संसार में एक संतुलन शक्ति भी काम कर रही है, जो किसी वस्तु की अतिवृद्धि को रोककर उसे यथास्थान ले आती है। संसार की सुंदरता और वैभवशीलता को वह कुरूपता और विनाश से बचाती है। प्रजनन शक्ति को ही लीजिए। एक-एक जोड़ा कई-कई बच्चे पैदा करता है, यदि यह वृद्धि पीढ़ी-दर-पीढ़ी निर्बाध गति से चलती रहे तो थोड़े ही दिन में सारी पृथ्वी इतनी भर जाए कि संसार में प्राणियों को खड़ा होने के लिए भी जगह न मिले। मछली एक वर्ष में करीब सत्रह हजार अंडे देती है, मक्खी, मच्छर जैसे कीट-पतंग एक हजार से लेकर साठ हजार तक अंडे प्रतिवर्ष देते हैं। वे अंडे एक-दो सप्ताह में ही पककर बच्चे की शक्ल में आ जाते हैं और फिर दो-चार हफ्ते बाद ही वे भी अंडे देने लगते हैं। इनकी एक ही साल में प्रायः आठ पीढ़ी हो जाती हैं, यदि यह सब बच्चे जीवित रहे तो दस-पांच साल में ही सारा संसार उनमें से एक जाति के रहने के लिए भी पर्याप्त न रहेगा। चींटी, दीमक, टिड्डी आदि कीड़े भी बड़ी तेजी से बढ़ते हैं। सुअर, बकरी आदि भी तेजी से प्रचुर संतान वृद्धि करते हैं। एक जोड़ा स्त्री-पुरुष भी औसतन आठ-दस बच्चे पैदा करता है। यह अभिवृद्धि यदि न रुके तो संसार के सम्मुख दस-पांच वर्ष में ही बड़ी विकट परिस्थिति उत्पन्न होकर खड़ी हो सकती है, परंतु लाखों-करोड़ों वर्ष प्राणियों को इस पृथ्वी पर पैदा हुए हो गए, ऐसी परिस्थिति कभी भी उत्पन्न नहीं हुई, सृष्टि की संतुलन शक्ति उस विषमता को उत्पन्न होने से रोके रहती है। दुर्भिक्ष, भूचाल, महामारी, युद्ध तथा किसी-न-किसी दैवी प्रकोप द्वारा प्राणियों की प्रजनन शक्ति से उत्पन्न होने वाले खतरे का निराकरण करती रहती है।
रात्रि का अंधकार एक सीमा तक बढ़ता है। उस बाढ़ को प्रकृति रोकती है और पुनः दिन का प्रकाश लाती है। मध्याह्न तक सूर्य की तेजी बढ़ती है, फिर वह घटने लगती है। समुद्र में ज्वार आते हैं, फिर थोड़े समय बाद उसका प्रतिरोधी भाटा आता है। चंद्रमा घटते-घटते क्षीण होता है, फिर बढ़ने लगता है। गरमी के बाद सरदी और सरदी के बाद गरमी का मौसम आता है। मरने वाला जन्मता है और जन्मने वाला मृत्यु की तैयारी करता है। सृष्टि के सौंदर्य का क्रम यथावत् चला आता है, उसका बैलेंस बराबर कायम रहता है, संतुलन बिगड़ने नहीं पाता।
पुराणों में ऐसे वर्णन हैं कि देवताओं को जब असुर सताते हैं तो वे इकट्ठे होकर विष्णु भगवान के पास जाते हैं और प्रार्थना करते हैं कि हमारी रक्षा कीजिए। कई पुराणों में ऐसी कथाएं मिलती हैं कि पृथ्वी पर जब अधर्म बढ़ा तो धरती माता गौर का रूप धारण कर विष्णु भगवान के पास गई और प्रार्थना की कि अब मुझसे पाप का बोझ नहीं सहा जाता, मेरा उद्धार कीजिए। देवताओं की रक्षा करने तथा पृथ्वी का भार उतारने के लिए विष्णु भगवान अवतार धारण करते हैं। गीता में भी ऐसी ही प्रतिज्ञा है—(यदा-यदा ही धर्मस्य—तदात्मानम् सृजाम्यहम्)। बुराइयों में वह गुण है कि वे आसानी से और तेजी के साथ बढ़ती हैं। पानी ऊपर से नीचे की ओर बड़ी तेजी से स्वयंमेव दौड़ता है, पर यदि उसे नीचे से ऊपर चढ़ाना हो तो बड़ा प्रयत्न करना पड़ेगा। पत्थर को ऊपर से नीचे की ओर फेंके तो जरा से संकेत के साथ वह तेजी से नीचे गिरेगा और अगर बीच में कोई रोकने वाली चीज न आए तो सैकड़ों मील नीचे गिरता चला जाएगा, परंतु यदि उस पत्थर को ऊपर फेंको तो बड़ा जोर लगाकर फेंकना पड़ेगा, सो भी थोड़ी ऊंचाई तक जाएगा फिर गिर पढ़ेगा। इसी प्रकार बुराई के मार्ग पर, तपन की ओर मन तेजी से गिरता है, पर अच्छाई की ओर कठिनाई से चढ़ता है। लोगों का झुकाव पाप की ओर अधिक होने के कारण थोड़े ही समय में पाप छा जाता है, फिर उसे दूर करने के लिए संतुलन ठीक करने के लिए इस विष्णु शक्ति को किसी-न-किसी रूप में प्रकट होना पड़ता है, उस प्राकट्य को ‘अवतार’ कहते हैं।
शरीर में रोगों के विजातीय विषैले परमाणु इकट्ठे हो जाने पर रक्त की जीवनी शक्ति उत्तेजित होती है और उन विषैले परमाणुओं को मार भगाने के लिए युद्ध आरंभ कर देती है। रक्त के श्वेत कणों और रोग कणों में भारी मारकाट मचती है, खून-खच्चर होता है। इस संघर्ष को बीमारी कहते हैं। बीमारी में पीड़ा, फोड़ा, पीब, पसीना, दस्त, उल्टी, जलन आदि के लक्षण होते हैं। युद्ध में चोट लगती है, दर्द होता है, यही बीमारी की पीड़ा है, खून खच्चर होता है, यही पीब, दस्त आदि हैं। बीमारी का प्रयोजन शरीर को निर्दोष बनाना है। अवतार शक्ति का भी यही कार्य होता है। जब रावण, कंस, हिरण्यकश्यपु सरीखे कुविचारों के प्रतिनिधि अधिक बढ़ जाते हैं तो पापों की प्रतिक्रिया स्वरूप अंतरिक्ष लोकों में हलचल मचती है और उस विषमता को हटाने के लिए अवतार प्रकट होता है। जब ग्रीष्म ऋतु का ताप असहाय हो जाता है तो उसे शांत करने के लिए मेघ मालाएं गरजती हुई चली जाती हैं। पापों की अति वृद्धि का नियमन करने के लिए वैष्णवी सत्ता अवतार धारण करके प्रकट होती है। और भीषण संघर्ष उत्पन्न करके शांति स्थापित करती है। ‘परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्’ अवतार का यही उद्देश्य होता है। धर्म की संस्थापना के लिए वह बार-बार प्रकट होता है।
अवतार समष्टि आत्मा का, परमात्मा का प्रतीक है। सभी आत्माओं की एक सम्मिलित सत्ता है जिसे ‘विश्वमानव’ या समाज की सम्मिलित आत्मा कहते हैं। यह परमात्मा है। यह मनुष्य यह चाहता है कि मैं सुखपूर्वक रहूं, मेरे साथ में सब प्रेम, भलाई एवं सहयोग का बर्ताव करें। कोई यह नहीं चाहता कि मेरे साथ चोरी, हिंसा, ठगी, कठोरता, अन्याय का बर्ताव करे। यही इच्छा ‘विश्वमानव’ की, समष्टि आत्मा या परमात्मा की है। परमात्मा की, विश्वमानव की इच्छा को ही धर्म कहते हैं। अवतार धर्म की रक्षा के लिए होता है। अधर्म अर्थात् विश्वमानव की इच्छाओं के प्रतिकूल कार्य जब संसार में अधिक बढ़ जाते हैं तो उसे दूर करने के लिए विश्वमानव के अंतस्थल में प्रतिक्रिया होती है और विरोध का उफान उबल पड़ता है। इस उफान को अवतार के नाम से पुकारा जाता है।
अवतार एक अदृश्य प्रेरणा है। सूक्ष्म वातावरण में परमात्मा की इच्छा का आवेश भर जाता है। जैसे आकाश में आंधी छाई हुई हो और उसी समय पानी बरसे तो वर्षा की बूंदें उस आंधी की धूलि से मिश्रित होती हैं। वसंत ऋतु में प्रकृति के सूक्ष्म अंतराल में काम, क्षोभ का आवेश आता है, उन दिनों सभी नर-नारियों में जीव-जंतुओं में कामेच्छा फूट पड़ती है। भय, क्रोध, हिंसा, सांप्रदायिक-राजनैतिक तनाव, घृणा तथा सत्कर्मों की भी एक लहर आती है। वातावरण जैसा बन जाता है, वैसे ही काम बहुत बड़ी संख्या में होने लगते हैं। इसी प्रकार विश्वमानव—परमात्मा की इच्छा पूर्ण करने के लिए सूक्ष्म लोक में अदृश्य वातावरण में आवेश आता है। उस आवेश से प्रेरित होकर कुछ विशिष्ट पुण्यात्मा, जीवटयुक्त महापुरुष संसार में आते हैं और परमात्मा की इच्छा को पूरा करते हैं। एक समय में अनेक अवतार होते हैं, किसी में न्यून किसी में अधिक शक्ति होती है। इस शक्ति का माप करने का पैमाना ‘कला’ है। बिजली को नापने के लिए ‘यूनिट’, गर्मी को नापने के लिए ‘डिग्री सेल्सियस’, लंबाई को नापने के लिए ‘सेंटीमीटर’, दूरी को नापने के लिए ‘किलोमीटर’ जैसे होते हैं, वैसे ही किस व्यक्ति में कितना अवतारी अंश है, इसकी नाप ‘कला’ के पैमाने से होती है। त्रेता में परशुराम जी को तीन कला का और रामचंद्र जी को बारह कला का अवतार कहा जाता है। यह तो उस समय के विशिष्ट अवतार थे। वैसे अवतार का आवेश तो अनेक में था। वानरों की महती सेना को तथा अनेक अन्य व्यक्तियों को अवतार के समतुल्य कार्य करते हुए देखा जाता है।
इस प्रकार समय-समय पर युग-युग में आवश्यकतानुसार अवतार होते हैं। बड़े कार्यों के लिए बड़े और छोटे कार्यों के लिए छोटे अवतार होते हैं। सृष्टि का संतुलन करने वाली विष्णु शक्ति वैसे तो सदा ही अपनी क्रिया जारी रखती है, पर बड़ा रोग इकट्ठा हो जाने पर बड़ा डॉक्टर भेजती है। उन बड़े डॉक्टरों को उनके महान कार्यों के अनुरूप यश एवं सम्मान प्राप्त होता है। अवतारी महापुरुष की पूजा यथार्थ में विष्णु की पूजा है, जिसके कि वे प्रतीक होते हैं।
लक्ष्मीपति विष्णु सृष्टि की सुंदरता की, संपन्नता की, सद्बुद्धि की और सात्त्विकता की रक्षा करते हैं। लक्ष्मी जी के चार हाथ सुंदरता, संपन्नता, सद्बुद्धि और सात्त्विकता के प्रतीक हैं। समस्त प्राणियों की, समष्टि-सम्मिलित आत्मा लक्ष्मी है। यह लक्ष्मी विष्णु का अर्धांग हैं। परमात्मा की सत्ता जीवों की आत्मा में समाई हुई है, संसार का नियमन करती है, साथ-साथ लक्ष्मी की, विश्वमानव की इच्छा की रक्षा भी करती है। लक्ष्मी विष्णु से अभिन्न है।
विष्णु के उपासक वैष्णव वे हैं जो विश्व मानव की इच्छाओं के अनुकूल कार्य करने में अपनी शक्ति लगाते हैं। मीरा का प्रसिद्ध भजन है—‘‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे।’’ समाज का लाभ, संसार की सेवा, विश्व की श्री वृद्धि, विश्वमानव की सुख-शांति के लिए सच्चे अंतःकरण से हर घड़ी लगे रहने वाले मनुष्य असली वैष्णव हैं। विष्णु की इच्छा ही उन वैष्णवों की इच्छा और विष्णु की कार्य-प्रणाली ही उनकी कार्य-प्रणाली होती है। वे पाप को घटाकर धर्म की स्थापना के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। जनता जनार्दन को विष्णु रूप समझकर लोक-सेवा में, विष्णु पूजा में प्रवृत्त रहते हैं।