आसन, प्राणायाम, बन्ध मुद्रा पंचकोश ध्यान

प्राणायाम

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नाड़ीशोधन, प्राण संचार, अनुलोम विलोम, उज्जायी, भ्रामरी, अनुलोम विलोम सूर्यवेधन, शक्तिचालिनी मुद्रा,  कपालभाति, भस्रिका, शीतली, शीतकारी प्राणायाम।

       उच्चस्तरीय योग साधना में प्राणायाम साधना का अपना महत्त्व है। प्राणायाम दिखने में ही सामान्य लगता है, पर यदि उच्चस्तरीय विधान के आधार पर साधा जाए तो शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक प्रगति के लिए उससे महत्त्वपूर्ण लाभ उठाया जा सकता है।

प्राणायाम दो तरह के होते है१. गहन श्वास- प्रश्वास, व्यायाम परक (डीप ब्रीदिंग एक्सरसाईज)तथा २. आध्यात्मिक ध्यान परक। पहले प्रकार के प्राणायामों में कुम्भक १.२.१ या १.४.२ की मात्रा में क्रमशः बढ़ाया जाता है। दूसरे प्रकार के प्राणायामों १.१/२.१.१/२ का ही क्रम रहता है। कपालभाति और भस्त्रिका प्राणायाम तो व्यायाम परक ही होते हैं, शेष अन्य प्राणायामों को दोनों प्रकार से प्रयोग में लाया जा सकता है। दोनों प्रकार के प्राणायामों के बीच इतना समय अवश्य दें कि शरीर और श्वास- प्रश्वास की गति सहज स्थिति में आ जाये। इसमें ध्यान का विशेष प्रयोग होता है।

१.नाड़ीशोधन प्राणायाम

मनुष्य के रहन- सहन में अज्ञात अथवा प्रमादवश जो भूलें हो जाती हैं, उनके कारण शरीर में मलवृद्धि होती रहती है। यह मल देह के समस्त नाड़ी जाल को गन्दा और अवरुद्ध कर देता है। प्राणायाम के दौरान शुद्ध वायु खींचकर उसमें सम्मिलित प्राण शक्ति को रक्त के साथ मिलाकर उस मल को भस्म करके बाहर निकाल दिया जाता है। इस प्रकार नाड़ियों के शुद्ध होने से रक्त का प्रवाह अबाध गति से समस्त शरीर में होने लगता है और उसकी चैतन्यता, स्फूर्ति पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ जाती है।

सहज आसन में मेरुदण्ड सीधा करके बैठिए। प्राणायाम मुद्रा में दायाँ नथुना बन्द करके बायें नथुने से गहरी श्वास खीचिए और उसे नाभि चक्र तक ले जाइए। ध्यान कीजिए कि नाभि स्थान में पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र के समान पीतवर्ण शीतल प्रकाश विद्यमान है। खींचा हुआ श्वास उसे स्पर्श कर रहा है। आसानी से जितना सम्भव हो श्वास भीतर रोकिए। ध्यान कीजिए, पूर्ण चन्द्र को खींचा हुआ श्वास स्पर्श करके स्वयं शीतल और प्रकाशवान् बन रहा है। जिस नथुने से श्वास खींचा था, उसी बाएँ छिद्र से ही श्वास बाहर निकालिए, ध्यान कीजिए लौटने वाली वायु इड़ा नाड़ी को शीतल प्रकाशवान् बना रही है। कुछ देर श्वास बाहर रोकिए और फिर से उपर्युक्त क्रिया बाएँ नथुने से ही तीन बार कीजिए।

जिस प्रकार बाएँ नथुने से पूरक, अन्तःकुम्भक, रेचक, बाह्य कुम्भक किया था; उसी प्रकार दाहिने नथुने से भी उपर्युक्त क्रिया तीन बार कीजिए। नाभिचक्र में चन्द्रमा के स्थान पर सूर्य का ध्यान कीजिए और श्वास छोड़ते समय भावना कीजिए, लौटने वाली वायु पिंगला नाड़ी के भीतर उष्णता एवं प्रकाश पैदा कर रही है।

अब नासिका के दोनों छिद्रों से श्वास लीजिए, भीतर रोकिए और मुँह खोलकर श्वास बाहर निकाल दीजिए। तीन बार बाएँ नासिका से श्वास खींचना- छोड़ना, तीन बार दाएँ नासिका से श्वास खींचना- छोड़ना तथा एक बार दोनों नासिका छिद्र से श्वास खींचना और मुँह से निकालना, यह सात विधान मिलकर एक नाड़ी शोधन प्राणायाम हुआ। ऐसे तीन प्राणायाम पूरे कीजिए शेष समय में सहज लयबद्ध श्वास के साथ शान्ति का अनुभव कीजिए।

२. प्राण संचार प्राणायाम

प्राण संचार प्राणायाम से शरीर की नाड़ियों में प्राण वायु का प्रवेश कराकर समस्त देह में चैतन्यता का संचार किया जाता है। इससे शरीर इस योग्य बन जाता है कि अन्य शक्तिशाली प्राणायाम के प्रभाव को ग्रहण कर सके।

शान्त, मेरुदण्ड सीधा करके बैठें। ध्यान करें कि गुरुसत्ता, ऋषिसत्ता की अनुकम्पा से साधना स्थल दिव्य प्राण- प्रवाह से भर गया है। हमारे भाव भरे आवाहन और पू. गुरुदेव के ध्यान- निर्देशों के प्रभाव से वह दिव्य चेतन प्राण हमारी ओर उन्मुख है। माँ की ममता के भाव से हमें लपेटे हुए है।
गहरी तृप्तिदायक श्वास दोनों नथुनों से खींचें। जितनी देर में वायु खींची है, उससे लगभग आधे समय तक अन्दर रोकें। जितने समय में खींचा, उतने ही समय में धीरे -धीरे बाहर निकालें। अन्दर जितने समय रोका, उतने ही समय बाहर रोकें।

श्वास खींचते समय भाव करें कि हम उस दिव्य प्राण प्रवाह को सम्मानपूर्वक शरीर के हर अंग- अवयव तक पहुँचा रहे हैं। श्वास रोकते समय भाव करें- वह दिव्य ताजा प्राण हमारे शरीर में स्थापित हो रहा है। पुराने, बासी प्राण को विस्थापित कर रहा है। श्वास निकालते समय भाव करें- वायु के साथ बासी प्राण विकारों सहित बाहर जा रहा है। बाहर रोकते समय भाव करें- निष्कासित प्राण विकार दूर चले गये, अन्दर दिव्य प्राण प्रकाशित हो रहा है। अंग- अंग पुलकित हो रहे हैं।

३. अनुलोम विलोम प्राणायाम

अनुलोम विलोम प्राणायाम का अभ्यास साधकों के लिए बहुत ही शक्तिशाली होता है। इस प्राणायाम के द्वारा मन एकाग्र होता है। आज्ञाचक्र का जागरण होता है। इससे इड़ा- पिङ्गला नाड़ियों का शोधन होता है तथा प्राणों का सन्तुलन बनाने में सहायता मिलती है।

ध्यानात्मक आसन में बैठें। बायें नथुने से गहरी श्वास खींचें, भाव करें कि श्वास नासिका मार्ग से ऊपर भ्रूमध्य तक जाती है। थोड़ी देर श्वास रोकें, आज्ञाचक्र में प्रकाश का ध्यान करें। जितनी देर आसानी से श्वास रोक सकें, रोकें, तत्पश्चात् दायें नथुने से श्वास बाहर निकाल दें। थोड़ी देर श्वास को बाहर रोकें। आज्ञाचक्र में प्रकाश का ध्यान करें। इसके बाद दाहिने नथुने से पूरक करें और बायें से रेचक करें।

४. उज्जायी प्राणायाम

उज्जायी प्राणायाम उत् + जयी शब्दों से मिलकर बना है। उत् अर्थात् ऊर्ध्वगति तथा जयी का अर्थ है इन्द्रिय जय होना अर्थात् इन्द्रिय जय सहित प्राणों के उन्नयन में इससे मदद मिलती है। कण्ठ में विशुद्धि चक्र है, यह चक्र मस्तिष्क तथा हृदय के बीच में दोनों के बीच समन्वय सन्तुलन बनाता है, इसलिए इस प्राणायाम में कण्ठ को सक्रिय करते हुए प्राणायाम किया जाता है। यह प्राणायाम शान्ति प्रदान करने के साथ- साथ शरीर को उष्णता प्रदान करता है। अनिद्रा को दूर करता है। उच्च रक्तचाप के रोगियों के लिए उपयोगी है। यह प्राणायाम रक्त, अस्थि, मज्जा, मेद, वीर्य, त्वचा एवं मांस की व्याधि को दूर करता है।

ध्यानात्मक आसन में बैठें। ठोड़ी को थोड़ा झुका लें। गले में सरसराहट की आवाज के साथ श्वास खींचें, थोड़ी देर रोकें, पुनः दोनों नथुनों से श्वास बाहर निकाल दें। नासिका में आती जाती श्वास के प्रति सजग बने रहें और श्वसन को धीमा एवं लयपूर्ण होने दें। थोड़ी देर बाद अपनी सजगता गले पर ले जाएँ। ऐसा अनुभव करें कि श्वास नासिका से नहीं; बल्कि गले के एक छोटे से छिद्र से आ- जा रही है। श्वास की आवाज बहुत तेज नहीं होनी चाहिए। वह केवल अभ्यासी को सुनाई पड़नी चाहिए। दूसरा व्यक्ति जब तक बहुत निकट न बैठा हो, उसे यह आवाज सुनाई नहीं पड़नी चाहिए।

५. भ्रामरी प्राणायाम

भ्रामरी प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य मानसिक शान्ति की प्राप्ति है। प्राणायाम का साधारण लाभ भी उसमें है और अन्य प्राणायामों की तरह फेफड़ों को भी उससे शक्ति प्राप्त होती है। इस प्राणायाम के अभ्यास में भ्रामरी का शब्द सुनते- सुनते ओंकार और अन्य प्रकार के दिव्य शब्द भी सुनाई पड़ने लगते हैं, जिससे मन की शान्ति और तन्मयता की बहुत अधिक वृद्धि हो जाती है।

ध्यानात्मक आसन में बैठें। दोनों हाथों की तर्जनी उँगलियों से कानों को बन्द कर लें। दोनों नथुनों से गहरी श्वास खींचें। भौंरे के गुँजन की तरह गहरी और मन्द ध्वनि उत्पन्न करते हुए धीरे- धीरे श्वास बाहर छोड़ें। श्वास छोड़ते समय गुँजन की ध्वनि मधुर, सम और अखण्ड होनी चाहिए। ध्वनि इतनी मृदुल और मधुर हो कि कपाल के अग्र भाग में उसकी प्रतिध्वनि गूँजने लगे।

६. अनुलोम विलोम सूर्यवेधन प्राणायाम

कुण्डलिनी महाशक्ति के जागरण के लिए प्राण ऊर्जा की प्रचुर परिमाण में आवश्यकता पड़ती है। यह प्रयोजन सूर्यवेधन प्राणायाम द्वारा पूरा होता है। प्राण ऊर्जा का अभिवर्द्धन साधक की भौतिक और आध्यात्मिक सफलताओं का मार्ग प्रशस्त करता है। यह मस्तिष्क को शुद्ध करता है। वात रोग निवारक एवं कृमिनाशक है।

जिस आसन में सहजता से १५ मिनट बैठ सकें, उसमें मेरुदण्ड सीधा रख कर बैठिए। स्वयं को तीर्थ चेतना, गुरुसत्ता के दिव्य आभामण्डल से घिरा हुआ अनुभव कीजिए। प्राणायाम मुद्रा में बायाँ नथुना दबाकर दाहिने नथुने से श्वास खींचना आरम्भ कीजिए। ध्यान कीजिए कि सूर्य की किरणों जैसा प्रवाह वायु में संमिश्रित होकर दाहिने नासिका छिद्र में अवस्थित पिंगला नाड़ी द्वारा अपने शरीर में प्रवेश कर रहा है और उसकी ऊष्मा अपने भीतरी अंग- प्रत्यंगों को तेजस्वी बना रही है। श्वास को कुछ देर भीतर रोकिए और ध्यान कीजिए कि श्वास के साथ खींचा हुआ तेज नाभिचक्र में एकत्रित हो रहा है। सूर्य चक्र प्रकाशवान् हो रहा है। चमक बढ़ रही है। बाएँ नासिका से श्वास को बाहर निकालिए, भाव कीजिए कि सूर्यचक्र को धुँधला बनाए रखने वाला कल्मष छोड़ी हुई श्वास के साथ पीतवर्ण होकर बाएँ नथुने की इड़ा नाड़ी द्वारा बाहर निकल रहा है। सहजता से जितनी देर हो सके, फेफड़ों को बिना श्वास के खाली कीजिए। भाव कीजिए नाभिचक्र में एकत्रित प्राणपुत्र् अग्रि शिखाओं की तरह सुषुम्रा में ऊपर उठकर पेट के ऊर्ध्व भाग, फेफड़े, कण्ठ को प्रकाशित कर रहा है।

इसी क्रम को उलटा कीजिए अर्थात् बाएँ से खींचना, अन्दर रोकना, दाएँ से बाहर निकालना और बाहर रोक देना। श्वास खींचते समय भाव कीजिए कि सविता का तेज नाभिचक्र में संगृहीत हो रहा है। अन्तःकुम्भक में ध्यान कीजिए कि नाभिचक्र सूर्यचक्र तेजस्वी हो रहा है। श्वास निकालते समय भाव कीजिए कि आन्तरिक विकार वायु के साथ बाहर जा रहे हैं। बाह्य कुम्भक के समय ध्यान कीजिए कि सूर्यचक्र का निर्मल तेज सुषुम्रा मार्ग से ऊपर की ओर बढ़ रहा है, भीतरी अवयवों में एक दिव्य ज्योति जगमगाती अनुभव कीजिए।

दाएँ से खींचकर बाएँ से निकालना, पुनः बाएँ से खींचकर दाएँ से निकालना, अनुलोम विलोम सूर्यवेधन प्राणायाम का एक चक्र पूरा हुआ, ऐसे तीन प्राणायाम कीजिए। जो समय शेष रहे, उस समय सहज लयबद्ध श्वास के साथ शान्ति का अनुभव कीजिए।

७. शक्तिचालिनी मुद्रा

कुण्डलिनी महाशक्ति की सामान्य प्रवृत्ति अधोगामी रहती है। रति क्रिया में उसका स्खलन होता रहता है। शरीर यात्रा की मल -मूत्र विसर्जन की प्रक्रिया भी स्वभावतः अधोगामी है। शुक्र का क्षरण भी इसी दिशा में होता है। इस प्रकार यह सारा संस्थान अधोगामी प्रवृत्तियों में संलग्र रहता है। इस महाशक्ति के जागरण व उत्थान के लिए शक्तिचालिनी मुद्रा की क्रिया सम्पन्न की जाती है।

शक्तिचालिनी मुद्रा को विशिष्ट प्राणायाम कहा जा सकता है। सामान्य प्राणायाम में नासिका से साँस खींचकर प्राण प्रवाह को नीचे मूलाधार तक ले जाते हैं और फिर ऊपर की ओर उसे वापस लाकर नासिका द्वार से निकालते हैं, यही प्राण सच्चरण की क्रिया जब मल- मूत्र संस्थान से की जाती है तो शक्तिचालिनी मुद्रा कहलाती है। इस मुद्रा के द्वारा गुदा की पेशियाँ मजबूत होती हैं। मलाशय सम्बन्धी दोषों जैसे- कब्ज, बवासीर, गर्भाशय या मलाशय भ्रंश जैसे रोगों में लाभ मिलता है। प्राण शक्ति का क्षरण रुकता है। व्यक्तित्व प्रतिभा सम्पन्न बनता है।

ध्यानात्मक आसन में बैठें। बाएँ नासिका से श्वास खींचते हुए भाव करें कि प्राण वायु गुदा व जननेन्द्रिय के छिद्रों से प्रवेश कर रही है। अन्तः कुम्भक करें। मूलबन्ध एवं जालन्धर बन्ध लगायें। भाव करें कि प्राण का प्रवाह मूलाधार से ऊपर सहस्रार में पहुँच रहा है। दाएँ नासिका से श्वास छोड़ते हुए भाव करें कि दूषित प्राण वायु, नासिकाग्र से बाहर जा रही है। मूल, उड्डियान व जालन्धर बन्धों के साथ बाह्य कुम्भक सम्पन्न करें। भाव करें कि प्राण का प्रवाह मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर चढ़ रहा है। इसी प्रकार दायीं नासिका से पूरक तथा बायीं नासिका से रेचक करें। अन्तः कुम्भक व बाह्य कुम्भक में श्वास आसानी से जितना रोक सकें, रोकें। दबाव न डालें।

८. कपालभाति प्राणायाम

ध्यानात्मक आसन में बैठें। पेट को फैलाते हुए श्वास लें। पेट की पेशियों को बलपूर्वक संकुचित करते हुए श्वास छोड़ें, किन्तु अधिक जोर न लगायें। अगली श्वास उदर की पेशियों को बिना फैलाते हुए सहज ढंग से लें। पूरक सहज होना चाहिए,उसमें किसी प्रकार का प्रयास नहीं लगना चाहिए। प्रारम्भ मे 10 बार रेचक करें। गिनती मानसिक रूप से करें। 10 बार रेचक करने के बाद गहरी श्वास लेकर गहरी श्वास छोड़ें। यह एक चक्र पूरा हुआ। से चक्र अभ्यास करें। उच्च अभ्यासी १०चक्र या उससे अधिक अभ्यास कर सकते हैं। जैसे- जैसे उदर की पेशियाँ मजबूत होती जायें, श्वास- प्रश्वास की संख्या को 10 से बढ़ाकर 20 तक ले जा सकते हैं।

नोटः- श्वास लेते और निकालते समय पसलियों के बीच की मांसपेशियाँ यथासम्भव जैसी की तैसी स्थिति में रखी जाती हैं और केवल पेट की मांसपेशियों को उठाया और गिराया जाता है। पूरक और रेचक में लगने वाले समय में भी बड़ा अन्तर है। उदाहरणार्थ अगर एक रेचक और एक पूरक में मिलकर एक सेकेण्ड लगता हो, तो रेचक में चौथाई सेकेण्ड और पूरक में पौन सेकेण्ड समझना चाहिए। इसका आशय यह है कि कपालभाति में रेचक की ही मुख्यता है।

लाभ- इड़ा और पिङ्गला नाड़ी का शोधन। मन से इन्द्रिय विक्षेपों को दूर करता है। निद्रा, आलस्य को दूर करता है। मन को ध्यान के लिये तैयार करता है। दमा,वातस्फीति,ब्रोन्काइटिस और यक्ष्मा से पीड़ित व्यक्तियों के लिये उत्तम। तन्त्रिका तन्त्र में सन्तुलन लाता एवं पाचन तन्त्र को पुष्ट करता है। आध्यात्मिक साधकों के लिए यह अभ्यास विचारों एवं सूक्ष्म दृश्यों को रोकता है।

सावधानियाँ- हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, चक्कर आना, मिर्गी, हर्नियाँ या गैस्ट्रिक अल्सर से पीड़ित व्यक्ति यह प्राणायाम न करें।

९. भस्रिका प्राणायाम

ध्यानात्मक आसन में बैठें। दाहिने नासिका छिद्र को बन्द कर बाएँ से दस बार जल्दी- जल्दी श्वास लें और छोड़ें। श्वास के साथ पेट लयपूर्ण ढंग से फैलना और सिकु ड़ना चाहिए। वायु भरने और छोड़ने की क्रिया पेट द्वारा ही होनी चाहिए। वक्ष को न फैलायें और न ही कन्धों को उठायें। नासिका में सूँ- सूँ की आवाज होनी चाहिए ,, किन्तु गले और छाती से कोई आवाज नहीं आनी चाहिए। 10 बार पूरक और रेचक करने के बाद, बाएँ नासिका छिद्र से गहरी श्वास लें। अन्तःकुम्भक करें। बाएँ नासिका छिद्र से ही रेचक करें। इसी प्रकार सारी क्रियाएँ दाहिनी नासिका से 10 बार एवं दोनों नासिका से 10 बार करें। ऊपर बतायी गई विधि के अनुसार पहले बाएँ फिर दाएँ और अन्त में दोनों नासिका छिद्रों से श्वसन करने से अभ्यास का एक चक्र पूरा होता है। अभ्यास के दौरान सजगता नाभि पर बनायें रखें।

सावधानियाँ- नये अभ्यासियों को प्रत्येक चक्र के बाद थोड़ा विश्राम कर लेना चाहिए। उच्च रक्तचाप, हृदयरोग, हर्निया, गैस्ट्रिक, अल्सर, दौरा, मिर्गी या चक्कर आने की बीमारी वाले लोगों को भस्रिका का अभ्यास नहीं करना चाहिए।

लाभ- शरीर के विषैले पदार्थ को जलाता हैवात,पित्त,कफ से सम्बन्धित रोगों को दूर करता है। पाचन संस्थान को पुष्ट करता है। दमा एवं फेफड़े के रोग में उत्तम। गले की सूजन एवं कफ के जमाव को दूर करता है। मानसिक शान्ति और एकाग्रता में उपयोगी।

१०. शीतली प्राणायाम

ध्यान के सुविधाजनक आसन में बैठें। जिह्वा के दोनों किनारों को इस प्रकार मोड़ें की उसकी आकृति एक नलिका सी हो जाए। इस नली के द्वारा सी- सी की आवाज करते हुए श्वास अन्दर खींचें। पूरक के अन्त में जिह्वा अन्दर कर लें, मुँह को बन्द करें और नासिका के द्वारा रेचक करें। जिह्वा के ऊपरी भाग में शीतलता का अनुभव करें।

लाभ- शरीर एवं मन शीतल। कामेच्छा और तापमान- नियमन से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण मस्तिष्कीय केन्द्रों को प्रभावित करता है। मानसिक और भावनात्मक उत्तेजनाओं को शान्ति प्रदान करता है। भूख- प्यास पर नियन्त्रण कर तृप्ति प्रदान करता है। रक्तचाप और उदर की अम्लता को कम करता है।

सावधानियाँ- इसका अभ्यास प्रदूषित वायुमण्डल और ठण्डे मौसम में नहीं करना चाहिए। निम्न रक्तचाप या श्वसन सम्बन्धी रोगों जैसे- दमा, ब्रोंकाइटिस और बहुत अधिक कफ से पीड़ित व्यक्तियों को यह प्राणायाम नहीं करना चाहिए।

११. शीतकारी प्राणायाम

अपने जबड़े व दाँत सहजता से बन्द रखें। दोनों होठों को थोड़ा सा खोल लें, पूरक करें। अन्य क्रियाएँ तथा लाभ एवं सावधानियाँ शीतली प्राणायाम जैसी ही हैं।
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