गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी और यज्ञ को भारतीय धर्म का पिता कहा गया है। उसे वेदमाता-देवमाता एवं विश्वमाता कहा गया है। वेदों से लेकर धर्म शास्त्रों तक का समस्त दिव्य ज्ञान गायत्री के बीजाक्षरों का ही विस्तार है। योग साधना और तपश्चर्या को शक्ति-धाराएं गायत्री के हिमालय से ही प्रकटी हैं। उसकी साधना के सत्परिणाम अमृत-कल्पवृक्ष-कामधेनु और ब्रह्मानन्द बताये गये हैं। पांच प्रमुख देवताओं के यही पांच वरदान हैं। इसी रहस्य के कारण उसका एक स्वरूप पांच मुख वाला भी चित्रित किया जाता है। भौतिक सिद्धियों और आत्मिक विभूतियों के अनन्त भण्डार इस महाशक्ति के अन्तराल में छिपे पड़े हैं। साधना से सिद्धि का सिद्धान्त विधिवत् गायत्री साधना से प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो सकता है। सांसारिक संकटों में भी गायत्री उपासना वरदान की तरह सिद्ध होती है। आद्या गायत्री माता का अंचल पकड़ने वाला कभी निराश नहीं हुआ।
गायत्री मन्त्र में चौबीस अक्षर हैं। तत्त्वज्ञानियों ने इन अक्षरों में बीज रूप में विद्यमान उन शक्तियों को पहचाना जिन्हें चौबीस अवतार, चौबीस ऋषि, चौबीस शक्तियां तथा चौबीस सिद्धियां कहा जाता है। देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि इसी उपासना के सहारे उच्च पदासीन हुये हैं। ‘अणोरणीयान महतो महीयान’ यही महाशक्ति है। छोटे से छोटा चौबीस अक्षर का कलेवर, उसमें ज्ञान और विज्ञान का सम्पूर्ण भाण्डागार भरा हुआ है। सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं जो गायत्री में न हो। उसकी उच्चस्तरीय साधनायें कठिन और विशिष्ट भी हैं पर साथ ही सरल भी इतनी हैं कि उन्हें हर स्थिति में बड़ी सरलता और सुविधाओं के साथ सम्पन्न कर सकता है। इसी से उसे सार्वजनीन और सार्वभौम माना गया। नर-नारी, बाल-वृद्ध बिना किसी जाति व सम्प्रदाय भेद के उसकी आराधना प्रसन्नता पूर्वक कर सकते हैं और अपनी श्रद्धा के अनुरूप लाभ उठा सकते हैं।
गायत्री के ही चार चरणों की व्याख्या स्वरूप चार वेद बने हैं, इसलिए गायत्री को वेदमाता कहते हैं। ज्ञान की विवेचना में ही अन्य शास्त्र-पुराण रचे गये हैं। भारतीय तत्त्वदर्शन और ज्ञान-विज्ञान गायत्री बीज से ही उत्पन्न हैं। इसी की उपासना-आराधना के सहारे प्राचीन भारत के महान नागरिक देवोपम बने थे, अतएव गायत्री को देवमाता भी कहा गया।