अदृश्य जगत का पर्यवेक्षण सपनों की खिड़की से

निद्रावस्था एवं सपनों की दुनिया

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सो जाने के बाद व्यक्ति जैसे किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंच जाता है। उसे अपने आस-पास की परिस्थितियों, वस्तुओं और सम्बन्धों की कुछ भी स्मृति नहीं रहती एक तरह से उस समय व्यक्ति की आंशिक मृत्यु ही हो जाती है। हृदय की धड़कन, रक्त का संचार और श्वांस प्रश्वांस भले ही चलते रहें, परन्तु उसकी चेतना का सम्बन्ध उस समय तो स्थूल जगत से कट ही जाता है। उस समय मन अपनी ही दुनिया में घूमता है और चित्र विचित्र सपने देखता है। जागने पर तो यह लगता है कि बे सिर-पैर के सपने देखे गये हैं परन्तु जिस समय वे देखे जाते हैं उस समय तो वास्तविक ही लगते हैं।
निद्रा और स्वप्न में परस्पर क्या सम्बन्ध है। शरीर का कौन-सा अंग स्वप्नों के लिए उत्तरदायी है, यह जानने के लिए शिकागो विश्वविद्यालय के दो छात्र नेपोलियन क्लीरमा और यूजोन ऐसेटिस्की शोध करने लगे। दोनों की खोज पूरी तो नहीं हो सकी, पर उससे कई नये तथ्य प्रकाश में आये हैं। उन्होंने पाया कि कोई व्यक्ति स्वप्न देखता है तो उसकी आंखों की पुतलियां ठीक उसी प्रकार घूमती हैं जैसे जागृत अवस्था में कोई दृश्य देखते समय घूमती हैं। अर्थात् आंखें उस समय बन्द रहते हुए भी देखती हैं।
आधुनिक विज्ञान ने स्वप्नों के सम्बन्ध में कई नये तथ्यों का पता लगाया है और उनमें से अधिकांश तथ्य भारतीय ऋषियों के निष्कर्षों से मेल खाते हैं उदाहरण के लिए निद्रा के समय व्यक्ति का शरीर शिथिल पड़ जाता है, उसकी इन्द्रियां काम करना लगभग बन्द कर देती हैं। फिर भी स्वप्नों की दुनिया में पहुंचकर व्यक्ति जागृत होने की अवस्था जैसे ही काम करता है। इस आधार पर प्रसिद्ध मनोविज्ञानी हैफनर राबर्ट ने प्रतिपादित किया है कि ज्ञान और अनुभव का आधार इन्द्रियां नहीं हैं। बल्कि मनुष्य की सूक्ष्म सत्ता ही उनके माध्यम से ज्ञान और अनुभव प्राप्त करती है।
वृहदारण्यक में जागृति, सुषुप्ति की तरह स्वप्न को मन की तीसरी अवस्था बताया गया है। जब मन सो जाता है तो वह अपने ही संकल्प विकल्प से अभीष्ट वस्तुओं के निर्माण की क्षमता से ओत-प्रोत होता है। सुख-दुःख की सामान्य परिस्थिति भी जागृत जगत की तरह ही उस स्थिति में भी जुड़ी रहती है। जिस तरह जागृत में जीव के संस्कार उसे आत्मिक प्रसन्नता और आह्लाद प्रदान करते और निश्चिन्त भविष्य की रूप रेखा बनाते रहते हैं। उसी तरह संयत और पवित्र मन में भी जो स्वप्न आयेंगे वे भविष्य की उज्ज्वल संभावनाओं के प्रतीक होंगे। इस दिशा में अध्यात्म तत्वदर्शन की मान्यता स्पष्ट है। वैज्ञानिक सूक्ष्म सत्ता एवं स्वप्न का मध्यवर्ती सम्बन्ध जोड़ते हुए भी उसे पूरी तरह जान पाने में असमर्थ रहे हैं एवं अभी उस सूक्ष्म सत्ता की खोज में मन तक ही पहुंचा जा सका है और बताया जाता है कि मन ही विभिन्न स्तरों पर देखी, सुनी, जानी और अनुभव की हुई बातों की स्मृति व कल्पना करते हुए सपने के रूप में देखता है। मानसिक गुत्थियां और जीवन की उलझनें, अनुभूतियां मस्तिष्क में लुक-छिपकर बैठी रहती हैं और जब बुद्धि का दबाव घट जाता है तो निद्रावस्था में स्वप्नों के रूप में बाहर निकल आती हैं। इसके अतिरिक्त यह भी माना जाने लगा है कि मन कई बार ऐसी तरंगों को भी पकड़ लेता है, जो किसी स्थान पर घटी घटना के कारण सूक्ष्म जगत् में उत्पन्न हुई हैं अथवा निकट भविष्य में होने वाली हैं। इस स्तर के स्वप्नों को मन की अतीन्द्रिय चेतना कहा जाता है।
परन्तु भारतीय मनीषियों की दृष्टि में मन ही एक मात्र समर्थ या सूक्ष्म सत्ता नहीं है। उससे भी सूक्ष्म सत्ता मनुष्य की चेतना है जिसे जीवात्मा कहा जाता है और वही मन तथा इन्द्रियों का उपयोग कर ज्ञान व अनुभव प्राप्त करता है। ऐतरेयोपनिषद् में इस सम्बन्ध में कहा है—
यदेत हृदयं मनश्चैतत् । संज्ञानपाज्ञान विज्ञानं प्रज्ञानं मेधा दृष्टिर्घृतिर्मनीषा जूति स्मृतिः संकल्प क्रतुरसुः कामो वश प्रज्ञानस्य नामधेयानि भवन्ति ।।
(3।1।2)
अर्थात्—यह अन्तःकरण ही मन है। इस मन की ज्ञानशक्ति, विवेचन शक्ति, तत्काल समझने, अनुभव करने, देखने की शक्ति तथा धैर्य, बुद्धि, स्मरण, संकल्प, मनोरथ, प्राण, कामना, अभिलाषा आदि शक्तियां उस परमात्मा से ही प्राप्त होती हैं जो जीवात्मा के रूप में इस शरीर में अवस्थित रहता है।
एक बार एक अन्धे से पूछा गया कि क्या तुम्हें स्वप्न दिखाई देते हैं इस पर उसने उत्तर दिया मुझे खुली आंख से भी जो वस्तुयें दिखाई नहीं देतीं वह स्वप्न में दिखाई देती हैं इससे फ्रायड की इस धारणा का खण्डन होता है कि मनुष्य दिन भर जो देखता और सोचता है। वही दृश्य मस्तिष्क के अन्तराल में बस जाते और स्वप्न के रूप में दिखाई देने लगते हैं। निश्चय ही यह तथ्य यह बताता है कि स्वप्नों का सम्बन्ध काल की सीमा से परे अतीन्द्रिय जगत से है अर्थात् चिरकाल से चले आ रहे भूत से लेकर अनन्त काल तक चलने वाले भविष्य जिस अतीन्द्रिय चेतना में सन्निहित हैं स्वप्न काल में मानवीय चेतना उसका स्पर्श करने लगती है। इसका एक स्पष्ट उदाहरण एक अध्ययन में एक बालक द्वारा देखे गये स्वप्न की समीक्षा से मिलता है। बच्चे ने पहले न तो काश्मीर देखा था न नैनीताल किन्तु उसने बताया
मैंने हरा-भरा मैदान कल-कल करती नदियां ऊंचे बर्फीले पर्वत शिखर देखे, कुछ ही क्षणों में पट-परिवर्तन हुआ और मेरे सामने जिस मैदान का दृश्य था वह मेरे विद्यालय का था। मेरे अध्यापक महोदय हाथ में डंडा लिये मेरी ओर बढ़ रहे थे तभी मेरी नींद टूट गई। इस से एक बात स्वप्नों की क्रमिक गहराई का भी बोध होता है। स्पर्श या निद्रा जितनी प्रगाढ़ होगी स्वप्न उतने ही सार्थक, सत्य और मार्मिक होंगे सामयिक स्वप्न उथले स्तर पर अर्थात् जागृत अवस्था के अन करीब होते प्रतीत होते हैं, पर यह तभी सम्भव है जब अपना अन्तःकरण पवित्र और निर्मल हो। निकाई किये हुये खेतों की फसल में एक ही तरह के पौधे दिखाई देते हैं वे अच्छी तरह विकसित होते और फलते फूलते भी हैं। पर यदि खेत खर पतवार से भरा हुआ हो तो उसमें क्या फसल बोई गई है, न तो इसी बात का पता चल पाता है और न ही उस खेत के पौधे ताकतवर होते हैं, ये कमजोर पौधे कैसी फसल देंगे, इसका भी सहज ही अनुमान किया जा सकता है। मन जितना अधिक उच्च-चिन्तन उच्च संस्कारों से ओत-प्रोत शान्त और निर्मल होगा स्वप्न उतने ही स्पष्ट और सार्थक होंगे।
एक बात स्पष्ट प्रतीत होती है कि जागते हुए जो स्वप्न देखे जाते हैं वे कल्पनाएं होती हैं तथा सोते हुए जो कल्पनाएं की जाती हैं उन्हें स्वप्न कहते हैं। स्वप्न और कल्पना में प्रायः यही अन्तर देखा और समझा जाता है, परन्तु इतना मात्र ही अन्तर नहीं है। जिस प्रकार जागृत स्थिति में कई विचित्र और अबूझ अनुभव होते हैं उसी प्रकार निद्रित अवस्था में भी अनेक स्वप्न ऐसे होते हैं जो अदृश्य जगत की वास्तविक अनुभूति कराते हैं और वह अनुभूति ऐसी होती है कि उन्हें स्थूल नेत्रों से प्रायः नहीं ही देखा जा सकता।
साधारणतः स्वप्न में होने वाले अनुभवों का प्रत्यक्ष अनुभवों से कोई सम्बन्ध नहीं दिखाई देता, लेकिन कई बार स्वप्न में ऐसी अनुभूतियां होती हैं जिन्हें विचित्र और विलक्षण ही नहीं चमत्कारिक भी कहा जा सकता है। ऐसे स्वप्नों का विश्लेषण करते हुए मनःशास्त्रियों का कथन है कि उस समय मनुष्य की निद्रितावस्था में काम करने वाली मानसिक शक्ति ऐसे कार्य कर दिखाती है जो जागृतावस्था में मन को अत्यन्त कठिन या असम्भव मालूम होती है। किसी गणितज्ञ को एक प्रश्न बहुत कठिन मालूम होता था। अनेक बार प्रयत्न करने पर भी वह प्रश्न हल न हो सका। एक दिन उक्त प्रश्न को स्लेट पर लिखकर सोचते-सोचते ही वह गणितज्ञ सो गया। सुबह उठते ही उसे यह मालूम हुआ कि उसके मन ने उक्त प्रश्न को हल कर लिया है तत्काल उसने स्लेट पर उस प्रश्न का पूरा हल स्लेट पर लिख डाला और वह आनन्द से नाचने लगा।
यह सच है कि गहरी नींद में या तो स्वप्न आते ही नहीं, आते हैं तो छोटे होते हैं। निरर्थक और असंगत स्वप्न उथली नींद में आते हैं। वे उद्विग्न करने वाले और असमंजस में डालने वाले भी होते हैं। गहरी नींद का न आना इस बात का चिन्ह है कि आहार-विहार को प्रकृति के अनुशासन से नहीं चलाया जा रहा है। अनावश्यक तनाव या दबाव के बीच रहा जा रहा है। स्वप्नों की विसंगतियों को देखकर जीवनक्रम की अस्त-व्यस्तता की जानकारी मिलती है। साथ ही चेतावनी भी प्रस्तुत होती है कि तनावयुक्त जीवन क्रम को बदलने का समय रहते प्रयत्न किया जाय। इस प्रकार स्वप्न हमें अपने सम्बन्ध की अविज्ञात एवं उपेक्षित जानकारियों को सचित्र की तरह प्रस्तुत करते हैं और सुधार के लिए परामर्श प्रोत्साहन भी प्रस्तुत करते हैं।
नींद की आवश्यकता तो मात्र आहार के समान ही समझी जानी चाहिए। थकान के बाद थोड़ा सुस्ताने से दैनिक कार्यों का ढर्रा ठीक तरह चलता है। बिना रुके लगातार काम करने वाले आरम्भ में तो कुछ अधिक काम भी कर लेते हैं किन्तु बाद में शरीर में बढ़ी हुई गर्मी कष्टकारक सिद्ध होती है। इन्जन को लगातार बहुत देर नहीं चलाया जाता, उसे बीच-बीच में ठण्डा होते रहने का अवसर दिया जाता है। श्रम और विश्राम का भी ऐसा ही तारतम्य है। एक दूसरे को राहत मिलती है। श्रम की महत्ता जिस प्रकार समझी जाती है। उसी प्रकार विश्राम की भी समझी जानी चाहिए किन्तु स्मरण रहे इस बहाने कोई आलसी बनने का प्रयत्न न करने पाये। ठलुआ रहने से तो विश्राम हाथ रह जाता है और थकान के कारण जो गहरी नींद आती है उस लाभ एवं आनन्द से वंचित रहना पड़ता है।
हर व्यक्ति जिन्दगी का प्रायः एक तिहाई भाग नींद में गुजारता है। देखने में यह व्यर्थ गया प्रतीत होता है पर बात ऐसी नहीं। यह अवधि थकान उतारने और नई क्षमता अर्जित करने की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। रात्रि न हो और सदा दिन ही बना रहे तो कोई अदूरदर्शी ही यह अनुमान लगा सकता है कि इससे दूना काम एवं उपार्जन होने लगेगा। सच तो यह है कि ऐसी स्थिति में काम करने वाली मशीन कुछ ही समय में इतनी गरम और अशक्त हो जायगी कि उसके लिए अपने मस्तिष्क की रेखा तक सम्भव न रहेगी।  नींद के सम्बन्ध में भी यही बात है उसमें कटौती करना या होना सौभाग्य का नहीं दुर्भाग्य का ही चिन्ह है।
निद्रा विशेषज्ञ डा. माइकेल जुवेट का कथन है कि निद्रा को मनःसंस्थान की विद्युत प्रक्रिया के साथ सम्बन्ध जोड़े रहने की बात है। उसमें शरीरगत रसायनों का भी बड़ा योगदान रहता है। यदि आहार गले और सांस के द्वारा मिलने वाले रसायनों को शारीरिक आवश्यकताओं के अनुरूप होने की बात न बनी तो अन्य विकृतियां उत्पन्न होने के साथ-साथ नींद में भी विक्षेप पड़ेगा। अधूरी नींद में जो स्वप्नों की भरमार रहती है उससे उपयुक्त विश्राम मिलने में विघ्न खड़ा होता रहेगा। उनसे पेट साफ रखने की तथा सुपाच्य आहार पद्धति अपनाने की व्यवस्था बनाने की सलाह भी अनिद्राग्रस्तों तथा डरावने स्वप्न देखने वालों को दी है।
निद्रा के ऊपर किया गया विश्लेषण एवं शोध अध्ययन चिकित्सकों के लिये काफी मार्गदर्शक सिद्ध हुआ है।
प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रिका। साइकोलॉजी टूडे में डा. एम. मिटलेर ने एक निद्रा के रोगी की घटना प्रकाशित की थी। उस व्यक्ति ने ऐसी धारणा बना रखी थी कि लेटने के 1 घण्टे बाद उसको नींद आती है और वह 5 घण्टे से भी कम सो पाता है। इसके कारण वह दिन भर थकान अनुभव करता था। जब ई.ई.जी. द्वारा उसकी जांच की गई तो यह पाया गया कि बिस्तर पर लेटने के 10 मिनट बाद ही सो जाता और सात घण्टे से कुछ अधिक ही सोया रहता। उसके तनाव और चिन्ता एवं भ्रम दूर कर देने भर से उसका मिथ्या रोग दूर हो गया। वह वास्तव में कम नींद का रोगी न था। उसने स्वयं ही ऐसा सोच रखा था कि उसे कम नींद आती है।
सर्वेक्षण से पता चला है कि लगभग 75 प्रतिशत से अधिक लोग नींद सम्बन्धी शिकायतों को लेकर डाक्टरों के पास पहुंचते हैं। लोग स्वाभाविक निद्रा को भूलते जा रहे हैं, नशीली दवाइयों गोलियों के सहारे सोने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार की दवाइयां संसार में प्रतिवर्ष लाखों टन बनती हैं। मनुष्य जब नींद की दवा का आदी हो जाता तो दवा का प्रभाव भी कम हो जाता है वह तनाव से ग्रस्त हो जाता है। विश्राम न मिल पाने से तनाव की स्थिति में विषाक्त पदार्थ एवं हारमोन्स उत्पन्न हो जाते हैं। फलतः मनुष्य को अनिद्रा रोग का सामना करना पड़ता है।
निद्रा सम्बन्धी रोग प्रायः तीन प्रकार के माने जाते हैं—
(1) इन्सोमेनिया—इस प्रकार के रोग में व्यक्ति को कुछ नींद तो आती है, परन्तु उसे अल्प कालीन निद्रा का पता नहीं रहता।
(2) डायसोमेनिया—नींद की अवस्था में दांत किट-किटाना, बड़बड़ाना, चल पड़ना, चीखना, पेशाब कर देना आदि इस रोग के लक्षण हैं। इसका कारण ‘रैपिड आई मूवमेन्ट’ निद्रा (रैम) की अनुपस्थिति बताया जाता है।
(3) नार्कोलेप्सी—इसमें अत्यधिक नींद आती है अथवा नींद का दौरा पड़ता है।
नींद सम्बन्धी अधिकतर रोग मनोशारीरिक होते हैं। निरन्तर मानसिक तनाव एवं अशान्ति के परिणाम स्वरूप अनिद्रा रोग की उत्पत्ति होती है। अधिकांश रोगियों का मात्र भ्रम होता है कि उन्हें नींद नहीं आती और थका-थका अनुभव करते हैं। इसे ही अनिद्रा भ्रम कहा जाता है।
शरीर विज्ञानियों का कथन है कि स्वस्थ रहने के लिए विश्राम का एक महत्वपूर्ण माध्यम है निद्रा। प्रत्येक व्यक्ति को नींद की आवश्यकता अलग-अलग होती है। कई व्यक्ति तीन-चार घण्टे की नींद में ही पूर्ण विश्राम ले लेते हैं। बहुत से लोग आठ-दस घंटे सोने पर भी पर्याप्त विश्राम नहीं ले पाते।
निद्रा की एक विशेष अवस्था में शरीर को सबसे अधिक विश्राम मिलता है। वह पूर्णतः निष्क्रिय सा रहता है। मांसपेशियां पूरी शिथिल हो जाती हैं। इस अवस्था को वैज्ञानिकों की भाषा में ‘रैपिड आई मूवमेन्ट’ कहते हैं। जो स्वप्नावस्था की एक विशेष स्थिति है। इस स्थिति में ई.ई.जी. द्वारा मस्तिष्कीय तरंगों का अंकन जागृत अवस्था की तरह होता है। योगनिद्रा के अभ्यास से ऐसी अवस्था प्राप्त कर पूर्ण विश्राम का लाभ हर व्यक्ति उठा सकता है। योगनिद्रा के अभ्यास से तनाव से उत्पन्न प्राण सम्बन्धी असन्तुलन दूर होता है। अन्तःस्रावी ग्रन्थियों में सन्तुलन होता है परिणाम स्वरूप मानसिक विश्राम मिलता है।
निद्रा लाने वाली औषधियों का उपयोग इन दिनों संसार भर से आश्चर्यजनक गति से बढ़ रहा है। अकेले अमेरिका से अब हर रोज प्रायः बीस लाख डालर की निद्रा औषधियां सेवन की जाती हैं। इसमें से अधिक ‘वार्विचुरेट’ नामक रसायन से बनती हैं। इसी श्रेणी में प्रोमाइड—क्लोरल हाइड्रेट-पैरिल्डिहाइड—फिनोबार्बीटोन जैसे रसायन भी आते हैं। प्रकारान्तर से इन्हीं को उलट-पुलट कर निद्रा औषधियां बनती हैं। इनका आरम्भ के दिनों में तो अभीष्ट प्रभाव होता है पर धीरे-धीरे शरीर उनका अभ्यस्त हो जाता है तो असर भी घटने लगता है ऐसी दशा में मात्रा बढ़ानी पड़ती है इतने पर भी असर कम होते चलने की कठिनाई बढ़ती ही जाती है।
अचेतन की स्थिति में खुलती सूक्ष्म परतें
सैकड़ों निद्राचार रोगियों का उपचार करने वाले फ्रांस के प्रसिद्ध मनोरोग चिकित्सक डॉक्टर विलियम जैसे ने अपने इलाज में आये अनेक रोगियों का विस्तृत विवरण प्रकाशित किया है। सौमने बुलिज्म (निद्राचार) पुस्तक में प्रकाशित यह विवरण कितने रोचक हैं। इसमें एक बीस वर्ष की युवती आईरीन का विवरण प्रकाशित हुआ। उस पर घण्टों तक निद्राभ्रमण का दौरा रहता था। इस रोग का आरम्भ में उसे अपनी मां की मृत्यु के साथ आरम्भ हुआ और मुद्दतों तक चलता रहा। वह निद्राचार ग्रस्त स्थिति में घण्टों बनी रहती और अपनी मां की मृत्यु का घटना-क्रम उस समय किया गया शोक विलाप आदि क्रियाएं एक नाटक की तरह दुहराती रहती थी। पूरा नाटक सम्पन्न कर लेने के बाद कुछ घण्टों में जब दौरा समाप्त होता तो वह वापस बिस्तर पर आ जाती। जब वह दौरे की स्थिति में रहती थी तो न केवल मां की मृत्यु के समय सम्पन्न की गई क्रियाओं को यथावत् दोहराती वरन् यहां तक कि वह कब्रिस्तान तक जाती और अपनी मां की कब्र के पास खड़ी रहकर कुछ समय तक प्रार्थना करती रहती। यह सब करने के बाद जब वह वापस आ कर सो जाती और सुबह उठती थी। तो उसे इन बातों के बारे में कुछ भी याद नहीं रहता था।
इस रोग के सम्बन्ध में कहा जाता है कि मरीज पर सौमने रूवलिज्म का दौरा तब पड़ता है जब रोगी का अचेतन उभर कर सचेतन मस्तिष्क को पूरी तरह अपने नियन्त्रण में ले लेता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि मन्त्रों के द्वारा वश में किये गये भूत। इस अवस्था में अचेतन मस्तिष्क में दबी हुई प्रवृत्तियां उभरती हैं और वह सचेतन के एक भाग पर कब्जा करके उनसे मनचाहा काम करा लेती है। जब तक अचेतन मन का नियन्त्रण रहता है या जब तक उसमें दबी हुई उभरी प्रवृत्तियां तृप्त नहीं हो जाती तब तक वह मनुष्य को अचेत निद्रावस्था में ही तिकड़ी का नाच नचाता रहता है। जब उसकी तृप्ति हो जाती है तो वह शरीर को लाकर उसी चारपाई पर पटक देता है जहां से उसे उठाया था।
एक घटना सन् 1919 की है। इन दिनों सारे लन्दन में बुरी तरह आतंक छाया हुआ था। एक हत्यारा पुलिस थाने के इर्द-गिर्द ही नृशंस हत्याएं करने में संलग्न था। अस्पतालों में मुर्दों की जिस तरह चीर-फाड़ की जाती है, लगभग उसी तरह यह हत्यारा अपने शिकार की कतर-व्योंत करके रख देता था, यह हत्याएं धन के लालच से जरा भी नहीं की जाती थीं क्योंकि मारे गये लोगों के शवों के साथ उनकी कीमती वस्तुएं तथा नकदी यथावत् मिलती थी।
इन हत्याओं की संख्या दर्जनों को पार करके सौ का अंक छूने लगी थी। कहना नहीं होगा कि इस सन्दर्भ में पुलिस को बुरी तरह लज्जित होना पड़ रहा था कि वह इन हत्याओं को रोक पाने और अपराधी को खोजने में जरा भी सफल नहीं हो पा रही थी। यद्यपि पुलिस के जासूसी विभाग ने जी तोड़ कोशिश की थी और सन्देह में कितने ही लोगों को पकड़ लिया था, पर वास्तविक हत्यारे का कुछ सुराग मिल ही नहीं रहा था। अखबारों ने हत्यारे को ‘जैक द रिपर’ के कल्पित नाम से सम्बोधित करना आरंभ कर दिया था।
इस आतंक को मिटाने और हत्यारे का पता लगाने में एक साधारण व्यक्ति की अतीन्द्रिय शक्ति ने जो भूमिका निबाही उससे यह प्रसंग और भी अद्भुत बन गया। इंगलैंड के एक सामान्य नागरिक जेम्स लीज ने ऐसे ही पड़े-पड़े सपना देखा कि, एक तगड़ा व्यक्ति एक युवती का पीछा करते हुए गली में मुड़ा और जैसे ही एक मौका पाया उस व्यक्ति ने चीते की तरह लड़की पर आक्रमण कर दिया। चाकू से पहले उसने लड़की का गला काटा एवं फिर उसका पेट चीरा, छाती और हाथ-पैरों को कतरने के बाद वह खून से सने हाथ लाश से पोंछ कर चलता बना।’’ यह स्वप्न देखकर लीज बुरी तरह डर गया एवं उसकी रिपोर्ट लिखाने के लिए पुलिस दफ्तर पहुंचा। बहुत कहने पर पुलिस वालों ने उसकी रिपोर्ट तो लिख ली, परन्तु उसे सनकी कह कर भगा दिया।
एक दिन लीज अपनी पत्नी के साथ ट्राम में कहीं जा रहा था। अपने पास बैठे हुए एक व्यक्ति को देखकर वह चौंका कि शायद इसे कहीं देखा है। याद करने पर उसे स्मरण आया कि यह वही व्यक्ति है, जिसे वह सपने में देखता रहा है। उसने सोचा कि यही वह कुख्यात हत्यारा है, जिसका आतंक मचा हुआ है और उसी को वह स्वप्न में एक बार देख चुका है। अपनी पत्नी को घर जाने के लिए कह कर लीज उस व्यक्ति के पीछे हो लिया। रास्ते में ड्यूटी पर खड़े सिपाही से उसने अपने सपने के आधार पर पहचाने हत्यारे को पकड़ने के लिए कहा, पर उसने भी लीज को मात्र सनकी समझा और उसे टाल दिया।
उसी रात लीज ने फिर सपने में हत्यारे को देखा। अपना यह स्वप्न सुनाने के लिए लीज फिर पुलिस दफ्तर पहुंचा और बताया कि हत्यारा लाश के कान काट कर ले जा रहा था। कान काटने की बात सुनकर पुलिस अफसर चौंक उठा क्योंकि उसी दिन हत्यारे ने पार्सल द्वारा कटे हुए कान भेजे थे तथा पुलिस को चुनौती दी थी कि वह उसे पकड़ कर दिखाये। अस्तु, पुलिस अधिकारी को लीज की बात में सार मालूम हुआ और उसने लीज की सहायता स्वीकार करली।
लीज पुलिस अधिकारी को लेकर सपने में देखे व्यक्ति को खोजता हुआ एक शानदार कोठी के सामने जा खड़ा हुआ और बोला हत्यारा इसी के अन्दर है। यह कोठी एक सुप्रसिद्ध और प्रतिष्ठित डॉक्टर की थी। पुलिस अधिकारी को संकोच हो रहा था कि ऐसे प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित व्यक्ति के यहां कैसे प्रवेश करें तो भी वे लोग अन्दर गये। डॉक्टर से पूछताछ की तो उसने हत्याओं के सम्बन्ध में अपने को सर्वथा अनजान बताया। डॉक्टर की स्त्री से पूछताछ की गई तो उसने इतना भर बताया कि वे कभी-कभी अपने को सर्वथा भूल जाते हैं और उठकर कहीं भी चल देते हैं। लौट कर आते हैं तो पूछने पर बताते हैं कि पता नहीं मैं कहां भटक जाता हूं और क्यों कहीं घूमघाम कर वापस आ जाता हूं। डॉक्टर की कोठी में तलाशी ली गई तो एक अलमारी में खून से सने ढेरों कपड़े पाये गये और भी कई प्रमाण मिले एवं वह चाकू भी जिससे हत्या की जाती थी और लाश को काट छांट दिया जाता था। कहने का अर्थ यह कि सपनों से मिले सूत्र एवं प्रमाणों के आधार पर डॉक्टर अपराधी सिद्ध हुआ।
ऐसे एक नहीं, अनेकों ‘सोम्नेबुलिज्म’ की स्थिति में किये गए कृत्यों के घटना प्रसंग हैं किन्तु इस घटना में एक निद्रा में अचेतन अवस्था में अपराध करना एवं दूसरे द्वारा सपनों में उसे देखा जाना बताता है कि सूक्ष्म जगत के तार परस्पर अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। सही ढंग से इनकी जानकारी यदि ली जा सके तो अनेकों मस्तिष्क सम्बन्धी अविज्ञात रहस्यों का उद्घाटन हो सकता है।
मानवी काया के लिये नींद की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता है। पोषण जुटाने के लिए जिस प्रकार आहार की आवश्यकता रहती है, ठीक उसी प्रकार थकान मिटाने के लिए निद्रा की गोद में विश्राम लेना होता है। नींद न आने पर भारी थकान बढ़ती है और न केवल मानसिक तन्त्र गड़बड़ाने लगता है वरन् शरीर के लिए भी सामान्य श्रम तक करना कठिन हो जाता है। अनिद्रा ग्रसित रोगी कुछ ही समय में अर्ध विक्षिप्त अथवा उन्मादग्रस्त होते देखे गये हैं। नींद की आवश्यकता वे लोग भी समझते हैं जिनके श्रम-समय का मूल्य अत्यधिक है। वे लोग भी सोने के घण्टों को अनुत्पादक कहकर कटौती करने की बात नहीं सोचते वरन् गहरी नींद आने को सौभाग्य सूचक मानते और अर्थ उपार्जन से भी बढ़कर सुखद अनुभव करते हैं।
इतने पर भी नींद के स्वरूप के सम्बन्ध में लोग बहुत कम जानते हैं। आहार के सम्बन्ध में जितनी जानकारी आम लोगों को होती है आश्चर्य है कि उतनी भी उन्हें नींद के सम्बन्ध में नहीं होती जबकि आहार की तुलना में निद्रा का महत्व कुछ कम नहीं वरन् बढ़कर ही है।
गहरी नींद के लिए पेट का हलका होना—वातावरण में कोलाहल का न होना—मक्खी मच्छरों, खटमलों से बचना—सर्दी-गर्मी का बचाव रखना जैसी आवश्यकताएं सभी अनुभव करते हैं। पर यह बात कम ही लोग सोचते हैं कि मानसिक उद्विग्नताओं—चिन्ता, निराशा, भय, आक्रोश, जैसे मनोविकार किस प्रकार नींद आने में बाधक होते हैं। यदि निश्चिन्त और सन्तुलित रहने की कला सीखी जा सके तो समझना चाहिए कि निद्रा अवरोधक मार्ग की एक बड़ी चट्टान हट गयी, मानसिक क्षमताओं के अभिवर्धन का मार्ग खुल गया।
निद्रा के समय मस्तिष्क सर्वथा शान्त, निस्तब्ध या निष्क्रिय होता हो, सो बात नहीं। पाचन तन्त्र—एवं रक्त संचार तन्त्र की तरह मस्तिष्क भी अपना काम निरन्तर करता रहता है। सोते समय में यही स्थिति बनी रहती है। ऐसी दशा में इस रहस्य को भी समझा जाना चाहिए कि निद्रा की आवश्यकता बाह्य मस्तिष्क पर चिन्तन का दबाव कम करके भी बहुत हद तक पूरी की जा सकती है। कारण नींद का प्रभाव क्षेत्र मात्र सचेतन मस्तिष्क ही है। अचेतन तो जन्म के दिन से लेकर मरण पर्यन्त अनवरत रूप से कार्यरत रहता है। उसे विश्राम देने के लिए तो मरण या समाधि के दो ही रूप अभी तक जाने जा सके हैं। यदि मात्र सचेतन को विश्राम देने का नाम ही नींद है तो ऐसे अन्यान्य उपाय भी हो सकते हैं जो निद्रा का विकल्प बन सकें और अनिद्रा ग्रसितों को राहत दे सके। इसी प्रकार यह भी हो सकता है कि किन्हीं आपत्तिकालीन क्षणों में बिना सोये भी उन कार्यों में संलग्न रह सकें जिन्हें एक प्रकार से अपरिहार्य स्तर का ही समझा गया है।
औषधि विज्ञान शारीरिक व मानसिक तनाव से मुक्ति पाने हेतु जहां औषधियों का उपयोग बताता है वहीं पर मनोविज्ञान के चिकित्सक शिथिलीकरण के रूप में ‘आटोजेनिक न्यूट्रालाइजेशन’ अथवा ‘‘सिस्टेमेटिक डिसन्सीटीजेशन’’ पद्धति बताते हैं। इनमें मरीज को विश्राम की दशा में धीरे-धीरे अपनी गलतियां व अपराध मानसिक रूप से स्वीकार करने को कहा जाता है भयभीत वातावरण का भी दृश्यावलोकन मानसिक चिन्तन के रूप में कराया जाता है। यह सभी एक प्रकार की शिथिलीकरण प्रक्रिया ही है। योगाभ्यासों में जो शिथिलीकरण का अभ्यास कराया जाता है उसका मूल उद्देश्य शारीरिक व मानसिक तथा भावनात्मक तनावों से मुक्ति पाना ही है। शिथिलीकरण द्वारा रक्तचाप व हाइपोथेल्सेस जैसी नर्वस सिस्टम की क्रियाओं पर नियन्त्रण प्राप्त कर लिया जाता है। इसी प्रकार हृदय रोगी का एक बार इलाज करने के उपरान्त पुनः दौरा न पड़े इससे बचाने के लिए शिथिलीकरण बहुत ही लाभकारी सिद्ध हुआ है। डाक्टरों द्वारा आटोजेनिक प्रशिक्षण भी इसी लाभ के लिए दिया जाता है यह भी एक प्रकार का योगाभ्यास ही है। हृदय रोग का मुख्य कारण मानसिक तनाव व चिन्ताएं ही हैं जबकि इन तनावों की मुक्ति का मार्ग शिथिलीकरण है।
इस सम्बन्ध में निद्रा एवं स्वप्न पर जो शोध कार्य हुए हैं, उनसे अनेकों जानकारियां शरीर क्रिया विज्ञान सम्बन्धी मिली हैं एवं इनके माध्यम से रोगों के निदान एवं स्वरूप को जानकर चिकित्सा परामर्श देने में भी मदद मिली है।
शिकागो के सेण्ट ल्यूक मेडीकल सेण्टर के डा. रोसालिन्ड डी कार्ड राइट के अनुसार स्वप्न मनुष्य के भावनात्मक विकास में सहायक होते हैं। जीवन से हतोत्साहित कई व्यक्तियों पर उन्होंने स्वप्न उपचार का प्रयोग किया एवं पुनः स्वास्थ लाभ दे सकने में सफल हुए। साइकोमेट्री प्रयोगों के माध्यम से स्मरण शक्ति बढ़ाने व एकाग्रता का अभ्यास कराने के लिये भी स्वप्नों की मदद ली गयी है। सम्बन्धित विषय के चित्रों का प्रोजेक्शन कर वांछित स्वप्न ला सकने व क्षमताएं बढ़ाने, टेलीपैथी के प्रयोग तक कर सकने में उन्हें सफलता मिली है।
वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि स्वप्नावस्था में श्वसन प्रक्रिया अनियमित हो जाती है और यहां तक कि कुछ सैकिण्ड के लिए वह रुक भी सकती है, ब्रेन का तापमान घटता-बढ़ता रहता है, मस्तिष्क के सेरिब्रम भाग में जहां सभी केन्द्र अवस्थित हैं, रक्त-प्रवाह कम-ज्यादा होता रहता है। यह सभी प्रक्रियाएं कुछ घण्टे तक रुक-रुककर लगातार जारी रहती हैं। इस प्रकार नींद कोई शारीरिक अथवा मानसिक विश्राम की स्थिति नहीं होती वरन् उस वक्त भी ये दोनों अवयव उसी प्रकार क्रियाशील होते हैं, जैसे जागरण की स्थिति में। इस तरह 6-7 घण्टे के इस लम्बे निद्राकाल में लोग देश-देशान्तर की लम्बी यात्रा कर लेते हैं। अधिकांश लोगों के लिए यात्रा काल अर्थात् निद्राकाल 7-7 घण्टे का होता है, किन्तु कुछ लोगों की निद्रावधि अत्यन्त छोटी होती है। पर्शिया के फ्रेडरिक महान, टामस एडीसन तथा महात्मा ये सभी 3-4 घण्टे की अल्प किन्तु आरामदेह निद्रा लेते थे। स्कॉटलैण्ड के निद्रा विषयक शोध विज्ञानी डॉ इयोन ओस्वाल्ड ने दो स्वस्थ व्यक्तियों का अध्ययन किया तो अत्यल्प नींद के बावजूद भी उनका स्वास्थ्य सन्तोषजनक पाया। एक सप्ताह के इस प्रयोग में उसने देखा कि 54 वर्षीय उक्त व्यक्ति जिस पर प्रयोग किया जा रहा था प्रति रात औसतन 2 घण्टा 47 मिनट तक सोया, जबकि दूसरे 30 वर्षीय प्रयोगार्थी का औसत निद्राकाल पहले व्यक्ति से कुछ ही मिनट कम रहा।
जैसे ही हम निद्रा की गोद में प्रवेश करते हैं, हमारे शरीर के कुछ विशेष अंश अवयव के क्रिया-कलाप में परिवर्तित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, यौन परिपक्वता वाले हारमोनों का प्रवाह, ग्रोथ हारमोन, कैल्शियम एवं फास्फोरस की मात्रा तथा थायराइड की क्रियाशीलता में स्पष्ट वृद्धि देखी गई है।
इस अवधि में यद्यपि शरीर के कुछ अवयवों की क्रियाशीलता बढ़ जाती है, किन्तु कुछ अन्य की घट भी जाती है। पाचन और आन्तरिक गतियां इस अवस्था में जागृतावस्था की तरह रहती हैं, जबकि नाक, मुंह और गले से स्रवित होने वाले रस आश्चर्यजनक ढंग से कम हो जाते हैं, आंख की पुतली सिकुड़ जाती है, हृदय गति प्रति मिनट 10 धड़कन घट जाती है, कभी-कभी तो 30 धड़कन तक घटोत्तरी देखी गई है, रक्तचाप कम हो जाता है, तथा बैसल मेटाबॉलिज्म (शरीर की विरामावस्था में उत्पन्न चयापचय गति) में दस प्रतिशत की कमी आ जाती है, एवं शरीर का तापमान निम्नतम हो जाता है। (ऐसा प्रायः प्रातःकाल में होता देखा गया है।)
इस आधार पर यह विचार किया जा रहा है कि निद्राकाल में उत्पन्न होने वाले शारीरिक मानसिक उतार-चढ़ावों में यदि अन्यान्य उपायों से नींद जैसी स्थिति उत्पन्न की जा सके तो काम चल सकता है। नींद की प्रतिक्रिया शरीरगत अमुक हलचलों को न्यूनाधिक करके यदि थकान मिटाने का प्रयोजन सधता है तो फिर वही कार्य अन्यान्य उपायों से क्यों नहीं हो सकता?
स्वाभाविक नींद का आना, न आना प्रायः अपने हाथ में नहीं रहता। ऐसी दशा में कई बार अनिच्छित रूप से भी देर तक जगना पड़ता है। यह समय काटे नहीं कटता और खीझ उत्पन्न होती है। उपलब्ध उपचारों में नींद की गोलियां निगलना ही ऐसा उपाय रह जाता है जिससे कृत्रिम नींद उत्पन्न की जा सके। कुछ हद तक यह कार्य नशे के द्रव्य पीकर भी पूरा किया जाता है फिर भी इतना तो स्पष्ट ही है कि नींद की गोलियां या नशे प्रकारान्तर से और भी अधिक हानि करते देखे गये हैं जो अनिद्रा के त्रास से किसी प्रकार कम कष्टकर नहीं होते हैं। इन परिस्थितियों में शरीर के विभिन्न अवयवों को शिथिल या उत्तेजित करने वाली मालिश का उपयोग करके निद्रा न आने पर भी थकान मिटाने एवं क्षति पूर्ति करने की आवश्यकता पूरी हो सकती है।
इससे सरल और अच्छा उपाय शिथिलीकरण मुद्रा का है। इसे योग निद्रा या शवासन भी कहते हैं। शरीर के मृतक जैसी स्थिति में अनुभव करने और निष्क्रियता लाने का अभ्यास करने या थकान मिटाने का कार्य एक सीमा तक पूरा हो जाता है। नैपोलियन के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह पेड़ के सहारे घोड़ा खड़ा करके उस पर चढ़े-चढ़े ही झपकियां ले लेता था और कई घण्टे सोने जैसी स्फूर्ति उतने भर से अर्जित कर लेता था। अर्जुन को ‘गुडाकेश’ कहा जाता है। इस संस्कृत शब्द का अर्थ है ‘‘नींद जीत लेने वाला’’ वह कम सोकर भी उत्साह पूर्वक अपना काम मुद्दतों तक करता रहता था।
शरीर का 24 घण्टे का जागरण चक्र हमारा एकमात्र बायोलॉजिकल ब्लॉक है। इसके अतिरिक्त एक 0 मिनट का भी चक्र है। 100 से भी अधिक प्रकार की हमारी शारीरिक गतिविधियां, जिसमें निद्रा से लेकर पेट संकुचन एवं हारमोन-स्राव सम्मिलित हैं, सभी इस चक्र का अनुशासन पूर्वक पालन करते हैं।
इस आधार पर सुनिश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि निद्रा आवश्यक होने पर भी अनिवार्य नहीं है। उसके अन्य विकल्प भी हो सकते हैं। इनमें से मालिश आर शिथिलीकरण के अतिरिक्त यह विश्वास भी एक महत्वपूर्ण आधार है कि मनोगत संरचना जिस प्रकार अचेतन हलचलों को बिना विकास चलती रहती है उसी प्रकार चेतन को भी बिना निद्रा लिये थकान दूर करने का कोई न कोई आधार अपना सकती है।
मनोरोग विशेषज्ञों ने स्वप्नों को कल्पना स्वप्न, निद्रा स्वप्न और दृश्य स्वप्नों में विभाजित किया है। कल्पना स्वप्न वे जिन्हें व्यक्ति अपने निजी निर्धारण में गढ़ता है और चिन्तन में इस प्रकार संजोये रहता है मानो वे वास्तविक हैं। प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे की भावना का चित्रण अपनी-अपनी कल्पना के आधार पर करते हैं। इसी प्रकार मित्रता, शत्रुता, सम्भावना, आशंका आदि के सम्बन्ध में भी ऐसे ही सर्जनाएं कर लेता है जो वास्तविक जैसी लगती है और मस्तिष्क पर छाई रहती है और तद्नुसार काम करने की प्रेरणा देती है।
निद्रा स्वप्न वे हैं जो सोते समय रात को दीखते हैं। उनमें से अधिकांश विस्मृत होते रहते हैं। याद तो उनमें से थोड़े से ही रहते हैं वो भी आधे अधूरे रूप में।
जिस प्रकार प्रत्यक्ष जीवन की सुखद घटनाक्रमों परिस्थितियों के मध्य रहने पर प्रसन्नता अनुभव होती है उसी प्रकार स्वप्नों में दृष्टिगोचर होने वाली अनुकूलताएं भी प्रोत्साहन प्रदान करतीं और मनोबल बढ़ाती हैं जागृत स्थिति में कलह, शोक, अपमान, हानि सफलता आदि के कारण चित्त खिन्न होता है उसी प्रकार अशुभ स्वप्न भी सामर्थ्य का क्षरण करते हैं।
स्वप्न देखना यदि अनिवार्य है तो हर कोई उन्हें सुखद स्तर के देखना पसन्द करेगा। पर क्या यह अपने हाथ की बात है? उसका उत्तर ‘हां’ में दिया जा सकता है। स्वस्थता के नियमों का पालन करने पर गहरी और मीठी नींद आने में सन्देह नहीं। पेट हलका रखा जाय और थकाने वाला शारीरिक श्रम करते रहा जाय तो गहरी नींद आयेगी।
परिस्थितियों को अनुकूल बना सकना अपने हाथ की बात नहीं है। पर मन अपना है उसे एक तरह सोचने की अपेक्षा दूसरी तरह सोचने का अभ्यास कराया जा सकता है। इसी प्रकार शरीरचर्या की अवांछनीय आदतों से मुक्त करके नये सिरे से इस प्रकार निर्धारित किया जा सकता है जिससे रुग्णता को न्यौत बुलाने के कारण आये दिन खड़े रहने वाले स्वास्थ्य संकट का सामना न करना पड़े। इस प्रकार का सरल सौम्य जीवन क्रम जिन बुद्धिमानों ने अपनाया है, उन्हें तत्काल गहरी निद्रा का वरदान मिलता है। उस कारण वे न केवल थकान मिटाने, अभिनव स्फूर्ति पाने में सफल होते हैं वरन् सुखद स्वप्नों का उत्साहवर्धक चलचित्र भी बिना टिकट खरीदे देखते रहते हैं। और दुहरे आनन्द का लाभ लेते हैं।
स्वप्नों को परिस्थितियों का सांकेतिक चित्रण ही नहीं समझा जाना चाहिए उसमें कोई महत्वपूर्ण समाधान भी रहते हैं। इसी प्रकार यदि थोड़ी समझदारी से काम लिया जाय तो इस आधार पर हम अपने लिए आवश्यक उपचार भी उपलब्ध कर सकते हैं। वे हमारे लिए चिकित्सक या परामर्शदाता की भूमिका भी निभा सकते हैं। स्वप्नों से न खिन्न होने की आवश्यकता है और न उन्हें असमंजस का निमित्त कारण बनाने की बल्कि यह मानकर चला जा सकता है कि वे स्वाभाविक और हानि रहित होते हैं। उनका अर्थ समझा जा सके तो बहुत उपयोगी भी हो सकते हैं। मार्गदर्शक एवं सहयोगी भी सिद्ध हो सकते हैं।
मनोवैज्ञानिक सी.जी. जुंग ने एक विशेष सिद्धान्त इस सम्बन्ध में प्रतिपादित किया है। उसका नाम उन्होंने दिया है—‘यूनिवर्सल पेटर्न आव कलेक्टिव अनकान्शस’। इसमें वे स्वप्नों की व्याख्या विवेचन करते हुए कहते हैं कि इच्छानुसार स्वप्न देख सकना तो किसी के बस की बात नहीं, पर यदि बारीकी से इनमें रहने वाले संकेतों और संदेशों को समझा जा सके तो एक उच्चस्तरीय परामर्शदाता के सहयोग जैसा लाभ मिल सकता है।
फ्रायड पर एक सनक सवार रही है कि वे मनुष्य की हर महत्वपूर्ण गतिविधि की संगति ‘सेक्स’ के साथ जोड़ते थे। फलतः उन्होंने स्वप्नों में भी यौन आकांक्षा की अतृप्ति को जिस-तिस माध्यम से प्रकट होने की संगति बिठाई है। किसी भी स्थिति में यह नहीं कहा जा सकता कि समूचा स्वप्न तो इसी धुरी पर परिभ्रमण करता है।
स्वप्न याद रहें या न रहें पर वे आते सभी को हैं। कोई व्यक्ति अपवाद रूप में हो सकता है जिसे स्वप्न आते ही न हों। उनसे छोटे या बड़े—स्पष्ट या धुंधले होना अलग बात है किन्तु यह सम्भव नहीं कि कोई व्यक्ति उन्हें देखे ही नहीं। मनुष्य तो क्या जानवर तक स्वप्न देखते हैं यह निद्रित स्थिति में उनकी बदलती हुई मुखाकृति को देखकर सहज ही जाना जा सकता है कि वे कोई दृश्य देख रहे हैं और उनकी प्रभाव प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। नवजात शिशुओं तक को सोते-सोते हंसते मुस्कराते, डरते और अप्रसन्नता व्यक्त करते देखा जा सकता है। कौन किस स्तर के स्वप्न देख सकता है इसका उत्तर उसकी जानकारी, इच्छाओं तथा समस्याओं के साथ जोड़कर ही खोजा पाया जा सकता है।
जिस प्रकार दिन मान को चार प्रहरों में बांटा जाता है उसी प्रकार रात्रि के भी चार खण्ड हैं। यह विभाजन स्वप्न प्रक्रिया के सम्बन्ध में और भी सही बैठता है। औसत निद्रा अवधि छै घण्टे की होती है। इसमें एक-एक घण्टे के चार स्वप्न उभार आते हैं। एक उभार उठता चढ़ता और ठण्डा होता है। इसके उपरान्त कुछ समय विश्राम जैसी स्थिति आती है। तदुपरान्त फिर वह पिछले वाला दौर चल पड़ता है। दूध में जिस प्रकार एक के बाद दूसरा उफान आता है वैसा ही स्वप्नों के सम्बन्ध में भी होता है। सामान्यतया ऐसे चार दौर आते हैं पर यह अनिवार्य नहीं। ऐसा भी हो सकता है कि वे कम या अधिक सोपानों में अपना दौर पूरा करें। एक घण्टे से न्यून या अधिक भी हों। इस सम्बन्ध में कुछ न कुछ अन्तर हर व्यक्ति के मध्य पाया जाता है। स्वप्नों की अवधि या प्रक्रिया सभी की एक जैसी नहीं होती।
सामान्यतया स्वप्नों से किसी को भी परेशान नहीं होना चाहिए। यह अचेतन मन द्वारा अपने दबावों को हलका करने के लिए किया गया एक क्रीड़ा विनोद है। अपने बनाये चित्र खिलौने से वह स्वयं खेलता है और थकान को दूर करने का अपना रास्ता निकाल लेता है।
वैज्ञानिकों ने सृष्टा द्वारा मनुष्य के साथ किये जाने वाले इस मनोविनोद की वास्तविक महत्ता समझ कर स्वप्नावस्था में प्रशिक्षण की एक नवीन विधि का विकास किया है। इसमें विद्यार्थी को प्रत्यक्षतः कुछ भी सिखाया समझाया नहीं जाता वरन् वातावरण में ऐसे संकेतों की गर्मी उत्पन्न की जाती है जिसका प्रभाव उस क्षेत्र के निद्रित लोगों पर पड़े और वे अनायास ही उस प्रभाव से प्रशिक्षित होने लगें। इस पद्धति का नाम है ‘‘हिप्नोपेडिया’’।
यूरोप—अमेरीका आदि देशों में ‘हिप्नोपेडिया’ नाम की पद्धति का इन दिनों भरपूर उपयोग भाषा-शिक्षण, अभिनय-प्रशिक्षण आदि में किया जा रहा है। शिक्षा शास्त्री इस पद्धति में गहरी रुचि ले रहे हैं और अगले कुछ ही वर्षों में यही प्रणाली शिक्षा में लोकप्रिय हो जाये, तो आश्चर्य नहीं। इस हेतु इस प्रणाली में निहित खतरों की सम्भावना को दूर करना होगा। रूस के विख्यात स्वप्न शास्त्री श्रीपावलोव एवं सोवियत आयुविज्ञान अकादमी के प्राध्यापक एम. सुमार-कोवा तथा ई. उशाकोवा का कथन है कि जब तक नींद की प्रत्येक अवस्था का सूक्ष्म एवं विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन नहीं हो जाता ‘हिप्नोपेडिया’ की आंशिक उपयोगिता ही रहेगी। उनका यह भी कहना है कि अप्रशिक्षित प्रयोगकर्त्ता इस विधि से जाने या अनजाने, छात्र-छात्राओं तक गलत सन्देश भेज सकता हैं तथा इस प्रकार विभ्रान्त कर सकता है।
वैज्ञानिक इन खतरों के प्रति सावधान हैं तथा उनसे बचे रहने की दिशा में खोज-कार्य कर रहे हैं।
सपनों द्वारा अध्यापन के प्रयोग रूप में जोरों से चल रहे हैं। अमरीका में भी इस पद्धति का प्रचलन बढ़ रहा है। ‘हिप्नोपेडिया’ की एक पद्धति में आत्म-सम्मोहन का अभ्यास किया जाता है, दूसरी में सामान्य शिक्षण विधि का। आत्म सम्मोहन वाली पद्धति में छात्रा-छात्राओं को स्वप्नावस्था में आत्मनिर्देश सुनाये जाते हैं। एक स्कूल के बीस छात्र-छात्राओं को नाखून कुतरने की आदत थी। मानसशास्त्री डा. लारेन्स लोशन ने उनकी आदत छुड़वाने का दायित्व ओढ़ा। इन सबको सोने के बाद, ‘हिप्नोपेडिया’ पद्धति से एक रिकार्ड सुनवाया जाता था। रिकार्ड में इस एक ही पंक्ति का निरन्तर दुहराव होता था कि ‘‘मेरे नाखून बहुत कड़वे हैं।’’ कुछ ही दिनों में सभी छात्र-छात्राओं पर इसका समुचित प्रभाव पड़ा और उन्होंने अपनी वह आदत छोड़ दी।
चैकोस्लोवाकिया में अंग्रेजी-शिक्षण हेतु ‘हिप्नोपेडिया’ की दूसरी पद्धति अपनाई गई है। लगभग दस हजार छात्र-छात्राओं के घर वायरलैस (बेतार के तार) द्वारा रेडियो स्टेशन से जुड़े हैं। पाठ्यक्रम दस पाठों में विभाजित है एक पाठ की अवधि बारह घन्टे है। दो-दो सप्ताह के अन्तर से एक-एक पाठ सिखाया जाता है। पांच माह में पूरे दस पाठ याद करा दिये जाते हैं।
रात्रि आठ बजे से रेडियो-स्टेशन से पाठ का प्रसारण प्रारम्भ होता है। तीन घन्टे तक यह प्रसारण चलता है। इस अवधि में ही छात्र-छात्रा चुपचाप अपना खाना भी खा सकते हैं, आराम-कुर्सी पर विश्राम भी कर सकते हैं। एक ही नियम है कि ध्यान प्रसारित पाठ की ओर ही केन्द्रित रहे, ग्यारह बजे से रेडियो स्टेशन से लोरी ‘रिले’ होने लगती है और छात्र-छात्राओं को सुला दिया जाता है। फिर दो बजे तक वही पाठ लोरी के स्वर में धीरे-धीरे दुहराया जाता है। बाह्य मन निष्क्रिय बना रहता है, पर चेतन मस्तिष्क के वे अंश जो दिन की थकान से श्रान्त हो चुकते हैं, नींद के बाद खुलकर नई स्फूर्ति के साथ दी जा रही सूचनाएं संग्रहीत करते रहते हैं।
योग साधना में शिथिलता, शून्यावस्था, समाधि, शवासन आदि को बहुत महत्व दिया जाता है। यह अर्ध तन्द्रा की स्थितियां हैं। इन्हें योगनिद्रा कहा जाता है। स्नायु संस्थान पर से तनाव, दबाव हटाकर उस शान्त, विश्रान्त, सौम्य, मनःस्थिति को एक प्रकार से जागृत निद्रा के समतुल्य माना जा सकता है। धारणा और ध्यान के चरण पूरे करते हुए समाधि स्थिति पर पहुंचना साधना विज्ञान की चरम प्रक्रिया है। स्वप्नावस्था में तो मनुष्य का अपने ऊपर नियन्त्रण नहीं रहता और स्वसंकेत देना एवं अपने बलबूते अपने को इच्छित दिशा में मोड़ सकना सम्भव नहीं। इसलिए आवश्यक समझा गया कि कृत्रिम योगनिद्रा की स्थिति लाने का अभ्यास किया जाय इस स्थिति में मन और बुद्धि तो तंद्राग्रस्त हो जाते हैं पर चित्त में संकल्प ज्वलन्त रखे जा सकते हैं। इन संकल्पों से अचेतन मन को प्रभावित एवं प्रशिक्षित किया जाता है। आत्म परिष्कार की प्रधान योग साधना इसी प्रकार संभव होती है। मन्त्र जप में—ध्यान तन्मयता में—चित्त में उच्चस्तरीय संकल्प जाग्रत रखे जाते हैं जो अन्तःकरण को परिष्कृत करने के लिए आवश्यक हैं। इन प्रयोगों को यदि सही उद्देश्य समझकर सही रीति से कार्यान्वित किया जाय तो परिणाम निश्चित रूप से अतीव आशाजनक होते हैं।
निद्रित स्थिति में प्रेरणात्मक स्वप्नों का इन दिनों विज्ञान क्षेत्र में उत्साह के साथ प्रयोग किया जा रहा है। यह स्वप्न सृजन दृश्यों के रूप में सम्भव नहीं हो सकता क्योंकि अन्तर्मन बहुत हठी है जब वह अपनी पर उतरा होता है तो बाहरी अंकुश मानने के लिए सहज ही तैयार नहीं होता। वैज्ञानिकों को स्वप्न सृजन के लिए जानकारियों, मान्यताओं, आदतों एवं इच्छाओं में हेर-फेर करने की गुंजायश दीखी है सो वे स्वप्न प्रशिक्षण की गतिविधियां इसी आधार पर विनिर्मित कर रहे हैं। भारतीय तत्ववेत्ताओं ने इस संदर्भ में एवं समाधि के विभिन्न स्तर—सामान्य-असामान्य लोगों की मनोभूमि में खप सकने योग्य बनाये हैं। इनमें सचेतन को तन्द्रित करने—चित्त में संकल्प जीवित रखने और अन्तर्मन को प्रशिक्षित करने के तीनों ही उद्देश्य पूरे होते हैं। इस दिशा में जितनी सफलता मिलती है उतने ही सामान्य स्वप्नों में भी अति महत्वपूर्ण ऐसी जानकारियां मिलने लगती हैं जिन्हें सूक्ष्म दर्शन एवं अतीन्द्रिय प्रतिभा के नाम से पुकारा जा सके।
मनोवैज्ञानिक फ्रायड की स्वप्न सम्बन्धी वे मान्यताएं अब पुरानी पड़ चुकी हैं, जिनके अनुसार व्यक्ति के अवचेतन को किन्हीं सामान्य और संकीर्ण ‘फार्मूलों’ द्वारा समझ सकने का दावा किया जाता था और उन्हें अतृप्त इच्छाओं की अभिव्यक्ति मात्र माना जाता था। फ्रायड ने पहले जिन स्वप्नों को ‘इडीपस काम्प्लेक्स’ के द्वारा प्रेरित और दमित इच्छाओं का प्रतीक कहा था, वही स्वप्न अब अतीन्द्रिय अनुभूतियों के आधार सिद्ध हो रहे हैं। विभिन्न अनुसंधानों, प्रयोगों से यह भली-भांति स्पष्ट हो चुका है कि स्वप्न मात्र दमित यौन आकांक्षाओं अथवा कल्पित क्लिष्ट यौन-विकृतियों के दायरे में नहीं समेटे जा सकते। उनके विविध वर्ग एवं स्तर हैं।
सात्विक आचरण द्वारा व्यक्ति का चेतना-स्तर ज्यों-ज्यों बढ़ता है, उसका अवचेतन भी उसी रूप में प्रखर एवं उत्कृष्ट बनता जाता है। सामान्यतः तो हम मूर्च्छना की स्थिति में जीवन व्यतीत कर देते हैं। नर पामर की इस चित्त-दशा में अवचेतन की अठखेलियों का अर्थ भी समझ में नहीं आ पाता और स्वप्न–संकेत व्यर्थ चले जाते हैं।
यदि स्वप्न विज्ञान पर शास्त्रीय ढंग से विचार किया जाय और उनके आधार पर मिलने वाली जानकारियों के सहारे आन्तरिक स्तर को सुधारने, संभालने का प्रयत्न किया जाय तो यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। उसे शारीरिक स्वास्थ्य सुधार एवं सम्वर्धन में भी अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जा सकता है क्योंकि शरीर से मस्तिष्क की क्षमता अधिक है। मस्तिष्क में भी शक्ति केन्द्र अन्तर्मन है। स्वप्न हमें उसी क्षेत्र का परिचय देते हैं और चेतनात्मक परिष्कार का द्वार खोलते हैं। आवश्यकता उसी की महत्ता समझने की है। स्वप्न माध्यम भर हैं। उनके लीला लोक में डूबकर खेल तमाशे का मजा भी लिया जा सकता है एवं उपास्य देवता समझ कर प्रतिदिन के इन लमहों का सदुपयोग सुनियोजन कर अन्तः की गंगोत्री से निस्सृत आनन्द का रसास्वादन भी किया जा सकता है। क्या किया जाना है, चयन की सुविधा हम सभी को है?
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