणान्त के बाद कुछ समय तक जीवन की वासनाएं प्रौढ़ रहती हैं और वे धीरे धीरे ही निर्बल पड़ती हैं। कड़ा परिश्रम करके आने पर हमारे शरीर का रक्त संचार बहुत तीव्र रहता है और पलंग मिल जाने पर भी उतने समय तक जागते रहते हैं, जब तक फिर रक्त की गति धीमी न पड़ जाय। मृतात्मा स्थूल शरीर से अलग होने पर सूक्ष्म शरीर में प्रस्फुटित हो जाता है, यह सूक्ष्म शरीर ठीक स्थूल शरीर की ही बनावट का होता है। मृतक को बड़ा आश्चर्य लगता है कि मेरा शरीर कितना हल्का हो गया है, वह हवा में पक्षियों की तरह उड़ सकता है। और इच्छा मात्र से चाहे जहां आ जा सकता है। स्थूल शरीर छोड़ने के बाद वह अपने मृतशरीर के आस पास ही मंडराता रहता है। मृत शरीर में आस पास प्रियजनों को रोता बिलखता देख कर वह उनसे कुछ कहना चाहता है, या वापिस पुराने शरीर में लौटना चाहता है, पर उसमें वह कृत्यकार्य नहीं होता। एक प्रेतात्मा ने बताया है कि ‘‘मैं मरने के बाद बड़ी अजीव स्थिति में पड़ गया। स्थूल शरीर में और प्रियजनों में मोह होने के कारण मैं उसके सम्पर्क में आना चाहता था पर लाचार था। मैं सबको देखता था पर मुझे कोई नहीं देख सकता था मैं सबकी वाणी सुनता था पर मैं जो बड़े जोर जोर से कहता था उसे कोई भी नहीं सुनता था। इन सब बातों से कुछ तो कष्ट होता था कुछ अपने नवीन शरीर के बारे में खुशी भी थी कि मैं कितना हल्का हो गया हूं और कितनी तेजी से चारों ओर उड़ सकता हूं। जीवित अवस्था में मैं मौत से डरा करता था, यहां मुझे डरने लायक कुछ भी बात मालुम नहीं हुई। सूक्ष्म शरीर में प्रस्फुटित होने के कारण पुराने शरीर से कुछ विशेष ममता न रही, क्योंकि नया शरीर पुराने की अपेक्षा हर दृष्टि से अच्छा था मैं अपना अस्तित्व वैसा ही अनुभव करता था जैसा कि जीवित दशा में। कई बार मैंने अपने हाथ पांवों को हिलाया डुलाया और अपने अंग प्रत्यंगों को देखा पर मुझे ऐसा नहीं लगा मानो मर गया हूं। तब मैंने समझा कि मृत्यु में कुछ डरने की बात नहीं है; वह शरीर परिवर्तन की एक मामूली सुख साध्य क्रिया है।’’

जब तक मृत शरीर की अंत्येष्टि क्रिया होती है, तब तक जीव बार बार उसके आस-पास मंडराता रहता है। जला देने पर वह उसी समय उससे निराश होकर दूसरी ओर मन को लौटा लेता है, किंतु गाढ़ देने पर वह उस प्रिय वस्तु का मोह करता है और बहुत दिनों तक उसके इधर उधर फिरा करता है। अधिक अज्ञान और माया मोह के बन्धन में अधिक दृढ़तम से बंधे हुए मृतक प्रायः श्मशानों में बहुत दिन तक चक्कर काटते रहते हैं। शरीर की ममता बार बार उधर खींचती है और वे अपने को सम्भालने में असमर्थ होने के कारण उसी के आस पास रुदन करते हैं। कई ऐसे होते हैं जो शरीर की अपेक्षा प्रियजनों से अधिक मोह करते हैं। वे मरघटों की बजाय प्रिय व्यक्तियों के निकट रहने का प्रयत्न करते हैं। बुड्ढे मनुष्यों की वासनाएं स्वभावतः ढीली पड़ जाती हैं, इसलिये वे मृत्यु के बाद बहुत जल्दी निद्रा ग्रस्त हो जाते हैं किन्तु वे तरुण जिनकी वासनाएं प्रबल होती हैं, बहुत काल तक विलाप करते फिरते हैं, खासतौर से वे लोग जो अकाल मृत्यु अपघात या आत्म हत्या से मरे होते हैं। अचानक और उग्र वेदना के साथ मृत्यु होने के कारण स्थूल शरीर के बहुत से परमाणु सूक्ष्म शरीर के साथ मिल जाते हैं इसलिए मृत्यु के उपरान्त उनका शरीर कुछ जीवित, कुछ मृतक, कुछ स्थूल, कुछ सूक्ष्म सा रहता है। ऐसी आत्माएं प्रेत रूप में प्रत्यक्ष सी दिखाई देती हैं और अदृश्य भी हो जाती हैं। साधारण मृत्यु से मरे हुओं के लिए यह नहीं है कि वह तुरन्त ही प्रकट हो जावें उन्हें उसके लिए बड़ा प्रयत्न करना पड़ता है, और विशेष प्रकार का तप करना पड़ता है, किन्तु अपघात से मरे हुए जीव सत्ताधारी प्रेत के रूप में विद्यमान रहते हैं और उनकी विषम मानसिक स्थिति नींद भी नहीं लेने देती। वे बदला लेने की इच्छा से या इन्द्रिय वासनाओं को तृप्त करने के लिए किसी पीपल के पुराने पेड़ की गुफा, खण्डहर या जलाशय के आस पास पड़े रहते हैं, और जब अवसर देखते हैं, अपना आस्तित्व प्रकट करने या बदला लेने की इच्छा से प्रकट हो जाते हैं। इन्हीं प्रेतों को कई तान्त्रिक सब साधन करके या मरघट जगा कर अपने बस कर लेते हैं और उनसे गुलाम की तरह काम लेते हैं इस प्रकार बांधे हुए प्रेत इस तांत्रिक से प्रसन्न नहीं रहते वरन् मन ही मन बड़ा क्रोध करते हैं और यदि मौका मिल जाय तो उन्हें मार डालते है। बंधन सभी को बुरा लगता है, प्रेत लोग छूटने में असमर्थ होने के कारण अपने मालिक का हुक्म बजाते हैं, पर सरकस के शेर की तरह उन्हें इससे दुख रहता है। आबद्ध प्रेत प्रायः एक ही स्थान पर रहते हैं और बिना कारण जल्दी जल्दी स्थान परिवर्तन नहीं करते।

साधारण वासनाओं वाले प्रबुद्धचित्त और धार्मिक वृत्ति वाले मृतक अन्तेष्टि क्रिया के बाद फिर पुराने सम्बन्धी से रिश्ता तोड़ देते हैं और मन को समझाकर उदासीनता धारण करते हैं। उदासीनता आते ही उन्हें निद्रा जाती है और आराम करके नई शक्ति प्राप्त करने के लिए निद्राग्रस्त हो जाते हैं। यह नींद तन्द्रा कितने समय तक रहती है, इसका कुछ निश्चित नियम नहीं है। यह जीव की योग्यता के ऊपर निर्भर है। बालकों और मेहनत करने वालों को अधिक नींद चाहिए, किन्तु बुड्ढे और आराम तलब लोगों का काम थोड़ी देर सोने से ही चल जाता है। आमतौर से तीन वर्ष की निद्रा काफी होती है। इसमें से एक वर्ष तक बड़ी गहरी निद्रा आती है, जिससे कि पुरानी थकान मिट जाय और सूक्ष्म इन्द्रियां संवेदनाओं का अनुभव करने के योग्य हो जावें। दूसरे वर्ष उसकी तन्द्रा भंग होती है और पुरानी गलतियों के सुधार तथा आगामी योग्यता के सम्पादन का प्रयत्न करता है। तीसरे वर्ष नवीन जन्म धारण करने की खोज में लग जाता है। यह अवधि एक मोटा हिसाब है। कई विशिष्ठ व्यक्ति छह महीने में ही नवीन गर्भ में आ गये हैं, कई को पांच वर्ष तक लगे हैं। प्रेतों की आयु अधिक से अधिक बारह वर्ष समझी जाती है। इस प्रकार दो जन्मों के बीच का अन्तर अधिक से अधिक बारह वर्ष हो सकता है।
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