देवताओं, अवतारों और ऋषियों की उपास्य गायत्री

गायत्री साधना के तीन चरण

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शरीर, मन और आत्मा को बलवान बनाने की प्रक्रिया—

गायत्री को त्रिपदा कहा गया है। त्रिपदा अर्थात् तीन पद-चरण वाली। तीन, शरीर, तीन लोक, तीन गुण, तीन ब्रह्म, तीन देव, तीन शक्ति, तीन काल के रूप में इस त्रिपदा शक्ति का विस्तार माना और विवेचन किया जाता है। इसके तीन फल हैं—अमृत, पारस और कल्पवृक्ष। त्रिपदा के यह तीन अनुग्रह—तीन वरदान तत्त्वदर्शियों ने बताये हैं। भौतिक सम्पत्तियां और आत्मिक विभूतियां इन तीनों के ही अन्तर्गत आ जाती हैं। आयु, प्राण, प्रज्ञा, पशु, कीर्ति, द्रव्य और ब्रह्मवर्चस् के जो सात प्रतिफल अथर्ववेद में बताये गये हैं वे सब भी इस अमृत, पारस, कल्पवृक्ष की परिधि गणना में ही समा जाते हैं।

आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक क्षेत्र की, सुविधा समृद्धियों का संवर्धन और अभाव—अवरोधों का निराकरण ही हर किसी को अभीष्ट होता है सारी सुविधा की गणना इसी परिधि में की जा सकती है। कठिनाइयों के नाम रूप का विस्तार कितना ही बड़ा क्यों न हो वस्तुतः वे इन्हीं आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक क्षेत्र के अन्तर्गत ही आती हैं। इन सभी के समाधान को अमृत, पारस और कल्पवृक्ष का अलंकारिक नाम करण किया गया है। गायत्री माता के अनुग्रह से यह तीनों ही विभूतियां उपलब्ध होने की बात शास्त्रकार ने कही है, सुसम्पन्न, सुसंस्कृत मनुष्यों को देवता, कहा गया है। देवत्व आकृति के साथ नहीं प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है। गुण, कर्म, स्वभाव से उसकी परख होती है। देवताओं का निवास-स्थल स्वर्ग लोक कहा गया है इसी बात को यों भी कहा जा सकता है कि जहां देवता निवास करते हैं वहां स्वर्गीय वातावरण बन जाता है।

गायत्री को स्वर्गलोक की अधिष्ठात्री कहा गया है। उसका एक नाम कामधेनु भी है। कामधेनु का पयपान करने से देवताओं को देवत्व की प्राप्ति होती है। देवताओं के सुख-साधनों के स्रोत तीन हैं—(1) अमृत (2) पारस (3) कल्पवृक्ष। अमृत के आधार पर उन्हें आध्यात्मिक, पारस के आधार पर उन्हें आधिभौतिक और कल्पवृक्ष के आधार पर आधिदैविक सम्पदाओं की उपलब्धि होती है। त्रिपदा गायत्री की तात्त्विक उपासना में इन तीनों ही दिव्य वरदानों को, स्वर्गीय अनुदानों को प्राप्त कर सकना सम्भव बताया गया है।

अमृत का अर्थ है वह पदार्थ जिसे पीने वाला अजर-अमर बनता है। बुढ़ापा और मृत्यु उसे छोड़कर चली जाती है। न यौवन सदा बना रहता है तथा आनन्द-उल्लास में अन्तःकरण सदा पुलकित, हुलसित बना रहता है। कहा जाता है कि यह अमृत देवलोक में है। उसे देवता पीते हैं और वह लाभ प्राप्त करते हैं जो स्वर्गलोक के निवासियों में, दिव्य शरीर धारियों में पाये जाते हैं। अमृत पदार्थ का अस्तित्व प्राणि जगत में तो नहीं ही पाया गया है। यहां हर वस्तु जन्मती, बढ़ती और बदलती है। बढ़ने के क्रम में ही जवानी के बाद बुढ़ापे का पल्ला बंधा है। जीर्णता को दुबारा ढालना ही परिवर्तन है, इसी को मरण कहते हैं। यह स्वाभाविक सृष्टि क्रम है।

बुढाता और मरता तो शरीर है। जब अपने को शरीर से भिन्न आत्मा मान लिया तो फिर अजर-अमर होने की अनुभूति सुनिश्चित हो जाती है। पुराने कपड़े बदलकर नये पहनने में तो बच्चे तक मोद मनाते हैं, फिर मृत्यु को भय आत्म-ज्ञानी को कैसे होगा? आत्मा तो आदि काल से अन्त तक प्रौढ़ ही रहती है उसके लिए न कभी बचपन है और न बुढ़ापा। दुःख और अभाव भी शरीर को ही कष्ट देते हैं, गायत्री उपासना में अमृतत्व की उपलब्धि की प्रेरणा, दिशा एवं सुविधा प्राप्त होती है इसलिए उसे कामधेनु कहा गया है। कामधेनु को भी अमृत का ही एक स्वरूप माना गया है। देवता उसे पीते और धन्य बनते हैं। उसे पीने से दुर्भावनायें आक्रमण नहीं करती, ईर्ष्या, द्वेष, रोष, प्रतिशोध के कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ते। फलतः आकांक्षाओं की अशान्ति से सदा बचे रहते हैं। हर घड़ी मस्ती छाई रहती है। उल्लास समेटते और उमंगें बखेरते हुए उन्हें देखा जा सकता है।

यह अमृतत्व और देवत्व एक ही बात है। देवताओं को मनुष्य की अपेक्षा अधिक समर्थ, सम्पन्न और सन्तुष्ट माना जाता है। दे देने की आकांक्षा रखना, देते रहना देवताओं का धर्म है। आत्मज्ञान का अमृतत्व पीने वाले व्यक्ति उपयोग के लिए लालायित नहीं रहते। जो प्राप्त होता है उसे अपने से अधिक जरूरत मन्द को बांटते रहते हैं। इस कारण स्वल्प रहते हुए भी आत्मा तो अपने आप में परिपूर्ण है उसे न किसी वस्तु की आवश्यकता है और न आकांक्षा की। इसकी सही अर्थों में अनुभूति हो सके तो फिर चेहरे पर सदा तृप्ति और शांति ही छाई रहेगी। ऐसे लोग जीवन मुक्त कहलाते हैं। पृथ्वी के देवता समझे जाते हैं और अपने सम्पर्क क्षेत्र में स्वर्गिक वातावरण उत्पन्न करते हैं। अमृतत्व की उपलब्धि के यही लक्षण हैं।

पारस उस पत्थर का नाम है जिसे छूने से लोहे जैसी काली-कलूटी, कुरूप और सस्ती धातु स्वर्ण बन जाती है। अर्थात् सुन्दर, बहुमूल्य, कीमती, चमकदार धातु। तथाकथित पारस का अस्तित्व संदिग्ध है। अभी उसके कहीं पाये जाने का प्रमाण नहीं मिला है। किन्तु अध्यात्म क्षेत्र का पारस ‘पुरुषार्थ’ के रूप में बहुत पहले से ही इस संसार में विद्यमान है। उसका सम्पर्क साधने वाले गई गुजरी स्थिति को पार करके द्रुतगति से आगे बढ़ते हैं और उन्नति के उच्च शिखर पर पहुंचते हैं।

पुरुषार्थ का प्रथम चरण मानसिक है। उसे संकल्प, साहस, उत्साह, आशा, उमंग आदि सृजनात्मक अन्तः क्षमताओं के रूप में जाना जाता है। उसी का दूसरा चरण वह है जिसे तत्परता और तन्मयता के रूप में आंखों से प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। आलस्य और प्रमाद ही पिछड़ेपन का अभिशाप लादने वाले दुष्ट दैत्य हैं, वे जिस पर चढ़ते हैं उसे सदा दरिद्रता, आत्म हीनता और तिरस्कार भरा पिछड़ा जीवन जीना पड़ता है। आलस्य, प्रमाद के उपरान्त तीसरा असुर है असंयम।

पुरुषार्थ रूपी पारस जिनकी अन्तःभूमिका में उतरता है वह अपनी इन मलीनताओं को लात मारकर भगा देने के लिए संकल्प पूर्वक उठ खड़ा होता है। छाई हुई जड़ता को, अर्ध मूर्छित जैसी मनः स्थिति को झकझोरकर रख देता है। नये सिरे से जीवनचर्या बनाता है और आदर्शों का अभिनव निर्माण करता है। यह कायाकल्प जिस आन्तरिक पुरुषार्थ के सहारे सम्भव होता है उस उत्कृष्टतावादी प्रगतिशील सत्साहस को, प्रचण्ड संकल्प बल को पारस कहा गया है। इसका जहां उदय होगा रुग्णता, दुर्बलता, दरिद्रता, उदासी, अवमानना की लानतें सिर पर पैर रखकर भागती दिखाई पड़ेंगी।

गायत्री का शब्दार्थ है प्राण का त्राण करने वाली। ‘गय’ कहते हैं प्राण को और त्री कहते हैं त्राण करने वाली को। प्राण अर्थात् पुरुषार्थ। जब आन्तरिक साहस और व्यावहारिक परिश्रम का समन्वय उच्चस्तरीय उद्देश्यों के लिए जुट जाता है तो उस समन्वय के परिणाम हर क्षेत्र में चमत्कार जैसे दिखाई पड़ते हैं। पारस का महत्त्व इसलिए है कि वह लोहे की तुच्छता को सोने की महानता में बदल देता है। आत्मिक पारस पुरुषार्थ भी ठीक वही भूमिका सम्पन्न करता है। गायत्री उपासना से जो प्रकाश मिलता और साहस जगता है उसे देखते हुए उस कायाकल्प को पारस की प्राप्ति कहा जाय तो उसमें अलंकारिता तो है पर अत्युक्ति तनिक भी नहीं।

परिष्कृत व्यक्तित्व को कल्पवृक्ष के समतुल्य माना गया है। कल्पवृक्ष स्वर्ग में है। कहा जाता है उसके नीचे बैठकर जो भी कामना की जाती है पूर्ण होती है। यह अलंकारिक रूप से परिष्कृत व्यक्तित्व का ही वर्णन है। गायत्री को सद्बुद्धि की देवी कहा गया है। यदि उसकी वास्तविक रूप में साधना की जा सके तो ईश्वर के दरबार में साधक को सद्बुद्धि का वरदान मिलता है। इस वरदान का प्रथम प्रभाव परिष्कृत व्यक्तित्व के रूप में सामने आता है। जिसे इतनी सफलता मिल गई, समझना चाहिए उसे कल्पवृक्ष की छाया में बैठने और आप्तकाम होने का सौभाग्य मिल गया। देवता आप्त काम कहलाते हैं उनकी सभी कामनायें पूर्ण रहती हैं। उन्हें अभाव जन्य कभी कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ता। इसी स्थिति को कल्प वृक्ष की सिद्धि कहा गया है।

मनुष्य जीवन की आवश्यकतायें बहुत स्वल्प हैं। उसका पेट छोटा और हाथ तथा मस्तिष्क का मिला-जुला उत्पादन इतना अधिक है कि थोड़े से समय एवं श्रम से शारीरिक आवश्यकतायें सहज ही पूरी होती रह सकती हैं। ‘औसत भारतीय’ का निर्वाह स्तर स्वीकार हो और प्रस्तुत परिवार का उचित परिपोषण ही पर्याप्त माना जाय तो आवश्यक कामनाओं का बोझ सिर पर न चढ़ेगा और न उन्हें पूरा करने के लिए उचित-अनुचित रास्ते अपनाने एवं निरन्तर चिन्तित रहने की आवश्यकता पड़ेगी। यों आवश्यकतायें तो मानवी पुरुषार्थ से अत्यन्त सरलता पूर्वक पूरी होती रहती हैं। निरर्थक कामनायें बढ़ाते चलना और उनको तुर्त-फुर्त पूरी करने के लिए व्याकुल रहना, यही है मनोकामनाओं का जंजाल जिसके लिए अनपढ़ लोग निरन्तर आकुल—व्याकुल रहते और देवी-देवताओं के सामने नाक रगड़ते देखे जाते हैं। देव-बुद्धि के देवता लोग इस जंजाल से बचते हैं। सद्बुद्धि का आश्रय लेकर वे अपनी कामनाओं को सीमित करते और जो उचित है उनकी पूर्ति प्रबल पुरुषार्थ के सहारे सरलता पूर्वक करते रहते हैं। ऐसी दशा में उनका ‘आप्तकाम’ बने रहना, कल्पवृक्ष की छाया तले निवास करने जैसा आनंद लेना सहज स्वाभाविक है। संक्षेप में सद्बुद्धि को ही कल्पवृक्ष समझा जाना चाहिए। गायत्री उपासना का मूल प्रयोजन वही है। उसका अनुग्रह जो जितनी मात्रा में प्राप्त कर लेता है वह उतनी मात्रा में पारस, अमृत, और कल्पवृक्ष के तीनों अध्यात्म लाभों को प्राप्त करके इसी धरती पर देव जीवन जीता और शरीर रहते ही स्वर्ग तथा मुक्ति का आनन्द प्राप्त करता है।

गायत्री को आत्म शक्ति, ब्रह्मविद्या कहा गया है और उसको अमृतकलश से उपमा दी गई है। आत्म-कल्याण और ईश्वर-दर्शन का अवलम्बन और मार्ग-दर्शन गायत्री मन्त्र में ओत-प्रोत है। उसे अपनाने वाले साधक अमृत पान करते हैं और देवताओं की तरह सच्चे अर्थों में अजर-अमर हो जाते हैं। गायत्री को अमृत कलश इसीलिए कहा गया है।

गायत्री का चौथा नाम कामधेनु और पांचवां ब्रह्मास्त्र है। कामधेनु अर्थात् माता की तरह परिपोषण करने वाली, प्रगति और समृद्धि के अजस्र वरदान देने वाली। ब्रह्मास्त्र अर्थात् वह अस्त्र जिसके प्रहार से पतन, संकट और विघ्न चूर-चूर होते चले जायें। जिसने सही रीति से गायत्री का अवलम्बन लिया है उसने अथर्ववेद की उस साक्षी रिचा को अक्षरशः सही पाया है जिसमें उस महाशक्ति को दीर्घजीवन प्राण, पराक्रम, सुसंतति, सहयोगी परिवार, निर्मल यश, साधन, वैभव तथा ब्रह्मवर्चस आत्मबल का वरदान बताया गया है।

सद्ज्ञान की अधिष्ठात्री-प्रत्यक्ष ऋतम्भरा प्रज्ञा-गायत्री के 24 अक्षरों में मानवी चिन्तन और चरित्र को उच्चस्तरीय बनाये रहने वाला सारा तत्त्व विद्यमान है। इस महाशक्ति की साधना में योगाभ्यास और तपश्चर्या के वे समस्त आधार, संकेत और विधान मौजूद हैं जिनके सहारे साधनकर्त्ता को ऋद्धि-सिद्धियों का समुचित लाभ मिल सकता है। आत्मिक प्रगति की दोनों उच्च भूमिकायें—स्वर्ग और मुक्ति को पाने के लिए गायत्री तत्त्वज्ञान का अवलम्बन अनुपम है।

प्रत्येक धर्मपरायण को गायत्री का अवलम्बन आवश्यक ठहराया गया है। भारतीय धर्मानुसार नित्य उपासना का विधान ‘‘संध्या वन्दन’’ कहलाता है, संध्या विधान में गायत्री का स्थान वैसा ही है जैसा कि शरीर में मेरुदण्ड का। भारतीय धर्म के दो प्रतीक चिन्ह हैं, एक शिखा दूसरा सूत्र (यज्ञोपवीत)। ये दोनों ही गायत्री की प्रतिमायें हैं। शिर के सर्वोच्च शिखर पर गायत्री की ज्ञान ध्वजा फहराने और कन्धे पर गायत्री के नौ शब्द, नौ धागे बनाकर, तीन व्याहृतियों को तीन ग्रन्थियों का रूप देकर यज्ञोपवीत के रूप में कन्धे पर धारण करने का अनुशासन है। मस्तिष्क, ज्ञान का और शरीर, कर्म का आधार है। दोनों पर ही शिखा और सूत्र के रूप में गायत्री की प्रतिष्ठापना की गई है। अर्थात् इन दोनों का उपयोग संचालन इन्हीं 24 अक्षरों में सन्निहित प्रेरणाओं के अनुरूप करने का निर्देश आर्ष ग्रन्थों और आप्त वचनों में किया गया है। शास्त्रों में ‘‘गुरु मन्त्र’’ नाम गायत्री को ही दिया गया है। विद्यारम्भ-वेदारम्भ-उपनयन आदि संस्कारों में गायत्री के आधार पर ही दीक्षा दी जाती है। अन्य मन्त्रों को देव-मन्त्र, साधना-मन्त्र, सम्प्रदाय-मन्त्र आदि तो कहा जा सकता है, पर अनादि ‘गुरु-मन्त्र’ गायत्री को ही कहा गया है। भगवान राम को गुरु वशिष्ठ ने, एवं भगवान कृष्ण को संदीपन ऋषि ने यही गुरु मन्त्र दिया था। महर्षि विश्वामित्र द्वारा राम को बला और अतिबला शक्तियां इसी साधना के माध्यम से प्राप्त हुई थीं। स्वयं विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि इसी के प्रभाव से बने थे।

भगवान मनु का कथन है—गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई मन्त्र नहीं है। जो मनुष्य नियमित रूप से तीन वर्ष तक गायत्री का जप करता है, वह ईश्वर को प्राप्त करता है। जो द्विज दोनों सन्ध्याओं में गायत्री जपता है वह वेद पढ़ने के फल को प्राप्त करता है। अन्य कोई साधना करे या न करे केवल गायत्री जप से ही सिद्धि पा सकता है। नित्य एक हजार जप करने वाला पापों से वैसे ही छूट जाता है जैसे केंचुली से सर्प छूट जाता है। जो द्विज गायत्री की उपासना नहीं करता वह निन्दा का पात्र है।

शंख ऋषि का मत है—नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़कर बचाने वाली गायत्री ही है। उससे उत्तम वस्तु स्वर्ग और पृथ्वी पर कोई नहीं है। गायत्री का ज्ञाता निस्सन्देह स्वर्ग को प्राप्त करता है।

महर्षि व्यास जी कहते हैं—जिस प्रकार पुष्पों का सार शहद, दूध का सार घृत है उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री है। सिद्ध की हुई गायत्री कामधेनु के समान है। गंगा शरीर के पापों को निर्मल करती है। गायत्री रूपी ब्रह्म गंगा से आत्मा पवित्र होती है। जो गायत्री छोड़कर अन्य उपासना करता है वह पकवान् छोड़कर भिक्षा मांगने वाले के समान मूर्ख है। काम्य सफलता तथा तप की सिद्धि के लिए गायत्री से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है।

भारद्वाज ऋषि कहते हैं—ब्रह्मा आदि देवता भी गायत्री का जप करते हैं। वह ब्रह्म साक्षात्कार कराने वाली है। अनुचित काम करने वालों के दुर्गुण गायत्री के कारण छूट जाते हैं गायत्री से रहित व्यक्ति शूद्र से भी अपवित्र है।

नारदजी की उक्ति है—गायत्री भक्ति का ही रूप है, जहां भक्ति रूपा गायत्री है वहां श्री नारायण का निवास होने में कोई सन्देह नहीं करना चाहिए।

वशिष्ठ जी का मत है—मन्दमति, कुमार्गगामी और स्थिरमति भी गायत्री के प्रभाव से उच्चपद को प्राप्त करते हैं। फिर सद्गति होना निश्चित है। जो पवित्रता और स्थिरता पूर्वक गायत्री की उपासना करते हैं वे आत्म लाभ करते हैं।

गौतम ऋषि का मत है—योग का मूल आधार गायत्री है। गायत्री से ही सम्पूर्ण योगों की साधना होती है।

महर्षि उद्दालक कहते हैं—गायत्री में परमात्मा का प्रचंड तेज भरा हुआ है। जो इस तेज को धारण करता है उसका वैभव अतुलनीय हो जाता है।

देवगुरु ब्रहस्पति जी का मत है—देवत्व और अमृतत्व की आदि जननी गायत्री है। इसे प्राप्त करने के पश्चात् और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता।

श्रंगी ऋषि की उक्ति है—ज्ञान-विज्ञान का आदि स्रोत गायत्री ही है। उससे अधिक संसार में और कुछ नहीं है।

जप करते हैं, वह ब्रह्म साक्षात्कार कराने वाली है। अनुचित काम करने वालों के दुर्गुण गायत्री के कारण छूट जाते हैं। गायत्री से रहित व्यक्ति शूद्र से भी अपवित्र है। चरक ऋषि कहते हैं—‘जो ब्रह्मचर्य पूर्वक गायत्री की उपासना करता है और आंवले के ताजे फलों का सेवन करता है वह दीर्घजीवी होता है।’

योगिराज याज्ञवल्क्य कहते हैं—‘गायत्री और समस्त वेदों को तराजू में तोला गया। एक ओर षट् अंगों समेत वेद और दूसरी ओर गायत्री, तो गायत्री का पलड़ा भारी रहा। वेदों का सार उपनिषद् है, उपनिषद् का सार गायत्री को माना, व्याहृतियों समेत गायत्री। गायत्री वेदों की जननी, पापों का नाश करने वाली है, इससे अधिक पवित्र करने वाला अन्य कोई मन्त्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, केशव से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, गायत्री से श्रेष्ठ मन्त्र न हुआ न आगे होगा। गायत्री जान लेने वाला समस्त विद्याओं का वेत्ता, श्रेय और श्रोत्रिय हो जाता है। जो द्विज गायत्री परायण नहीं वह वेदों का पारंगत होते हुए भी शूद्र के समान है, अन्यत्र किया हुआ उसका श्रम व्यर्थ है। जो गायत्री नहीं जानता ऐसा व्यक्ति ब्राह्मणत्व से च्युत और पापयुक्त हो जाता है।

पाराशर जी कहते हैं समस्त जप सूक्तों तथा वेद मन्त्रों में गायत्री मन्त्र परम श्रेष्ठ है। वेद और गायत्री की तुलना में गायत्री का पलड़ा भारी है। भक्ति पूर्वक गायत्री का जप करने वाला मुक्त होकर पवित्र बन जाता है। वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास पढ़ लेने पर जो गायत्री से हीन है उसे ब्राह्मण नहीं समझना चाहिए। अत्रि मुनि कहते हैं—‘गायत्री आत्मा का परम शोधन करने वाली है। उसके प्रताप से कठिन दोष और दुर्गुणों का परिमार्जन हो जाता है। जो मनुष्य गायत्री तत्त्व को भली प्रकार समझ लेता है उसके लिए इस संसार में कोई सुख शेष नहीं रह जाता।’

उपरोक्त अभिमतों से मिलते-जुलते अभिमत प्रायः सभी ऋषियों के हैं। इनसे स्पष्ट है कि कोई भी ऋषि अन्य विषयों में चाहे आपस का मतभेद रखते हों पर गायत्री के बारे में उन सब में समान श्रद्धा थी। और वे सभी अपनी उपासना में उसका प्रथम स्थान रखते थे। शास्त्रों में, धर्म ग्रन्थों में, स्मृतियों में, पुराणों में गायत्री की महिमा तथा साधन पर प्रकाश डालने वाले सहस्रों श्लोक भरे पड़े हैं। इन सबका संग्रह किया जाय तो एक बड़ा गायत्री पुराण ही बन सकता है।

वर्तमान शताब्दी के आध्यात्मिक महापुरुषों ने भी गायत्री के महत्त्व को उसी प्रकार स्वीकार किया है जैसा कि प्राचीनकाल के तत्त्वदर्शी ऋषियों ने किया था। आज का युग बुद्धि और तर्क का, प्रत्यक्षवाद का युग है।

महात्मा गांधी कहते हैं—‘गायत्री मन्त्र का निरन्तर जप रोगियों को अच्छा करने और आत्माओं की उन्नति के लिए उपयोगी है। गायत्री का स्थिर चित्त और शान्त हृदय से किया हुआ जप आपत्तिकाल के संकटों को दूर करने का प्रभाव रखता है।’

लोकमान्य तिलक कहा करते थे ‘‘जिस बहुमुखी दासता के बन्धनों में भारतीय प्रजा जकड़ी हुई है। उसका अन्त राजनीतिक संघर्ष करने मात्र से न हो जायगा, उसके लिए आत्मा के अन्दर प्रकाश उत्पन्न करना होगा, जिससे सत् और असत् का विवेक हो, कुमार्ग को छोड़कर श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले। गायत्री मन्त्र में यही भावना विद्यमान है।’’

महामना मदनमोहन मालवीय जी ने कहा था—‘ऋषियों ने जो अमूल्य रत्न हमें दिये हैं उनमें से एक अनुपम रत्न गायत्री ऐसा है जिससे बुद्धि पवित्र होती है। ईश्वर का प्रकाश आत्मा में आता है। इस प्रकाश से असंख्य आत्माओं को भव-बन्धनों से त्राण मिला है। गायत्री में, ईश्वर परायणता में श्रद्धा उत्पन्न करने की शक्ति है। साथ ही वह भौतिक अभावों को दूर करती है। जो ब्राह्मण गायत्री जप नहीं करता वह अपने कर्त्तव्य धर्म छोड़ने का अपराधी होता है।

रवीन्द्र नाथ टैगोर कहते हैं—भारतवर्ष को जगाने वाला जो मन्त्र है वह इतना सरल है कि एक श्वास में उसका उच्चारण किया जा सकता है वह है गायत्री मन्त्र। उस पुनीत मन्त्र का अभ्यास करने में किसी प्रकार के तार्किक ऊहापोह, किसी प्रकार के मतभेद अथवा किसी प्रकार के बखेड़े की गुंजाइश नहीं है।

योगी अरविन्दघोष ने कई जगह गायत्री जप करने का निर्देश किया है। उन्होंने बताया है कि गायत्री में ऐसी शक्ति सन्निहित है जो महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती है। उन्होंने कइयों को साधना के तौर पर गायत्री का जप बताया है।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस का उपदेश है—मैं लोगों से कहता हूं कि लम्बे साधन करने की उतनी जरूरत नहीं है। इस छोटी-सी गायत्री की साधना करके देखो। गायत्री का जप करने से बड़ी-बड़ी सिद्धियां मिल जाती हैं। यह मन्त्र छोटा है पर इसकी शक्ति बड़ी भारी है।

स्वामी विवेकानन्द का कथन है—‘राजा से वही वस्तु मांगी जानी चाहिए जो उसके गौरव के अनुकूल हो। परमात्मा से मांगने योग्य वस्तु सद्बुद्धि है। जिस पर परमात्मा प्रसन्न होते हैं उसे सद्बुद्धि प्रदान करते हैं। सद्बुद्धि से सत् मार्ग पर प्रगति होती है और सत् कर्म से सब प्रकार से सुख मिलते हैं। जो सत् की ओर बढ़ रहा है उसे किसी प्रकार से सुख की कमी नहीं रहती। गायत्री सद्बुद्धि का मन्त्र है। इसलिए उसे मन्त्रों का मुकुटमणि कहा है।’

जगद्गुरु शंकराचार्य जी का कथन है—‘गायत्री की महिमा का वर्णन करना मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर है। बुद्धि का होना इतना बड़ा कार्य है जिसकी समता संसार और किसी काम से नहीं हो सकती। आत्म-ज्ञान-प्राप्त करने की दिव्य दृष्टि जिस बुद्धि से प्राप्त होती है, उसकी प्रेरणा गायत्री द्वारा होती है। गायत्री आदि-मन्त्र है। उसका अवतार दुरितों को नष्ट करने और रित के अभिवर्धन के लिए हुआ है।’

स्वामी रामतीर्थ ने कहा—‘राम को प्राप्त करना सबसे बड़ा काम है। गायत्री का अभिप्राय बुद्धि को काम-रुचि से हटाकर राम-रुचि में लगा देना है। जिसकी बुद्धि पवित्र होगी वही राम को प्राप्त कर सकेगा। गायत्री पुकारती है कि बुद्धि में इतनी पवित्रता होनी चाहिए कि वह राम को काम से बढ़कर समझे।’ महर्षि रमण का उपदेश है—‘योग-विद्या के अन्तर्गत मंत्र-विद्या बड़ी प्रबल है। मन्त्रों की शक्ति से अद्भुत सफलतायें मिलती हैं। गायत्री ऐसा मन्त्र है, जिससे आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के लाभ मिलते हैं।’

स्वामी शिवानन्द जी कहते हैं—‘ब्रह्म मुहूर्त में गायत्री का जप करने से चित्त शुद्ध होता है और हृदय में निर्मलता आती है। शरीर नीरोग रहता है, स्वभाव में नम्रता आती है, बुद्धि सूक्ष्म होने से दूरदर्शिता बढ़ती है और स्मरण शक्ति का विकास होता है। कठिन प्रसंगों में गायत्री द्वारा दैवी सहायता मिलती है। उसके द्वारा आत्म-दर्शन हो सकता है।’

दक्षिण भारत के प्रसिद्ध आत्मज्ञानी टी. सुव्वाराव कहते हैं—‘सविता नारायण की दैवी प्रकृति को गायत्री कहते हैं। आदि-शक्ति होने के कारण इसको गायत्री कहते हैं। गीता में इसका वर्णन ‘आदित्य वर्ण’ कहकर किया गया है। गायत्री की उपासना करना योग का सबसे प्रथम अंग है।’

श्री स्वामी करपात्रीजी का कथन है—‘जो गायत्री के अधिकारी हैं उन्हें नित्य नियमित रूप से जप करना चाहिए। द्विजों के लिए गायत्री का जप अत्यन्त आवश्यक धर्मकृत्य है।’

गीता धर्म के व्याख्याता श्री स्वामी विद्यानन्द कहते हैं—‘गायत्री बुद्धि को पवित्र करती है। बुद्धि की पवित्रता से बढ़कर जीवन में दूसरा लाभ नहीं है इसलिए गायत्री एक बहुत बड़े लाभ की जननी है।’

सर राधाकृष्णन् कहते हैं—‘यदि हम इस सार्वभौमिक प्रार्थना गायत्री पर विचार करें तो हमें मालूम होगा कि यह वास्तव में कितना ठोस लाभ देती है। गायत्री हम में फिर से जीवन का स्रोत उत्पन्न करने वाली आकुल प्रार्थना है।’

प्रसिद्ध आर्यसमाजी महात्मा सर्वदानन्द जी का कथन है—‘गायत्री मन्त्र द्वारा प्रभु का पूजन सदा से आर्यों की रीति रही है। ऋषि दयानन्द ने भी उसी शैली का अनुसरण करके संध्या का विधान तथा वेदों के स्वाध्याय का प्रयत्न करना बताया है। ऐसा करने से अन्तःकरण की शुद्धि तथा बुद्धि निर्मल होकर मनुष्य का जीवन अपने तथा दूसरों के लिए हितकर हो जाता है। जितना ही इस शुभ कर्म में श्रद्धा और विश्वास हो उतना ही अविद्या आदि क्लेशों का ह्रास होता है। जो जिज्ञासु गायत्री मन्त्र का प्रेम और नियम पूर्वक उच्चारण करते हैं, उनके लिए यह संसार-सागर में तरने की नाव और आत्म प्राप्ति की सड़क है।’

आर्य समाज के जन्मदाता श्री स्वामी दयानन्द गायत्री के श्रद्धालु उपासक थे। ग्वालियर के राजा साहब से स्वामीजी ने कहा कि भागवत्-सप्ताह की अपेक्षा गायत्री पुरश्चरण अधिक श्रेष्ठ है। जयपुर में सच्चिदानन्द, हीरालाल रावल, घोड़लसिंह आदि को गायत्री जप की विधि सिखाई थी। सुलतान में उपदेश के समय स्वामीजी ने गायत्री मंत्र का उच्चारण किया और कहा कि यह मन्त्र सबसे श्रेष्ठ है। चारों वेदों का मूल यही गुरुमंत्र है। आदि काल से सभी ऋषि-मुनि इसी का जप किया करते थे। स्वामीजी ने कई स्थानों पर गायत्री अनुष्ठानों का आयोजन कराया था, जिसमें चालीस तक की संख्या में विद्वान् ब्राह्मण बुलाये गये थे। यह जप पन्द्रह दिन तक चले थे। थियोसोफिकल सोसाइटी के एक वरिष्ठ सदस्य प्रो. आर. श्रीनिवास का कथन है—‘‘हिन्दू धार्मिक विचारधारा में गायत्री को सबसे अधिक शक्तिशाली मन्त्र माना गया है। उसका अर्थ भी बड़ा दूरगामी और गूढ़ है। इस मन्त्र के अनेक अर्थ होते हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार की चित्तवृत्ति वाले व्यक्तियों पर इसका प्रभाव भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। इसमें दृष्ट और अदृष्ट, उच्च और नीच, मानव और देव सबको किसी रहस्यमय तन्तु द्वारा एकत्रित कर लेने की शक्ति पाई जाती है। जब इस मन्त्र का अधिकारी व्यक्ति गायत्री के अर्थ और रहस्य, मन और हृदय को एकाग्र करके उसका शुद्ध उच्चारण करता है, तब उसका सम्बन्ध दृश्य सूर्य में अन्तर्निहित महान् चैतन्य शक्ति से स्थापित हो जाता है। वह मनुष्य कहीं भी मन्त्रोच्चारण करता हो पर उसके ऊपर तथा आस-पास के वातावरण में विराट् ‘आध्यात्मिक प्रभाव’ उत्पन्न हो जाता है। यही प्रभाव एक महान् आध्यात्मिक आशीर्वाद है। इन्हीं कारणों से हमारे पूर्वजों ने गायत्री मन्त्र की अनुपम शक्ति के लिए उसकी स्तुतियां की हैं।’’

इन उपाख्यानों में वेद-उपनिषदों से लेकर मनीषियों तक ने एक स्वर से यह स्वीकार किया है कि व्यक्ति की अंतः भूमिका को परिष्कृत कर उसे सुख-समुन्नत बनाने के सारे तत्त्व गायत्री में विद्यमान हैं। एकांगी प्रगति कभी चिरस्थायी नहीं हो सकती, यह गायत्री महामन्त्र की अद्वितीय विशेषता है। स्वार्थ के साथ परमार्थ, लोक के साथ पारलौकिक कल्याण का योग ही परिपूर्ण कहा जा सकता है, यह सारी शिक्षायें गायत्री उपासना में सन्निहित हैं। व्यक्ति के उत्कर्ष के साथ-साथ सारे समाज और विश्व का अभ्युत्थान ही परमात्मा को अभीष्ट है; उस प्रक्रिया को गायत्री उपासना पूर्ण करती है।

इस विश्व में दो शक्तियों काम करती हैं—एक चेतन दूसरी जड़। जड़ पदार्थ देखने में ही स्थिर प्रतीत होते हैं, पर वस्तुतः उनमें भी अद्भुत क्रियाशीलता विद्यमान है। रेत, पर्वत, तालाब आदि को यों मोटी दृष्टि से स्थिर समझा जा सकता है, पर उनमें सृजन, अभिवर्धन और परिवर्तन का जो अनवरत क्रम चलता रहता है, उसे गम्भीरता पूर्वक देखने से प्रतीत होता है कि जीवधारी जिस प्रकार अपने विभिन्न प्रयोजनों में निरन्तर कुछ न कुछ सोचते और करते रहते हैं उसी प्रकार पदार्थ की दृश्य और अदृश्य गतिशीलता भी इस संसार को हलचल युक्त बनाये हुए है। अपनी पृथ्वी से लेकर असंख्य ग्रह-नक्षत्रों तक सभी ब्रह्माण्डीय पिण्ड द्रुतगति से अपनी धुरी और कक्षा पर भ्रमण कर रहे हैं और अपनी आकर्षण शक्ति के द्वारा एक दूसरे के साथ बंधे जकड़े हैं। इतना ही नहीं उनके अन्तःक्षेत्र में भी चित्र-विचित्र गति-विधियां अत्यन्त तीव्रगति से चलती रहती हैं। पदार्थ के साथ यह सक्रियता अविच्छिन्न रूप से जुड़ी होने के कारण ही उसका अस्तित्व बना हुआ है। पदार्थ की संरचना प्रचण्ड क्रियाशीलता के साथ हुई है। इसी के कारण वस्तुएं स्वयमेव—उपजती और बदलती रहती हैं। पदार्थ की इस क्रियाशीलता को अपरा प्रकृति कहा गया है।

परमाणु, पदार्थ की सब से छोटी इकाई है। उसका संयुक्त और विराट रूप है ब्रह्माणु अथवा ब्रह्माण्ड इस जड़ शक्ति का तो यत्किंचित् विश्लेषण अध्ययन हुआ भी है पर चेतना का विवेचन उस तरह सम्भव नहीं है। परन्तु इस शक्ति के कारण ही कोई प्राणी जीवित दिखाई देता है। यों किसी भी प्राणी का शरीर कलेवर तो रासायनिक पदार्थों से ही बना होता है, पर उसकी अंतः चेतना मौलिक है जो पदार्थ की शक्ति से उत्पन्न नहीं होती पर अपने प्रभाव से कलेवर को तथा समीपवर्ती वातावरण को प्रभावित करती है। इसे ही चेतना कहते हैं। चेतना के दो गुण हैं—एक इच्छा और दूसरा आस्था। इच्छा को भाव और विचारणा की बुद्धि कहते हैं। एक को अंतरात्मा तथा दूसरे को मस्तिष्क कहा जा सकता है। मस्तिष्क जो सोचता है उसके मूल में आवास, आस्था, विवेचना एवं विचारणा की सम्मिलित प्रेरणा ही काम करती है। अजीव चेतना को परा प्रकृति कहते हैं।

जड़ पदार्थों के विवेचन विश्लेषण करने वाले विज्ञान को भौतिक विज्ञान कहते हैं और चेतना का विवेचन अध्ययन प्रस्तुत करने वाले विज्ञान को अध्यात्म विज्ञान कहा जा सकता है। गायत्री आध्यात्मिक और भौतिक दोनों ही प्रकार की सूक्ष्म शक्तियों से ओत-प्रोत है। कहा जा चुका है कि परमाणु पदार्थ का सबसे छोटा घटक है। उसका संयुक्त रूप ही ब्रह्मांड है। व्यष्टि और समष्टि के नाम भी इस लघुता और विशालता को जाना जा सकता है। जीवाणु की चेतन सत्ता आत्मा कहलाती है और उसकी समष्टि विश्वात्मा अथवा परमात्मा ब्रह्मांड में भरी क्रियाशीलता से परमाणु प्रभावित होता है। इस बात को यों भी कह सकते हैं कि परमाणुओं की संयुक्त चेतना ब्रह्मांड व्यापी हलचलों का निर्माण करती है। इस प्रकार चेतना के क्षेत्र में इसी तथ्य को परमात्मा द्वारा आत्मा को अनुदान मिलना अथवा आत्माओं की संयुक्त चेतना के रूप में परमात्मा का विनिर्मित होना कुछ भी कहा जा सकता है।

गायत्री को परा और अपरा दोनों ही प्रकृतियों का उद्गम कहा जा सकता है, आध्यात्मिक क्षेत्रों में वह प्रधानतः ब्रह्मतेज के रूप में परिलक्षित होती है, वह परमब्रह्म-परमात्मा का प्रकट स्वरूप है। वह साधक को ब्रह्म निर्वाण पद तक सुविधापूर्वक पहुंचाती है। देवी भागवत पुराण में इस बात को स्पष्ट कर दिया गया है—

परब्रह्म स्वरूपा च निर्वाण पद दायिनी । ब्रह्म तेजोमयीशक्ति अधिष्ठातृ देवता ।।

अर्थात्—गायत्री परब्रह्मस्वरूप तथा निर्वाण पद देने वाली है। वह ब्रह्म तेज शक्ति की अधिष्ठात्री देवी है।

गायत्री क्या है? इस ब्रह्मांड में से व्याप्त उस चेतना मान सरोवर को गायत्री कह सकते हैं जो प्राणियों में ज्ञान संवेदना और पदार्थों में सृजन परिवर्तन वाली क्रिया शीलता काम करती है। इसे ब्रह्म चेतना से उद्भूत माना गया है।

सृष्टि का विकास और विस्तार एक ही केन्द्र बिन्दु से हुआ है यह बात प्रकारान्तर से पश्चिमी विद्वान और भारतीय दार्शनिक दोनों ही मानते हैं। खगोल शास्त्रियों के मत में भी यह प्रारम्भ में एक ही महत्तत्व था उसमें विस्फोट हुआ और तब से पदार्थ मन्दाकिनियों के रूप में बहना प्रारम्भ हुआ जिससे ग्रह-नक्षत्रों वाली सृष्टि की संरचना हुई। इस भौतिकवादी मान्यता में पदार्थ के लिये स्थान तो है पर चेतना के लिये न होने से अपूर्ण जैसा है।

भारतीय मनीषियों की गवेषणाएं इससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। हमारे यहां की भी मान्यता यही है कि प्रारम्भ में एक मात्र सत्-तत्त्व वाली ब्राह्मी चेतना ही थी। उसके नाभि देश से स्फुरणा हुई ‘‘एकोऽहं बहुस्याम’’, मैं एक हूं बहुत हो जाऊं। उनकी यह इच्छा ही शक्ति बन गई और विश्व व्यवस्थापिका महाप्रकृति कहलाई उसी को गायत्री कहते हैं। आध्यात्मिक भाषा में यह शक्ति सत, रज, तम तीन शक्तियों में विभक्त होती है। गायत्री महाविज्ञान में उन्हें ही गायत्री की ‘‘ह्री’’ अर्थात् ज्ञान शक्ति या सरस्वती रूप ‘‘श्री’’ अर्थात्—साधन या लक्ष्मी-रूप ‘क्लीं’ शक्ति प्रधान अर्थात् काली रूप कहा गया है। परमेश्वर और प्रकृति के संयोग से मिश्रित रज सत्ता उत्पन्न हुई ‘वही’ जीव कहलाई। जिस तरह पुत्र में मां और पिता दोनों के ही युग सूत्र (क्रोमोसोम) विद्यमान रहते हैं उसी तरह जीव सत्ता में अपने पिता और माता दोनों की सत्ता विद्यमान रहती है। बालक अधिकांश जीवन अपनी मां के सहारे व्यतीत करता है वह उसकी प्रकृति के अधिक अनुकूल पड़ती है इस तथ्य को भारतीय तत्त्व दर्शियों ने बहुत गम्भीरता से अनुभव किया था। इसीलिए गायत्री उपासना को इतना महत्त्व दिया गया। उसमें भक्ति और कर्म, ज्ञान और वैराग्य सभी का समन्वय होने से गायत्री तत्त्वज्ञान लोक-परलोक दोनों में ही सहायक होता है।

सूक्ष्म प्रकृति वह है, जो आद्य शक्ति गायत्री से उत्पन्न होकर सरस्वती लक्ष्मी, दुर्गा में बंटती है। सर्वव्यापी शक्ति-निर्झरिणी पंच तत्त्वों से कहीं अधिक सूक्ष्म है। जैसे नदियों के प्रवाह में जल की लहरों का वायु के आघात होने का कारण ‘कलकल’ से मिलती-जुलती ध्वनियां उठा करती हैं, वैसे ही सूक्ष्म प्रकृति की शक्ति धाराओं से तीन प्रकार की शब्द-ध्वनियां उठती हैं। सत् प्रवाह में ‘ह्रीं’, रज प्रवाह में ‘श्री’ और तम प्रवाह में ‘क्लीं’ शब्द में मिलती जुलती ध्वनि उत्पन्न होती है। उससे भी सूक्ष्म ब्रह्म का ॐकार ध्वनि प्रवाह है। नादयोग की साधना करने वाले ध्यानमग्न होकर इन ध्वनियों को पकड़ते हैं उनका सहारा पकड़ते हुए ब्रह्म सायुज्य तक आ पहुंचते हैं। प्राचीनकाल में हमारे पूजनीय पूर्वजों, ने ऋषि-मुनियों ने अपनी सुतीक्ष्ण दृष्टि से विज्ञान के इस सूक्ष्म तत्त्व को पकड़ा था, उसी की शोध और सफलता में अपनी हस्तियों को लगाया था। फलस्वरूप वे वर्तमान काल के यशस्वी भौतिक विज्ञान की अपेक्षा अनेक गुने लाभों से लाभान्वित होने में समर्थ हुए थे। वे आदि शक्ति के सूक्ष्म शक्ति प्रवाहों पर अपना अधिकार स्थापित करते थे। यह प्रकट तथ्य है कि मनुष्य के शरीर से अनेक प्रकार की शक्तियों का आविर्भाव होता है। हमारे ऋषिगण योग द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में छिपे पड़े हुए शक्ति-केन्द्रों को, चक्रों को, ग्रन्थियों को, मातृकाओं को, ज्योतियों को, भ्रमरों को जगाते थे और उस जागरण से जो शक्ति प्रवाह उत्पन्न होता था, उसे आद्य शक्ति के विभिन्न प्रवाहों में से जिनके साथ आवश्यकता होती थी उनके साथ सम्बन्धित कर देते थे जैसे रेडियो का स्टेशन के ट्रान्समीटर यन्त्र से सम्बन्ध स्थापित कर दिया जाता है तो दोनों की विद्युत शक्तियां सम श्रेणी की होने के कारण आपस में सम्बन्धित हो जाती हैं तथा उस स्टेशनों के बीच आपसी वार्तालाप का, सम्वादों के आदान प्रदान का सिलसिला चल पड़ता है। इसी प्रकार साधना द्वारा शरीर के अन्तर्गत छिपे हुए और तन्द्रित पड़े हुए केन्द्रों का जागरण करके सूक्ष्म प्रकृति के शक्ति प्रवाहों से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तो मनुष्य और आद्य शक्ति आपस में सम्बन्धित हो जाते हैं। इस सम्बन्ध के कारण मनुष्य उस आद्य शक्ति के गर्भ में भरे हुए रहस्यों को समझने लगता है और अपनी इच्छा कुछ है वह सब उस आद्य शक्ति के भीतर है इसलिए वह सम्बन्धित शक्ति भी संसार के सब पदार्थों और साधनों से अपना सम्बन्ध स्थापित कर सकती है।

वर्तमान काल के वैज्ञानिक पंचतत्त्वों की सीमा तक सीमित स्थल प्रकृति के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए बड़ी-बड़ी कीमती मशीनों का, विद्युत, वाष्प, गैस, पेट्रोल आदि का प्रयोग करके कुछ आविष्कार करते हैं और थोड़ा-सा लाभ उठाते हैं। यह तरीका बड़ा श्रम-साध्य, धनसाध्य और समय साध्य है। उसमें खराबी, टूट-फूट और परिवर्तन की खटपट भी आये दिन लगी रहती है। उन यन्त्रों की स्थापना, सुरक्षा और निर्माण के लिए हर समय काम जारी रखना पड़ता है तथा उनका स्थान परिवर्तन तो और भी कठिन होता है। यह सब झंझट भारतीय योग विज्ञान के विज्ञानवेत्ताओं के सामने नहीं थे। वे बिना किसी यन्त्र की सहायता के तथा बिना संचालक, पेट्रोल, आदि के, केवल अपने शरीर के शक्ति केन्द्रों का सम्बन्ध सूक्ष्म प्रकृति से स्थापित करके ऐसे आश्चर्यजनक कार्य कर लेते थे, जिनकी सम्भावना तक को आज के भौतिक विज्ञानी समझने में समर्थ नहीं हो पा रहे हैं।

इन उपलब्धियों का आधार है साधना। व्यक्ति साधना द्वारा अपनी पात्रता का विकास करता हुआ उस महाशक्ति से लाभान्वित हो सकता है। यह महाशक्ति सत्, रज और तम इन तीनों प्रकृतियों को प्रमाणित कर मनुष्य जीवन में ज्ञान, क्रिया और आराधना के रूप में प्रकट होती है तथा उपासक को ज्ञानवान्, क्रियाशील और धनवान बना देती है।

गायत्री साधना द्वारा जो व्यक्ति आत्मिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए प्रयत्न करते हैं वे अपनी अन्तर्निहित क्षमताओं को जागृत कर, उन पर अधिकार प्राप्त कर उन्हें वैसा ही उपयोगी बना लेते हैं जैसे बिजली, एटम, माप आदि की शक्तियों पर अधिकार प्राप्त करके आज वैज्ञानिकों ने उन्हें मनुष्य की सेवा में प्रयुक्त कर दिया है। भौतिक जगत में जो शक्ति, भौतिक सम्पन्न दिखाई पड़ती है वही अन्तर्जगत में आध्यात्मिक क्षमता के रूप में प्रकट होती है। गायत्री की आध्यात्मिक शक्ति साधक के सामने वैसे ही सौभाग्य कहे जाने जैसे अवसर प्रस्तुत करती है।

गायत्री उपासना का छुट-पुट लाभ कोई भी उठा सकता है। सकाम उपासनायें बीज मन्त्रों का प्रभाव, अनुष्ठान एवं पुरश्चरणों की श्रृंखला अपने ढंग के लाभ प्रदान करती रहती हैं, उनके द्वारा साधक के छुट-पुट कष्ट दूर होने एवं अभीष्ट सफलताएं प्राप्त होने का क्रम चलता रहता है। ऐसे लाभ और चमत्कार आये दिन देखने को मिलते रहते हैं, पर यह सब हैं छोटे स्तर की वस्तुएं। अमुक कष्ट को दूर कर लेना या अमुक सफलता को प्राप्त कर लेना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। ऐसा लाभ तो भौतिक प्रयत्नों से भी प्राप्त किया जा सकता है। उपासना का लाभ तो अन्तरात्मा को अनन्त सामर्थ्य से भर देना और चन्दन के वृक्ष की तरह स्वयं ही सुगन्धित होने के साथ-साथ समीपवर्ती झाड़-झंखाड़ों को भी अपने ही समान सुरभित कर देना है। ऐसा उच्चस्तरीय लाभ प्राप्त करने के लिए मनुष्य को ब्राह्मणत्व के अनुरूप गुण, कर्म, स्वभाव अपने में उत्पन्न करने पड़ते हैं। तभी वह खजाना मिलता है, जिसके लिए ब्रह्मविद्या ने ब्राह्मण का उद्बोधन करते हुए उसे उस महान भाण्डागार को हस्तगत कर लेने की प्रेरणा दी है। गायत्री महामंत्र में जिन देव-शक्तियों का समावेश है वे सत्पात्र पर ही अवतरित होती हैं। स्वर्ग से उतरकर गंगा पृथ्वी पर आई तो उनके धारण करने के लिए शिवजी को अपनी जटाएं फैलाकर अवतरण की पृष्ठभूमि तैयार करनी पड़ी थी। भागीरथ के तप से प्रसन्न होकर गंगा ने पृथ्वी पर उतरने का वरदान तो दिया था पर साथ ही यह भी कह दिया था कि यदि मेरी धारा को संभालने वाली भूमिका न बनी तो धारा पृथ्वी में छेद करती हुई पाताल को चली जायगी, उसका लाभ भूलोक वासियों को न मिल सकेगा। इस आवश्यकता की पूर्ति जब शंकर भगवान ने करदी तभी गंगा अवतरण सम्भव हो सका। गायत्री महाशक्ति की भी ठीक यही स्थिति है उसे धारण करने के लिए समर्थ पृष्ठ-भूमि की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है और इस आवश्यकता की पूर्ति ब्राह्मणत्व के गुण, कर्म, स्वभाव से सम्पन्न साधक ही कर सकता है। ऐसा ब्राह्मण मन्त्र की महाशक्ति को अपने में धारण कर सकता है और उससे व्यक्ति एवं समाज का महान उपकार साध सकता है। कहा भी है—

दैवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवता । ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीनास्तत्स्याद् विप्रोहि देवता ।।

—मत्स्य पुराण

‘‘देवताओं के आधीन सब संसार है। वे देवता मन्त्रों के आधीन हैं। वे मन्त्र ब्राह्मण द्वारा प्रयुक्त होते हैं, इसलिए ब्राह्मण भी देवता हैं।’’

महर्षि वशिष्ठ इसी प्रकार के सुर-पृथ्वी के देवता थे। उनके पास नन्दिनी कामधेनु—अर्थात् गायत्री की महाशक्ति थी। राजा विश्वामित्र के साथ जब वशिष्ठ का युद्ध हुआ और राजा की विशाल सेना परास्त हो गई तो विश्वामित्र के मुख से यही निकला—‘‘धिग् बलं क्षत्रिय बलं—ब्रह्म तेजो बलम्-बलम्’’ अर्थात् भौतिक बल धिक्कारने योग्य, तुच्छ एवं नगण्य है। वास्तविक बल तो ब्रह्मबल ही है। वही मन्त्रबल है, वही सच्चा बल है। यह कहते हुए विश्वामित्र ने राजपाट का परित्याग कर दिया और ब्रह्मबल प्राप्त करने के लिए तप करने लगे।

गायत्री ब्रह्म-शक्ति के स्वरूप क्रिया-कलाप एवं उपयोग को शास्त्रों में अनेक उदाहरणों के साथ बताया गया है। कहीं तो उस शक्ति ने स्वयं ही अपने स्वरूप का परिचय दिया है और कहीं देवताओं ने अथवा ऋषियों ने स्तवन के रूप में उसके स्वरूप का गुणगान सहित वर्णन किया है। इन वर्णनों के आधार पर यह जाना जा सकता है कि गायत्री शक्ति तत्त्व का इस संसार में कहां, किस प्रकार उपयोग हो रहा है?

गायत्री परदेवतेति गहिता ब्रह्मैव चिद्रूपिणी । यह गायत्री सबसे परा देवता है—ऐसा कहा गया है। यह चित् स्वरूप वाली साक्षात् ब्रह्म ही है।

गायत्री तु परं तत्त्वं गायत्री परमागतिः । —वृद्ध पाराशर 5।4

गायत्री ही परम तत्त्व है। गायत्री ही परमगति है। गायत्री सा महेशानी परब्रह्मात्मिका यता । —रुद्र तन्त्र

यह गायत्री ही परब्रह्मात्मिका और महेश्वरी है। गायत्री परदेवतेति गहिता ब्रह्मात्मिका और महेश्वरी है। —गायत्री पुरश्चरण पद्धति

वही अक्षर ब्रह्म है। वह तत्सवितुर्वरेण्यं प्रज्ञा है। सुविस्तृत परा शक्ति है। या देवती सर्व भूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।। इन्द्रियाणामधिण्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या । भूतेषु सततं तस्यै व्याप्त्यै देव्यै नमो नमः । —मार्कण्डेय पुराण

जो महाशक्ति सम्पूर्ण प्राणियों में शक्ति रूप विद्यमान है। इन्द्रियों की अधिष्ठात्री देवी है एवं पंच तत्त्वों की संचालिका है उसे बार-बार नमस्कार।

गायत्री वा इद-सर्वं भूतं यदिदं किं च वाग्वै गायत्री वाग्वा इद-सर्व भूतं गायति च त्रायते च । या वै सा गायत्रीयं वाव सा येयं पृथिव्यास्या-हीद-सर्वं भूतं प्रतिष्ठितमेतामेव नातिशीयते । —छान्दोग्य 3। 12। 1। 2

गायत्री समस्त पंच भूतों में व्याप्त है। जो कुछ यहां है सो सब गायत्री ही है। वाणी ही गायत्री है। यह वाणी ही वर्णन और रक्षण करती है। यह पृथ्वी गायत्री है जिसमें सम्पूर्ण प्राणी रहते हैं।

सेषा चतुष्पदा षड्विधा गायत्री तदेतदृचाभ्यनूत्तम । तावानस्य महिमा ततो ज्याया-श्च पूरुषाः पादोस्य सर्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवीति । —छान्दोग्य 3। 12। 5

यह गायत्री चार पद वाली और छह भेदों वाली है। इस गायत्री की अविच्छिन्न महिमा है। यह तीन पाद वाला परम पुरुष अमृत और प्रकाश बनकर आत्मा में स्थित हो। इसका एक पद सन्तोष विश्व है।

गायत्री की चेतनात्मक धारा सद्बुद्धि के—ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में काम करती है और जहां उसका निवास होता है वहां ब्राह्मणत्व एवं देवत्व का अनुदान बरसता चला जाता है, साथ ही आत्मबल के साथ जुड़ी हुई दिव्य-विभूतियां भी उस व्यक्ति में बढ़ती जाती हैं।

गायत्री को ब्राह्मण का मन्त्र कहा जाता है, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ब्राह्मण बिरादरी के अतिरिक्त दूसरी बिरादरी वाले उसकी साधना नहीं कर सकते, वरन् इसका तात्पर्य यह है कि जो इस महाशक्ति का परिपूर्ण लाभ उठाना चाहें उन्हें जप, तप ही नहीं अपने व्यावहारिक जीवन में ब्राह्मण का अवतरण भी करना चाहिए। चरित्र जितना शुद्ध होगा यह महामन्त्र उतना ही प्रखर लाभ पहुंचायेगा चरित्रवान व्यक्ति की थोड़ी सी उपासना भी इतना अद्भुत लाभ दिखाती है, जितनी कि दुष्चरित्र एवं व्यक्ति के आजीवन क्रियाकृत्य भी नहीं कर सकते। ब्राह्मणत्व यदि अपने भीतर पैदा कर लिया जया तो गायत्री उपासना के जो लाभ शास्त्रकारों ने बताये हैं उनकी सत्यता अक्षरशः प्रत्यक्ष की जा सकती है।

गायत्री जप के कितने महत्त्वपूर्ण लाभ हैं, इसका आभास निम्नलिखित थोड़े से प्रमाणों से जाना जा सकता है—

सर्वेषां वेदानां गुह्योपनिषत्सारभूतां ततो गायत्रीं जपेत् । —छान्दोग्य परिशिष्टम्

‘गायत्री’ समस्त वेदों का और गुह्य उपनिषदों का सार है इसलिए गायत्री मन्त्र का नित्य जप करें।

सर्ववेद सार भूत गायत्र्यास्तु समर्चना । ब्रह्मादयोपि संध्यायां तां ध्यायन्ति जपन्ति च ।। —दे. भा. स्क. 16 अ. 16।15

गायत्री मन्त्र की आराधना समस्त वेदों का सारभूत है। ब्रह्मादि देवता भी सन्ध्या काल में गायत्री का ध्यान करते हैं और जप करते हैं।

गायत्री मात्र निष्णातो द्विजो मोक्षमवाप्नुयात् । —दे. भा. स्क. 12 अ. 8।90

गायत्री मन्त्र की उपासना करने वाला ब्राह्मण भी मोक्ष को प्राप्त होता है। ऐहिकामुष्किकं सर्व गायत्री जपतो भवेत् । —अग्निपुराण

गायत्री जपने वाले को सांसारिक और पारलौकिक समस्त सुख प्राप्त हो जाते हैं। —मनुस्मृति

योऽधीतेऽहन्यहन्येतां त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रितः । स ब्रह्म परमभयेति वायुभूताः स्वमूर्तिमान् ।।

जो मनुष्य तीन वर्ष तक प्रतिदिन गायत्री मन्त्र, जपता है, वह अवश्य ब्रह्म को प्राप्त करता है और वायु के समान स्वेच्छा गमन वाला होता है।

कुर्यादन्यन्न वा कुर्यात् इति प्राह मनुः स्वयम् । अक्षयमोक्षमवाप्नोति गायत्री मात्र जापनात् ।। —शौनक

इस प्रकार मनुजी ने स्वयं कहा है कि अन्य देवताओं की उपासना करे या न करे केवल गायत्री के जप से द्विज अक्षय मोक्ष को प्राप्त होता है।

ओंकार सहितां जपन् तां च व्याहृतिपूर्वकम् । संध्यायोर्वेदविद्विप्रो वेद-पुण्येन मुच्यते ।। —मनुस्मृति अ. 2। 78

जो ब्राह्मण दोनों संध्याओं में प्रणव-व्याहृति सहित गायत्री मन्त्र का जप करता है, वह वेदों के पढ़ने के फल को प्राप्त करता है।

गायत्रीं जपते यस्तु द्विकालं ब्राह्मणः सदा । असत्प्रतिगृहीतोपि स याति परमां गतिम् ।। —अग्नि पुराण

जो ब्राह्मण सदा सायंकाल और प्रातःकाल गायत्री का जप करता है वह ब्राह्मण अयोग्य प्रतिग्रह लेने पर भी परमगति को प्राप्त होता है।

सकृदपि जपेद्विद्वान् गायत्रीं परमाक्षरीम् । तत्क्षणात् संभवेत्सिद्धिर्ब्रह्म सायुज्यमाप्नुयात् ।। —गायत्री पुरश्चरण 28

श्रेष्ठ अक्षरों वाली गायत्री को विद्वान यदि एक बार भी जपे तो तत्क्षण सिद्धि होती है और वह ब्रह्मा की सायुज्यता को प्राप्त करता है।

जप्येनैव तु संसिद्धयेत् ब्राह्मणो नात्र संशयः । कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते ।। —मनु. 97

ब्राह्मण अन्य कुछ करे या न करे, परन्तु वह केवल गायत्री से ही सिद्धि पा सकता है।

नास्ति गंगा समं तीर्थ न देवः केशवात्परः । गायत्र्यास्तु परं जापं न भूतं न भविष्यति ।। —वृ. यो. याज्ञ. अ. 102-79

गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है, केशव से श्रेष्ठ कोई देवता नहीं है। गायत्री मन्त्र के जप से श्रेष्ठ कोई जप न आज तक हुआ और न होगा।

सर्वेषां जप सूक्तानामृचश्च यजुषां तथा । साम्नां चैकाक्षरादीनां गायली परमो जपः ।। —वृ. पाराशर स्मृति अ. 4।4

समस्त जप सूक्तों में ऋक्-यजु सामवेदों में तथा एकाक्षरादि मन्त्रों में गायत्री मन्त्र का जप परम श्रेष्ठ है।

यथा मधु च पुष्पेभ्यो घृतं दुग्धाद्रसात्यः । एवं हि सर्ववेदानां गायत्रा सार उच्यते ।। —व्यास

‘जिस प्रकार पुष्पों का सारभूत मधु, दूध का घृत, रसों का सारभूत पय है, उसी प्रकार गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार है।’

तदित्पृचः समो नास्ति मन्त्रो वेदचतुष्टये । सर्वे वेदाश्चं चज्ञाश्चं दानानि च तपांसि च ।। समानि कलया प्राहुर्मुनयो न तदित्यृ च ।। —विश्वामित्र

‘गायत्री मन्त्र के समान मन्त्र चारों वेदों में नहीं है। सम्पूर्ण वेद, यज्ञ, दान, तप, गायत्री मन्त्र की एक कला के समान भी नहीं है, ऐसा मुनि लोग कहते हैं।’

सोमादित्यान्वयाः सर्वे राघवाः कुरवस्तथा । पठन्ति शुचयो नित्यं सावित्री परमां गतिम् ।। —महाभारत अनु. पर्व अ. 15।78

‘हे युधिष्ठिर! सम्पूर्ण चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, रघुवंशी, तथा कुरुवंशी नित्य ही पवित्र होकर परम गतिदायक गायत्री मन्त्र का जप करते हैं।’

एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामः परन्तपाः । सावित्र्यास्तु परन्नस्ति पावनं परमं स्मृतम् ।। मनुस्मृति अ. 2।83

‘एकाक्षर अर्थात् ‘ॐ’ परब्रह्म है। प्राणायाम परम तप है और गायत्री मन्त्र से बढ़कर पवित्र करने वाला कोई भी मन्त्र नहीं है।’

गायत्र्याः परमं नास्ति दिवि चेह न पावनम् । हस्तत्राण प्रदा देवीं पततां नरकार्णवे ।। —शंख-स्मृति अ. 2।83

‘नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़कर बचाने वाली गायत्री के समान पवित्र करने वाली वस्तु या मन्त्र पृथ्वी पर तथा स्वर्ग में भी नहीं है।’

गायत्री संहिता में भी कहा गया है— यथा पूर्वस्थितिञ्चैव न द्रव्यं कार्य-साधकम् । महासाधनतोऽप्यस्मान्नाज्ञो लाभं तथाप्नुते ।।80।।

जिस प्रकार धन पार में रहने से ही कार्य सिद्ध नहीं हो जाता, उसी प्रकार से मूर्ख मनुष्य इस महासाधन से लाभ प्राप्त नहीं कर सकता।

साधकः कुरुते यस्तु तन्त्रशक्तेरपव्ययः । तं विनाशयति सैव समूलं नात्र संशयः ।।81।।

जो साधक मन्त्रशक्ति का दुरुपयोग करता है उसको वह शक्ति ही समूल नष्ट कर देती है।

सततं साधनाभिर्यो याति साधकतां नरः । स्पप्नावस्थासु जायन्ते यस्य दिव्यानुभूतयः ।।82।।

जो मनुष्य निरन्तर साधना करने से साधकत्व को प्राप्त हो जाता है उस व्यक्ति को स्वप्नावस्था में दिव्य अनुभव होते हैं।

सफलः साधको लोके प्राप्नुतेऽनुभवान् नवान् । विचित्रान् विविधांश्चैव साधनासिद्ध्यनन्तरम् ।।83।।

संसार में सफल साधक नवीन और विचित्र प्रकार के विविध अनुभवों को साधना की सिद्धि के पश्चात् प्राप्त करता है।

भिन्नाभिर्विधिभि बुद्ध्या भिन्नासृ कार्यपंक्तिसु । गायत्र्याः सिद्ध मन्त्रस्य प्रयोगः क्रियते बुधैः ।।84।।

बुद्धिमान् पुरुष भिन्न-भिन्न कार्यों में गायत्री के सिद्ध हुए मन्त्र का प्रयोग भिन्न-भिन्न विधि से विवेकपूर्वक करता है।

इस प्रकार शास्त्रों में गायत्री मंत्र से होने वाले अनेक लाभों का विवरण कई स्थानों पर मिलता है। यह अनायास या गुणानुवाद ही नहीं है। मंत्रों के माध्यम से सिद्धि और भौतिक तथा आध्यात्मिक लाभ विज्ञानसम्मत है। अगले पृष्ठों पर हम देखेंगे कि मंत्रों के माध्यम से विश्वव्यापी ब्रह्मांड चेतना की शक्ति से किस प्रकार लाभ मिलता है।
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