पीछे के पृष्ठों पर भूःलोक और भुवःलोक का वर्णन कर चुके हैं। तीसरा लोक स्वःलोक है। अपने आप में, अपने अंतःकरण में एक जबरदस्त लोक मौजूद है। उस लोक की स्थिति इतनी महत्त्वपूर्ण है कि उसके सामने भूःलोक और भुवःलोक तुच्छ हैं। निस्संदेह बाहर की परिस्थितियां मनुष्य को आंदोलित, तरंगित तथा विचलित करती हैं, परंतु संसार के समस्त पदार्थों का जितना भला या बुरा प्रभाव होता है, उससे अनेक गुना प्रभाव अपने निज के विचारों तथा विश्वासों द्वारा होता है।
गीता में कहा है—मनुष्य स्वयं ही अपना मित्र और स्वयं ही अपना शत्रु है। कोई मित्र इतनी सहायता नहीं कर सकता जितनी कि मनुष्य स्वयं अपनी सहायता कर सकता है। इसी प्रकार कोई दूसरा उतनी शत्रुता नहीं कर सकता, जितनी कि मनुष्य खुद अपने आप अपने से शत्रुता करता है। अपनी कल्पना शक्ति, विचार और विश्वास के आधार पर मनुष्य अपनी एक दुनिया का निर्माण करता है। वही दुनिया उसे वास्तविक सुख-दुख दिखाया करती है।
एक व्यक्ति सुनसान रात में मरघट के पास से निकलता है। उसके मन में कोई आशंका नहीं, तारागणों की सुंदरता निहारता हुआ, रात्रि की नीरवता और शीतलता को निरखता हुआ, मंद स्वर से गीत गुनगुनाता हुआ खुशी-खुशी चला जाता है। दूसरा व्यक्ति उसी रास्ते जाता है तो मरघट में भूत लोटते दिखाई पड़ते हैं, झाड़ियों में से मसानी, चुड़ैलें झांकती दीखती हैं, उनके मारे थर-थर पैर कांपने लगते हैं, कंठ सूख जाता है, निगाह चूकने से एक पेड़ के ठूंठ से टकरा जाता है। बस भूत के भयंकर आक्रमण का प्रत्यक्ष दृश्य दिखाई देता है। वह बीमार पड़ जाता है, महीनों चारपाई सोता है, मुश्किल से अच्छा हो पाता है या मर जाता है। रास्ता वही था, रात वही थी, एक आदमी खुशी-खुशी उसी रास्ते चला आया, दूसरे आदमी की जान पर बन आई। यह भेद क्यों हुआ? इसका कारण मनुष्यों की भिन्न मानसिक स्थिति थी। जिसके मन में भय उत्पन्न हुआ, वह भय ही उसकी छाती पर भयंकर मसान बनकर चढ़ बैठा और उसे प्राणघातक संकट में फंसा दिया।
रस्सी को सांप समझकर अनेक आदमी भयभीत होकर मूर्च्छित हो जाते हैं। चूहे के काट खाने पर अपने आप को सांप का काटा समझकर कई मनुष्य मृत्यु के मुख में चले जाते हैं। साधारण रोग को असाध्य रोग मानकर अनेक रोगी घबरा जाते हैं और घबराहट ही उसकी जान की ग्राहक बन जाती है। यह आफत के पहाड़ कौन ढहाता है? मनुष्य अपने आप अपने विचार बल से उन आफत के पहाड़ों का निर्माण करता है और खुद अपने ऊपर पटककर स्वयंमेव चकनाचूर हो जाता है। मनुष्य के मन में प्रचंड शक्ति भरी हुई है। वह इस शक्ति द्वारा अपने लिए अत्यंत अनिष्टकर और अत्यंत उपयोगी तथ्य निर्मित कर सकता है।
हर मनुष्य की अपनी एक अलग दुनिया होती है। जानकारी, इच्छा, प्रभाव एवं कल्पना के आधार पर हम अपनी मनोभूमि का निर्माण करते हैं। यह मनोभूमि ही अपनी दुनिया है। इसमें जैसे इरादे, मनसूबे, विश्वास जम जाते हैं, उसी दृष्टिकोण से संसार के समस्त पदार्थों को वह देखता है। आंखों पर पीला चश्मा पहन लेने से दुनिया पीली दिखाई पड़ती है और नीला चश्मा पहन लेने से हर चीज नीली दिखाई पड़ती है। साधुओं की दृष्टि में यह संसार परमात्मा की पुनीत प्रतिज्ञा है, सिंह की दृष्टि में सब मनुष्य स्वादिष्ट मांस के चलते-फिरते लोथड़े हैं, दुकानदारों की दृष्टि में ग्राहक, वेश्या की दृष्टि में व्यभिचारी, कलार की दृष्टि में नशेबाज इस दुनिया में भरे हुए हैं। भीतरी मन की दुनिया जैसी होती है बाहर की दुनिया भी उसी के अनुरूप दिखाई देने लगती है।
मनुष्य की अपनी रुचि जिधर होती है, उधर ही उसका मस्तिष्क ढूंढ़-खोज जारी रखता है और यह एक तथ्य है कि जो कुछ खोजा जाता है, वह मिलता है। अपने स्वभाव और विचारों के मनुष्यों को, स्थानों को, वातावरण को, उसकी अदृश्य चेतना ढूंढ़ती रहती है और धीरे-धीरे उसे अपने अनुकूल वातावरण मिल जाता है। चोरों को अपने साथी अन्य चोरों का सहयोग हर जगह मिल जाता है और वे चाहे कहीं चले जाएं, चोरी करने का अवसर या स्थान भी मिल जाता है। इसी प्रकार भले-बुरे सभी प्रकृति के मनुष्य अपने रुचिकर स्थान को प्राप्त कर लेते हैं। सांसारिक परिस्थितियां दोनों ही प्रकार की होती हैं। सात्त्विक परिस्थितियों में सुख-शांति, प्रसन्नता तथा तृप्ति का अनुभव होता है। इसके विपरीत तामसिक परिस्थितियों में क्लेश, कलह, अशांति, दुख, दारिद्रय तथा असंतोष छाया रहता है। चोर स्वभाव का मनुष्य चोरी करेगा, फलस्वरूप उसे भय, अशांति, निंदा, अविश्वास, राजदंड एवं कर्म के कठोर परिपाक का भागी बनना पड़ेगा। इसी प्रकार सदाचारी स्वभाव का मनुष्य सत्कर्म करेगा और फलस्वरूप प्रसन्नता, संतोष, प्रशंसा, विश्वास, स्वास्थ्य एवं समृद्धि प्राप्त करेगा। चोर को अपने स्वभाव के लोगों के बीच रहना पड़ेगा और उनका व्यवहार उसके साथ वैसा ही दुखदायक रहेगा जैसा दुष्टों के साथ दुष्टों का रहता है। इसके विपरीत सज्जन पुरुष के समीपवर्ती लोग भी वैसे ही होंगे और उनका व्यवहार वैसा ही संतोषजनक रहेगा जैसा कि सज्जनों का होता है।
चोर और सदाचारी को जो सांसारिक परिस्थितियां प्राप्त होती हैं, वह एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न एवं विपरीत हैं, परंतु इसका मूल कारण मनुष्य का अपना मन है। वह चोर स्वभाव को अपनाए या सदाचार की ओर झुके, यह पूर्णतया उसकी इच्छा के ऊपर निर्भर है। मनःलोक का जैसा निर्माण किया जाता है, बाहरी दुनिया वैसी ही बन जाती है। मन में यदि शांति है तो बाहर भी शांति का वातावरण होगा। यदि मन में आकुलता है तो बाहर भी आकुलता से भरी हुई घटनाएं चारों ओर मंडरा रही होंगी। जिसने मनःलोक में स्वर्ग स्थापित कर लिया है, उसके लिए इस संसार में सर्वत्र स्वर्ग है। जिसके मन में नरक है, उसे सब ओर नरक की ज्वाला जलती हुई दृष्टिगोचर होती रहेगी।
संसार के समस्त दुःख मिलकर मनुष्य को उतना दुखी नहीं कर सकते जितना कि भीतर के अंतर्द्वंद्व उसे देखी करते हैं। मृत्यु स्वयं उतना कष्ट नहीं देती, जितना कि मृत्यु का भय दुखी बनाता है। व्यापार में घटा हो जाने पर भी एक व्यापारी के सामने ऐसा अवसर नहीं आता कि उसे जीवनयापन में असुविधा हो, तो भी वह इतनी चिंता करता है कि सूखकर कांटा हो जाता है। उस घाटे वाले व्यापारी की जो स्थिति है, उससे भी बहुत गिरी हुई स्थिति के मजदूर हंसते-खेलते प्रसन्नता का जीवन बिताते हैं। घटे वाले व्यापारी को सांसारिक विपत्ति वास्तव में नहीं आई, केवल उसके मन में विपत्ति की एक झाड़ी उग आई। ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, शोक, चिंता, कुढ़न, निराशा, भय, आशंका, प्रतिहिंसा, स्पर्धा आदि दुर्भावों के कारण कितने ही मनुष्य बुरी तरह व्याकुल रहते हैं, उनके मन में सदा एक बेचैनी, आकुलता, अशांति एवं पीड़ा उठती रहती है, जिनके कारण उनका मनःलोक बहुत ही नीरस, गंदा, शुष्क, धुंधला एवं अंधकारपूर्ण हो जाता है। उन्हें हर घड़ी अशांति घेरे रहती है।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, छल, पाखंड, असंयम, शोषण, अपहरण, दुराचार, व्यभिचार आदि के कुविचार एक प्रकार के मानसिक शत्रु हैं। वे मनःलोक में निशाचरों की भांति छिपे बैठे रहते है और जब भी अवसर मिलता है, दल-बल सहित पूरी तैयारी के साथ निकल पड़ते हैं और जीवन के सुकोमल तंतुओं को अस्त-व्यस्त कर डालते हैं। जैसे पेट में कोई विषैला पदार्थ पहुंच जाए तो वहां बड़ी जलन होती है, दस्त या उलटी होने लगती है। रक्त में कोई विषैला विजातीय पदार्थ पहुंच जाए तो फोड़े-फुंसी, चकत्ते, कोढ़ आदि पैदा हो जाता है। मांस में कांटा घुस जाए तो जब तक वह निकल नहीं जाता निरंतर पीड़ा होती रहती है। ठीक यही हाल इन कुविचार रूपी तामसिक, नीच, विजातीय, दानवों के मनःलोक में घुस जाने से होता है, यह कुछ न कुछ खुद-बुद किया ही करते हैं। आंख में पड़ी हुई कंकड़ी की भांति वे अंतःचेतना को हर समय घायल ही करते रहते हैं। जैसे किसी आदमी के मर्म छिद्रों में लाल मिर्चों की बुकनी भर देने के बाद वह तड़पता फिरता है, चैन और आराम उसके लिए स्वप्न हो जाता है, वैसे ही दुखद भावों को अंतःकरण में स्थान देने से आत्मा में तीव्र जलन होती रहती है, शांति के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। ऐसी स्थिति मानसिक नरक ही कही जाएगी।
मानसिक स्वर्ग का अर्थ है—अपने अंतःकरण में सात्त्विक विचारों, सद्भावों और सद्गुणों को धारण करना। ईमानदारी की पवित्रता हिम-सी शीतल, पुष्प-सी कोमल, चंदन-सी सुगंधित और नवनीत-सी स्वच्छ होती है। उसे धारण करते ही आत्मा को बड़ी राहत मिलती है। हिमालय की तपोभूमि में नयनाभिराम प्राकृतिक दृश्य देखते हुए कंद मूल फल खाते हुए, भगवती भागीरथी के तट पर निवास करने वाले तपस्वियों को जो शांति मिलती है, उसी शांति को हम ईमानदारी की पवित्रता ग्रहण करके प्राप्त कर सकते हैं। सच्चा मनुष्य विश्वास करता है—‘‘ईमानदारी का पवित्र जीवन ही मुझे जीना है, मैं सच्चाई और नेकी से भरे हुए ही अपने विचार रखूंगा, न्याय के ऊपर ही मेरी जीवन नीति निर्भर रहेगी, मैं सत्य को ही सोचूंगा, सत्य के आधार पर ही विचार करूंगा, भलाई, नेकी, उदारता और क्षमा का आश्रय ग्रहण करूंगा, जीऊंगा।’’ ये भावनाएं उसके अंतःकरण में सात्त्विकता का शीतल झरना प्रवाहित कर देती हैं।
सत्य, प्रेम और न्याय के जीवन तंतुओं को झंकृत करते ही आत्मा में एक मधुर संगीत बजने लगता है। पवित्रता का आध्यात्मिक संगीत ही भगवान कृष्ण की त्रिभुवन मोहिनी मुरली का मधुर वेणु नाद है। इसका रस जिसने अनुभव किया है, वह धन्य हो गया है। आत्मा पवित्र है, उसका मनुष्य के लिए संदेश है कि ‘‘पवित्रता को विचार और कार्यों में ओत-प्रोत करें।’’ यह ईश्वरीय संदेश जिसने सुन लिया, वह बड़भागी है, जिसने सुनकर हृदयंगम कर लिया और तदनुकूल आचरण करना आरंभ कर दिया, वह परमात्मा का सच्चा भक्त है। ऐसे भक्तों के बीच में ही भगवान खेला करते हैं। जिनका हृदय पवित्रता की भावनाओं से भरपूर है, वह ईश्वरीय लीलाओं का क्रीड़ा क्षेत्र है। महात्मा ईसा कहा करते थे कि इस पृथ्वी का स्वर्ग भोले बालकों में मौजूद है। सचमुच जिनका हृदय बालकों की तरह कोमल एवं पवित्र है, वे स्वयं स्वर्ग रूप हैं। स्वर्ग में जाने की उन्हें कुछ भी आवश्यकता नहीं, क्योंकि जिन तथ्यों के आधार पर स्वर्ग के सुख का निर्माण होता है, वे दृश्य उसके हृदय में मौजूद हैं और हर घड़ी स्वर्ग के सुख को उत्पन्न करते रहते हैं।
जो दूसरों को कष्ट में देखकर दया से द्रवित हो जाता है, जो असहायों की सहायता के लिए सदा तत्पर रहता है, जो संसार के सुख में अपना सुख अनुभव करता है, दूसरों को हानि पहुंचाने की जिसे कभी इच्छा नहीं होती, सत्य की बढ़ोत्तरी देखकर जिसे आंतरिक सुख होता है, जिसके लिए पर-स्त्री माता के तुल्य है, जो पर-धन को धूलि के तुल्य समझता है, इंद्रियों को जो मर्यादा से बाहर नहीं जाने देता, चुगली, निंदा, ईर्ष्या एवं कुढ़न से जो दूर रहता है, संयम जिसका व्रत है, प्रेम करना जिसका स्वभाव है, मधुरता जिसके होठों से टपकती है, स्नेह एवं सज्जनता से जिसकी आंखें भरी रहती हैं, जिसके मन में केवल सद्भाव ही निवास करते हैं, अनीति की ओर झुकने का जिसे कभी लालच नहीं आता। सादगी, सरलता, शिष्टता जिसके रहन-सहन की एक अंग होती हैं, ऐसे पवित्र आत्मा व्यक्ति इस लोक के देवता हैं। वे जहां रहेंगे, छाया की तरह उनका स्वर्ग उनके साथ रहेगा।
अंतःकरण की शांति बाहरी दुनिया को स्वर्गीय आनंद से परिपूर्ण बना देती है। जिसके मन में सात्त्विकता है, उसे दूसरों का धन, वैभव, ज्ञान, रूप, यौवन देखकर प्रसन्नता होगी कि परमात्मा के इस पुनीत उद्यान का एक पौधा सुविकसित तथा पल्लवित हो रहा है। उस नयनाभिराम दृश्य से शांत पुरुष का हृदय तृप्त एवं प्रफुल्लित हो जाता है, परंतु जिस मन में अशांति व्याप रही है, ईर्ष्या की डायन नंगा नृत्य कर रही है, उसे दूसरों की बढ़ोत्तरी नहीं सुहाती। भीतर-ही-भीतर भारी कुढ़न होती है और उस कुढ़न की अग्नि से उसकी छाती भभकने लगती है। जिसकी बढ़ोत्तरी हो रही है, उसे नीचा दिखाने के लिए तरह-तरह के षड्यंत्र रचता है और अनिष्ट के पथ पर अग्रसर होता है।
जो क्रोधी है, उसे दूसरों की ओर से क्रोधपूर्ण व्यवहार अपने ऊपर होता दृष्टिगोचर होगा। जो अनुदार है, उसके साथ में अन्य व्यक्तियों का अनुदारतापूर्ण व्यवहार होगा। झूठे और लबार व्यक्ति जहां जाएंगे वहीं देखेंगे कि उनके ऊपर अविश्वास एवं निंदा की बौछार हो रही है। व्यभिचारी व्यक्ति को भले घरों में प्रवेश नहीं होने दिया जाता। चुगलखोर और यहां की वहां करने वालों के सामने लोग अपने मन की बात नहीं करते। बेईमान आदमी के कार्यों को लोग अविश्वास के साथ देखते हैं और जब तक अनेक प्रकार की जांच-पड़ताल नहीं कर लेते, तब तक भरोसा नहीं करते। इस प्रकार अपमानजनक व्यवहार दूसरों की ओर से होते देखकर आमतौर से लोग मन ही मन कुड़कुड़ाते हैं और जमाने को, युग को, लोगों को, दुनिया को दोष देते हैं, परंतु वे अपने निजी दोषों को देखना भूल जाते हैं। वास्तव में अपने निजी दोष असुखकर, अप्रिय, अपमानजनक, संघर्षमय वातावरण उत्पन्न करते हैं। यदि अपने हृदय में सात्त्विकता की पर्याप्त मात्रा विद्यमान हो तो दुनिया की ओर से अधिकांश आक्रमण तो अपने आप ही बंद हो जाते हैं। जो थोड़े बहुत आक्रमण नितांत दुष्टों की ओर से किए जाते हैं, वे प्रायः असफल होते हैं। यदि उन आक्रमणों से कुछ कष्ट भी उठाना पड़े तो वह धर्म-प्रतिरोध करता है। इन आक्रमणों या प्रतिरोधों से उसकी मानसिक शांति नष्ट नहीं हो पाती।
दुनिया में केवल कृतघ्न, अन्यायी, शोषक, स्वार्थी ही नहीं हैं, उसमें भले, सज्जन, दयालु, उपकारी और परमार्थी भी हैं। हम देखते हैं कि लोग सज्जनों का काफी आदर करते हैं, उनकी बात को मानते हैं, उनकी इच्छा पर बड़े-बड़े त्याग करने को तैयार हो जाते हैं। हम अपने अंदर शांति की स्थापना करें, सद्गुणों को अपनावें तो बाहरी दुनिया में कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो अपनी शांति भंग कर सके। भले मनुष्यों को दूसरों की ओर से सदा प्रशंसा, भलमनसाहत, विश्वास, सहयोग से परिपूर्ण मधुर व्यवहार ही उपलब्ध होता है। जिसके भीतर भलाई है, उसे बाहर भी भलाई के पर्याप्त अवसर मिलते हैं।
स्वःलोक का स्वर्ग अपने भीतर है। यदि हम प्रेम, उदारता, ईमानदारी और भलमनसाहत का व्यवहार दूसरों से करें तो दूसरों के हृदयों में से भी वैसी ही आवाज हमारे लिए आएगी। अपने मन में पवित्रता, निष्कपटता, सत्यता, संयम एवं निस्वार्थता के भाव विद्यमान हों तो वे सद्भाव ही अपने को सदा प्रफुल्लित एवं संतुष्ट रख सकते हैं। बारहसिंगा की नाभि में कस्तूरी होती है, वह अपने ही अंदर नंदनवन की सुगंधि का रसास्वादन करता है। जिस सुगंध के लिए दूसरे लोग तरसते हैं और प्राप्त करने के लिए नाना प्रकार के उपाय करते हैं, वह बारहसिंगा को अपने अंदर ही मिल जाती है। वह अपनी मस्ती में खुद ही मस्त हुआ उछलता फिरता है।
माल की मस्ती से अधिक ख्याल की मस्ती होती है। संसार की वस्तुएं मनुष्य को इतना संतुष्ट नहीं कर सकतीं, जितना कि विचारों के धन से वह संतुष्ट हो जाता है। एक संत का वचन है कि ‘‘जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान।’’ श्रीमद्भागवत के माहात्म्य में वर्णन आता है कि ‘‘देवता लोग अमृत का घड़ा लेकर परीक्षित के पास पहुंचे कि कथा रूपी अमृत दें दीजिए और यह शरीर को अमर करने वाला अमृत आप ले लीजिए।’’ परीक्षित ने अमृत को कांच और कथा को मणि बताकर देवताओं के उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। सचमुच विचारों का-ख्यालों का संतोष भौतिक पदार्थों के संतोष से कहीं अधिक मूल्यवान है।
स्वर्ग को ही लीजिए। स्वर्ग किसी ने प्रत्यक्षतः देखा नहीं है तो भी उसमें प्राप्त होने वाले सुखों के विचार से प्रभावित होकर लोग दान-पुण्य, जप-तप आदि के बड़े-बड़े त्याग करते हैं। स्वर्ग के ख्याल की मस्ती के सामने प्रत्यक्ष पड़ी हुई संपदा को लोग ठुकरा देते हैं। उसका दान या त्याग कर देते हैं। देश, धर्म, जाति एवं कर्तव्य के लिए लोग अपने प्राण सरीखी सर्वोपरि वस्तु को तिनके के समान निछावर कर देते हैं। भौतिक वस्तुओं में जो आनंद है, वह भी ख्याल का ही आनंद है। ख्याल के अभाव में वस्तुएं उतनी ही रुचिकर सिद्ध नहीं हो सकतीं। सोने का कंठा भैंस के गले में पहना दिया जाए और मनुष्य के गले में भी पहनाया जाए तो उससे मनुष्य प्रसन्न होगा, परंतु भैंस पर उसका कुछ प्रभाव न पड़ेगा। इस अंतर का कारण केवल ख्यालों के भाव का अभाव है। बकरी को संगीत सम्मेलन में ले जाया जाए, वह शब्दों को सुनेंगी तो जरूर, पर उसके मन में मनुष्य जैसी तरंगें न पैदा होंगी। ऊंट को सिनेमा दिखाया जाए तो उसकी आंखें तो वही देखेंगी जो मनुष्य की आंखें देखती हैं, पर ऊंट को मनुष्य जैसा मनोरंजन न होगा। भौतिक वस्तुओं में भी कुछ सुख नहीं है, केवल एक प्रकार के आधार पर लोग, उसमें सुख का आरोपण करते हैं और उस आरोपण के ही आधार पर प्रसन्नता उपलब्ध करते हैं।
एक मनुष्य मांस-मदिरा खाते समय बहुत ही संतुष्ट होता है। दूसरा मनुष्य उस आहार से अत्यंत घृणा करता है। इस आहार का एक टुकड़ा भी मुख में चला जाए तो उसे अपार दुःख होगा। एक मनुष्य वेश्या गृह में स्वर्ग सुख अनुभव करता है, दूसरे के लिए वही स्थान नरक की नाली के समान है। एक के लिए शहर रुचिकर और देहातें उजड़ जैसी सुनसान हैं, दूसरे को शहर की गंदगी से घृणा होती है। वह शहर छोड़कर देहात में जाता है। सभी ओर देखिए, संसार की किसी भी वस्तु में वस्तुतः सुख नहीं है। कल्पना शक्ति द्वारा हम जिस वस्तु में सुख मान लेते हैं, उसी में सुख मिलने लगता है। कल्पना और विचारधारा ही सुख-दुःख की जननी है। यही कल्पना-विचारधारा जब जड़ पदार्थों से टकराना छोड़कर आत्माभिमुख हो जाती है तो अपने सद्गुण ही आनंद के केंद्र बन जाते हैं। सत्य की साधना, कर्तव्यनिष्ठा, सेवा परायणता, पवित्रता एवं सात्त्विकता के दैवी महत्त्व का जब मनुष्य को ठीक-ठीक भान हो जाता है तो सात्त्विकता के विचार और कार्यों में उसे इतना आनंद आता है, जितना कि इस विश्व के किसी भी पदार्थ में कहीं नहीं है। योगी जन जिस आनंद को परमानंद कहते हैं, जिसे प्राप्त करना जीवन का लक्ष्य बताते हैं, वह ख्याल की मस्ती ही है, अनुभव ने भली प्रकार बता दिया है कि माल की मस्ती से ख्याल की मस्ती में असंख्य गुना रस है।
स्वः लोक का स्वर्ग अपने अंदर है, इसे अब अपने अंदर से आविर्भूत करना होगा। सद्गुणों, सद्भावों, सद्विचारों के सर्वोपरि महत्त्व को समझकर सात्त्विकता को अपने मनःलोक में अधिकाधिक मात्रा में भरना, उन विचारों में रमण करना, अपनी कार्य प्रणाली में दिन-दिन अधिक सात्त्विकता की मात्रा बढ़ाना, यह स्वः स्वर्ग के प्राप्त करने का मार्ग है। सांसारिक जीवन में कर्तव्य का संघर्ष करना लोक साधन के लिए अत्यंत आवश्यक है। दुष्टों के लिए दंड की, सज्जनों के लिए सहायता की व्यवस्था करना आवश्यक है। सज्जनों से मैत्री, दुखियों पर करुण, सुखियों से प्रसन्नता और झगड़ालुओं से उपेक्षा की नीति अपनानी चाहिए। यह सब होते हुए भी अंतःकरण में अखण्ड शांति बनाए रहनी चाहिए। ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, पाखण्ड, अन्याय, असत्य को मन में से निकालकर उसके स्थान पर सत्य, प्रेम, न्याय, परोपकार, संयम तथा ईश्वर परायणता को धारण करना चाहिए।
पवित्र हृदय में भगवान निवास करते हैं, इसलिए वह साक्षात् बैकुंठ लोक है, ऐसा बैकुंठ लोक जिसके अंदर मौजूद है वह स्वर्गवासी है। सतोगुणी मनुष्यों का अंतःकरण साक्षात् स्वर्ग ही है। जिसे ऐसा हृदय प्राप्त है, वह स्वर्ग में ही है। स्वःलोक का स्वर्ग पवित्र आत्मा को स्वभावतः ही उपलब्ध होता है।
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*समाप्त*