अदृश्य जगत का पर्यवेक्षण सपनों की खिड़की से

स्वप्न : दृश्य और अदृश्य के मध्यवर्ती सम्पर्क सूत्र

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जो यथार्थ नहीं है, उसे सत्य की तरह प्रत्यक्ष देखने का नाम स्वप्न है। यों रात्रि में सोते समय मनः क्षेत्र के सम्मुख जो चित्र तैरते रहते हैं उन्हें स्वप्न कहते हैं। लोग जानने पर उनकी विसंगतियों का तारतम्य देखकर आश्चर्य करते हैं और असमंजस भी। आश्चर्य इस बात का जबकि उस प्रकार का घटना क्रम घटित ही नहीं हुआ। अमुक पदार्थ, स्थान या व्यक्ति जब उपस्थित ही नहीं थे तो वे दीखते कैसे रहे। उनके साथ वार्त्तालाप एवं आदान-प्रदान कैसे चलता रहा? असमंजस इस बात का है कि अपना मस्तिष्क जो यथार्थ और असंगत के बीच भेदभाव करना भली प्रकार जानता है, दिन भर यही तो करता रहता है, फिर रात्रि में ऐसा क्या हो जाता है कि असंगत के प्रति सन्देह व्यक्त नहीं करता और उसे सत्य मानकर रस लेता रहता है। क्यों उसे मिथ्या नहीं बताता? क्यों उस मूर्खता को दुत्कार नहीं देता?

रात्रि स्वप्नों को ही आमतौर से चर्चा का विषय बनाया जाता है। सो कर उठने के उपरान्त उन्हें याद किया और दूसरों को बताया सुनाया जाता है जो देखा था। इतने पर भी यह रहस्य ही बना रहता है कि अकारण अनियमित यह असंगत फिल्म चलती क्यों रही, और उस समय उसके मिथ्या भ्रान्ति होने का आभास क्यों नहीं हुआ?

स्वप्न रात्रि में ही नहीं देखे जाते। दिवा स्वप्न भी होते हैं और वे जब शिर पर चढ़ते हैं तो यथार्थ के समान ही संगत, सम्भव और सही दीखते हैं। कल्पनाएं कई बार इतनी रसीली हो जाती हैं कि उनमें तन्मय व्यक्ति यह तक सोच नहीं पाता कि जो सोचा जा रहा है सो अपनी वर्तमान परिस्थिति एवं योग्यता के अन्तर्गत है भी या नहीं। उसे बोने से लेकर पकने तक में कितना समय लगेगा, कितना साधन एवं सहयोग जुटाना पड़ेगा। यह सभी तथ्य तर्क जो बुद्धिमत्ता कहे जाते हैं—न जाने कहां चले जाते हैं और मनुष्य कल्पना मात्र को यथार्थता अनुभव करने लगता है। शेखचिल्ली की सर्वविदित कहानी में इसी स्थिति का आभास कराया गया है। यह दिवा-स्वप्न हुए।

दिवा स्वप्नों के और भी अनेक रूप हैं। परिस्थितियों से संगति न खाने वाली महत्वाकांक्षाएं साधनों की जांच-पड़ताल न करके कुछ भी कर गुजरने की योजनाएं भी दिवा स्वप्न हैं जिन्हें सोचते समय तो बड़ा रस आता है। किन्तु जब यथार्थता से पाला पड़ता है तब प्रतीत होता है कि वैसा सम्भव था भी नहीं और बन भी नहीं पड़ा। प्रेम और द्वेष की स्थिति में सामने वाले की मनःस्थिति का—गतिविधियों का—भी एक कल्पना चित्र बन जाता है। जिसमें दूसरे सघन मित्र या कट्टर दुश्मन प्रतीत होते हैं। यह अपनी ही गढ़न्त है इसका यथार्थता से सीधा सम्बन्ध नहीं। जो सोचा या माना जा रहा था वह बहुत बार सर्वथा असत्य सिद्ध होता है, पर यह निष्कर्ष तो बाद का रहा। जिस समय अपनी मान्यताएं आवेश में होती हैं तब तो कोई सामान्य मनःस्थिति का व्यक्ति भी देवता या राक्षस प्रतीत होता है। जबकि वस्तुतः वह वैसा होता नहीं।

देवी देवताओं के प्रति विश्वासी व्यक्ति भी कई बार अध खुली आंखों से उनके दर्शन झांकी करते रहते हैं। कइयों पर भूत-पलीत का आवेश इस प्रकार आता है जिनमें उन्हें वस्तुतः सारा घटनाक्रम नितान्त सत्य प्रतीत होता है। यदि ऐसा न होता तो ऐसे लोगों को भूत इतना शारीरिक और मानसिक त्रास कैसे दे पाते। यह दिवा स्वप्नों की सृष्टि है। जो असंगत होते हुए भी अपने उभार काल में मनःक्षेत्र को एक प्रकार से स्वसम्मोहित बनाकर रख देते हैं। तब इतना तर्क काम नहीं करता कि अपने इस स्व रचित ताने-बाने को यथार्थता की कसौटी पर परखें और भ्रान्ति का जो आवेश नशे की तरह चढ़ा हुआ है उसका आवरण उतार फेंके।

फिर यह रात्रि स्वप्न या दिवा स्वप्न आते क्यों हैं? इनकी आवश्यकता ही क्या है? यह अनचाही विसंगतियां उपजाती क्यों हैं? उनका उद्गम या सूत्र संचालन होता कहां से है? इस सम्बन्ध में अधिक जानने की जिज्ञासा स्वाभाविक है। समाधान न होने पर नई कठिनाई यह खड़ी होती है कि मनुष्य उसका ऐसा कारण ढूंढ़ने के लिए चल पड़ता है जिसे समाधान न कह कर और भी उल्टी दिशा में घसीट ले जाने वाला भटकाव कहना चाहिए। स्वप्नदर्शी को सामान्यतः कौतूहल असमंजस ही होता है पर उससे कोई प्रत्यक्ष हानि नहीं होती। किन्तु इस अनबूझ पहेली का भ्रान्त समाधान ढूंढ़ लेने पर समझदारी ही भटक जाती है और ऐसे निष्कर्षों पर पहुंचना पड़ता है जो वस्तुतः हानिकारक परिणाम प्रस्तुत कर सके।

स्वप्न फल बताने वालों की कमी नहीं। वे उनका कुछ न कुछ ओंधा सीधा अर्थ बता देते हैं। किसी शुभ या अशुभ की सम्भावना—देवी देवताओं की प्रेरणा—मृतात्माओं की फेरी, आत्मा का काल या देश की परिधि से बाहर जाकर अतीत या भविष्य का दर्शन जैसे कारण आमतौर से स्वप्न फल के रूप में बताये जाते हैं। पर वस्तुतः वे वैसे होते नहीं। इन फलितार्थों पर विश्वास करने वाले कई बार आशंकाग्रस्त, भयाक्रान्त एवं निराश होते देखे गये हैं और अपनी सामान्य क्षमता से भी उस हड़बड़ी में हाथ धो बैठते हैं और बने काम बिगाड़ते हैं। कइयों को गढ़ा खजाना, लाटरी का नम्बर या कोई विलक्षण भाग्योदय का आभास मिलता है। वे लोग भी बेपर की उड़ाने उड़ने लगते, मनमोदक खाते और सनकी स्तर के लोगों की पंक्ति में जा बैठते हैं। देवी देवताओं द्वारा स्वप्न में किसी की बलि मांगने और बदले में कोई बड़ा लाभ कराने का आश्वासन देने की बातें भी सुनी जाती रहती हैं। कई निरीह बालकों की हत्याएं इस प्रयोजन के लिए होती रहती हैं, फलतः वे स्वप्नदर्शी कठोर दण्ड पाते और भर्त्सना के भाजन बनते हैं। बलि दे दी पर मिला कुछ नहीं, उल्टी विपत्ति टूट पड़ी।

यह है स्वप्नों के अवांछनीय समाधान ढूंढ़ने के दुष्परिणाम। किसी के द्वारा जादू टोना किये जाने, घात लगाने की सूचना पाकर इन रात्रि स्वप्नों या दिवा स्वप्नों के सहारे कितने ही अनर्थ के गर्त में गिरते हैं। कईयों को इसी आधार पर ऐसे जंजाल में फंसते देखा गया है जिससे इन दृश्यों के पीछे वह विपत्ति झांकती दीखती है जो चलती गाड़ी की पटरी पर से उतार दे। इस विपत्ति से बचने और स्वप्नों के तारतम्य के पीछे काम करने वाली यथार्थता के सम्बन्ध में अधिक गहराई तक उतरने और उनके वास्तविक कारण को समझने का प्रयत्न करना चाहिए।

स्वप्न वस्तुतः मानवी अचेतन का कुछ समय के लिए दबाव मुक्त होकर निर्द्वन्द बच्चों की तरह मनचाहा खेल खेलने जैसा स्वेच्छाचार है। हमारे मनःक्षेत्र की यों हैं तो कई परतें पर उनमें से यहां चेतन और अचेतन के दो वर्गों को समझ लेने से काम चल जायेगा। चेतन मस्तिष्क वह है जो कल्पनाओं में निरत रहता है और बुद्धिपूर्वक उसमें से कांट-छांट करने के उपरान्त जो उचित है उसका निर्धारण करता रहता है। इसे चेतन या कामकाजी मन कहना चाहिए दूसरा वर्ग वह है जो अभ्यासों और संस्कारों से परिचालित होता है। शरीर की स्वसंचालित कार्य पद्धति का निर्धारण करता है। आदतों रुझानों और स्वभावों के स्तर बढ़ाता है और उन्हें स्थिर रखता है। व्यावहारिक कामकाज में इसका उपयोग इच्छित रूप से तो नहीं होता पर उसका भूमिका व्यक्तित्व का स्तर देखते हुए जानी—आंकी जा सकती है।

जागृत अवस्था में चेतन भाग सक्रिय रहता है। फलतः अचेतन को अपनी गतिविधियां शरीर चर्या जैसे कामों तक ही सीमित रखनी पड़ती हैं। चिन्तन होता तो उसमें भी है पर चेतन की घुड़दौड़ में उसे अवसर ही नहीं मिलता। फलतः उस समय तो चुप बैठा रहता है, पर जैसे ही बुद्धिमत्ता की पकड़ ढीली पड़ती है, अचेतन को अपनी उमंगों के अनुरूप एक नई स्वप्न सृष्टि रच लेने का अवसर मिल जाता है।

वस्तुतः कोई मनुष्य निरन्तर जागृति नहीं रह सकता। यदि किसी को सोने न दिया जाय तो वह मर जायेगा। मनुष्य जीवन का एक तिहाई भाग निद्रा में व्यतीत करता है। निद्रा का अधिकांश भाग स्वप्नों से घिरा होता है। इससे पता चलता है कि अचेतन अवस्था जीवनी शक्ति का स्रोत है पर उस समय भी चेतना का अस्तित्व बना रहता है अर्थात् वह पदार्थ नहीं हो जाती। यही वह प्रकाश था जिसने भारतीय तत्वदर्शियों को पुनर्जन्म और लोकोत्तर जीवन के बीच के रहस्यों को जानने का द्वार खोला।

स्वप्न की स्थिति में, मनुष्य के शरीर में अनेक परिवर्तन होते हैं। नाड़ी की गति मध्यम हो जाती है। रक्तचाप भ्रमण धीमा पड़ जाता है। सम्पूर्ण इन्द्रियां धीमी पड़ जाती हैं। हृदय की धड़कन और फेफड़ों द्वारा रक्त शुद्धि का कार्य भी जारी रहता है। पर विचार शिथिल हो जाते हैं। देखने, सुनने, सूंघने, स्पर्श करने, चखने आदि की शक्ति नहीं रह जाती पर स्वप्न अवस्था में यह सारी क्रियायें इन्द्रियातीत अवस्था में अनुभव होती रहती हैं मनुष्य सामान्य निद्रावस्था में भी जब कि उसके शरीर पर कोई बाहरी दबाव नहीं पड़ रहा होता तब भी उसे जीवित शरीर के से दृश्यों का अनुभव होता है उससे यह प्रमाणित होता है कि विकास है।

स्वप्न यों अस्थिर दिखता है पर जीवन भी अस्थिर ही तो है। स्वप्न में जैसे थोड़ी देर के लिए हम सूक्ष्म और विराट अदृश्य और भविष्य के दृश्य सत्य–सत्य देख लेते हैं पर जागृत में वह कभी सत्य कभी असत्य प्रतीत हैं उसी प्रकार यह संसार है। हम जब तक बाह्य व्यवहार से बंधे हैं तब तक सब कुछ असत्य होकर भी सत्य दीखता है पर वस्तु स्थिति का पता तो तभी चलता है जब चेतना स्वप्न जैसी मूल स्थिति में आती है इसलिये स्वप्नों का मनुष्य जीवन में बड़ा भारी महत्व है। स्वप्न में जिस प्रकार मनुष्य की चेष्टायें काम करती रहती हैं उसी प्रकार लोकोत्तर जीवन में अर्थात् आत्मा अमर है। यदि हम उसे जीवित अवस्था में ही जान लें तो विराट चेतना की सर्वदर्शी, सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता के वह सभी गुण अपने अन्दर विकसित कर सकते हैं जो स्वप्नों में थोड़े समय के लिए और बहुत अस्पष्ट छायाचित्र से दिखाई देते हैं।

स्वप्नों की अस्थिरता एवं अस्तव्यस्तता भी अपनी जगह सही है। स्वप्न विसंगत इसलिए होते हैं कि अचेतन मनःक्षेत्र में भूतकाल की अनेकानेक प्रिय अप्रिय, सार्थक-निरर्थक स्मृतियां दबी पड़ी होती हैं। इनमें से जो भी हाथ पड़ जाती है उसी से स्वेच्छाचारी बालक की तरह खेलने लगता है। अचेतन की कुछ अपनी इच्छाएं भी होती हैं। उन्हें असंख्य जन्मों की संग्रहीत संस्कार पूंजी भी कहा जा सकता है। उनमें से अधिकांश अतृप्त पड़ी रहती हैं। तृप्ति तो थोड़े ही प्रसंगों में मिल पाती है। परिस्थितियां हर इच्छा की पूर्ति के उपयुक्त कहां होती हैं। ऐसी दशा में अतृप्त मानस अपनी मर्जी के खेल खिलौने बनाता बिगाड़ता रहता है। यही है संक्षेप में रात्रि स्वप्नों का आधार दिवा स्वप्नों का आधार है तो भिन्न, फिर भी एक बड़ी समता विद्यमान रहती है।

गहरी और हलकी नींद का अन्तर करने और उसके कारण स्वप्नों में कमीवेशी होने के सम्बन्ध में फ्रान्सीसी शरीर विज्ञानी ब्रेमर ने बहुत से प्रयोग किये और निष्कर्ष निकाले हैं। वे कहते हैं कि भीतरी अवयवों में कहीं पीड़ा तनाव सूचना या गतिरोध उत्पन्न होने से ऐसे स्वप्न आते हैं जिनमें अपने को या किसी अन्य को त्रास मिल रहा है। थकान, गर्मी, घुटन, मच्छर जैसे कारणों से भी नींद घटती है और ऐसे कारण सामने आते हैं जिनमें हैरानी तो बढ़ रही हो पर रास्ता न मिल रहा हो। मानसिक उद्वेग भी अशुभ स्वप्नों का एक बड़ा कारण होते हैं। चिन्ता, भय, शोक, आशंका, क्रोध, ईर्ष्या, प्रतिशोध जैसी विपन्नताओं से घिरी मनःस्थिति में युद्ध, आक्रमण, रक्तपात षडयन्त्र की झलक दिखाने वाले स्वप्न दीखते हैं। ब्रेमर का कथन है कि गहरी और थकान मिटाने वाली नींद लेने के लिए शारीरिक पीड़ाओं और मानसिक उद्विग्नताओं से पीछा छुड़ाना आवश्यक है।

अमेरिका में शिकागो विश्व विद्यालय के प्रोफेसर क्लीट मैन ने नींद और स्वप्न के सम्बन्ध में जीवन भर अनुसन्धान जारी रखे। उनके बाद उस प्रयास को उनके शिष्य एमेरिस्को ने जारी रखा। वे लोग सोते हुए लोगों की अन्तःस्थिति जानने के लिए इलेक्ट्रोडों का प्रयोग करते थे और देखते कि स्वप्नों की स्थिति में मस्तिष्क का कौन सा क्षेत्र किस प्रकार की हरकतें करता है। इसके लिए उन्होंने विशेष प्रकार के इलेक्ट्रो एन्सिफेलो ग्राफी के उपकरण डी.डी.सी पोटेन्शियल जानने हेतु बताया कि मांसपेशियों की स्थिति का गहरी हलकी नींद से सघन सम्बन्ध है। थक कर सोने वाले अपेक्षाकृत अधिक गहरी नींद लेते और हलके-फुलके स्वप्न देखते हैं। इसकी अपेक्षा दिमागी काम करने वाले या चिन्तातुर रहने वाले मनःसंस्थान को उलटे उत्तेजित किये रहते हैं जिसके कारण नींद में बाधा पड़ती है। उनींदी जैसी स्थिति रहती है और ऐसे सपने देखते हैं जिनका कोई अर्थ नहीं होता। नींद के समय किसकी पुतलियां किस अनुपात से स्तब्ध या सक्रिय हैं इस आधार पर भी स्वप्नावस्था का अनुमान लगाया जाता है। इसको आर.आइ.एम.  स्लीप के नाम से जाना जाता व इस आधार पर एक विशेष शोध पद्धति का निर्धारण किया गया है।

सिगमण्ड फ्रायड की प्रख्यात पुस्तक ‘दि इन्टर प्रिटेशन आव ड्रीम्स’ में इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया है कि महत्वाकांक्षाओं, चिन्ताओं और सम्वेदनाओं का भार वहन करने से जो लोग अपने को बचाये रहते हैं और हलकी-फुलकी जिन्दगी जीते हैं उन्हीं के लिए गहरी निद्रा का आनन्द ले सकना सम्भव होता है। उन्हें स्वप्न भी प्रसन्नतादायक दिखाई पड़ते हैं। ऐसी मनःस्थिति बनाये रखना किसी भी विचारशील के लिए सम्भव है। परिस्थितियां अपने हाथ में नहीं, पर इतना तो किया ही जा सकता है कि उन्हें संसार चक्र का स्वाभाविक विधान समझा जाय और घटनाओं को अधिक महत्व न देते हुए सन्तुलन बनाये रखा जाय।

ब्राउन, पौने, मैक्सड्रगल, हेण्ड फील्ड, आदि स्वप्न विशेषज्ञ मनःशास्त्रियों के मन्तव्य इस सन्दर्भ में मिलते जुलते हैं कि सपनों में शरीर की भीतरी स्थिति का उनमें संकेत और विवरण रहता है। यह सांकेतिक भाषा में कहा जाता है। उसे समझने के लिए बाल मनोविज्ञानियों की तरह अनुमान लगाने पड़ते हैं। छोटे बच्चे बोलना नहीं जानते पर अपनी स्थिति या आवश्यकता का परिचय अंग संचालनों के माध्यम से देते हैं। इस भाषा को जानने वाले समझ लेते हैं कि वह क्या चाहता है। ठीक इसी प्रकार स्वप्नों के दृश्य तो अनगढ़ होते हैं पर उनमें यह संकेत मिलता है कि शरीर के किसी अवयव में कोई विपन्नता तो नहीं है। इस आधार पर किसी रोग की स्थिति पनपने, सम्भावना उभरने का भी कुशल चिकित्सक अनुमान लगा सकते हैं।

पैथालॉजी के आधार पर भीतरी अवयवों की स्थिति की जिस प्रकार जांच पड़ताल की जाती है। उसी प्रकार स्वप्नों की सांकेतिक भाषा समझने वाले यह भी समझ सकते हैं कि भीतर ही भीतर क्या खिचड़ी पक रही है और क्या संकट उभरने की आशंका है। इस सम्बन्ध में रूसी मनःशास्त्री कासानकिन ने लगातार बीस वर्ष तक हजारों सपनों का विश्लेषण शरीरगत पर्यवेक्षण की दृष्टि से किया है और अपने निष्कर्षों का विवरण प्रस्तुत करते हुए बताया है कि रोगों की सामयिक परीक्षा एवं निकटवर्ती सम्भावना समझने में स्वप्नों की सांकेतिक भाषा बहुत साहसिक हो सकता है। उनमें ऐसे कितने ही सपनों का विवरण प्रकाशित किया है जिनमें इस प्रकार की अविज्ञात स्थिति को समझा गया और उपचार को सरल बनाया गया।

कैलिफोर्निया के डॉक्टर मार्टिन और इविंग ओले के प्रतिपादनों में कहा गया है कि रोगों की जड़ें पाचन और रक्त सम्पदा में ही नहीं होती वरन् उनका अधिकांश आधार मनःक्षेत्र में पाया जाता है। मानसिक विद्युत के प्रभाव से ही समस्त अवयव काम करते हैं। उसकी प्रखरता से अंगों की क्षमता सुव्यवस्थित रहती है और वे सही काम करके रोगों की जड़ें काटते रहते हैं, किन्तु इस विद्युत प्रवाह में शिथिलता या गड़बड़ी चल पड़े तो अवयवों की स्थिति पर उसका प्रभाव पड़ेगा और रुग्णता जहां-तहां से फूटने लगेगी। वे कहते हैं मनःस्थिति को समझना तथा उसका उपचार करना ही रोगों की अत्यन्तिक निवृत्ति का ठोस उपाय समझा जाना चाहिए। इस प्रतिपादन के आधार पर उन्होंने स्वप्नों को शारीरिक एवं मानसिक स्थिति की गहनता पर प्रकाश डालने वाला आधार कहा है।

डॉ. कासानकिन ने अपना उपचार ही स्वप्न विवरण के आधार पर आरम्भ किया और इसमें उन्हें आश्चर्यजनक सफलता भी मिली। इन निष्कर्षों से यह अनुमान लगता है कि स्वप्न शारीरिक स्थिति से प्रेरित होते हैं और अपने आप में ऐसी जानकारियां संजोये रहते हैं जिनके आधार पर यह जाना जा सके कि स्वस्थता कितनी सुदृढ़ एवं कितनी दुर्बल है। उसमें कहां खराबी पड़ी है और रुग्णता का दौर कितनी गहराई में, किस क्षेत्र में, किस स्तर का चल रहा है? डॉ. क्लीटमैन का मत है कि अस्त−व्यस्त स्वप्न प्रायः भोजन में गड़बड़ी के कारण होते हैं।

मनुष्य जितनी अधिक प्रगाढ़ निद्रा में होता है, पदार्थ विज्ञान के अनुसार उसे सांसारिक बातों का उतना ही विस्मरण होना चाहिये, किन्तु इलेक्ट्रो इनकेफेलोग्राम के द्वारा प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. क्लीटमन ने यह सिद्ध कर दिया है कि निद्रावस्था जितनी ही गहरी होती है, उतने ही स्वप्न अधिक स्पष्ट और सार्थक होते हैं। उन्होंने दावा किया है कि स्वप्न देखना भी सांस लेने की तरह जीव की एक स्वाभाविक क्रिया है। स्वाभाविक क्रियायें यदि सत्य बातों का ज्ञान करा सकती तो उसकी अनुभूति करने वाले तत्व को जड़ नहीं कहा जा सकता। उनका यह भी कहना है कि निद्रा की गहराई रात में एक या दो घण्टे भर की होती है। इसीलिये तमाम रात सार्थक स्वप्न न देखकर वह अनुभूतियां बहुत थोड़े समय के लिये ही अवतरित होती हैं। प्रातःकाल जब वाह्य प्रकृति भी स्वच्छ हो जाती है ब्राह्म मुहूर्त्त से पूर्व जब मनुष्य थोड़े समय के लिये भी गहरी निद्रा में उतरता है तो उसे ऐसे स्वप्न दिखाई देते हैं, जिनमें किन्हीं सत्य घटनाओं का पूर्वाभास मिलता है। उनका मत है कि आहार का अच्छा, खासा प्रभाव स्वप्नों पर पड़ता है। तीखे और उत्तेजक पदार्थों के सेवन से शरीर की स्थूल प्रकृति उत्तेजक बनी रहती है, इसलिए स्वप्न साफ नहीं दिखाई देते पर जैसे ही चेतना गहराई में उतर जाती है सार्थक स्वप्नों का क्रम चल पड़ता है।

अस्पष्ट स्वप्न, स्वप्नों में भय और विकार इसी बात के प्रतीक हैं कि हमारा मन अस्त–व्यस्त, अपवित्र है ऐसे बुरे स्वप्नों का कारण—

यस्त्वा स्वप्नेन तमसा मोहयित्वा निपद्यते ।

—अथर्व 20।96।16

अर्थात्—हमारे अज्ञान और पाप—मन के कारण दुःस्वप्न आते हैं। उनके परिहार का कारण बताते हुये ऋषि लिखते हैं—

पर्यावर्ते दुःष्वप्नात्पापात्स्वप्न्याद भूत्या ।

ब्राह्माहमतरं कृण्वे परा स्वप्नमुखाः शुचः ।।

—अथर्व 7।00।1

अर्थात्—यदि स्वप्न में बुरे भाव आते हैं तो उन्हें अज्ञान, पाप और आपत्ति सूचक समझ कर उनके परिष्कार के लिए ब्रह्म की उपासना करनी चाहिये जिससे मन के अन्दर सतोगुणों की वृद्धि होकर अच्छे स्वप्न दिखाई देने लगें और आत्मा की अनुभूति होने लगे।

इसी प्रकार मन, शास्त्री यह सोचते हैं कि मनुष्य जिस प्रकार के चिन्तन या क्रिया कलाप में व्यस्त रहता है उसकी प्रतिच्छाया, स्वप्न में अनबूझ पहेली बनकर दीखती है और अपनी स्थिति तथा आवश्यकता की जानकारी सांकेतिक भाषा में देती है। यदि इस भाषा को समझा जा सके तो किसी व्यक्ति की उसकी शारीरिक एवं मानसिक स्थिति का विश्लेषण किया जा सकता है। यह पता लग सकता है कि वह किस प्रवाह में बह रहा है इस आधार पर उसका भविष्य क्या बन सकता है और अशुभ की रोकथाम तथा शुभ की सम्भावना को फलित करने के लिए क्या किया जा सकता है?

स्वप्न भविष्य में सत्य क्यों होते हैं, इस संबंध में चाहे पूर्ववासी हों चाहे पश्चिमी अन्वेषक उन्हें अन्ततः हमारी शास्त्रीय खोजों पर ही उतरना पड़ता है। भारतीय शास्त्र स्वप्न को अदृश्य के बीच का सन्धि द्वार मानते हैं।

स हि स्वप्नों भूत्वेमं लोकमतिक्रामति । तस्य वा एतस्य पुरुषस्य द्वे एव स्थाने भवतः इदं च परलोकं स्थानं च सध्यं तृतीयं स्वप्न स्थानं तस्मिन्सन्धे स्थाने पश्यतीद च परलोक स्थानं च ।

—वृहदारण्यक 4।3।9

अर्थात्—वह आत्मा ही स्वप्न अवस्था में जाकर इस लोक का अतिक्रमण करता है। इस पुरुष के दो स्थान होते हैं—एक तो यह लोक, दूसरा परलोक और तीसरा सन्धि स्थान। यह सन्धि स्थान जहां से उस लोक को भी देखा जा सकता है इस लोक को भी स्वप्न स्थान कहते हैं।

दो कमरों के बीच दरवाजे पर खड़ा मनुष्य जिस प्रकार इस कमरे को भी देख सकता है उस कमरे को भी। उसी प्रकार स्वप्न में जीव-चेतना या मन अपने दृश्य जगत से सम्बन्धित कल्पना तरंगों के चित्र भी देख सकती है और आत्मा के अदृश्य विराट जगत में झांक कर भूत और भविष्य की उन गहराइयों तक की भी थाह ले सकती हैं जो समय और ब्रह्माण्ड की सीमा से परे केवल विश्व-व्यापी मूल चेतना में ही घटित होते हैं। जो स्वप्न जितना गहरा और भावनाओं के साथ दिखता है वह इस अदृश्य जगत की उतनी ही गहरी अनुभूतियां पकड़ लाता है। योगियों का मन अत्यन्त सूक्ष्म हो जाने और प्रगाढ़ निद्रा आने के कारण वे अपने मन को आत्मा के व्यापक क्षेत्र में प्रविष्ट कराकर स्वप्न में आत्म जगत का आनन्द ही नहीं लिया करते वरन् अपने भूत को जानकर वर्तमान को सुधारने और भविष्य को जानकर होतव्यता से बचने का भी उपक्रम करते रहते हैं इसी लिये योगी ‘‘अविजित’’ रहता है उस पर सांसारिक परिस्थितियां हावी नहीं होने पातीं। वह उन पर स्वयं ही हावी बन रहता है। स्वप्न ने ही योगी को इस शरीर में रहते हुए विराट आत्मा के रहस्य खोले हैं जो मन को अधिक पवित्र और सूक्ष्म बनाने के साथ स्वतः खुलते जाते हैं—

य एष स्वप्ने महीय मानश्च मानश्च रव्येष आत्मेति ।

—छान्दोग्य उपनिषद 8।10।1

तद्यत्रैतत् सुप्तः समस्त संप्रसन्नः स्वप्न न विजानात्मेति ।

—छान्दोग्य उपनिषद् 8।11।1

अर्थात्—स्वप्न में जो अपने गौरव के साथ व्यक्त होता है वह आत्मा है। प्रगाढ़ निद्रा में आनन्दित होता हुआ जो उस स्वप्न से भी बढ़कर शाश्वत है वह आत्मा है, उसका कभी अन्त नहीं होता।

जीव-चेतना जब स्वप्न में कल्पना-तरंगों का ही आनन्द ले रही होती है। मन जब कल्पना, विनोद, उछल-कूद में ही व्यस्त और मस्त होता है, उस समय के सपने झूठे होते हैं। उसकी मात्र काल्पनिक सत्ता होती है, क्योंकि वे मनोविनोद और मन के भ्रमण के उद्देश्य से ही देखे जाते हैं। जब यही मन सूक्ष्म-सत्ता की ओर अभिमुख होकर विराट जगत की झांकी लेता है, उस समय स्वप्न के झरोखे से अदृश्य, अतीत या अनावृत के सही और सच्चे दृश्य एवं घटनाक्रम देखे जा सकते हैं। उनका सही और सच्चा होना मन के सच्चे और पवित्र होने से सम्बन्धित है। मन जितना ही सूक्ष्मग्राही परिष्कृत, सात्विक और संयमी होगा, सपने उतने ही सच्चे तथा गहराई तक के दृश्य सामने लाने वाले होंगे।

इतने पर भी यह नहीं मान बैठना चाहिए कि स्वप्नों में भूतकाल के संचय एवं वर्तमान के पर्यवेक्षण के अतिरिक्त उनमें और कोई तथ्य है ही नहीं। स्वप्न जितनी गहरी परतों से उभर कर ऊपर आते उसी अनुपात में वे वस्तुस्थिति की जानकारी देने का माध्यम बनते हैं।

यदि शरीर सोता है तो सपने कौन देखता है?

स्वप्नों का अपना अलग ही एक विचित्र संसार है जिसमें विचरण करते हुए हम अनेकों चित्र-विचित्र दृश्य देखते हैं। इनमें से कई सार्थक होते हैं और कई विचित्र। स्वप्न में देखी हुई बहुत सी बातें तो याद रह जाती हैं और अनेकों विस्मृति के गर्त में खो जाती हैं। प्रश्न उठता है उस समय व्यक्ति का शरीर तो सोता रहता है, इन्द्रियां भी निष्क्रिय ही रहती हैं। गहरी नींद सोये व्यक्ति को अपने आस-पास क्या हो रहा है—इसका कुछ पता ही नहीं चलता। एक तरह से वह सोते हुए भी दूसरी दुनिया में चला जाता है। फिर प्रश्न उठता है कि शरीर का कौन-सा बाहरी या भीतरी अंग होता है जो स्वप्न देखता है?

प्रश्नोपनिषद् में गार्ग्य मुनि पिप्पलाद ऋषि से यही प्रश्न करते हैं—‘कान्य स्मिंज्जागृति कतर एव देव स्वप्नान्पश्यन्ति (4।1)’ अर्थात् ‘कौन कौन जागते रहते हैं और स्वप्न अवस्था में कौन-कौन स्वप्न की घटनाओं को देखते रहते हैं।’

चतुर्थ प्रश्न में गार्ग्य मुनि पिप्पलाद ऋषि से निद्रा के समय मनुष्य शरीर की स्थिति के सम्बन्ध में प्रश्न करते हैं जिसके उत्तर में पिप्पलाद ऋषि कहते हैं कि—निद्रा एक यज्ञ है। उस शरीर रूप नगर में पंच प्राण रूप अग्नियां जागती रहती हैं। श्वास प्रश्वास दोनों इस यज्ञ में दी जाने वाली आहुतियां हैं। इनको जो समभाव से पहुंचाता है वही ‘होता’ है। यह मन ही यजमान है और उससे मिलने वाला अभीष्ट फल ही उदान है वह उदान ही इस मन रूप यजमान को प्रतिदिन (निद्रा के समय) ब्रह्म लोक में भेजता है अर्थात् हृदय गुहा में ले जाता है (प्रश्न 4।3-4)

ऋषि के अनुसार निद्रा एक यज्ञ है और उसमें शरीर में जाने आने वाले श्वास प्रश्वास आहुतियां हैं। इस अलंकारिक उत्तर में ऋषि ने यह बताया है कि स्वप्न के माध्यम से मन जीवात्मा के पास पहुंचने का प्रयास करता है। यद्यपि नींद में पड़ने वाले विक्षेपों के कारण भी कई स्वप्न आते जाते हैं। सोते सोते यौन उत्तेजना में काम क्रीड़ा के दृश्य दिखाई देते हैं। उस समय की कष्ट कारक अनुभूतियां और मानसिक परेशानियां भी अपने अपने स्तर के पीड़ा दायक डरावने स्वप्न खड़े कर देती हैं। अतृप्त आकांक्षायें भी अपना रंग महल बनाने बिगाड़ने का खेल खेलती हैं और कई प्रकार के स्वप्नों की सृष्टि होती है। इस तरह के स्वप्न महत्व हीन होते हैं। यों उनका विश्लेषण किया जाय तो उनके सहारे मनःस्थिति का परीक्षण निदान भी उसी प्रकार किया जा सकता है जिस प्रकार कि मल, मूत्र, रक्त, आदि की जांच एक्सरे द्वारा करके शारीरिक रोगों का निदान किया जाता है। परन्तु पिप्पलाद ऋषि का प्रतिपादन निद्रा यज्ञ से सम्बन्धित है।

यों अग्नियां और भी हैं जिनमें कूड़ा करकट के जलाने से लेकर खाना पकाने और मकान जलने जैसी प्रिय अप्रिय घटनायें घटती हैं। परन्तु यज्ञाग्नि उन अग्नियों से भिन्न है। इसी प्रकार निद्रा को भी एक अग्नि की संज्ञा देते हुए उसके यज्ञ स्तर के स्वरूप वाली निद्रा मन को ऐसे उच्च लोकों की यात्रा करा देती है जिन्हें वरदान और अलौकिक अनुभूतियां कहा जा सकता है। ऋषि ने इसी स्तर के स्वप्नों को ब्रह्मलोक की यात्रा-हृदय गुहा में स्थित आत्म चेतना के सामीप्य की प्राप्ति और उसके माध्यम से विराट् चेतना के साथ सम्बद्ध होने का द्वार कहा है।

अब तक तो विज्ञान भी स्वप्नों को अतृप्त आकांक्षाओं और दबी हुई कामनाओं का ही प्रतीक मानता था; परन्तु अब हाल ही में हुई शोधों के अनुसार स्वप्नों के बारे में मनःशास्त्री भी कहने लगे हैं कि कुछ स्वप्न ऐसे होते हैं जिनकी आधुनिक मनोविज्ञान के आधार पर व्याख्या नहीं की जा सकती है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय तथा शिकागो विश्वविद्यालय ने इस तरह के अव्याख्येय स्वप्नों का रहस्य सुलझाने के लिए अलग से ‘स्वप्न परीक्षण विभाग’ खोले हैं। जहां लोगों को बुलाया जाता है, उन्हें पैसे देकर सुलाया जाता है। वे गाढ़ी नींद लेकर सो सकें इसके लिए आवश्यक प्रबन्ध भी किये जाते हैं। और सोते समय उनके मस्तिष्क में चलने वाली विद्युत तरंगों को रिकार्ड करने के साथ-साथ जागने के बाद उन्हें याद रहे स्वप्नों का विश्लेषण भी किया जाता है।

इन विश्व विद्यालयों द्वारा की गयी शोधों से प्राप्त निष्कर्षों से फ्रायड के एकांगी स्वप्न सिद्धान्त की यह मान्यता लगभग ध्वस्त हो चुकी है कि दैनिक जीवन की अतृप्त आकांक्षायें, इच्छायें और संवेदनायें ही निद्रा के समय स्वप्न के रूप में परिलक्षित होती हैं। मनः शास्त्र के विश्व विख्यात आचार्य डा. कार्ल जुंग ने अपनी पुस्तक ‘‘मेमोरिज आफ ड्रीम्स रिफ्लैक्शन्स’’ में लिखा है—‘‘चेतन मस्तिष्क को ज्ञान प्राप्ति के जितने साधन प्राप्त हैं उससे कहीं अधिक और समर्थ, ठोस साधन अंग चेतन (सब कांशस) मन को उपलब्ध है।’’ चेतन मस्तिष्क दृश्य, श्रव्य तथा अन्य इन्द्रियानुभूतियों द्वारा ज्ञानार्जित करता है परन्तु उपचेतन के पास तो ज्ञान प्राप्ति के असीम साधन हैं। वह अन्तरिक्ष में प्रवाहित होते रहने वाले संकेत कम्पनों को भी पकड़ लेता है जिनमें असीम जानकारियां होती हैं और वह भी विभिन्न स्तरों की।

यह उपचेतन तभी सक्रिय होता है जब चेतन मन सो जाता है। सामान्यतः हमारा शरीर ही सोता है, चेतन मन नहीं, जिसे मस्तिष्क भी कह सकते हैं। सोते समय मन में चलते रहने वाले विचारों और कल्पनाओं की दृश्यावली साधारण स्वप्नों के रूप में उभर कर आती है। लेकिन जब मस्तिष्क भी थका होता है—चेतन मन भी सो जाता है तो गाढ़ी नींद की स्थिति होती है। कार्लजुंग के अनुसार उस गाढ़ी नींद के समय ही उपचेतन मन सक्रिय होता है।

फ्लोरन्स (इटली) के मनः शास्त्री गेस्टन उगदियानी का कहना है कि सक्रिय मस्तिष्क शिथिल होने अथवा सुषुप्ति की अवस्था में चले जाने के बाद दिखाई पड़ने वाले स्वप्नों में कई ऐसे संकेत ढूंढ़े जा सकते हैं जो महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। इसी स्थिति में बहुतों को ऐसे आधार हाथ लगते हैं जिन्हें बहुत माथा-पच्ची करने के बाद भी नहीं समझा जा सका है। अपने स्वयं के एक स्वप्न का विश्लेषण करते हुए उन्होंने यह बात कही थी।

घटना उस समय की है जब गेस्टन सात वर्ष की आयु के बालक थे। तब वे प्रायः सपना देखा करते थे कि वे किसी बहुत बड़े मन्दिर में पुजारी का काम करते हैं, सपना इतना अधिक स्पष्ट था कि इमारत का नक्शा उनके मस्तिष्क पर जमा रहा और उस स्वप्न की गहरी छाप भी उनके मस्तिष्क में जमा रही। एक बार जब वे भारत आये तो उन्होंने फिर वैसा स्वप्न देखा। भारत मन्दिरों का देश है यह तो उन्हें मालूम ही था अतः वे अपनी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए सभी प्रख्यात मन्दिरों में गये। खोजते खोजते वे महाबली पुरम् नगर के एक मन्दिर में गये तो उसे देखकर वे सन्न रह गये। यह मन्दिर हू बहू स्वप्न में देखे गये मन्दिर के समान था। इस स्वप्न का विश्लेषण उन्होंने पूर्व जन्म की स्मृति बताते हुए किया है और कहा है कि संभवतः गत जन्म में भारतीय थे।

स्वप्नों के साथ जुड़ी हुई दूर दर्शन, अविज्ञान का ज्ञान और भविष्य के पूर्वाभास की घटनायें भी यही सिद्ध करती हैं कि मनुष्य की चेतना स्वप्नों के माध्यम से सूक्ष्म जगत् की हलचलों के साथ अपना सम्पर्क स्थापित कर लेती है। मस्तिष्क या चेतन मन के शिथिल होते ही मनुष्य की सूक्ष्म चेतना पर छाया रहने वाला उनका आवरण हट जाता है और उसका सम्पर्क दिव्य चेतना से जुड़ जाता है। ध्यान धारणा, समाधि और योग निद्रा के समय भी चेतन मन तथा बुद्धि की दौड़-धूप कम हो जाती है और उस समय भी अन्तः चेतना विराट् चेतना के साथ सम्पर्क कर लेती है। पूर्ण समाधि अथवा अर्ध समाधि की स्थिति में साधकों को जो दिव्य अनुभूतियां होती हैं उन्हें जागृत एवं अधिक यथार्थ स्वप्न कहा जाय तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

प्रसिद्ध मनोविज्ञानी हैफनर मारेस का तो कहना है कि अपनी अन्तश्चेतना को इस प्रकार प्रशिक्षित भी किया जा सकता है कि वह स्वप्नों का संकेत समझ सके। सिडनी के टामफीचर नामक व्यक्ति ने तो यह कर भी दिखाया है। इतना ही नहीं उन्होंने ऐसी क्षमता भी अर्जित करली है कि जागृत स्थिति में न सुलझायी जा सकने वाली समस्याओं और गुत्थियों को वे स्वप्नों के माध्यम से सुलझा सके। इस क्षमता को प्राप्त करने के लिए उन्होंने वर्षों तक कई अभ्यास किये थे और उनमें सफलता भी पायी। टामफीयर की स्वप्न सिद्धि के कई प्रमाण सिडनी के समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहे हैं।

एक प्रमाण तो सिडनी नगर के पुलिस दफ्तर में भी दर्ज है। इसमें फीयर ने एक चुराये गये बालक को अपहरणकर्ताओं के चंगुल से मुक्त कराने में पुलिस की सहायता की थी। बालक इस समय कहां है, उसे किन व्यक्तियों ने चुराया है और उनका क्या पता ठिकाना है, वे बालक को क्या–क्या यातनायें दे रहे हैं आदि बातों का विवरण टामफीयर ने स्वप्न में देखकर बताया था और इसके लिए सिडनी पुलिस ने टामफीयर को दो हजार डॉलर पुरस्कार स्वरूप भी दिये थे।

योग साधना, ध्यान-अभ्यास और आत्मिक व्यायामों द्वारा हो अथवा पूर्व जन्मों के संस्कारों के परिणाम स्वरूप जब व्यक्ति का आत्मिक स्तर इतना ऊंचा उठ जाता है कि उसका मन आत्मा की सान्निध्य में पहुंच जाय तो वह इस स्तर की अनुभूतियां स्वप्न के माध्यम से प्राप्त करता है। उपचेतन मन ऐसे स्वप्न संकेत ही पकड़ता है जिनसे किसी का भला होता हो अथवा अपना पवित्र साध्य भी पवित्र साधनों से सधता हो। स्वप्नों के माध्यम से आज तक न तो किसी को अनीति अपनाने अथवा अवांछनीय लाभ उठाने के संकेत मिले हैं अथवा न किसी को हानि पहुंचाने की ही प्रेरणा मिली है। ऐसे उदाहरण अवश्य मिलते हैं जिनमें व्यक्ति के अपने सौभाग्य उदय में आ रहे अवरोधों को हटाने की प्रेरणा मिली हो।

स्वप्नों के माध्यम से विराट् चेतना दिशा बोध भी प्रदान करती है जैसे—सुदूर चौकियों पर लड़ रहे सैनिकों को उनके अफसर वायरलैस अथवा ट्रांसमीटर से संकेत देता है कि अमुक दिशा में बढ़ो। अमुक मोर्चे पर आक्रमण करो। उसी प्रकार विराट् चेतना भी व्यक्ति चेतना का मार्ग दर्शन करती है। अमेरिका के चार्ल्स फिल्मोर को प्राप्त स्वप्न संकेत इसी सिद्धान्त को प्रमाणित करते हैं।

चार्ल्स फिल्मोर एक सात्विक प्रकृति के व्यक्ति थे। वे स्वयं ध्यान साधना का अभ्यास करते और लोगों से भी कराते थे। एक रात उन्होंने स्वप्न देखा कि एक अपरिचित व्यक्ति उन्हें अपने पीछे-पीछे आने का संकेत कर रहा है। वे उसके पीछे-पीछे चल पड़े और कसांस नगर पहुंच गये। फिर वह व्यक्ति उन्हें ऐसे स्थान पर ले गया जो उनके लिए अपरिचित था। वहां उसने चार्ल्स के हाथ में एक समाचार पत्र दिया जिसका पहला अक्षर ‘यू’ ही वे पढ़ पाये थे कि एकाएक अनेक समाचार पत्र उनके हाथ में आते गये। साथ ही उन्होंने देखा कि सामने बैठे बहुत से व्यक्ति ध्यान कर रहे हैं।

स्पष्ट ही इस स्वप्न का अर्थ उन्होंने लगाया कि वे ध्यान साधना का प्रचार करे, संयोग की बात कि एक दिन कुछ लोगों ने उनके पास आकर इस कार्य को संगठन बद्ध प्रचार करने का प्रस्ताव रखा। इसके बाद चार्ल्स फिल्मोर कसास शहर चले गये। वहां के लोगों ने जिस स्थान पर संस्था का कार्यालय खोलने की बात कही वह स्थान यों तो चार्ल्स के लिए अपरिचित था परन्तु उन्होंने पाया कि स्वप्न में जिस स्थान को उन्होंने देखा था यह वही स्थान है उसी स्थान पर ‘‘सोसायटी ऑफ सायलेण्ट यूनिटी’’ नामक संस्था की स्थापना की। संस्था की ओर से जो समाचार पत्र निकाला गया उसका प्रथम अक्षर ‘यू’ ही था और अखबार का नाम ‘यूनिटी’ रखा गया। बाद में और भी पत्र पत्रिकायें वहां से छपीं। और स्वप्न का तथ्य सत्य हो गया। ‘‘यूनिटी’’ के माध्यम से अध्यात्म का संदेश काफी वर्षों तक विश्व भर में फैलाया जाता रहा।

कई बार स्वप्न इतने प्रेरक होते हैं कि उनके कारण मनुष्य की जीवन दिशा ही बदल जाती है। सभी जानते हैं कि भगवान बुद्ध राजकुमार थे। उनके वीतराग संन्यासी हो जाने की भविष्यवाणी ज्योतिषियों से सुन कर शुद्धोधन ने इस बात का हर सम्भव प्रयास किया था कि उनके सामने कोई दुखद प्रसंग आने ही न पाये। फिर भी उन्होंने एक वृद्ध और शव यात्रा को देखकर जीवन प्रवाह के मोड़ देखे। इन घटनाओं ने उनके चित्त को विचलित किया। एक दिन उन्होंने स्वप्न देखा कि कोई श्वेत वस्त्रधारी एक वयोवृद्ध दिव्य पुरुष आया और उनका हाथ पकड़ कर श्मशान ले गया। उंगली का इशारा करते हुए उस दिव्य पुरुष ने बताया देख यह तेरी लाश है। इसे देख और प्राप्त हुए जीवन का सदुपयोग कर। आंख खुलते ही बुद्ध ने निश्चय कर डाला कि इस बहुमूल्य सौभाग्य का उन्हें किस प्रकार सदुपयोग करना है—जीवन का क्या प्रयोजन है और वे इसी क्षण रात में ही अपने राजपाट को छोड़कर श्रेय की खोज में निकल पड़े तथा उसे प्राप्त कर ही लिया।

फ्रान्स की राज्यक्रांति की सफल संचालिका ‘जोन ऑफ आर्क’ एक मामूली से किसान के घर में जन्मी थी। अपने पिता के घर ही उसने स्वप्न देखा कि आसमान से कोई फरिश्ता उतर कर आया है तथा उससे कह रहा है कि—‘‘अपने को पहचान! समय की पुकार सुन ओर स्वतन्त्रता की मशाल जला।’’ उस फरिश्ते ने जोन के हाथों में एक जलती हुई मशाल भी दी। नींद खुलने पर जोन ने इन बातों को गांठ में बांध लिया और उसी समय से फ्रांस को स्वतन्त्र कराने के लिए उत्साह के साथ काम करने लगी। इतिहास साक्षी है कि जोन ने कितनी वीरता के साथ स्वतन्त्रता संग्राम लड़ा और अपने प्राणों की बाजी लगा कर सफलता प्राप्त कर सकी तथा अपने आपको अमर कर गयी।

इस तरह के दिव्य आभास और दिव्य प्रेरणायें देने वाले स्वप्न उन्हीं व्यक्तियों को आते हैं जिनकी मनोभूमि अधिक विकसित होती है। पूर्व संस्कारों के कारण भी किन्हीं में ऐसी विशेषता पाई जाती है। कई लोग साधना-उपासना द्वारा अपनी मलीनताओं तथा विकृतियों का शोधन करके भी इस प्रकार की आत्मिक प्रखरता उत्पन्न करते हैं और स्वप्नों के माध्यम से ऐसे संकेत प्राप्त करते हैं जो आत्मतत्व की खोज में सहायक होते हैं अथवा आत्म सत्ता के अस्तित्व की पुष्टि करते हैं।

ऋषि पिप्पलाद ने निद्रा को इसीलिए यज्ञ कहा है कि इस अवस्था में भी वैयक्तिक चेतना परम चेतना के साथ आसानी से एकाकार हो जाती है। माण्डूक्य उपनिषद् में बताया गया है—

स्वप्न स्थान हुन्तः सहांग एकोनविंशति मुख प्रचिविक्त भुक् तैजसो द्वितीय पादः ।4। स्वप्न स्थान सौजस् उकारो द्वितीय मात्रोत्कर्ष दुभयत्वा द्वोत्कर्षति हवैज्ञान संतति समानश्च घवति ।10।

अर्थात्—स्वप्न अवस्था में जब मन सो जाता है तब उसकी प्रज्ञा बुद्धि अन्दर ही काम करने लगती है। इस समय उसके सातों अंग (पांच तन्मात्रायें अहंकार और महतत्व) उन्नीस मुख (दस इन्द्रियां, पांच प्राण और चार अन्तःकरण) भी उसी में लीन हो जाते हैं जिनसे आत्मा शरीर के समान ही संसार का भोग करता है। यह आत्मा का तेजस् द्वितीय पाद है अर्थात् यह जागृति और सुषुप्ति के बीच की अवस्था आत्मतत्व की खोज में सहायक हो सकती है।’’

स्वप्न मन को आत्मा से जोड़ने वाली अवस्था के रूप में भी बदले जा सकते हैं। शास्त्रकारों के अनुसार इसके लिए साधना उपासना द्वारा अपनी चेतना का परिष्कार, मलीनताओं का निवारण तथा आत्म शोधन के द्वारा अपने व्यक्तित्व का परिपाक करना पड़ता है। जिस समय चेतना पूर्णतः निर्मल, शुद्ध हो जाती है उस समय आत्म सत्ता एवं परमात्म सत्ता का उसी प्रकार अनुभव किया जा सकता है, जिस प्रकार कि सामने बैठे हुए व्यक्ति या रखी हुई वस्तु का।

साधना क्षेत्र में आत्मिक प्रगति की कितनी मंजिल पार कर ली गयी है इसका पता भी स्वप्नों से लगाया जा सकता है पुराणों और आर्षग्रन्थों में इस प्रकार के कई स्वप्नों का उल्लेख आता है जिनसे यह पता चलता है कि साधना क्षेत्र में हमारी प्रगति किस गति से हो रही है। स्वप्नों के संकेत यदि समझना सम्भव हो सके तो न केवल आत्मिक स्थिति का स्तर मालूम किया जा सकता है वरन् उसके माध्यम से सूक्ष्म को समझ पाना तथा उसके साथ ताल मेल बिठाना भी सम्भव हो सकता है। प्रश्नोपनिषद् में महर्षि ने निद्रा को इसीलिए यज्ञ कहा है कि उस अवस्था में चेतना के अन्तर्मुख होने की संभावना भी रहती है। अन्यथा निद्रा, आलस्य, प्रमाद की तामसिक वृत्ति भी हो सकती है।

इस तरह स्वप्न मात्र अचेतन की दमित भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है जैसा कि पाश्चात्य मनोविज्ञान प्रतिपादित करता आया है। वे मनश्चेतना को अन्तः चेतना से जोड़ने वाले सम्पर्क सूत्र की भूमिका निभाते हैं। स्वप्न स्थूल मस्तिष्क नहीं देखता वरन् अन्दर विराजमान चेतन सत्ता देखती है। उनकी महत्ता उसी रूप में समझी जानी चाहिए।

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