रक्त संचार, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन प्रकुंचन, ग्रहण विसर्जन स्थगन—परिभ्रमण, विश्राम, स्फुरणा, शीत-ताप जैसे परस्पर विरोधी अथवा पूरक अगणित क्रिया कलाप शरीर के अंग अवयवों में निरन्तर होते रहते हैं। हर हलचल ध्वनि तरंगें उत्पन्न करती है। ऐसी दशा में उनका शब्द प्रवाह उपयुक्त स्थिति में कानों तक पहुंच ही सकता है और संवेदनशील कर्णेन्द्रिय उन्हें भली प्रकार सुन भी सकती है।
कान जैसा कोई इलैक्ट्रानिक यंत्र मनुष्य द्वारा बन सकना सम्भव नहीं। क्योंकि कान में ऐसी सम्वेदनशील झिल्ली लगाई गई है जिसकी मोटाई एक इंच को 2500 मिलियन (एक मिलियन बराबर दस लाख) है। इतनी हलकी साथ ही इतनी संवेदनशील ध्वनि ग्राहक वस्तु बन सकना मानवीय कर्तृत्व से बाहर की बात है। सुनने के प्रयोजन में काम आने वाले मानव निर्मित यन्त्रों की तुलना में कान की संवेदनशीलता दस हजार गुनी है। हमारे कान लगभग 4 लाख प्रकार की आवाज पहचान सकते हैं और उनके भेद प्रभेद का परिचय पा सकते हैं। सौ वाद्य यंत्रों के समन्वय से बजने वाला आर्केस्ट्रा सुन कर उनसे निकलने वाली ध्वनियों का विश्लेषण प्रस्तुत करने वाले कान कितने ही संगीतज्ञों के देखे गये हैं। शतावधानी लोग सौ शब्द श्रृंखलाओं के क्रमबद्ध रूप से सुनने और उन्हें मस्तिष्क में धारण कर सकने में समर्थ होते हैं। कहते हैं कि पृथ्वीराज चौहान ने घण्टे पर पड़ी हुई चोट को सुनकर उसकी दूरी की सही स्थिति विदित करली थी।
कानों की झिल्ली आवाज की बिखरी लहरों को एक स्थान पर केन्द्रित करके भीतर की नली में भेजती है। वहां वे तरंगें विद्युत कणों में बदलती हैं। इसी केन्द्र में तीन छोटी किन्तु अति सम्वेदनशील हड्डियां जुड़ती हैं, वे परस्पर मिलकर एक पिस्टन का काम करती हैं। इसके आगे लसिका युक्त घोंघे की आकृति वाले ग्वहर में पहुंचते पहुंचते आवाज का स्वरूप फिर स्पष्ट हो जाता है। इस तीसरे भाग की झिल्ली का सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से है। कान के बाहरी पर्दे पर टकराने वाली आवाज को लगभग 3200 कणिकाओं द्वारा आगे धकेला जाता है और मस्तिष्क तक पहुंचने में उसे सेकिण्ड के हजारवें भाग से भी कम समय लगता है। मस्तिष्क उसे स्मरण शक्ति के कोष्ठकों में वितरित विभाजित करता है। वह स्मरण शक्ति पूर्व अनुभवों की आवाज पर भी यह निर्णय करती है कि यह आवाज तुरही की है या घड़ियाल की। सुनने की प्रक्रिया का अन्तिम रूप यहीं आकर एक बहुत बड़ी—किन्तु स्वल्प समय में पूरी होने वाली प्रक्रिया के उपरान्त मिलता है।
वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में साउण्ड प्रूफ आडीओमेट्री कक्ष बनाए जाते हैं जिनमें कान की श्रवण संबंधी संवेदनशीलता की जांच की जाती है। न्यूजर्सी की एक प्रयोगशाला में ऐसे ही एक प्रयोग के दौरान एक चिकित्सक को विचित्र अनुभूति हुई।
इसमें प्रवेश करने पर कुछ ही समय में सीटी बजने, रेल चलने, झरने गिरने, आग जलने, पानी बरसने के समय होने वाली आवाजों जैसी ध्वनियां सुनाई पड़ती थीं। इस प्रयोग को कितने ही मनुष्यों ने अनुभव किया, बात यह थी कि शरीर के भीतर जो विविध क्रिया कलाप होते रहते हैं उनसे ध्वनियां उत्पन्न होती हैं। वे इतनी हलकी होती हैं कि बाहर होते रहने वाले ध्वनि प्रवाह में वे एक प्रकार से खो जाती हैं। नक्कार खाने में तूती की आवाज की तरह यह भीतरी अवयवों की ध्वनियां कानों तक नहीं पहुंच पाती, पहुंचती हैं तो वायु मण्डल में चल रहे शब्द कम्पनों की तुलना में अपनी लघुता के कारण उनका स्वल्प अस्तित्व अनुभव में होता हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पर जब बाहर की आवाज रोक दी गई और केवल भीतर की ध्वनियों को मुखरित होने का अवसर मिलता तो वे इतनी स्पष्ट सुनाई देने लगीं मानो वे अंग अपनी गतिविधियों की सूचना चिल्ला-चिल्ला कर दे रहे हों। इससे स्पष्ट होता है कि इन्द्रियों की शक्ति का यदि अभिवर्धन अभ्यास किया जाय तो उनकी क्षमता में असाधारण और आश्चर्यजनक वृद्धि हो सकती है। कर्णेन्द्रियों का विकास इतना अधिक हो सकता है कि वह दूरगामी, हलकी आवाजें भी अच्छी तरह सुनलें भीड़ के चहल-पहल के सम्मिश्रित शब्द घोष में से अपने परिचितों की आवाज छांट और पकड़ ले। घुसफुस की—कानाफूसी की आवाजों को भी कर्णेन्द्रिय की प्रखरता को तीव्र बनाने पर सुना जा सकता है। ऐसी विशेषताएं कइयों में जन्म-जात होती हैं किन्हीं में प्रयत्न पूर्वक अभ्यास करने से विकसित होती हैं।
यह तो स्थूल कर्णेन्द्रिय के निकटवर्ती उच्चारणों को सुनने, समझने की बात हुई। इससे भी बढ़कर बात यह है कि सूक्ष्म और कारण शरीरों में सन्निहित श्रवण शक्ति को यदि विकसित किया जा सके तो अन्तरिक्ष में निरन्तर प्रवाहित होने वाली उन ध्वनियों को भी सुना जा सकता है जो चमड़े से बने कानों की पकड़ से बाहर हैं।
सिकन्दर में यह गुण था—
उस समय की बात है जब सिकन्दर पंजाब की सीमा पर आ पहुंचा। एक दिन, रात को उसने अपने पहरेदारों को बुलाया और पूछा यह गाने की आवाज कहां से आ रही है? पहरेदारों ने बहुत ध्यान लगाकर सुनने की कोशिश की पर उन्हें तो झींगुर की भी आवाज न सुनाई दी। भौचक्के पहरेदार एक दूसरे का मुंह देखने लगे, बोले महाराज! हमें तो कहीं से भी गाने की आवाज सुनाई नहीं दे रही।
दूसरे दिन सिकन्दर को फिर वही ध्वनि सुनाई दी, उसने अपने सेनापति को बुलाकर कहा—देखो जी! किसी के गाने की आवाज से मेरी नींद टूट जाती है। पता तो लगाना यह रात को कौन गाना गाता है। सेनापति ने भी बहुतेरा ध्यान से सुनने का प्रयत्न किया किन्तु उसे भी कहीं से कोई आवाज सुनाई नहीं दी। मन में तो आया कि कह दें आपको भ्रम हो रहा है पर सिकन्दर का भय क्या कम था, धीरे से बोला—महाराज! बहुत प्रयत्न करने पर भी कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा लेकिन अभी सैनिकों को आपकी बताई दिशा में भेजता हूं अभी पता लगा कर लाते हैं कौन गा रहा है।
चुस्त घुड़सवार दौड़ाये गये। जिस दिशा से सिकन्दर ने आवाज का आना बताया था—घुड़सवार सैनिक उधर ही बढ़ते गये बहुत पास जाने पर उन्हें एक ग्रामीण के गाने का स्वर सुनाई पड़ा पता चला कि वह स्थान सिकन्दर के राज प्रासाद से 10 मील दूर है। इतनी दूर की आवाज सिकन्दर ने कैसे सुनली सैनिक सेनापति सभी इस बात के लिये स्तब्ध थे। ग्रामीण एक निर्जन स्थान की झोंपड़ी पर से गाता था और आवाज इतना लम्बा मार्ग तय करके सिकन्दर तक पहुंच जाती थी। प्रश्न है कि सिकन्दर इतनी दूर की आवाज कैसे सुन लेता था दूसरे लोग क्यों नहीं सुन पाते थे? सेनापति ने स्वीकार किया कि सचमुच ही अपनी ज्ञानेन्द्रियों को सन्तुष्ट करके केवल वही सत्य नहीं कहा जा सकता जो आंखों से देखा और कानों से सुना जाता है। अतीन्द्रिय सत्य भी संसार में है उन्हें पहचाने बिना मनुष्य जीवन की कोई उपयोगिता नहीं।
दूर की आवाज सुनना विज्ञान के वर्तमान युग में कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है ‘रेडियो डिटेक्शन एण्ड रेन्जिंग’ अर्थात् ‘रैडार’ नाम जिन लोगों ने सुना है वे यह भी जानते होंगे कि यह एक ऐसा यन्त्र है जो सैकड़ों मील दूर से आ रही आवाज ही नहीं वस्तु की तस्वीर का भी पता दे देता है। हवाई जहाज उड़ते हैं तब उनके आवश्यक निर्देश, संवाद और मौसम आदि की जानकारियां ‘रैडार’ द्वारा ही भेजी जाती हैं और उनके संदेश रैडार द्वारा ही प्राप्त होते हैं। बादल छाये हैं, कोहरा घना हो रहा है, हवाई पट्टी में धुंआ छाया है रैडार की आंख उसे भी बेध कर देख सकती है और जहाज को रास्ता बताकर उसे कुशलता पूर्वक हवाई अड्डे पर उतारा जा सकता है।
राडार में वस्तुतः साधारण सी रेडियो तरंगों का सिद्धांत है जब ध्वनि लहरियां किसी माध्यम से टकराती हैं तो वे फिर वापिस लौट आती हैं उस स्थान वास्तु आदि का पता देती हैं। हवाई जहाज की ध्वनि को रेडियो तरंगों द्वारा पकड़ कर यह पता लगा लिया जाता है कि वे किस दिशा में कितनी दूर पर हैं यह कार्य प्रकाश की गति अर्थात् 186000 मील प्रति सैकिण्ड की गति से होता है। रेडियो तरंगों की भी वही गति होती है तात्पर्य यह है कि यदि उपयुक्त संवेदनशीलता वाला रैडार जैसा कोई यन्त्र हो तो बड़ी से भी बड़ी दूरी की आवाज को सैकेण्डों में सुना जा सकता है ऑसीलोकोप पर देखा जा सकता है। प्रकाश से भी तीव्रगामी तत्वों की खोज ने तो अब इस सम्भावना को और भी बढ़ा दिया है और अब सारे ब्रह्माण्ड को भी कान लगा कर सुने जाने की बात को भी कोई बड़ा आश्चर्य नहीं माना जाता।
मुश्किल इतनी ही है कि कोई भी यन्त्र इतने संवेदन शील नहीं बन पाते कि दशों दिशाओं से आने वाली करोड़ों आवाजों में से किसी भी पतली से पतली आवाज को जान सकें और भयंकर से भी भयंकर निनाद में भी टूटने-फूटने के भय से बची रहें। रैडार इतना उपयोगी है पर इतना भारी भरकम कि उसे एक स्थान पर स्थापित करने में वर्षों लग जाते हैं। सैकड़ों फुट ऊंचे एण्टीना, ट्रांसमीटर रिसीवर, बहुत अधिक कम्पन वाली (सुपर फ्रिक्वेन्सी) रेडियो ऊर्जा इंडिकेटर, आस्सीलेटर, माडुलेटर, सिंकोनाइजर आदि अनेकों यन्त्र प्रणालियां मिलकर एक रैडार काम करने योग्य हो पाता है। उस पर भी अनेक कर्मचारी काम करते हैं, लाखों रुपयों का खर्च आता है, तब कहीं वह काम करने योग्य हो पाता है। कहीं बिजली का बहुत तेज धमाका हो जाये तो यह ‘रैडार’ बेकार भी हो जाते हैं और जहाज यदि ऐसे हो जो अपनी ध्वनि को बाहर फैलने ही न दें तो ‘रैडार’ उनको पहचान भी नहीं सकें। यह सब देखकर इतने भारी मानवीय प्रयत्न और मानवीय बुद्धि कौशल तुच्छ और नगण्य ही दिखाई देते हैं।
दूसरी तरफ एक दूसरा रैडार—मनुष्य का छोटा सा कान एक सर्वशक्तिमान कलाकार—विधाता की याद दिलाता है जिसकी बराबरी का रैडार संभवतः मनुष्य कभी भी बना न पाये। कान हल्की आवाज को भी सुन और भयंकर घोष को भी बर्दास्त कर सकते हैं। प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि कानों की मदद से मनुष्य लगभग 5 लाख आवाजें सुनकर पहचान सकता है जबकि रैडार का उपयोग अभी कुछ तक ही सीमित है।
कान के भीतरी भाग में जो संदेशों को मस्तिष्क में पहुंचाने का काम करते हैं 30500 रोय पाये जाते हैं यह रोये जिस श्रवण झिल्ली से जुड़े होते हैं वह तो 1/5000000000000000 इन्च से भी छोटा अर्थात इलेक्ट्रानिक माइक्रोस्कोप से भी मुश्किल से दिखाई दे सकने वाला होता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इतने सूक्ष्म व संवेदनशील यंत्र को बनाने में मनुष्य जाति एक बार पूरी तरह सभ्य होकर नष्ट हो जाने के बाद फिर नये सिरे से जन्म लेकर विज्ञान की दिशा में प्रगति करे तो ही हो सकती है। इस झिल्ली का यदि पूर्ण उपयोग संभव हो सके तो संसार की सूक्ष्म से सूक्ष्म हलचलों को लाखों मील दूर की आवाज को भी ऐसे सुना जा सकता है मानो वह यहीं कहीं अपने पास ही हों या बैठे मित्र से ही बात चीत हो रही हो।
महर्षि पातंजलि ने लिखा है—
श्रीत्रःकाशयोः संबन्ध संयमाद्दिव्यं श्रोत्रम् ।
(पयो सूत्र 40)
अर्थात्—श्रवणेन्द्रिय (कानों) तथा आकाश के संबन्ध पर संयम करने से दिव्य ध्वनियों को सुनने की शक्ति प्राप्त होती है।
महर्षि पातंजलि ने आगे लिखा है—‘ततः प्रतिभ श्रावण जायन्ते’ अर्थात् श्रवण संयम के अभ्यास से प्रतिभ अर्थात् भूत् और भविष्य ज्ञान दिव्य और दूरस्थ शब्द सुनने की सिद्धि प्राप्त होती है।’ योग विभूति में वे लिखते हैं—
‘शब्दार्थ प्रत्ययानामितरेतराध्यासत् संकरस्तस्प्रतिभाग संयमात् सर्व भूतरुतज्ञानम्’ ।।17।।
अर्थात् शब्द अर्थ और ज्ञान के अभ्यास से अभेद भासता है और उसके विभाग में संयम करने से सभी प्राणियों के शब्दों में निहित भावनाओं का भी ज्ञान होता है।’ यह सूत्र सिद्धान्त सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय की महान महत्ता का प्रतिपादन करते हैं और बताते हैं कि जब तक मनुष्य के पास ऐसा क्षमता सम्पन्न शरीर है उसे भौतिक शक्तियों की ओर आकर्षित होने की आवश्यकता नहीं सिकन्दर 10 मील तक ही सुन सकता था योगी तो अपने कान लगाकर सारे ब्रह्माण्ड को सुन सकता है।
तन्त्र विद्या में ‘कर्ण पिशाचिनी’ साधना का महत्व पूर्ण प्रकरण है। रेडियो, टेलीफोन तो निर्धारित स्थान से निर्धारित स्थान पर ही सन्देश पहुंचाते हैं उन्हें विशेष यन्त्रों द्वारा ही प्रेषित किया जाता है और विशेष यन्त्र ही सुनते हैं। कर्ण पिशाचिनी विद्या से कहीं पर भी हो रहे शब्द प्रवाह को सुना जा सकता है। स्थूल शब्दों में अतिरिक्त अन्य घटना क्रमों की हलचलें विद्युत के रूप में अन्तरिक्ष में विद्यमान रहती है, उन किरणों को प्रकाश रूप में देखा जा सकता है और शब्द रूप में सुना जा सकता है। तांत्रिक साधना से इस सिद्धि को उपलब्ध करने वाले अपने ज्ञान भण्डार को असाधारण रूप से बढ़ा सकते हैं और उस स्थिति से विशेष लाभ उठा सकते हैं।
नाद योग सूक्ष्म शब्द प्रवाह को सुनने की क्षमता विकसित करने का साधना विधान है। कानों के बाहरी छेद बन्द कर देने पर उनमें स्थूल शब्दों का प्रवेश रुक जाता है। तब ईथर से चल रहे ध्वनि कम्पनों का उस नीरवता में सुन समझ सकना सरल हो जाता है। नाद योग के अभ्यासी आरम्भ में कई प्रकार की दिव्य ध्वनियां कानों के छेद बन्द करके मानसिक एकाग्रता के आधार पर सुनते हैं। शंख, घड़ियाल, मृदंग, वीणा, नफीरी, नूपुर जैसी आवाजें आती हैं और बादल गरजने, झरना झरने, आग जलने झींगुर बोलने जैसी क्रमबद्ध ध्वनियां भी सुनाई पड़ती हैं। आरम्भ में यह शरीर के अन्तरंग में हो रही हलचलों की ही प्रतिक्रिया होती हैं पर पीछे दूरवर्ती घटना क्रमों के संकेत प्रकट करने वाली अधिक सूक्ष्म आवाजें भी पकड़ में आती हैं। अनुभव के आधार पर उनका वर्गीकरण करके यह जाना जा सकता है कि इन ध्वनि संकेतों के साथ कहां किस प्रकार का—किस काल का घटना क्रम सम्बद्ध है। आरम्भिक अभ्यासी भी अपने शरीरगत अवयवों की हलचल, रक्त प्रवाह हृदय की धड़कन, पाचन संस्थान आदि की जानकारी उसी भांति प्राप्त कर सकता है जिस तरह कि डॉक्टर लोग स्टेथिस्कोप फोनो कार्डियोग्राफी आदि उपकरणों से हृदय की गति, रक्त चाप आदि का पता लगाते हैं, अपने ही नहीं दूसरों के शरीर की स्थिति का विश्लेषण इस आधार पर हो सकता है और तदनुकूल सही निदान विदित होने पर सही उपचार का प्रबन्ध हो सकता है।
सूक्ष्म शरीर की कर्णेंद्रिय को विकसित करके संसार में घटित होने वाले घटना क्रम को जाना जा सकता है। कारण शरीर का सम्बन्ध चेतना जगत से है। लोगों की मनःस्थिति के कारण उत्पन्न होने वाली अदृश्य ध्वनियां जिसकी समझ में आने लगें वह मानव प्राणी की—पशु-पक्षियों और जीव-जन्तुओं की मनःस्थिति का परिचय प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार बिना उच्चारण के एक मन से दूसरे मन का परिचय, आदान-प्रदान होता रह सकता है। विचार संचालन विद्या के ज्ञाता जानते हैं कि मनःस्थिति के अनुसार भावनाओं के उतार-चढ़ाव में एक विचित्र प्रकार की ध्वनि निसृत होती हैं और उसे सुनने की सामर्थ्य होने पर मौन रहकर ही दूसरों की बात अन्तःकरण के पर्दे पर उतरती हुई अनुभव की जा सकती है और अपनी बात दूसरों तक पहुंचाई जा सकती है।
कारण शरीर की कर्णेन्द्रिय साधना, दैवी संकेतों के समझने, ईश्वर के साथ वार्तालाप और भावनात्मक आदान प्रदान करने में समर्थ हो सकती है। साधनात्मक पुरुषार्थ करते हुए अपने इन दिव्य संस्थानों को विकसित करना—अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ना यही तो योग साधना का—आत्म साधना का उद्देश्य है।