अध्यात्म विद्या का प्रवेश द्वार

भगवान

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ब्रह्म की चौथी शक्ति भगवान है। भगवान भक्तों के वश में होते हैं। भक्त जैसे चाहते हैं, उन्हें नचाते हैं। भक्त जिस रूप में उनके दर्शन करना चाहते हैं, उसी रूप में प्रकट होते हैं और उनसे जो याचना या कामना करते हैं, उसे पूरा करते हैं। भगवान की कृपा से भक्तों को बड़े-बड़े लाभ होते हैं, परंतु यह भी स्मरण रखने की बात है कि वे केवल भक्तों को ही लाभ पहुंचाते हैं। जिनमें भक्ति नहीं है उनको भगवान से कुछ भी लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। अनेक देवी-देवता भगवान के ही रूप हैं। जिस देवता के रूप में भगवान का भजन किया जाता है, उसी रूप में वैसे ही फल उपस्थित करते हुए भगवान प्रकट होते हैं।
भगवान की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। आत्मा के सशक्त क्रिया रूप को भगवान कहते हैं। आत्मा अनंत शक्तियों का पुंज है। जिस शक्ति को प्रदीप्त, प्रचंड एवं प्रस्फुटित बनाया जाए, वह शक्ति एक बलवान देवता के रूप में प्रकट होती और कार्य करती है। किसी पक्के गुंबजदार मकान में आवाज करने से मकान गूंज उठता है। आवाज की प्रतिध्वनि चारों ओर बोलने लगती है। रबड़ की गेंद को किसी दीवार पर फेंककर मारा जाए तो जितने जोर से उसे फेंका था, टक्कर खाने के बाद वह उतने ही जोर से लौट आती है। इसी प्रकार अंतरंग शक्तियों का विश्वास के आधार पर जब एकीकरण किया जाता है तो उससे आश्चर्यजनक परिणाम उत्पन्न होते हैं।
सूर्य की किरणों को आतिशी शीशे के द्वारा एक केंद्र बिंदु पर एकत्रित किया जाए तो इतनी गर्मी उत्पन्न हो जाती है कि उस केंद्र में अग्नि जलने लगती है। मानसिक शक्तियों को किसी इष्टदेव को केंद्र मानकर यदि एकत्रित किया जाय तो सूक्ष्म सजीव चेतना उत्पन्न हो जाती है। यह श्रद्धा निर्मित सजीव चेतना ही भगवान है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामायण में—‘‘भवानीशंकरौ वंदे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ’’ श्लोक में यही भाव प्रकट किया है। उन्होंने भवानी तथा शंकर को श्रद्धा-विश्वास रूपी बताया है। श्रद्धा साक्षात् भवानी है और विश्वास साक्षात् शंकर है। विश्वास मनुष्य को मृत्यु के मुख से बचा सकता है और जीवित मनुष्य को क्षण भर में रोगी बनाकर मृत्यु के मुख में ढकेल सकता है। ‘शंका डायन मनसा भूत’ कहावत किसी बड़े अनुभवी ने प्रचलित की है। चित्त में उत्पन्न हुई शंका डायन बन जाती है और मन का भय भूत का रूप धारण करके सामने आ खड़ा होता है। रस्सी को सांप, झाड़ी को भूत, कड़ुए पानी को जहर बना देने की और मृत्यु का खतरा उत्पन्न करने की शक्ति विश्वास में मौजूद है। केवल घातक ही नहीं, निर्माणात्मक शक्ति भी उसमें है। कहते हैं—‘मानो तो देव नहीं तो पत्थर तो है ही’—पत्थर को देव बना देने वाला विश्वास है। विश्वास की शक्ति अपार है। शास्त्र कहता है—‘विश्वासो फलदायकः।’
हम अपनी ‘ईश्वर कौन है? कहां है? कैसा है?’ में, ‘गायत्री की चमत्कारी साधना’ में तथा ‘ब्रह्म विद्या के रहस्योद्घाटन’ नामक पुस्तकों में सविस्तार  यह बता चुके हैं कि मंत्र शक्ति तथा देव शक्ति और कुछ नहीं-आत्मशक्ति या इच्छाशक्ति का दूसरा नाम है। ध्यान, जप, अनुष्ठान आदि की योगमयि साधनाएं एक प्रकार के मानसिक व्यायाम हैं। जैसे शारीरिक व्यायाम करने से देह पुष्ट होती है और निरोगता, सुंदरता, दीर्घायु, भोग, सुख, सहनशक्ति, धन उपार्जन तथा कठिन कष्ट साध्य कामों को पूरा करने की प्रत्यक्ष सिद्धियां प्राप्त होती हैं, वैसे ही मानसिक साधनाओं द्वारा, आराधना-उपासना द्वारा मनोबल बढ़ता है और उससे नाना प्रकार की अलौकिक शक्तियां प्राप्त होती हैं। मंत्रशक्ति, देवशक्ति से जो कार्य पूरे होते हैं वे किसी दूसरे के द्वारा प्राप्त नहीं होते वरन् अपने ही पुरुषार्थ द्वारा, अपनी ही आत्मशक्तियों द्वारा उपलब्ध होते हैं। साधना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा आत्मशक्तियां बलवान होती हैं और मनचाहे परिणाम उपस्थित करती हैं।
भक्त भगवान का पिता है। अपनी भक्ति द्वारा, साधना द्वारा वह अपने भगवान को उत्पन्न करता और पुष्ट करता है। जो अपने भगवान को जितना भक्ति का, साधना का दूध पिलाता है, उसका भगवान उतना ही बलवान हो जाता है और जितना उसमें बल होता है, उतना ही महत्त्वपूर्ण परिणाम उपस्थित कर देता है। प्रहलाद का भगवान इतना बलवान था कि खंभा चीरकर नृसिंह रूप में निकल पड़ा और हिरण्यकश्यपु का पेट चीर डाला। नरसी भगत का भगवान हुंडी बरसा सकता था, परंतु हमारे भगवानों में वह बल नहीं है। किसी के भगवान स्वप्न में या जागृत अवस्था में दर्शन दें सकते हैं। किसी के भगवान भविष्य का संकेत कर सकते हैं। किसी के भगवान विपत्ति में सहायक हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि जिसने अपने भगवान को जिस योग्य बनाया होगा, वैसे वरदान देने के लिए वैसी सहायता करने के लिए वह तैयार रहेगा।
वस्तुतः मनोबल ही भगवान है। मनोबल को बढ़ाने के तरीके अनेक हैं। योग साधना का भारतीय तरीका ही एकमात्र उपाय नहीं है, संसार में अनेक साधन और उपाय इसके हैं। विश्वास के आधार पर मनोबल बढ़ता है। कई व्यक्ति बिना योग साधना के भी अपने स्वावलंबन, आत्मविश्वास, अध्यवसाय, साहस, सत्संग एवं पराक्रम द्वारा अपना मनोबल बढ़ा लेते हैं और वही लाभ प्राप्त करते हैं जो भक्तों को भगवान प्रदान करते हैं। अनेक अनीश्वरवादी व्यक्ति भी बड़े-बड़े अद्भुत आविष्कार कर रहे हैं। विद्वान विद्या के और धनी धन के चमत्कार दिखा रहे हैं। इस सबके मूल में उनकी मानसिक विलक्षण शक्तियां काम कर रही हैं। यह भगवान की ही कृपा है। भगवान को सुर और असुर सभी बिना भेदभाव के प्रसन्न कर सकते हैं उनका अनुग्रह और वरदान प्राप्त कर सकते हैं।
ब्रह्म की मूल सत्ता निर्लिप्त है। वह नियम रूप है, व्यक्तिगत रूप से किसी पर प्रसन्न-अप्रसन्न नहीं होती। उस पर आराधना, पूजा या निंदा का कोई प्रभाव नहीं होता। अग्नि देवता को गाली देने वाले या पूजा करने वाले में भेद करने की कोई आवश्यकता नहीं। जो भी उसके नियमों के अनुरूप चलेगा लाभ उठावेगा और जो अग्नि को अनियमित रूप से छुएगा निश्चयपूर्वक जल जाएगा। आत्मा का, ईश्वर का, विष्णु का यही नियम है, पर भगवान की लीला विचित्र है, वे भक्त वत्सल हैं। उन्हें जो जिस भाव से भजता है, कुएं की आवाज की तरह वे उसे वैसे ही भजने लगते हैं। कीर्तन, कथा, जप, तप, पूजा, पाठ, ध्यान, भजन यह भगवान की प्रसन्नता के लिए ही है, श्रद्धा और विश्वास भगवत् प्राप्ति का मूल साधन है। यदि श्रद्धा या विश्वास न हो तो सारे अनुष्ठान निष्फल हैं।
भगवान से, आत्मबल से, आस्तिक-नास्तिक सभी अपने-अपने ढंग से लाभ उठाते हैं। संसार के महापुरुषों की जीवनियां पढ़ने का, उनके अद्भुत-आश्चर्यजनक कार्यों का जो विवरण मिलता है, उससे हम आश्चर्यान्वित रह जाते हैं और सोचते हैं कि किसी देवता की कृपा से ही वे इतने बड़े कार्यों को पूरा कर सके होंगे। वह देवता भगवान है, जिसे मनोबल भी कहते हैं। प्रयत्न से, साधना से, विश्वास से, श्रद्धा-भक्ति से, मनोबल बढ़ता है और फिर उसी की सहायता से बड़े-बड़े कठिन कार्य पूरे हो जाते हैं। मेस्मेरिज्म विद्या जानने वाले अपने अकिंचन मनोबल से बड़े-बड़े खेल दिखाते हैं। यह बल अधिक हो जाता है तो जिस दिशा में भी चाहे मनुष्य मोर्चे फतह करता हुआ आगे बढ़ता जाता है। अनायास, अप्रत्याशित सुअवसर भी उसे प्राप्त होते हैं। धन को देखकर धन, वैभव को देखकर वैभव और सौभाग्य को देखकर सौभाग्य अपने आप अनायास ही टपक पड़ते हैं। अनायास लाभों में भी ‘सबल की सहायता’ का ईश्वरीय नियम काम किया करता है।
भगवान कल्पवृक्ष हैं। उन्हें जो जिस भाव से भजता है, उसकी इच्छा पूर्ण करते हैं। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि जो मनस् तत्त्व के जिस पहलू को बलवान बना लेता है, उसे उस दिशा में पर्याप्त सफलताएं मिलती हैं।
इस प्रकार चतुर्मुखी ब्रह्म (ब्रह्मा) की क्रियापद्धति इस सृष्टि में दृष्टिगोचर हो रही है, उपनिषदों में इसे चार वर्णमाला वाला ब्रह्म भी कहा है। सत् प्रधान आत्मा को ब्राह्मण, शासनकर्ता स्वामी-ईश्वर को क्षत्रिय, लक्ष्मीपति विष्णु को वैश्य एवं भक्त के वश में पड़े हुए भक्त की इच्छानुसार कार्य करने वाले भगवान को शूद्र कहा है। यह चार भेद उसकी शक्तियों का रूप समझाने के लिए आचार्यों ने उपस्थित किए हैं। वस्तुतः ब्रह्म एक ही है, उसकी चार शक्तियों के आधार पर चार वेद बने हैं, परंतु वस्तुतः उसकी अनंत शक्तियां हैं और वह मनुष्य की बुद्धि की पहुंच से बहुत आगे हैं।

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