अतीन्द्रिय सामर्थ्य संयोग नहीं तथ्य

अतीन्द्रिय क्षमताएं पृष्ठभूमि एवं आधार

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मनुष्य में काम करने और सोचने की क्षमता है। इन्हीं दोनों के समन्वय से अनेकानेक प्रकार की कलाओं और कुशलताओं का स्वरूप सामने आता है। उपार्जनों और उपलब्धियों के पीछे इन्हीं क्षमताओं का संयोग उपयोग काम कर रहा होता है। समृद्धि और वैभव के जो कुछ चमत्कार दीखते हैं उनके पीछे मनुष्य की यह शारीरिक और मानसिक क्षमताएं ही काम कर रही होती हैं।
अतिरिक्त क्षमताएं इससे आगे की भूमिका में उत्पन्न होती हैं। इन्हें विभूतियां कहते हैं और इनके पीछे दैवी अनुकम्पा काम करती समझी जाती हैं। ऋद्धि-सिद्धियों का क्षेत्र यही है। योगाभ्यास-तपश्चर्या, तन्त्र प्रयोग, भक्ति साधना आदि अनुष्ठानों का आश्रय लेकर इन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है।
चेतना की गहरी खोज-बीन करने पर पता चला है कि यह बाह्य उपार्जन नहीं—आन्तरिक उद्भव है। मानवी सत्ता का बहुत थोड़ा अंश ही प्रयोग में आ सका है। जितना ज्ञात है और जिसका प्रयोग होता है वह बहुत थोड़ा अंश है। इससे कितनी ही गुनी सम्भावनाएं मानवी सत्ता के गहन अन्तराल में छिपी पड़ी हैं। धरती की ऊपरी सतह पर तो घासपात उगाने की क्षमता ही दीख पड़ती है। कहीं धूलि कहीं पत्थर बिखरे दीखते हैं, पर गहराई तक खोदते जाने पर बहुमूल्य खनिजों की परतें उपलब्ध होती जाती हैं। ठीक इसी प्रकार शरीर की श्रम शक्ति और मन की चिन्तन शक्ति से आगे गहराई में उतरने पर उन क्षमताओं का अस्तित्व सामने आता है जिन्हें अतीन्द्रिय या दैवी कहते हैं। वस्तुतः वे भी व्यक्ति की अपनी ही अविज्ञात एवं उच्चस्तरीय सामर्थ्यें ही होती हैं। उन्हें प्रयत्न पूर्वक जगाया या बढ़ाया जा सकता है।
पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने जो अतीन्द्रिय क्षमताएं खोजी हैं वे उन्हें चार वर्गों में विभक्त करते हैं—(1) क्लेयर वायेन्स (परोक्ष दर्शन) अर्थात् वस्तुओं या घटनाओं की वह जानकारी जो ज्ञान प्राप्ति के सामान्य आधारों के बिना ही उपलब्ध हो जायें। (2) प्रिकाग्नीशन (भविष्य ज्ञान)—बिना किसी मान्य आधार के भविष्य की घटनाओं का ज्ञान। (3) रेट्रोकाग्नीशन (भूतकालिक ज्ञान) बिना किन्हीं मान्य साधनों से अविज्ञान भूतकालीन घटनाओं की जानकारी। (4) टेलीपैथी (विचार-सम्प्रेषण) बिना किसी आधार या यन्त्र के अपने विचार दूसरों के पास पहुंचाना तथा दूसरों के विचार ग्रहण करना। इस वर्गीकरण को और भी अधिक विस्तृत किया जाय तो उन्हें 11 प्रकार की गतिविधियों में बांटा जा सकता है।
(1) बिना किन्हीं ज्ञातव्य साधनों के सुदूर स्थानों में घटित घटनाओं की जानकारी मिलना।
(2) एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की मनःस्थिति तथा परिस्थिति का ज्ञान होना।
(3) भविष्य में घटने वाली घटनाओं का बहुत समय पहले पूर्वाभास।
(4) मृतात्माओं के क्रिया-कलाप जिससे उनके अस्तित्व का प्रत्यक्ष परिचय मिलता हो।
(5) पुनर्जन्म की वह घटनायें जो किन्हीं बच्चों, किशोरों या व्यक्तियों द्वारा बिना सिखाये-समझाये बताई जाती हों और उनका उपलब्ध तथ्यों से मेल खाता हो।
(6) किसी व्यक्ति द्वारा अनायास ही अपना ज्ञान तथा अनुभव इस प्रकार व्यक्त करना जो उसके अपने व्यक्तित्व और क्षमता से भिन्न और उच्च श्रेणी का हो।
(7) शरीरों में अनायास ही उभरने वाली ऐसी शक्ति जो सम्पर्क में आने वालों को प्रभावित करती हो।
(8) ऐसा प्रचण्ड मनोबल जो असाधारण दुस्साहस के कार्य विनोद की साधारण स्थिति में कर गुजरे और अपनी तत्परता से अद्भुत पराक्रम कर दिखाये।
(9) अदृश्य आत्माओं के सम्पर्क से असाधारण सहयोग सहायता प्राप्त करना।
(10) शाप और वरदान जैसी शब्द प्रहार की शक्तियां जो व्यक्तियों व वस्तुओं पर दीर्घकालिक प्रभाव बनाये रह सकते हैं।
(11) परकाया प्रवेश या एक आत्मा में अन्य आत्मा का सामयिक प्रवेश। इसी के अन्तर्गत शरीर से बाहर आत्म सत्ता के होने की (आऊट ऑफ बॉडी एक्सपीरेएन्सेज—ओ.बी.ई.) अनुभूतियां भी आती हैं।
इनके अतिरिक्त भी कुछ विविध तथा विसंगत बहुवर्गीय क्रम की अनेकों घटनाएं हो सकती हैं जिनसे अतीन्द्रिय शक्ति प्रमाणित होती हो जैसे मनुष्येतर जीवों की असामान्य अतीन्द्रिय क्षमताएं।
योग शास्त्रों में आत्मा को परमात्मा से मिलाने, जीव को ब्रह्म में विलीन करने वाली साधनाओं द्वारा अपने लक्ष्य की प्राप्ति संभव बनाई गयी है, वहीं यह भी बताया गया है कि ये साधनाएं करते करते मनुष्य अनेक दिव्यशक्तियों का स्वामी बन जाता है और उसके भीतर ऐसी ऐसी विलक्षणताओं के उद्भव की बात भी कही गई है जिन्हें चमत्कारी सिद्धियां कहा जाता है। योगदर्शन के चार पादों में से एक पाद—एक अध्याय में तो केवल उस बात का विवेचन किया गया है कि योग साधक को कौन कौन सी सिद्धियां प्राप्त होती हैं। दिव्य दर्शन, दिव्यश्रवण, दूरदर्शन भूत भविष्य का ज्ञान, प्रातिभ, श्रावण, वेदन, आदर्श, आस्वाद, वार्ता छाया पुरुष ज्ञान सिद्धियां तथा अणिमा, महिमा लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, काय सपत और अनभिघात आदि सिद्धियों का उल्लेख आता है। अन्यान्य शास्त्रों में इन सिद्धियों का इतना सविस्तार उल्लेख मिलता है कि उन्हें पढ़कर सहज ही विश्वास करते नहीं बनता। कई लोग इसी कारण योगशास्त्र और उसकी सिद्धियों को कपोल कल्पित मानते थे कल तक विज्ञान की भी यही धारणा थी किन्तु जब इस तरह की अनेकानेक घटनाओं और सिद्धि सम्पन्न व्यक्तियों का विश्लेषण तथा परीक्षण किया गया तो पता चला कि अतीन्द्रिय सामर्थ्य केवल कहने सुनने या मन मोदक खाने जैसी ही बात नहीं है। बल्कि वे तथ्यपूर्ण हैं और योगसाधना द्वारा उनका विकास एवं विज्ञान सम्मत प्रक्रिया से होता है। उसके द्वारा विश्व ब्रह्माण्ड में व्याप्त परम चेतना से तादात्म्य स्थापित कर जीव चेतना उसकी सामर्थ्य को अर्जित करने लगती है।
मुंडकोपनिषद् के दूसरे अध्याय में महर्षि अंगिरा शौनक से कहते हैं कि जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि से उसी के जैसे रूप रंग वाली हजारों चिन्गारियां चारों ओर निकलती हैं, उसी प्रकार परम पुरुष अविनाशी ब्रह्म से नाना प्रकार के मूर्त-अमूर्त भाव निकलते हैं उन्हें जीव सत्ता भी कहा जा सकता है। चिनगारियां जिस प्रकार अग्नि की समस्त विशेषताएं अपने में समाहित किये रहती हैं, उसी प्रकार जीवात्मा में भी परमात्मा की समस्त विशेषताएं अन्तर्निहित रहती हैं। उन्हें प्रयत्न पूर्वक योग साधन और तपश्चर्या द्वारा जागृत किया जा सकता है। उस जागृति के फलस्वरूप जो कुछ इंद्रियातीत है, वह इन्द्रियगम्य बन सकता है, और जिसे बुद्धि द्वारा नहीं समझा जा सकता, जो बुद्धि की पकड़ में नहीं आता वह प्रज्ञा द्वारा—जागृत सूक्ष्म बुद्धि द्वारा जाना जा सकता है।
विज्ञान पहले इन तथ्यों को नकारता आ रहा था पर नकारने से तो कोई तथ्य असत्य नहीं हो जाता। जो घटनायें अनादि काल से घटती आ रही हैं, यदाकदा घटने के कारण वे विचित्र और चमत्कारी भी लगती हैं, परन्तु उनके पीछे चेतना विज्ञान के सुनिश्चित नियम काम करते हैं आज भी घटती हैं। पहले लम्बे समय तक उन्हें गप्प, भ्रम या मनगढ़न्त कहा जाता रहा परन्तु विज्ञान उनकी ओर से और अधिक आंखें मूंदे नहीं रह सका।
अब इन घटनाओं के वैज्ञानिक अध्ययन भी किये जाने लगे हैं, उनके निष्कर्षों को पुष्ट करने के लिए प्रयोगशालाओं में परीक्षण भी होते हैं तथा जो तथ्य विदित होते हैं उन्हें निर्विवाद रूप से प्रकाशित किया जाता है। उदाहरण के लिए बिना किसी बाहरी संसाधनों के मीलों दूर घटी घटनाओं का आभास ही लिया जाय जिसे अध्यात्म की भाषा में दूरबोध कहते हैं। आत्मा की यह सामर्थ्य लम्बी योग साधनाओं के अनवरत अभ्यास से प्राप्त होती है किन्तु यदा कदा सामान्य स्थिति में भी इसकी अनुभूति हो जाती है।
एक घटना सन् 1918 की है। लन्दन में चार वर्ष का बालक जॉन्हक्सले अपने हम उम्र अन्य बच्चों के साथ खेल रहा था। अचानक उसे खेलते-खेलते न जाने क्या हुआ कि चिल्लाता हुआ घर के भीतर दौड़ा आया—मेरे पिता का दम घुटा जा रहा है। उन्हें बचाओ वे एक कोठरी में बन्द हो गये हैं और उन्हें कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा है। जॉन इतना कहकर बेहोश हो गया और जब उसे होश आया तो उसके मुंह से जो पहले शब्द निकले वह थे अब वे ठीक हो जायेंगे।
उस समय जान के पिता दूसरे महायुद्ध में फ्रांस के मोर्चे पर लड़ रहे थे। युद्ध समाप्त होने पर जब वे घर वापस आये तो उन्होंने बताया कि 7 नवम्बर को वे एक गैस चेम्बर में फंस गये थे और वहां से किसी अदृश्य शक्ति के सहयोग से ही वे निकल पाये। घर के लोगों को तब यकायक याद आया कि जिस दिन जान खेलते-खेलते बेहोश हो गया था उस दिन भी तो 7 नवम्बर थी।
इस प्रकार की एक नहीं असंख्य घटनाएं हैं। कई व्यक्तियों को रहस्यमय अनुभव होते हैं और कभी पता चलता है कि उन्होंने जो अनुभव किया है वह अमुक स्थान पर ठीक उसी प्रकार घटा है। वैज्ञानिकों ने जब इन रहस्यों को उद्घाटित करने का बीड़ा उठाया तो एक से एक चौंका देने वाले तथ्य सामने आये और सिद्ध हुआ कि साढ़े पांच फुट ऊंची डेढ़ सौ पौण्ड बजनी काया में ब्रह्माण्डव्यापी चेतना संयुक्त और ओत-प्रोत है।
प्रसिद्ध जीवशास्त्री प्रो. फ्रैंक ब्राउन ने कई प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि सृष्टि में जो असंख्य प्राणी हैं वे ऐसे संग्राहक रिसीवर हैं जो ब्रह्माण्ड के स्पन्दन तथा सम्वेदन ग्रहण करते रहते हैं संग्राहक का काम करने वाले बहुत सूक्ष्म परमाणु बताये जाते हैं जिनमें घनत्व, भार, विस्फुटन, चुम्बकत्व आदि कोई भौतिक लक्षण नहीं होते हैं।
अन्य वैज्ञानिकों ने भी इस दिशा में खोज की और पाया कि प्रो. फ्रैंक ब्राउन का मत एकदम सही है। संग्राहक का काम करने वाले इन चेतन परमाणुओं को ‘‘न्यूट्रिनो’’ नाम दिया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ये अणु अरबों की संख्या में प्रकाश की गति से बहते रहते हैं। यहां तक कि ये अणु के भीतर से भी पार हो जाते हैं—इतने सूक्ष्म होते हैं। यदा कदा इनमें कुछ विशेष क्रियाशीलता आती है। इसी से इन्हें देख पाना सम्भव होता है।
एण्ड्रिया ड्राब्स नामक वैज्ञानिक ने न्यूट्रिनों के आधार पर ही साइकोन अणु का पता लगाया और कहा कि सइकोन ही मस्तिष्क के न्यूरोन कणों से जुड़कर परा-चेतना को जागृत करता है। एक्सेल फरसॉफ नामक अन्तरिक्ष वैज्ञानिक ने तो तथ्यों और प्रयोगों के आधार पर यह प्रमाणिक कर दिखाया कि मनुष्य को कभी अनायास ही विचित्र अनुभूतियां होती हैं। उनमें से कुछ खास तरह की अनुभूतियां माइण्डॉन नामक कणों के हलचल में आने से होती हैं। जब ये कण सक्रिय होते हैं तो हमारा अव-चेतन मन (सब कांशस) ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ जुड़ जाता है। यदि उन अनुभूतियों को पहचाना, जगाया अथवा समझा जा सके तो व्यक्ति बैठे ठाले ही किसी भी ग्रह नक्षत्र की बातें जान सकता है।
योग साधना भी एक विज्ञान है और उसके अपने सुनिश्चित सिद्धान्त हैं। विज्ञान का यह सिद्धान्त जिस प्रकार अपने आप में अकाट्य है कि हाइड्रोजन के दो अणु और ऑक्सीजन का एक अणु मिलकर पानी बनता है उसी प्रकार योगविज्ञान के भी अकाट्य, अनुभूत और परीक्षित सिद्धान्त हैं, जिन्हें अपनाकर कोई भी अभीष्ट दिशा में असाधारण सामर्थ्य अर्जित कर लेता है।
वैज्ञानिक परीक्षणों से जिस प्रकार यह सिद्ध हो गया है कि मनुष्य के भीतर कई केंद्रों में ऐसी गुप्त सामर्थ्य छिपी पड़ी है जो अनुकूल परिस्थितियों में ही प्रकट होती है। योगाभ्यास द्वारा उन परिस्थितियों का निर्माण ही किया जाता है। साम्यवादी राष्ट्र रूस जहां के स्कूलों में यह सिखाया जाता है कि धर्म अफीम है और ईश्वर फ्रॉड है—में ही अब इस दिशा में बहुत कार्य होने लगा है। पिछले दिनों इन घटनाओं की वास्तविकता जांचने के लिए कई परीक्षण किये गये।
गत 29 अप्रैल 1976 को कार्ल निकोलायेब नामक युवा वैज्ञानिक को मास्को से साइबेरिया भेजा गया। उद्देश्य था—दूरानुभूति के कुछ सिद्धान्तों का प्रायोगिक परीक्षण। साइबेरिया के नियत स्थान पर गोल्डन वैली होटल में कुछ सोवियत वैज्ञानिकों के साथ बैठा हुआ था। उसी समय सैकड़ों मील दूर मास्को स्थित एक ‘इन्सुलेटेड’ कक्ष में वैज्ञानिक यूरी कामेस्की अपने कुछ साथियों के साथ बैठा था। यूरी को नहीं बताया गया था कि उसे किस प्रकार का सन्देश भेजना है। ठीक आठ बजे, एक वैज्ञानिक ने कामेस्की के हाथ में एक सीलबन्द पैकिट पकड़ा दिया। उस पैकिट में धातु की बनी एक स्प्रिंग थी जिसमें सात क्वाइल लगे थे।
कामेस्की ने उस स्प्रिंग को उठा लिया और क्वाइलो पर अंगुलियां फेरने लगा। उस समय कामेस्की ने कार्लनिकोलायेव का ध्यान किया और पूरी एकाग्रता के साथ यह कल्पना की कि वह उसके सामने बैठा है तथा उस स्प्रिंग को देख रहा है फिर वह कार्ल की आंखों से वह स्प्रिंग और क्वाइल देख रहा है।
उसी समय, मास्को से 1860 मील दूर अपने वैज्ञानिक साथियों के बीच बैठे कार्ल ने कुछ अजीब सा अनुभव किया। जैसे उसे अपने हाथों में कोई वस्तु दिखाई दे रही हो। कुछ ही क्षणों बाद वह बोला गोल, चमकती हुई चीज धातु से बनी हुई है...............क्वाइल है।
इसके बाद कामेस्की ने मास्को में एक पेचकश का चित्र देखा तो कार्ल ने उसका विवरण भी शब्दशः बता दिया। कार्ल निकोलायेव ने टैलीपैथी को सिद्ध करने में बड़ी मेहनत की है। एक प्रेस सम्मेलन में कार्ल ने इन प्रयोगों के सन्दर्भ में कहा है—टैलीपैथी के क्षेत्र में मैंने जो सफलता प्राप्त की है वह हर कोई प्राप्त कर सकता है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में अन्तःशक्ति विद्यमान होती है। इसीलिए मैं अपनी योग्यता को विज्ञान की कसौटी पर कसा जाना महत्वपूर्ण मानता हूं। यदि मैं ऐसी योग्यता प्राप्त कर सकता हूं तो कोई कारण नहीं कि आप ऐसी योग्यता प्राप्त न कर सकें।
‘यह विद्या आपने कहां से सीखी?’—इस प्रश्न के उत्तर में कार्ल निकोलायेव ने बताया कि—‘‘बचपन में उन्हें योग पर किसी भारतीय महात्मा द्वारा लिखी हुई एक पुस्तक प्राप्त हो गयी थी। उसी से प्रेरणा प्राप्त कर मैं अपने मित्रों से कहने लगा कि वे मुझे कोई मानसिक आदेश दें। आगे चलकर मैंने योगदर्शन, राजयोग, प्राणायाम आदि साधनाओं का 11 वर्ष तक अभ्यास किया। इसका परिणाम वर्तमान सफलता के रूप में प्रस्तुत है।
इस क्षेत्र का और अधिक गहरा अध्ययन करने के लिए रूस ने भारत सरकार से कुछ योगियों को जिन्होंने योग साधना के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलतायें अर्जित की थीं—रूस भेजने के लिए भी आग्रह किया था। न केवल रूस में वरन् अन्य पश्चिमी देशों में भी इस प्रकार के प्रयोग सफलतापूर्वक किये गये हैं। तथा इस दिशा में बहुत आगे पहुंच गये व्यक्तियों से कई महत्वपूर्ण कार्यों में सहयोग लिया गया है।
चेकोस्लोवाकिया के व्रेतिस्लाव काफ्का ने पराशक्ति के सम्बन्ध में अनेकों अद्भुत प्रयोग किये हैं। उन्होंने एक प्रयोगशाला भी स्थापित कर रखी है। कहते हैं कि द्वितीय महायुद्ध में जब मित्र राष्ट्रों के अधिकारियों को युद्ध की स्थिति के बारे में कुछ पता नहीं चलता था तो वे बेतिस्लाव काफ्का की ही सहायता लेते थे। काफ्का अपनी प्रयोगशाला में कार्यरत दूसरे मनोवैज्ञानिक को समाधिस्थ कर देते तथा उससे वही प्रश्न करते। प्रायः यह जानकारी सही निकलती थी।
न ज्ञान—न विज्ञान, फिर भी निर्बाध आदान-प्रदान—
22 अगस्त सन् 1964 की घटना है। प्रसिद्ध फ्रांसीसी व्यापारी फ्रेंड स्पेडलिंग अपनी मोटर कार से हेरी की ओर बढ़ रहे थे। हेरी वेस्टइण्डीज द्वीप समूह के एक टापू पर स्थित सुरम्य स्थान है। अटलांटिक महासागर के फरोपियन द्वीप हिस्यानोलिया के पश्चिमी स्थान पर उस स्थान में स्पेडलिंग प्रायः व्यापार के सिलसिले में आया जाया करते थे। उस दिन जब वे हेरी की ओर बढ़ रहे थे कि रास्ते में अचानक तूफान आ गया। तूफान भी ऐसा कि पहले कभी नहीं आया था। उस तूफान में करीब 150 व्यक्ति मर गये थे। स्पेडलिंग भी उस अन्धड़ में फंस गये फिर भी उन्होंने आगे चलने का निश्चय किया और किसी तरह होटल तक पहुंच जाने की बात सोचने लगे। अपने होटल तक पहुंचने के लिए वे नक्शे की सहायता से आगे बढ़ना चाह ही रहे थे कि उन्हें सुनाई दिया ‘‘पीछे लौट जाओ, यह रास्ता खतरनाक है।’’
आवाज बहुत समीप से आई थी, लगता था कोई कार की पिछली सीट पर बैठा था। स्पेडलिंग ने चौंक कर इधर-उधर देखा। कोई दिखाई नहीं दिया। उन्होंने समझा कोई भ्रम हुआ है। स्पेडलिंग ने अपनी यात्रा जारी रखी। कुछ दूर आगे बढ़े ही थे कि फिर वही आवाज सुनाई दी। वही शब्द तो थे किन्तु इस बार स्वर पहले की अपेक्षा ऊंचा था। स्पेडलिंग ने स्वर को पहचाना भी, वह आवाज उनकी पत्नी से बहुत मिलती-जुलती थी। मिलती-जुलती इसलिए कि उस समय श्रीमती स्पेडलिंग को फिर भी उस आवाज पर भरोसा न हुआ और वे बराबर आगे बढ़ते रहे। रह-रहकर वह आवाज सुनाई देती, स्पेडलिंग चौंक जाते, सहम उठते और रुककर थोड़ी देर विचार करने लगते फिर आगे बढ़ जाते।
यह आवाज कहां से आई? कौन आगे बढ़ने से रोक रहा है? पत्नी तो हजारों मील दूर है, फिर उसकी आवाज इतनी स्पष्ट कैसे सुनाई दे रही है? और उसे कैसे मालूम कि यहां अंधड़ आया हुआ है तथा मैं उसी में यात्रा कर रहा हूं? आदि ऐसे प्रश्न थे, जिन पर स्पेडलिंग जितना ही विचार करते उतना ही असमंजस बढ़ जाता था रुकते रुकाते वह कुछ घण्टों में समुद्र तट के पास बह रही एक नदी के पुल तक पहुंचे। वह पुल पार करने जा ही रहे थे कि देखा अंधड़ तूफान में उफन रहे समुद्र ने अपनी एक तेज लहर फेंकी और उस लहर के दबाव से नदी पर बना पुल टूट कर ऐसे बहने लगा जैसे नदी में डूबता-उतराता पत्ता। अचानक यह दृश्य देखकर स्पेडलिंग कांप उठे। कुछ क्षण पहले भी यदि उन्होंने अपनी कार पुल पर बढ़ा दी होती तो निश्चित ही उनका कहीं पता नहीं चलता।
पर यह रहस्य रहस्य ही रहा। जब कि स्पेडलिंग को अपनी पत्नी की आवाज और चेतावनी कहां से तथा कैसे सुनाई दे रही थी? घर पहुंचने पर तो इसमें रहस्य का एक और अध्याय जुड़ गया। स्पेडलिंग जब घर पहुंचे तो उन्होंने अपनी पत्नी से इस घटना की चर्चा की। उनकी पत्नी ने बताया कि ठीक उसी रात को उसने सपना देखा कि उसका पति हेरी के जंगल में भयानक तूफान में फंस गया है। आगे गहरी नदी है, उसमें उसकी मोटर डूबने ही वाली है। इस दृश्य से वह बुरी तरह घबड़ा उठी और सोते ही चीख उठी  फ्रेड वापिस लौट जाओ। वह अपने पति को इसी नाम से पुकारती थी। ‘‘खतरे से बचो। आगे खतरा है।’’ यह एक रहस्य ही था कि हजारों मील दूरी पर रह रही श्रीमती फ्रेड को उसी समय ऐसी अनुभूति कैसे हुई, जो न केवल भविष्य बताती थी वरन् एक की स्थिति का दूसरे को तत्क्षण आभास भी देती थी।
ब्रिटेन की साइकिक रिसर्च सोसायटी ने श्री मायर्स की अध्यक्षता में ऐसी अनेक घटनाओं की जांच पड़ताल की है, जिनमें मनुष्य की अन्तर्निहित अतीन्द्रिय क्षमताओं का रहस्योद्घाटन होता है। जिन घटनाओं को मनुष्य के भीतर देव दानव का आवेश कहा जाता है, उनमें से कई घटनाएं भी इसी प्रकार की अतीन्द्रिय क्षमताओं से सम्बद्ध बताई गई हैं। उपरोक्त घटना से मिलती जुलती एक और घटना सान फ्रांसिस्को की है। वहां का एक ट्रक ड्राइवर लुई फिशर अपनी पत्नी हैजल रेफर्टी से झगड़ा होने के कारण घर छोड़ कर चला गया। झगड़ा इतना बढ़ा कि दोनों ने आवेश में आकर एक दूसरे से कभी न मिलने की कसम खाली। इतना ही नहीं उन्होंने वह शहर छोड़कर अन्यत्र चले जाने की बात भी कही, ताकि वे फिर कभी एक दूसरे का मुख न देख सकें।
इन दोनों में घनिष्ठ प्रेम था। इतना प्रेम कि दूसरे लोग उन्हें देखकर ईर्ष्या से जला करते थे। किसी बात पर उन्हें आवेश आ गया और गुस्से में वे चले गये। किन्तु गुस्सा शान्त होने पर वे अनुभव करने लगे कि जरा से आवेश में आकर उन्होंने इतना बड़ा कदम उठा लिया है, जो नहीं उठाना चाहिए, वे सोचने लगे कि इतने समय से वे कितनी अच्छी तरह घनिष्ठ मित्रों की भांति रह रहे थे। जैसे दिन बीतते गये, दोनों का पश्चात्ताप बढ़ने लगा और वापस मिलने की बेचैनी भी होने लगी इस बेचैनी को शांत करने के लिए वे ऐसा उपाय ढूंढ़ने लगे कि साथी को ढूंढ़ सकें और अपनी गलती स्वीकार कर एक दूसरे से क्षमा मांग सकें।
लेकिन समस्या यह थी कि लुई हैजल को और हैजल लुई को कहां ढूंढ़े? दोनों में किसी को भी तो यह पता नहीं था कि उनका साथी कहां है? एक दिन सवेरे हैजल ने सुना कि लुई लास एजिल्टा शहर में है। वह तुम्हारा इन्तजार ग्रिफिथ की बेधशाला के पास बैठा कर रहा है। हैजल वहां तुरन्त पहुंच जाओ। यह आवाज ऐसे सुनाई दी जैसे पास ही कोई रेडियो बज रहा हो और उससे यह सूचना प्रसारित हो रही हो।
ठीक इसी प्रकार की आवाज लुई ने भी सुनी ग्रिफिथ की वेधशाला पर पहुंचो, वहां बैठी हैजल तुम्हारा इन्तजार कर रही है। यह आवाज सुनकर दोनों ही तत्काल दौड़ पड़े और नियत स्थान पर पहुंचते ही दोनों ने एक दूसरे को देखा, आंखों में झांका। वहां पश्चात्ताप के आंसू इस तरह भरे हुए थे कि पुतलियां किसी झील में तैरती सी प्रतीत हो रही थीं। एक दूसरे को देखकर आंसुओं का वह बांध टूट गया और दोनों फूट-फूट कर रोये।
अब दोनों के लिए आश्चर्य का विषय यह था कि मिलन की पृष्ठभूमि बनाने वाला यह प्रसारण कहां से और कैसे हुआ? लुई को हैजल से मिलने और ‘हैजल’ को लुई से मिलने के लिए यह अलग-अलग शब्दावली कैसे प्रसारित हुई? अगर यह रेडियो प्रसारण था तो एनाउन्स किसने किया? रेडियो स्टेशन पहुंच कर दोनों ने मालूम किया तो पता चला कि वहां से ऐसी कोई सूचना प्रसारित नहीं की गई फिर भी लुई और हैजल ने यह शब्द सुने थे और इसी आधार पर दोनों एक दूसरे से मिले। जब ऐसी कोई सूचना रेडियो द्वारा प्रसारित नहीं की गई तो आश्चर्य का विषय था कि यह सूचना उनके कानों ने कैसे सुनी? परामनोविज्ञान वेत्ता इस घटना को सुन कर और विश्लेषण करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अतीन्द्रिय चेतना ऐसा ताना बाना बुन सकती है जिसके कारण दो घनिष्ठ व्यक्तियों के विचार एक दूसरे से वार्तालाप कर रहे हों।
अमेरिका के मनःशक्ति संस्थान के निर्देशक डा. ब्रूकेल्स के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में इस प्रकार की अतीन्द्रिय क्षमताएं विद्यमान हैं, जिन्हें वह प्रयत्न पूर्वक जागृत कर सकता है। कभी-कभी यह शक्तियां अनायास भी जागृत हो जाती हैं और व्यक्ति में ऐसी विशेषताएं उत्पन्न हो जाती हैं जो आमतौर पर हर किसी में नहीं दिखाई पड़तीं परामनोविज्ञान भी शोध, अन्वेषण और परीक्षणों के माध्यम से इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि मनुष्य की मानसिक शक्तियां इतनी सीमित नहीं हैं जितनी कि वह प्रतिदिन के कार्यकलापों में प्रयुक्त होती दिखाई देती हैं। उस का एक बहुत बड़ा अंश तो प्रसुप्त ही पड़ा रहता है और लोग उसका कोई उपयोग नहीं कर पाते, जिस प्रकार गढ़ा या गाढ़ा हुआ धन व्यक्ति के पास कितनी ही सम्पदा हो सकती है पर कोई भी व्यक्ति अपनी सारी जमा पूंजी का उपयोग नहीं कर पाता। उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य अपनी कुल जमा पूंजी—मानसिक शक्ति का पूरा पूरा उपयोग नहीं कर पाता।
अन्तर्दृष्टि सम्पन्न कितने ही भारतीय योगियों, ऋषियों का उल्लेख मिलता है जो एक स्थान पर बैठे-बैठे विश्व की समस्त हलचलों एवं भावी घटनाक्रमों का पता लगा लेते थे। महाभारत में वर्णन आता है कि अन्धे धृतराष्ट्र को संजय ने अपनी दिव्य-दृष्टि से उनके निकट बैठकर कुरुक्षेत्र की समस्त घटनाओं का वर्णन इस प्रकार किया था जैसे सामने प्रत्यक्ष देख रहे हों। ऐसे क्षमता सम्पन्न असंख्यों ऋषियों का उल्लेख भारतीय धर्मग्रन्थों में मिलता है। इसका उल्लेख करते हुये ऋषि ‘योग तत्वोपनिषद’ में लिखते हैं—
—यथा वा चित्त सामर्थ्य जायत योगिनो ध्रुवम् दूरश्रतिर्दूरदृष्टि अणाद् दूरगमस्तथा वाक् सिद्धिः कामरुपत्व महश्यकरणी तथा ।
अर्थात्—‘‘जैसे-जैसे चित्त की सामर्थ्य बढ़ती है, वैसे ही दूर-श्रवण, दूरदर्शन, वाक् सिद्धि, कामना पूर्ति आदि अनेकों विलक्षण दिव्य सिद्धियां मिलती चली जाती हैं।’’
दूरानुभूति की ये घटनाएं विलक्षण मानवी सामर्थ्य का परिचय देती हैं। भारतीय अध्यात्म वेत्ताओं ने मस्तक पर दोनों भौंहों के बीच अवस्थित आज्ञाचक्र को दिव्य दृष्टि का केन्द्र माना है। तत्ववेत्ताओं का कहना है कि हर मनुष्य में वह क्षमता मौजूद है कि वह भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों ही कालों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अब यह तथ्य विज्ञान सम्मत बनता जा रहा है।
महान आत्मीयता के आधार पर भी अनायास ही किन्हीं किन्हीं व्यक्तियों में यह बेतार के तार का सम्पर्क जुड़ते पाया गया है। यह क्यों व कैसे होता है, इसका आत्मिकी के अतिरिक्त और किसी के पास कोई उत्तर नहीं।
‘‘इन सर्च आफ दि ट्रुथ’’ पुस्तक में एक घटना का हवाला देते हुए श्रीमती रूथ मान्टगुमरी लिखती हैं कि युद्धों के समय पाशविक वृत्तियां एकाएक आत्म-मुखी हो उठती हैं तब कैसे भी व्यक्तियों को अतीन्द्रिय अनुभूतियां स्पष्ट रूप से होने लगती हैं। युद्ध के मैदानों में लड़ने वाले सैनिक और उसके सम्बन्धी रिश्तेदारों के बीच एक प्रगाढ़ भावुक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, वही इन अति मानसिक अनुभूतियों की सत्यता का कारण होता है। ध्यान की गहन अवस्था में होने वाले भविष्य की घटनाओं के पूर्वाभास भी इसी कारण होते हैं कि उस समय एक ओर से मानसिक विद्युत दूसरी ओर से पूरी क्षमता साथ सम्बन्ध जोड़ देती और जिस प्रकार लेसर यन्त्र, दूरदर्शी यन्त्र हमें दूर के दृश्य व समाचार बताने दिखाने लगते हैं उसी प्रकार यह भाव सम्बन्ध हमें दूरवर्ती स्थानों की घटनाओं के सत्य आभास कराने लगते हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध की ही एक घटना का उल्लेख अपने एक अध्याय में करते हुये श्रीमती रूथ मान्टगुमरी ने लिखा है कि चेकोस्लोवाकिया तथा थाईलैन्ड के भूतपूर्व राजदूत जो उसके बाद ही जापान के राजदूत नियुक्त हुए श्री जानसन तब मुकड़ेन नगर में थे। युद्ध की आशंका से बच्चों को अलग कर दिया गया। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती पैट्रोसिया जान ने कैलोफेर्निया के लैगुना बीच में एक मकान ले लिया और वहीं रहने लगी।
इस बीच श्रीमती जानसन ने कई बार जापान के समाचार जानने के लिये अपना रेडियो मिलाया पर रेडियो ने वहां का मीटर पकड़ा ही नहीं। एक दिन पड़ौस की एक स्त्री ने बताया कि उनका रेडियो जापानी प्रसारणों को (रेडियो ब्राडकास्टिंग) खूब अच्छी तरह पकड़ लेता है। तीन महीने तक श्रीमती जानसन ने इस तरफ कुछ ध्यान ही नहीं दिया। एक दिन उन्हें एकाएक रेडियो सुनने की इच्छा हुई। रेडियो का स्विच घुमाया ही था कि आवाज आई—हम रेडियो स्टेशन मुकड़ेन से बोल रहे हैं। अब आप एक अमेरिकन ऑफीसर वी. जान्सन को सुनेंगे।’’
विस्मय विस्फारित श्रीमती जान्सन एकाग्र चित्त बैठ गईं—अगले ही क्षण जो अवाज आई वह उनके पति की ही आवाज थी। वे बोल रहे—मैं बी. एलेस्सिन जान्सन मुकड़ेन से बोल रहा हूं जो भी कैलीफोर्निया अमेरिका का नागरिक इसे सुने कृपया मेरी पत्नी पैट्रोसिया जान्सन या मेरे माता-पिता श्री व श्रीमती कार्ल टी जान्सन तक पहुंचायें और बतायें कि मैं यहां कैद में हूं, खाना अच्छा मिलता है और आशा है कि कैदियों की अदला-बदली में शीघ्र ही छूट जाऊंगा, अपनी पत्नी और बच्चों को प्यार भेजता हूं।’
दो माह पीछे जान्सन कैदियों की बदली में छूट कर आ गये। पैट्रोसिया पति से मिलने गई तो वहां उसे पति से क्षणिक भेंट होने दी क्योंकि कुछ समय के लिये एलेक्सिस जान्सन को तुरन्त जहाज पर जाना था। पैट्रौसिया को थोड़ी ही देर में घर लौटना पड़ा। उसकी सहेलियां उसे घुमाने ले गईं पर अभी वे एक सिनेमा में बैठी ही थीं कि पैट्रासिया एकाएक उठकर बाहर निकल आईं और अपने घर को फोन मिलाया तो दूसरी ओर से अलेक्सिस जान्सन बोले और बताया कि मैं यहां हूं मुझे जहाज में नहीं जाना पड़ा। पैट्रीसिया सिनेमा छोड़कर घर चली आई।
3 माह तक कभी भी रेडियो सुनने की आवश्यकता अनुभव न करना और ठीक उसी समय जबकि पति संदेशा देने वाले हों रेडियो सुनने की अन्तःकरण की तीव्र प्रेरणा का रहस्य क्या हो सकता है? कौन सी शक्ति थी जिसने पैट्रौसिया को सिनेमा के समय फोन पर पहुंचने की प्रेरणा दी जब इन बातों पर विचार करते हैं तो पता चलता है, कोई एक अदृश्य शक्ति है अवश्य जिसने मानव मात्र को एक भावनात्मक सम्बन्ध में बांध अवश्य रखा है। हम जब तक उसे नहीं जानते तब तक मनुष्य शरीर की सार्थकता कहां? दूरवर्ती स्वजनों के साथ घटित होने वाली घटनाओं तथा भविष्य वक्ताओं का पूर्वाभास कितनी ही बार ऐसे विचित्र ढंग से सामने आता है कि न तो उन्हें झुठलाया जा सकता है और न उनका आधार अथवा कारण समझ में आता है।
विज्ञान के पास ऐसी अनेकों गुत्थियों का कोई समाधान नहीं। कैसे किसी को अनायास ही वर्तमान, भूत या भविष्य की जानकारी होने लगती है व जो कुछ कहा जाता है वह शत-प्रतिशत सही निकलता है। यह अभी तक सुलझाया नहीं जा सका।
शेफील्ड (ब्रिटेन) के श्री डेनिस होम्स और श्रीमती ईर्टलन होम्स की 18 माह की बच्ची ने एक दिन दीवार की ओर सिर उठाकर देखा और कहा ‘मम्मी, पिक्चर हॉल’। इसके बाद घुटनों के बल आकर वह मां की गोद में बैठ गई। लेकिन कुछ ही समय बीता कि अचानक उसी दीवार से एक भारी चौखट वाली तस्वीर टूट कर, जहां पहले केसी बैठी हुई थी, ठीक वहीं आ गिरी।
इसके नौ महीने बाद होम्स परिवार छुट्टियां बिताने के लिए कार से ‘‘यारमुथ’’ जा रहा था। केसी की यह पहली यात्रा थी। यारमुथ से आठ मील दूर पहले सड़क पर एक मोड़ है और जहां मोड़ पूरा होता है वहां 6-7 टूटी हुई पवन चक्कियां हैं, जो मोड़ पार करने पर ही दिखाई देती हैं। लेकिन मोड़ पूरा होने के पूर्व ही केसी बोल उठी मम्मी, वहां पवन चक्कियां हैं। पत्नी और पति इस बात को सुनते ही अवाक् हो गये। लेकिन उन्होंने इसे निरा संयोग समझ कर टाल दिया।
पर इस अस्वाभाविकता को कब तक मात्र संयोग समझा जाये। मार्च 1973 में एक दिन केसी की बुआ उसे शेफील्ड के सिटी रोड कब्रिस्तान में ले गयीं ताकि वहां वह अपने दादा की कब्र पर फूल चढ़ा सकें। सहसा केसी बोल उठी—‘मेरा दोस्त डेविड भी यहीं दफन है।’ आश्चर्य चकित होकर बुआ ने उसे दिखाने को कहा।
केसी उन्हें कब्रिस्तान के एक ढलवें—कोने में ले गयी जहां एक पत्थर पर लिखा था—डेविड सुपुत्र क्लारा और फ्रैंक। मृत्यु 190 उम्र अठारह मास।
केसी से उसके माता-पिता ने काफी पूछा कि उसे डेविड की कब्र का पता कैसे लगा? लेकिन वह बराबर एक ही संक्षिप्त उत्तर देती रही—‘मुझे पता था।’
ऐसी क्षमताओं की कल्पना सिद्ध योगियों में तो की जा सकती है, पर नन्हें बालकों में इस तरह की अद्भुत क्षमताओं का प्राकट्य विस्मयकारी तथ्य जान पड़ता है। आत्मविद्या के ज्ञाताओं को इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं लगता। सृष्टि में जो भी कुछ पैदा होता है चाहे वह जीव-जन्तु पशु-पक्षी मनुष्य हो अथवा वृक्ष वनस्पति, शैशव युवा (प्रौढ़) तथा जरा-अवस्था का सामना सभी को करना पड़ता है। यह विज्ञान सम्मत प्रक्रिया साधना के क्षेत्र में भी कार्य करती है। साधनाएं चाहे वह यम, नियम, प्राणायाम हों या मन्त्र जाप सोऽहं, खेचरी और मुद्रा बन्ध साधनाएं सबका उद्देश्य प्राण शक्ति को प्रखर बनाना है। प्रज्ज्वलित प्राण ऊर्जा ही मस्तिष्कीय न्यूरान के लिए विद्युत का काम करते हैं उसी के सहारे सिद्ध योगी टेलीविजन की तरह चाहे कहीं देखते, कहीं भी सुन लेते हैं। भूत और भविष्य उनके लिए वर्तमान में निवास करते हैं।
जब तक साधना द्वारा उपार्जित प्राण पक न जायें तब तक साधक के दिन जोखिम भरे कसौटी के होते हैं उनके न पकने तक विषय, वासना और तृष्णा, अहंता के वनचरों द्वारा उदरस्थ कर लिये जाने की आशंका तो रहती ही है, कहीं कोई अनुभूति हो तो बाल-बुद्धि उसे चमकाकर अपना अहंकार जताने की भी भूल करके उसे गंवा सकती है। कदाचित साधना काल में ही किसी की मृत्यु हो जाये तो लोकोत्तर जीवन में प्राण परिपाक क्रिया चलती रहती है वही इतर जन्मों की प्रतिभा के रूप में दिखाई देती है।
जब केसी 4 वर्ष की थी, एक दिन श्रीमती होम्स वर्ग—पहेलियां हल कर रही थीं। उन्होंने अपने पति से पूछा कि—‘बी’ से प्रारम्भ होने वाला पांच अक्षरों का वह कौन-सा शब्द है जिसका अर्थ हवाई जहाज होता है? श्री होम्स तथा उनकी 15 वर्षीय पुत्री ‘जैकलीन’ इस प्रश्न का उत्तर न दे सके। तभी केसी कह उठी—‘ब्लिम्प’। शब्दकोश ढूंढ़ने पर बात सही निकली।
अगस्त 1974 के दूसरे सप्ताह में होम्स परिवार छुट्टी मनाने यारमुथ गया। एक बुधवार को समुद्र के किनारे टहलते हुए केसी कहने लगी ‘आज दादाजी उदास हैं। कोई बुरी घटना घटने वाली है। वह अपने पिता के एक पुराने सहकर्मी ‘बेनराइट’ के पिता को ‘दादाजी’ कहा करती थी। शनिवार को होम्स परिवार शेफील्ड लौटा। वहां उन्हें पता चला कि बुधवार को दादाजी के भाई की मृत्यु हो गई थी।
एक दिन श्रीमती होम्स रसोईघर में काम कर रही थीं। तभी केसी वहां आई और बोली—‘कैसी हो टिच?’ श्रीमती होम्स ने पूछा कि मुझे इस नाम से पुकारने के लिए तुमसे किसने कहा? केसी ने जवाब देने के बदले पूछा—‘नानाजी की कमर टेढ़ी थी और वे चपटी टोपी पहनते थे न?’’ वास्तव में केसी के नानाजी की कमर झुकी हुई थी। वे चपटी टोपी पहनते थे तथा केसी की मां को प्यार से ‘टिच’ कहकर बुलाते थे। लेकिन वे तो केसी के जन्म से 4 वर्ष पूर्व ही मर चुके थे।
अप्रैल 1975 की बात है। वियतनाम युद्ध में अनाथ हुए बच्चों को हवाई जहाज द्वारा अमेरिका में बसाने के लिए लाया जा रहा था। टी.वी. में उसकी खबरें देखते समय केसी ने कहा—‘बच्चे मर जायेंगे।’ मां ने कहां ‘हां बच्चे भूखों मर रहे हैं।’ लेकिन केसी ने उनकी बात काटते हुए कहा—‘नहीं जहाज जल रहा है, बच्चे मर रहे हैं।’ दो दिन बाद ही खबर आई कि एक जहाज के गिर जाने से कई बच्चे मर गये।
दूरदर्शन, भविष्यदर्शन को प्रामाणिकता की कसौटी पर कसने के लिए अमेरिका में एक शोध कार्यक्रम बनाया गया। राष्ट्रीय सुरक्षा संगठन और केन्द्रीय जासूसी संगठन ने इन शक्तियों से युक्त ‘इंगोस्वान’ एवं ‘पेट प्राइस’ नामक दो व्यक्तियों का परीक्षण किया। यह कार्य स्टेन फोर्ड शोध-संस्थान की प्रयोगशाला में सम्पन्न हुआ। किसी प्रकार के सन्देह की गुंजायश न रहे इसलिए हैराल्ड पुराफ और रसेल टार्ग नामक दो भौतिकविदों को भी नियुक्त किया गया। इंगोस्वान एवं पेट प्राइस एक स्थान पर बैठकर किसी भी दूरवर्ती स्थान में हो रहे क्रिया-कलाप, स्थान की विशेषताओं का वर्णन उसी प्रकार कर देते थे जैसे प्रत्यक्ष सामने देख रहे हों।
एक प्रयोग पेट प्राइस पर किया गया। वैज्ञानिकों ने पेट प्राइस से कहा कि वह वर्जीनिया के एक गुप्त सैनिक केन्द्र का पूरा विवरण प्रस्तुत करें। कुछ देर ध्यान मग्न होने के उपरान्त प्राइस ने जो विवरण प्रस्तुत किया उसे सुनकर वैज्ञानिक विस्मित रह गये। उसने इतनी छोटी-छोटी बातों का भी उल्लेख किया जिसकी जानकारी वहां रहने वाले अधिकारियों को भी नहीं रहती थी। प्राइस ने कहा कि उक्त सैनिक अड्डे के तलघर के आफिस में दो फाइलें रखी हैं जिनमें एक का नाम है ‘फ्लाइंग ट्रेप’ तथा दूसरी का ‘मिनर्वा’। तलघर के उत्तर को दीवार के साथ लगी अलमारी पर लिखा है—‘आपरेशन पुल’। उक्त स्थान का नाम प्राइस ने बताया ‘टेस्टाक या हेफार्क’ तलघट के मूर्धन्य अधिकारियों का नाम कर्नल आर.जे. ह्वेमिल्स, मेजर जनरल जार्जनेश और मेजर जानकलहम बताया। जिस तलघर का विवरण प्राइस ने प्रस्तुत किया वह एक गोपनीय प्रयोगशाला थी जहां से सोवियत उपग्रहों की निगरानी रखी जाती थी। विशिष्ट सूत्रों द्वारा मालूम करने पर सभी बातें सही पाई गयीं। उपस्थित अधिकारियों ने कहा कि प्राइस तथा स्वान कुशल जासूस का कार्य कर सकते हैं। उन्होंने इस कार्य के लिए बड़ी रकम देने का भी आग्रह किया किन्तु दोनों ने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि ईश्वर प्रदत्त इस सामर्थ्य का हम दुरुपयोग नहीं कर सकते।
दूरानुभूति सम्बन्धी घटनाओं में आयरलैण्ड की एक घटना सर्वाधिक चर्चित है। वहां तिपेरारी नगर में रहने वाले एक व्यापारी युवक हिकी ने न्यूफाउलैण्ड से अपने मित्रों को सूचित किया कि वह शीघ्र ही तिपेरारी पहुंच रहा है। हिकी तिपेरारी से न्यूफाउडलैण्ड व्यापार के सिलसिले में आया था और उसने वहां काफी पैसा कमाया था। हिकी ने जिस तारीख को वापस पहुंचने की सूचना दी थी, उस तारीख को वह नहीं पहुंचा। उस तारीख को बीते भी एक सप्ताह बीत गया तो मित्रों ने पुलिस में रिपोर्ट की। पुलिस ने हिकी की खोजबीन शुरू की। इस सिलसिले में रोजर्स नामक एक सराय मालिक के पास पहुंचा गया जहां हिकी ठहरा था। रोजर्स ने बताया कि हिकी के हुलिये का एक युवक कुछ दिन पहले एक साथी के साथ जलपान के लिए आया था और उसके बहुत रोकने पर भी नहीं रुका था। पुलिस के यह पूछने पर कि वह उन दोनों को क्यों रोकना चाहता था? रोजर्स ने एक विचित्र कारण बताया कि उनके आने के कुछ समय पहले मेरी पत्नी ने स्वप्न में उन दोनों युवकों को जलपान के लिए सराय में आते देखा था और देखा था कि वे दोनों जलपान के बाद चले गये हैं। रास्ते में एक युवक ने दूसरे की हत्या कर दी और उसकी लाश को झाड़ी में छिपा दिया। रोजर्स की पत्नी ने बताया कि मैं वह स्थान बता सकती हूं जहां युवक को छिपाया गया था।
रोजर्स के इस बयान के आधार पर पुलिस ने हिकी के साथी को खोजना आरम्भ कर दिया। कुछ दिन बाद पुलिस ने काउफील्ड नामक उस युवक को एक गिरजाघर में पकड़ा। काउफील्ड वहां वेश बदल कर एक पादरी के सहायक के रूप में काम कर रहा था। किसी को भी विश्वास न हुआ कि देखने में इतना भोला-भाला ओर सीधा लगने वाला लड़का निर्मम हत्यारा भी हो सकता है। अदालत में काउफील्ड ने अपना अपराध स्वीकार करते हुए कहा—‘‘सराय में रोजर्स की पत्नी को अपनी ओर घूरते हुए देखकर मैंने हिकी की हत्या करने का इरादा बदल दिया था लेकिन बाद में जैसे ही एकान्त मिला, मुझ पर शैतान सवार हो गया और मैंने उसके ही चाकू से उसका गला काट दिया।’’ काउफील्ड को इस हत्या के अपराध में फांसी की सजा मिली।
इस तरह के अनेकों उदाहरण और प्रमाण हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि मनुष्य वही नहीं है, जो कुछ वह प्रतीत होता है और उसकी शक्ति वहीं तक सीमित नहीं है जितनी कि वह दिखाई देती है।
प्रश्न उठता है कि मनुष्य की विराट् सत्ता जब अपने को प्रकट करने के लिए आकुल-व्याकुल है तो जिन्हें अतीन्द्रिय स्तर की क्षमतायें अनायास ही प्राप्त हो जाती हैं उनकी संख्या कुछेक तक ही सीमित क्यों है? क्यों नहीं सभी मनुष्यों में वह प्रकट होती है? इसका कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता, पर इतना सच है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर के विराट् और महान् की झांकी कभी न कभी मिलती अवश्य है। कई बार बिना किसी आधार या ठोस कारण के हुए बिना भी किये गये पूर्वानुमान आश्चर्यजनक रूप से सही सिद्ध होते हैं। ध्यानपूर्वक अपने अतीत के अनुभवों का विश्लेषण किया जाये तो इस तरह की कुछेक घटनाएं सभी लोगों के जीवन में मिल जायेंगी। होता यही है कि इस तरह के अनुभवों या अनुमानों को सामान्य दिनचर्या का ही अंग मानकर उपेक्षा कर दी जाती है और अपने भीतर की अनन्त सम्भावनाओं का परिचय होते-होते रह जाता है।
यह संयोग था अथवा दूरबोध—
सन् 1898 में एक अमेरिकी लेखक रावटसन का उपन्यास ‘रैंक आफ टाइरन’ प्रकाशित हुआ था। उपन्यास की कथावस्तु टाइरन नामक विशाल जलयान से सम्बन्धित थी। यह जहाज 75000 टक का विशाल यात्री-जलयान था। टाइरन की लम्बाई 882 फीट की थी और इसमें तीन प्रोपेलर थे। जहाज में सवार यात्रियों की संख्या लगभग तीन हजार यात्री थे और लेखक ने पूरे उपन्यास में काल्पनिक टाइरन को कभी न डूबने वाला जहाज बताया लेकिन एक वर्ष अप्रैल के महीने में जहाज की पेंदी में बर्फ की चट्टान टकराने के कारण एक छेद हो जाता है और जहाज में पानी भर जाता है। फलतः जहाज पानी में डूब जाता है। लेखक ने काल्पनिक जहाज और उसमें सवार यात्रियों में से सबके डूब जाने का कारण नावों का अभाव बताया था।
प्रकाशित होते ही उपन्यास की हजारों प्रतियां हाथों-हाथ बिक गयीं। रोमांचकारी उपन्यासों की लोकप्रियता प्रायः वर्ष दो वर्ष तक ही रहती है, परन्तु 14 वर्ष बाद उस उपन्यास की मांग एकदम अब तक के सभी उपन्यासों की लोकप्रियता का रिकार्ड तोड़ने लगी। कारण था कि उपन्यास में वर्णित काल्पनिक जहाज काल्पनिक दुर्घटना और काल्पनिक यात्रियों की काल्पनिक जल-समाधि शब्दशः सत्य सिद्ध हो उठी थी।
लोगों ने सन् 1912 की अप्रैल 15-16 के समाचार-पत्रों में पढ़ा 14 अप्रैल की रात्रि को 11 बजकर 20 मिनट पर एक यात्री जहाज एस.एस. टाइटैनिक इंग्लैण्ड से अमेरिका जाते हुए उत्तर अटलांटिक में बर्फ की चट्टान से टकराकर पेंदी में सूराख होने से डूब गया है। यह उस प्रसिद्ध यात्री जहाज की प्रथम यात्रा थी। कितना आश्चर्यजनक संयोग था कि 14 वर्ष पूर्व मारगट राबर्टसन के उपन्यास ‘द रैंक आफ टाइरन’ का काल्पनिक जहाज भी टाइरन था। वह भी अपनी प्रथम यात्रा में ही डूब जाता है। उसमें वर्णित दुर्घटना टाइटैनिक दुर्घटना के विवरण से सटीक मेल खाती थी।
टाइटैनिक जहाज का भार भी लगभग 75000 टन था उसकी ऊंचाई 882 फीट थी, उस जहाज में तीन प्रोवैलर लगे हुए थे और उसमें लगभग ढाई हजार यात्री सवार थे। काल्पनिक टाइरन जहाज से यह विवरण कितना संगति खाता है—यह प्रस्तुत लेख की प्रारम्भिक पंक्तियों में देखा जा सकता है। आश्चर्य की बात तो यह कि काल्पनिक टाइरन के बारे में भी उन्हीं विशेषताओं का उल्लेख किया गया था, जिनके दावे टाइटैनिक जहाज का निर्माण करने वाली जहाज कम्पनी ने किये थे। उस जहाज कम्पनी का दावा था कि यह जहाज कभी न डूबने वाला अद्वितीय जहाज था। 14 वर्ष पूर्व प्रकाशित उपन्यास टाइरन के बारे में भी उपन्यास लेखक ने इसी प्रकार का कथानक विकसित किया।
इसी तरह के और भी वर्णन उपन्यास में थे, जिन्हें टाइटैनिक दुर्घटना का पूर्वाभास कहा गया है। स्वाभाविक ही यह प्रश्न उठता है कि यह मात्र एक संयोग था अथवा लेखक मारगट राबर्टसन ने किसी अन्तःप्रेरणा या पूर्वाभास से प्रेरित होकर आने वाले कल का चित्र अपने उपन्यास में खींच दिया था।
किसी युग में भले ही यह कहा जा सकता था कि इस प्रकार की घटनाएं मात्र संयोग के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। परन्तु अब वैज्ञानिक और डॉक्टर भी यह मानते हैं कि शरीर में इन्द्रियों की चेतना का भी अस्थायी महत्व है। स्थाई रूप से दर्शन, श्रवण, घ्राण उत्प्रेरण और सम्वेदन की सभी क्षमताएं मस्तिष्क में विद्यमान हैं। थैलेमस नामक अंग भीतरी मस्तिष्क में होता है, जो सिर के केन्द्र में अवस्थित है। यही केन्द्र सभी तन्मात्राओं के ठहरने का स्थान है। इसी के ऊपर पीनियल ग्रन्थि होती है जो देखने का काम करती है। ‘‘पीनियल ग्लैण्ड’’ को तीसरा नेत्र भी कहते हैं। पिट्यूटरी ग्लैण्ड्स और सुषुम्ना शीर्ष (मेडुला आब्लॉगेटा) जो शरीर के सम्पूर्ण अवयवों का नियन्त्रण करते हैं, वे सब भी मन से सम्बन्धित हैं। मस्तिष्क का यदि वह केन्द्र काट दिया जाये तो शरीर के अन्य सब संस्थान बेकार हो जाएंगे।
विज्ञान और शरीर रचना शास्त्र (एनाटॉमी) की इन आधुनिक जानकारियों का भण्डार यद्यपि बहुत समृद्ध हो चुका है किन्तु योग और भारतीय तत्व-दर्शन की तुलना में ये जानकारियां समुद्र में एक बूंद की तरह हैं। भारतीय तत्ववेत्ताओं ने मन को सर्वशक्तिमय इन्द्रियातीत ज्ञान का आधार माना है। उसकी शक्तियों को ही ब्रह्म में लीन कर देने से हाड़-मांस का मनुष्य सर्वजयी और कालदर्शी हो जाता है। महर्षि पातंजलि ने इस तत्वदर्शन का साधन स्वरूप बताते हुए कहा है—
परिणाम त्रय संयमाद तातानागत ज्ञानस् ।
(योगदर्शन, विभूतिपरिषद)
तीन परिणामों में (चित्त का) संयम करने से भूत और भविष्य का ज्ञान होता है।
योग वशिष्ठ में बताया गया है—
मनो हि जगतां कतृ मनो हि पुरुषः स्मृतः ।
—3।91।4
अर्थात्—संसार को रचने वाला पुरुष भी स्वयं मन ही है, मन में सब प्रकार की शक्तियां हैं।
उपरोक्त घटना के सम्बन्ध में, उपन्यास और जहाज-दुर्घटना की सभी बातें समान रूप से घटित होने के बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कुछ और विवरणों को जान लेना उचित होगा। उपन्यास में वर्णित घटनाक्रम तो चौदह वर्ष पूर्व का था, परन्तु उसी समय जब ‘‘टाइटैनिक जहाज का जलावतरण होने वाला था कुछ और लोगों को भी इसी प्रकार का आभास हुआ। एक अंग्रेज व्यापारी जे. कैनन मिडिलटन ने 23 मार्च 1912 को टाइटैनिक से यात्रा करने के लिए टिकट खरीदा। लेकिन यात्रा से दस दिन पूर्व ही कैनन ने एक स्वप्न देखा। स्वप्न में उसे एक बड़ा जहाज समुद्र में उल्टा तैरता दिखाई दिया। उसकी तली टूटी हुई दिखाई दे रही थी और बहुत से यात्री चीखते-चिल्लाते पानी में हाथ-पैर मार रहे थे।
स्वप्न इतना भयावह था कि घबराकर कैनन की आंख खुल गई। उसने सोचा ऐसे ही कोई स्वप्न होगा और वह उस बात को भूल गया। अगली रात जब वह फिर सोने लगा तो सोते ही फिर वही स्वप्न देखने लगा। इस बार उसने अपने आप को जहाज के ऊपर हवा में तैरते हुए देखा। दो दिन तक लगातार यही स्वप्न देखने के कारण कैनन इतना सन्देहग्रस्त हो गया कि उसने अपनी यात्रा ही स्थगित कर दी। दुर्घटना के बाद उसने लन्दन की ‘सोसायटी फार साइको लॉजिकल रिसर्च’ को पत्र लिखकर अपने स्वप्न की जानकारी दी। यह विवरण सोसायटी की पत्रिका में भी प्रकाशित हुआ था।
वैरी ग्राण्ट ने एक-दूसरे ही प्रकार का विवरण ‘‘फार मेमोरी’’ नामक पुस्तक में लिखा है जो सन् 1956 में न्यूयार्क से प्रकाशित हुई थी। बैरी ग्राण्ट ने लिखा है कि जिस दिन टाइटैनिक जहाज अपनी पहली यात्रा का आरम्भ कर रहा था। जहाज का भौंपू बज चुका था और इंजिन भी स्टार्ट हो चुका था, तब उसके पिता जेक मार्शल और उसकी मां आइल आफ ह्वाइट दूसरी ओर मकान की छत पर जहाज को रवाना होते देख रहे थे। एकाएक न जाने क्या हुआ कि श्रीमती मार्शल अपने पति की बांह पकड़कर जोर से चीखी ‘‘अरे....रे! वह जहाज तो अमेरिका पहुंचने से पहले ही डूब जायेगा। कुछ करो, रोको उसे।’’
जैक मार्शल ने अपनी पत्नी को सहलाया और कहा—‘चिन्ता मत करो टाइटैनिक कभी भी डूब नहीं सकता।’ लेकिन श्रीमती मार्शल अपने पति को इस प्रकार कहते देखकर गुस्सा हो गयीं और कहने लगी—‘तुम कैसी बातें कर रहे हो। मैं सैकड़ों लोगों को अपनी आंखों में पानी में डूबते हुए देख रही हूं। क्या तुम उन्हें मरने दोगे।’
प्रसिद्ध लेखक जानेथन स्विफ्ट ने अपनी पुस्तक ‘गुलीवर की यात्राएं’ में लिखा था कि मंगल ग्रह के चारों ओर दो चन्द्रमा परिक्रमा करते हैं। इसमें एक की चाल दूसरे से दुगुनी है। उस समय यह बात निरी कल्पना के सिवा कुछ नहीं लगती थी। क्योंकि तब इस बात का किसी को तनिक भी आभास नहीं था कि मंगल के इर्द-गिर्द चन्द्रमा भी हो सकता है। पीछे डेढ़ सौ वर्ष बाद सन् 1977 में वाशिंगटन की नेबल आवजरबेटरी में एक शक्तिशाली दुरबीन के सहारे यह देख लिया गया कि वास्तव में मंगल ग्रह के दो चन्द्रमा हैं और की चाल दूसरे से दूनी है तो लोग आश्चर्यचकित रह गये कि उस साधन हीन जमाने में जब इस तरह की कल्पना कर सकना भी सम्भव नहीं था, तब किस प्रकार स्विफ्ट ने मंगल ग्रह की स्थिति बताई।
विज्ञान कथा लेखिका मेरिनिबेन ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘ए होल इन द स्पेस’ में एक ऐसे तारे की कल्पना की थी जो सूर्य से आकार में दस गुना था और अरबों वर्ष बाद एक काला पिण्ड भर रह गया। यही नहीं वह सिकुड़कर साठ किलोमीटर अर्द्धव्यास का रह गया किन्तु उसका भार अभी भी सूर्य से दस गुना अधिक है।
उस समय जब यह उपन्यास लिखा गया तब वैज्ञानिकों का इस ओर ध्यान भी नहीं गया था। सन् 1972 में ‘साइगस-एक्स वन’ नामक एक ब्लैक होल के अस्तित्व का पता चला जिसका अर्द्धव्यास साठ किलोमीटर है और वजन सूर्य से दस गुना अधिक। पृथ्वी से उसकी दूरी, घनत्व, गुरुत्वाकर्षण वहां की गतीय सम्भावना, आकर्षण शक्ति आदि सब कुछ उपन्यास में वर्णित विशेषताओं से मेल खाती थी।
क्या इन सब घटनाओं से मात्र संयोग कहकर छुटकारा पा लिया जाये? विज्ञान के लिए इतने प्रबल प्रमाण होने के बाद उनकी उपेक्षा कर पाना सम्भव नहीं है। भारतीय तत्वदर्शन तो पहले ही मानता है—अतीन्द्रिय चेतना मानवी सत्ता के अस्तित्व में विद्यमान है। ऐसे घटनाक्रम तो मात्र उस भण्डागार की एक झलक भर देते हैं।
कुछ समय पूर्व तक इस तरह की बातों पर सन्देह किया जाता था और उनकी यथार्थता अविश्वसनीय समझी जाती थी। ऐसी घटनाओं को मात्र जादूगरी के अतिरिक्त कोई महत्व नहीं दिया जाता था। किन्तु अब विज्ञान क्रमशः इन्हें ऐसे प्रामाणिक तथ्य मानता चला जा रहा है जिसकी खोज भौतिकी के अन्य क्रिया-कलापों की तरह ही आवश्यक है। चेतना के सम्बन्ध में अभी तक जितनी जानकारी प्राप्त हो सकी है, उससे स्पष्ट हो चला है कि मनुष्य-मनुष्य के बीच पड़ी हुई गोपनीयता की दीवार उठा सकती है और न केवल एक दूसरे की अन्तःस्थिति को जाना जा सकता है अपितु कायिक या भौतिक उपकरणों का प्रयोग किये बिना भी दूरस्थ रहे व्यक्तियों से भावनात्मक आदान-प्रदान सम्भव है।
परामनोविज्ञान के अनुसार विश्व मानस (यूनिवर्सल माइण्ड) एक समग्र विचार सागर है और वैयक्तिक चेतना उसकी अलग-अलग लहरें हैं। ये लहरें अलग-अलग दिखाई देने पर भी एक दूसरे से अविच्छिन्न रूप में सम्बद्ध हैं। उस समग्र विचार सागर से ही व्यक्तिगत चेतना अनेक विधि चेतनाएं और स्फुरणाएं उपलब्ध करती हैं। अध्यात्म शास्त्र तो इस मान्यता को काफी पहले से प्रामाणिक और अनुभव सिद्ध मानता रहा है। उसके अनुसार समस्त प्राणी एक ही विराट् चेतना का अस्तित्व हैं। काय-कलेवर की दृष्टि से अलग दीखते हुए भी सभी प्राणी आत्मिक दृष्टि से एक ही हैं। व्यक्तिगत भौतिकता और स्वभावगत विभिन्नताएं एक दूसरे के विपरीत स्तर की दिखाई देने पर भी न केवल उनकी मूल प्रवृत्ति में साम्य है; वरन् ऐसा पारस्परिक सम्बन्ध भी है जिसे पूर्णतया अलग कर पाना सम्भव नहीं हो सकता। अतीन्द्रिय क्षमताओं को प्रमाणित करने वाली घटनाएं इसी तथ्य को सिद्ध करती हैं। भविष्य में जब इनका रहस्योद्घाटन होगा तो मनुष्य की सत्ता के बारे में यह विश्वासपूर्वक सप्रमाण कहा जा सकेगा कि वह उतना ही नहीं है जितना कि शारीरिक और मानसिक क्षमता के आधार पर जाना समझा जाता है।
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