प्रकृति का विस्तार बहुत बड़ा है। जो कुछ हम आंखों से देखते, कानों से सुनते, त्वचा से स्पर्श करते या अन्य किसी प्रकार प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, वह बहुत थोड़ा है। इससे अनेक गुनी वस्तुएं ऐसी हैं जो इंद्रियों से अनुभव में आतीं, परंतु वे इस संसार में मौजूद हैं। स्थूल या दृश्य की अपेक्षा सूक्ष्म या अदृश्य अधिक हैं। दृश्य जगत को लोक और अदृश्य जगत को परलोक कहते हैं।
हर पदार्थ की, प्रत्येक तत्त्व की मूल सत्ता सूक्ष्म है; पर वह कभी-कभी दूसरे पदार्थों के साथ मिलकर स्थूल हो जाती है। चूंकि संसार के रासायनिक पदार्थ सदैव गतिशील रहते हैं, इसलिए जब उस रासायनिक सम्मिश्रण में कुछ कमी आ जाती है तो वह स्वरूप बदल जाता या नष्ट हो जाता है। ऐसी दशा में वह पदार्थों की मूल सत्ता पुनः सूक्ष्म रूप धारण कर लेती है, अदृश्य बन जाती है। किसी वस्तु की मूल सत्ता कभी भी नष्ट नहीं होती वरन् किसी-न-किसी दृश्य या अदृश्य रूप में बनी ही रहती है। प्रकृति के समस्त परमाणु अनादि और अनंत हैं।
जब कोई वस्तु जलाई जाती है तो उसका सारा दृश्य रूप अदृश्य हो जाता है। केवल मुट्ठी भर भस्म बची रहती है। वह इतना बड़ा ढेर कहां चला गया? मोटी दृष्टि से मालूम पड़ता है कि वे नष्ट हो गया, पर विज्ञान बताता है कि कोई वस्तु नष्ट नहीं होती, केवल उसका रूप परिवर्तन होता है। उस ईंधन के परमाणु सूक्ष्म या अदृश्य बन गए । अब वे आंखों से दिखाई नहीं पड़ते तो भी इस संसार में अदृश्य रूप से बादलों की भांति यहां-वहां फिरते हैं। मिर्च जलाई जाए तो दूर-दूर बैठे हुए लोगों को खांसी या छींक आती हैं। हवन की सुगंध दूर-दूर तक फैलती है। इससे प्रतीत होता है कि जलने के बाद भी उन वस्तुओं का अस्तित्व मौजूद है। मिर्च या हवन सामग्री के परमाणु हवा के साथ इधर-उधर उड़ते हैं और लोगों को गंध द्वारा अपना परिचय देते हैं।
तालाब का पानी गर्मी के दिनों में बड़ी तेजी से सूख जाता है। यह कहां गया? क्या नष्ट हो गया? नहीं, सूरज की गर्मी के कारण यह भाप बनकर आकाश में उड़ गया। यह पानी तालाब में से उड़ते समय दिखाई नहीं देता, परंतु जब हुत से तालाबों, नदियों और समुद्र का उड़ा हुआ पानी एक जगह जमा हो जाता है तो बादलों के रूप में दिखाई पड़ता है। बादल उस भाप का स्थूल रूप है, पर जब वह भाप बहुत ही हल्की और थोड़ी होती है तो दिखाई नहीं पड़ती। प्रायः हवा में सदा ही थोड़ा-बहुत पानी उड़ता रहता है, पर वह दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि उस समय वह सूक्ष्म रूप में होता है। सूक्ष्म वस्तुओं को आंखों देखने में असमर्थ होती हैं।
एक खेत में लगातार बीस वर्ष तक ईख की खेती की जाए तो उसमें इतना गुड़ पैदा होगा कि उस खेत में कई फुट का परत बिछ सकता है। इतना गुड़ कहां से आया? ईख की जड़े जितनी गहरी जमीन में जाती हैं उतनी मिट्टी खोदकर वैज्ञानिक जांच कराई जाए तो मालूम होगा कि उस खेत में शक्कर के परमाणु एक-दो क्विंटल से ज्यादा नहीं हैं, पर उससे कई गुना गुड़ हर साल पैदा होता है। यह खेत की मिट्टी में से ही नहीं, आकाश से आता है। वायु में करोड़ों टन शक्कर उड़ती-फिरती है, ईख का पौधा पत्तियों द्वारा श्वास लेता है और अपनी आवश्यकता की वस्तु उस वायु में से खींचकर शक्कर बना लेता है।
डॉक्टर लोग बताते हैं कि रोगों के कीटाणु एक प्रकार के जानदार प्राणी हैं और वे आकाश में उड़ते रहते हैं और जिस प्राणी को कमजोर देखते हैं, अपनी शिकार के उपयुक्त समझते हैं, उस पर आक्रमण कर देते हैं। तपेदिक, हैजा, आतशक आदि के संक्रामक रोगकीट, मक्खियों की तरह एक मनुष्य से उड़कर दूसरे पर पहुंचते हैं और उसे भी बीमार बना लेते हैं। प्लेग, कालरा, मलेरिया, चेचक, गरदन तोड़ बुखार आदि के रोगकीट मक्खियों की तरह झुंड के झुंड अरबों-खरबों की संख्या में उड़ते हैं और एक स्थान से दूसरे स्थान को दल-बल समेत जा पहुंचते हैं। यह कीटाणु आंखों से, इंद्रियों से दिखाई नहीं पड़ते, तो भी इस लोक में उसी प्रकार रहते, काम करते और जीते रहते हैं जैसे कि मनुष्य, पशु-पक्षी और कीड़े-मकोड़े इस दृश्य लोक में जीवनयापन करते हैं।
भौतिक विज्ञान के शोधक, अन्वेषक और आविष्कारक जानते हैं कि अदृश्य जगत में बहुमूल्य पदार्थों का खजाना छिपा पड़ा है। गैस, बिजली, रेडियो, टेलीविजन, परमाणु शक्ति आदि अदृश्य लोक में छिपी हुई शक्तियों को ढूंढ़ निकाला गया है। अब विज्ञान इस दिशा में प्रयत्नशील है कि अदृश्य सूक्ष्म पदार्थों को इच्छानुसार रूप में कैसे परिवर्तित कर लिया जाए।
किसान लोग जानते हैं कि वर्षा की बूंद के साथ आकाश से अन्य पदार्थ भी बरसते हैं। पौधे उन्हें पाकर अपनी जीवनी शक्ति उपलब्ध करते हैं। स्वास्थ्य विज्ञान के आचार्य जानते हैं कि अमुक स्थान की आबहवा में अमुक तत्त्वों के परमाणु अधिक मात्रा में होते हैं, वहां रहना स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायक होता है। स्वास्थ्य सुधार के लिए लोग उन स्थानों में जाते हैं, जहां की आबहवा में उपयोगी परमाणु होते हैं। यह सब बातें बताती हैं कि अदृश्य लोक भी इस दृश्यलोक की तरह ही है, उसमें भी सजीव और निर्जीव सत्ताएं प्रचुर परिमाण में मौजूद हैं।
हर एक वस्तु काल-चक्र के फेर से कभी दृश्य कभी अदृश्य हो जाती है। भाप से पानी, पानी से भाप, इस चक्र में पड़ा हुआ पानी दृश्य और अदृश्य होता है। मनुष्य भी जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म धारण करता है। जब तक स्थूल शरीर है तब तक वह इस लोक और परलोक दोनों में रहना पड़ता है, दोनों ही उसके घर हैं, इसलिए परलोक के संबंध में कुछ जानकारी प्राप्त कर लेना आवश्यक है। लड़कियां अपने पिता के घर रहकर भी पतिगृह में सामने आने वाली स्थिति की जानकारी प्राप्त करतीं और तैयारी करती हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि हमें मायके की भांति ससुराल से भी काम पड़ेगा। हमें भी चाहिए कि निकट भविष्य में जिस लोक में जाना है, उसका ज्ञान प्राप्त करें।
परलोक कहां है? वह कितनी दूर किस स्थान पर, कितने बीच में है? इस प्रश्न के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि लोक और परलोक की सीमाएं आपस में मिली हुई हैं। पृथ्वी के ठोस धरातल को छोड़कर जहां से पोला आकाश शुरू होता है, वहां से ही सूक्ष्म लोक या परलोक आरंभ हो जाता है। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति करीब एक हजार किलोमीटर चारों ओर मानी जाती है। यही घेरा परलोक का है। कारण यह है कि जिन रासायनिक तत्त्वों से पृथ्वी का संबंध है, जो पृथ्वी पर प्रकट होते रहते हैं, वे अदृश्य होकर भी पृथ्वी के आकर्षण की सीमा के भीतर रहते हैं। पृथ्वी उन्हें खींचे रहती है, अपनी परिधि से बाहर नहीं जाने देती। वे परमाणु इस भूलोक के ही अदृश्य अंश हैं, इसलिए उनका आकर्षण भी भूलोक से ही जुड़ा रहता है। अन्य ग्रह-उपग्रहों के जो रासायनिक तत्त्व हैं, वे इस लोक के तत्त्वों से भिन्न हैं, इसलिए भी यहां के परमाणु का वहां कोई मेल नहीं बैठता और वे विजातीय होने के कारण किसी दूसरे लोक में प्रवेश नहीं कर पाते।
यहां के सजीव प्राणी भी मर्त्यलोक के बाद परलोक में ही रहते हैं, क्योंकि उनका सूक्ष्म शरीर मरने के बाद भी बना रहता है। इस शरीर में भी स्थूल शरीर की भांति ही ज्ञानेंद्रियां होती हैं। अतएव देखने, सुनने, चखने, सूंघने और स्पर्श करने की शक्ति भी रहती है। वे पदार्थ जिन्हें हमारी ज्ञानेंद्रियां सुगमतापूर्वक अपना सकती हैं, इसी लोक में हैं। मछली की इंद्रियां अन्यत्र जीवित नहीं रह सकतीं। इसी प्रकार भूलोकवासी जीवों का सूक्ष्म शरीर भी भूलोक के परलोक में ही रहता है। संक्षेप में इसे यों कह सकते हैं कि पृथ्वी की सतह से लेकर जहां तक उसकी आकर्षण शक्ति की सीमा है, उस आकाश में परलोक है। जो दिखाई पड़ता है, वह स्थूल है और जो अदृश्य है, वह सूक्ष्म है। भूतल से संबंध रखने वाले सजीव और निर्जीव पदार्थ जब अपने सूक्ष्म या अदृश्य रूप में होते हैं, तब इसी परलोक में रहते हैं।
किसी अंधेरे मकान में एक छोटे छेद से होकर धूप आ रही है तो उस मकान में भीतर उड़ने वाले धूलि के परमाणु उस धूप में पहुंचकर भली प्रकार चमकते हैं। ये धूलि कण इधर-उधर नीचे-ऊपर स्वच्छंदतापूर्वक आकाश में विचरण करते रहते हैं। सूक्ष्म परमाणु इन धूलि कणों से असंख्य गुने छोटे एवं हल्के होते हैं। वे इतने छोटे होते हैं कि बाल की नोंक पर हजारों की संख्या में आ सकते हैं। वे बढ़िया से बढ़िया सूक्ष्मदर्शक यंत्र से भी दिखाई नहीं पड़ते। इतने हल्के परमाणुओं को आकाश में उड़ते फिरने में कुछ कठिनाई नहीं होती। न तो उन्हें ठहरने के लिए किसी सहारे की जरूरत पड़ती है और न नीचे गिर पड़ने का भय रहता है। बादलों को ही देखिए, वे भाप का एक भारी बोझ होते हैं, पर जब तक वे पानी के भार से अत्यंत ही भारी न हो जाएं, आकाश में स्वच्छंदतापूर्वक उड़ते फिरते हैं। जब इतने भारी बादल बिना किसी सहारे के उड़ते फिरते हैं तो उन अत्यंत सूक्ष्म परमाणुओं को ठहरने के लिए सहारे की क्या आवश्यकता होगी?
परलोक किसी पर टिका हुआ नहीं है, यह निराधार आकाश ही परलोक है। पानी, गरमी, सरदी, शब्द, आकाश, ईथर आदि के तथा वनस्पति, खनिज एवं रासायनिक पदार्थों के सूक्ष्म निर्जीव परमाणु आकाश में छाए रहते हैं। इनमें जो अपेक्षाकृत अधिक भारी होते हैं, वे हवा के झोंकों के साथ इधर-उधर चलते फिरते हैं, जो अधिक सूक्ष्म होते हैं, उन पर आंधी-तूफान का भी कुछ प्रभाव नहीं होता। प्रकृति में जो अत्यंत सूक्ष्म प्रत्यावर्तन होता है, उससे प्रभावित होकर ये सूक्ष्म परमाणु फिर स्थूल हो जाते हैं, शरीर धारण करके प्रकट हो जाते हैं। परा और अपरा प्रकृति की दो शक्तियां इस प्रभाव और लय के कार्य को करती रहती हैं।
जीव का प्राण-परमाणु, निर्जीव पदार्थों के परमाणुओं से बहुत अधिक सूक्ष्म है। निर्जीव पदार्थों के सूक्ष्म कण वैज्ञानिकों ने इलेक्ट्रॉन-प्रोट्रॉन के रूप में प्राप्त कर लिए हैं, उनकी गतिविधि की भी जानकारी मिल गई है और उनका पृथक् स्वरूप देख लिया गया है, परंतु जीव के प्राण-परमाणु उनसे भिन्न हैं। वह धुंधली प्रकाश-ज्योति के रूप में होते हैं। योगियों ने उसका क्षेत्र हाथ के अंगूठे के बराबर अनुभव किया है। यह अविनाशी प्रकाश-परमाणु सुविस्तृत आकाश में बिना किसी विघ्न–बाधा के इधर-उधर विचरण किया करता है। निर्जीव पदार्थों के परमाणु उसे कुछ भी बाधा नहीं पहुंचाते। हां, वह अपनी इच्छाशक्ति के बल से जिन परमाणुओं को चाहता है, अपने लिए आकर्षित कर लेता है और अपनी सूक्ष्म कर्मेंद्रियों द्वारा उसका रसास्वादन करता है।
परलोक की क्या स्थिति है? उपरोक्त पंक्तियों को पढ़ने के बाद पाठक उसका कुछ-कुछ अनुमान लगा सकेंगे। भूतल से लेकर पृथ्वी की आकर्षण शक्ति से एक हजार किलोमीटर के घेरे में जो पोला आकाश है, यही परलोक है। संसार में जो भी पदार्थ मौजूद हैं, उनकी मूल सत्ता सूक्ष्म रूप से इस आकाश में उड़ती फिरती है। पृथ्वी पर जितना स्थूल पदार्थ मौजूद है, उनकी अपेक्षा असंख्य गुना पदार्थ सूक्ष्म लोक में उड़ता फिर रहा है। इसी पोले आकाश में जीवन के प्राण-परमाणु एक छोटी प्रकाश-ज्योति के रूप में उड़ते हैं। जैसे पृथ्वी पर असंख्य जीव-जंतु और पदार्थ रहते हुए भी सबके आने-जाने को निर्बाध रास्ते खुले पड़े हैं, वैसे ही वे जीव तथा पदार्थ बिना कोई किसी से टकराए स्वेच्छापूर्वक आ जा सकते हैं। जैसे हम अपने घर में फैली चीजों में से जिसे चाहें उसे उठाकर उपयोग कर सकते हैं, वैसे ही परलोकवासी जीव वहां के पदार्थों को लेकर अपनी सूक्ष्म ज्ञानेंद्रियों का अभिरंजन करते हैं। यह अभिरंजन जब अनुकूल होता है तो सुख मिलता है, इसे स्वर्ग कहते हैं, यदि यह अभिरंजन प्रतिकूल पड़ता है तो उसे नरक कहते हैं।
हम अपनी पुस्तक ‘‘मरने के बाद हमारा क्या होता है’’ में बता चुके हैं कि जन्म भर सोते-जागते काम करते रहने के कारण जीवात्मा थक जाता है और मृत्यु के बाद कुछ समय तक वह निद्रा मग्न चेतन अवस्था में परलोक में रहता है। कुछ समय बाद जब वह निद्रा टूटती है तो वह जागृत होता है। उस अवस्था में उसका मस्तिष्क नहीं होता, केवल चित्त होता है। मस्तिष्क स्थूल शरीर का एक भाग था, शरीर संबंधी एवं सांसारिक समस्याओं के संबंध में सोचना-विचारना उसका काम था, चूंकि अब वह स्थूल शरीर नहीं रहा इसलिए मस्तिष्क भी उसी के साथ चला गया। सूक्ष्म शरीर में केवल चित्त रहता है। चित्त में इच्छा एवं अभिरुचि निवास करती है, सोचने-विचारने एवं तर्क करने की उसकी शक्ति नहीं होती।
पिछले जीवन में यदि उस व्यक्ति ने आत्महनन किया है, बुरे कामों में प्रवृत्त रहा है तो उसके पाप संस्कारों का बोझ उस जीवात्मा के चित्त पर पत्थर की तरह रखा रहता है। इस बोझ से वह अपने आपको दबता हुआ अनुभव करता और दुखी होता है। जैसे हम सोते समय दिल पर हाथ रखकर सो जाते हैं तो उसके बोझ से एक भयंकर जागृत स्वप्न दिखाई देने लगता है। उस अर्द्ध निद्रित अवस्था में हाथ-पैर हिलाना चाहते हैं, पर हिलते नहीं, बोलना चाहते हैं, पर आवाज नहीं निकलती, बड़ा भय लगता है, चित्त पर धरे हुए पापों के बोझ से जीवात्मा की ऐसी ही दुःस्वप्न की सी अवस्था हो जाती है। उसे बड़े डरावने दृश्य दिखाई पड़ते हैं, पुराणों में बड़े रोमांचकारी ढंग से दुःख और दंड से भरे हुए नरक का वर्णन किया गया है। चित्त पर रखा हुआ पापों का बोझ प्रायः वैसी ही नारकीय यातनाओं से भरे दुःखदाई स्वप्नों का सृजन करता है। जीव उसमें बड़ा क्लेश पाता है और अपने को नरक में पड़ा हुआ अनुभव करता है।
जैसे विवाह आदि खुशी के दिनों में स्वप्न में भी आनंद मंगल, उत्सव, बधाई, हर्ष, भेंट-मिलन के सुखदायक स्वप्न हम सबको दिखाई देते हैं, वैसे ही स्वप्नों का रसास्वादन परलोकवासी वे जीव करते हैं, जिनके चित्त पर शुभ कर्मों और सद्भावों के संस्कार जमे होते हैं। स्वर्ग के सुखों का धर्म ग्रंथों में सविस्तार वर्णन मिलता है। वैसे ही या उससे मिलते-जुलते सुखों के स्वप्न उन पुण्यात्माओं को दिखाई पड़ते हैं। वे सुख-स्वप्न जीव को बड़ा आनंद और उल्लास प्रदान करते हैं। उसे स्वर्ग का सुख अनुभव कराते हैं।
परलोकवासी जीव का चित्त ही उसका पथ-प्रदर्शन करता है। चित्त की प्रवृत्ति का निर्माण चिरकालीन संस्कारों के आधार पर होता है। जीवन भर मनुष्य जिस प्रकार के विचार और कार्यों में डूबा रहता है, जिन भले-बुरे, पुण्य-पाप या स्वार्थ-परमार्थ के संस्कारों को अपने में धारण करता रहता है, वे सब स्वभाव बन जाते हैं। लोक में भी यह स्वभाव ही प्रेरक होता है। मन और बुद्धि इस चित्त के स्वभाव के अनुकूल काम करती हैं। परलोक में तो यह चित्त पूर्णतया निरंकुश हो जाता है। लोक में जो लोकलाज का, समाज की सम्मति का, प्रतिरोध का भय रहता है, जिससे मनचाही करने में झिझक होती है, परंतु परलोक में इस प्रकार का कोई प्रतिबंध नहीं है। इसलिए वह अपनी रुचि के अनुकूल पदार्थों को आकर्षित करके अपने निकट ले आता है और उनका रसास्वादन करता है।
जीव के प्राण-परमाणु में एक आकर्षण शक्ति होती है। जीवित अवस्था में जिसे इच्छा शक्ति कहते हैं, वही मृत्यु के उपरांत आकर्षण शक्ति बन जाती है। जीवित मनुष्य को पानी पीने की इच्छा हो तो मस्तिष्क पानी प्राप्त करने का उपाय सोचता है, पैर पानी के स्थान तक पहुंचा देते हैं, हाथ उस पानी को मुख तक ले जाते हैं, इस प्रकार वह इच्छा पूर्ण हो जाती है, पर सूक्ष्म लोक में उपाय, सोचने, चलने और उठाने की जरूरत नहीं पड़ती। इच्छा की आकर्षण शक्ति से इच्छित पदार्थों के सूक्ष्म परमाणु खिंचे चले आते हैं। जैसे अजगर सर्प एक स्थान पर बैठा हुआ ही जोर की श्वास खींचता है तो उसके आकर्षण से पेड़ों पर बैठे हुए और उड़ते हुए पक्षी खिंचे आते हैं और अजगर के मुख में चले जाते हैं। इसी प्रकार मृतात्मा की इच्छा, आकर्षण शक्ति अपने अनुरूप पदार्थों को खींच लेती है, या यों कहना चाहिए उसके अनुरूप उसी जाति के पदार्थ स्वयं आ-आकर उससे लिपट जाते हैं।
चित्त के संस्कारों को दो भागों में बांट सकते हैं। एक धर्ममय दूसरे अधर्ममय। पुण्यात्मा और पापी दो ही श्रेणी के मनुष्य होते हैं। पापी मनुष्यों का चित्त तामसिक, नीच, घृणित, वासनाओं और इच्छाओं से भरा होता है, उसमें से नीचता भरी इच्छा तरंगें उठा करती हैं और वे अदृश्यलोक में नीच जाति के घृणित पदार्थों के परमाणुओं को आकर्षित करती हैं। वे खिंचकर चले आते हैं और उससे लिपट जाते हैं। जैसे विष्ठा की बदबू मक्खियों को निमंत्रण दे-देकर अपने पास बुला लेती हैं, वैसे ही पापी का चित्त तामसिक, दुर्गंधित, जलाने वाले, छेदने वाले, पीड़ा उत्पन्न करने वाले, कुरूप पंच तत्त्वों को अपने पास बुला लेता है। खुले घाव का रूप देखकर दूर-दूर से मक्खियां उड़कर उस पर आ बैठती हैं और उस घाव को काट-काटकर प्राणी को दुःख देती हैं, वैसे ही पाप वासना के आकर्षण से हिंसा, भय, क्रोध, जलन, पीड़ा, बेचैनी उत्पन्न करने वाले तामसिक भौतिक पदार्थों के परमाणु उस जीव से आ लिपटते हैं, जिससे उसे जलाने, डुबाने, गाड़ने, कूटने, छेड़ने, काटने, चीरने, ऐंठने जैसी पीड़ा होती है, इंद्रियां घबराहट, मद, बेचैनी, तृषा का अनुभव करती हैं। इन परिस्थितियों में प्राणी बड़ा कष्ट पाता है। भयभीत कल्पना शक्ति और पीड़ादायक परिस्थिति दोनों के मिलने से वैसे ही भयंकर नरक के दृश्य सामने आते हैं जैसे कि पुराणों में वर्णन किए गए हैं।
जिन पुण्यात्माओं का चित्त सात्त्विकता की उच्च भावनाओं से सुसंस्कारित होता है, उनकी इच्छा तरंगें सतोगुणी हो उठती हैं, उनका आकर्षण अपनी जाति के पदार्थों को खींचकर इकट्ठा करता है। जैसे पुष्पों के आस-पास मनोहर रंगों की तितलियां उड़ती रहती हैं, भौंरे मधुर गुंजार करते रहते हैं। इस प्रकार उन पुष्पों की शोभा और भी बढ़ जाती है। धनवानों के पास अनेकों गुणी, प्रशंसक, सहायक, कलाकार, धर्मसेवक अपने आप पहुंचते हैं। जहां मीठा रखा हो, वहां चींटियां अपने आप आ पहुंचती हैं। उसी प्रकार सुसंस्कारित परलोकवासियों के पास सुखदायक, आनंदवर्द्धक, शांतिप्रद तत्त्वों के परमाणु इकट्ठे हो जाते हैं, जिनके संसर्ग से उस मृतात्मा को बड़े तृप्तिदायक, प्रसन्नता प्रदान करने वाले अनुभव होते हैं। यह अनुभव लगभग वैसे ही आनंदमय होते हैं जैसे कि धर्म ग्रंथों में स्वर्ग के वर्णन आए हैं।
कुत्ता अपनी इच्छा से सूखी हड्डी चबाता है। उस चबाने में उसे मसूड़ों में घाव और उन घावों का दर्द उपहार में मिलता है। मनुष्य अपनी इच्छा से कुमार्ग पर जाते हैं, कुसंस्कार एकत्रित करते हैं और नरक की यातनाएं भोगते हैं। भंवरें अपनी इच्छा से पुष्प के पास जाते हैं और उसकी सुगंध का, नयनाभिराम सुंदरता का, मधुर मधु का रसास्वादन करते हैं, कवियों द्वारा प्रशंसित होते हैं। कुत्ता नरक-दुःख को और भौंरा स्वर्ग-सुख को प्राप्त करता है। दोनों ही अपनी इच्छा के धनी हैं। वह चाहे तो अपने चित्त को सुसंस्कारों से सुसज्जित करके ऐसा बना सकता है कि मरने के उपरांत परलोक में उसे स्वर्ग सुख का महाप्रसाद प्राप्त हो। वह चाहे तो अपने चित्त को कुकर्मों और कुविचारों से ऐसा दूषित बना सकता है, जिससे परलोक में दारुण दुःख देने वाले नरकों की ज्वाला में जलना पड़े।
स्मरण रखिए, दृश्य लोक की भांति हमें परलोक में भी रहना होता है। इस लोक में विद्या, धन, स्वास्थ्य, चतुरता तथा सहयोग के आधार पर हम सुख-सामग्री प्राप्त कर सकते हैं, परंतु परलोक में केवल ‘‘चित्त के संस्कार’’ ही संपत्ति रूप होते हैं। यदि वे संस्कार पापमय हुए तो नरक की यातना भुगतनी पड़ती है और यदि पुण्यमय हुए तो बड़े आनंद में वह समय गुजरता है। चित्त पर एक दिन में संस्कार नहीं जमते वरन् बहुत समय तक जो विचार और कार्य साथ रहते हैं, वे ही संस्कार बनते हैं। हमें चाहिए कि सदैव पुण्य के, परमार्थ के, सतोगुणी विचारों को मस्तिष्क में रखें, सदा सात्त्विक शुभ कर्म करें, जिससे हमारा चित्त सुसंस्कारी होकर मृत्यु के उपरांत परलोक में आनंदमय स्वर्गीय स्थितियों को प्रदान करे।