विचारक्रान्ति की आवश्यकता एवं उसका स्वरूप

नवनिर्माण का उत्कृष्टतावादी जीवनदर्शन

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सामाजिक प्रगति की चर्चा की जाती है तो कई अदृश्य पहलुओं पर विचार करना होता है। समाज एक इकाई है, व्यक्तियों से मिलकर ही जिसका निर्माण होता है। जो प्रवृत्तियां, संस्कार व्यक्ति परिवार को जकड़े रहते हैं प्रकारान्तर से वे ही समाज के अभ्युदय में भी बाधक एवं सहायक सिद्ध होते हैं। समाज का विकास क्रम बताता है कि मनुष्य आदिम युग चलकर आधुनिक युग तक प्रगति करते-करते अपनी मूल प्रवृत्तियों को छोड़ता व मानवोचित सुसंस्कारों को ग्रहण करता चला आया है। इस तरह यह नहीं मानकर चलना चाहिए कि कुसंस्कार कभी नहीं छूटते, सामाजिक अवांछनीयताएं कभी नहीं मिटतीं। यदि ऐसा होता तो वन्य पशुओं का सरकस में कलाकारों जैसा करतब दिखा सकना कैसे सम्भव हो पाता? मांसाहारी प्रकृति के कुत्ते-बिल्ली क्यों मनुष्य के साथ घुल-मिलकर वैसे ही आहार-विहार के आदी बनते?

वंशानुक्रम यथा परिवार का भी अपना प्रभाव है। वातावरण का प्रभाव तो रहता ही है और इसी आधार पर व्यक्तित्व बनते ढलते रहते हैं। फिर भी इसे पत्थर की लकीर नहीं कहा जा सकता। हेय परिस्थितियों में जन्मे-पले लोगों में से असंख्यों ऐसे हुए हैं जिनने संचित कुसंस्कारों की केंचुली को साहस पूर्वक उतार फेंका और दिशा बदलकर उस ओर चल पड़े जिस ओर कि उस समुदाय का कदाचित ही कोई चला हो। रैदास, कबीर, दादू, नानक आदि सन्तों और बुद्ध, गांधी, समर्थ आदि महामानवों में से एक भी ऐसा नहीं था जिनकी महानता का श्रेय उनकी आरम्भिक परिस्थितियों को मिल सके। कुछ तो ढलती आयु में बदले हैं और इसी जन्म के अभ्यस्त कुसंस्कारों को तिनके की तरह मोड़ने में समर्थ हुए हैं। बाल्मीकि, अंगुलिमाल, चण्ड, अशोक, अजामिल, विल्वमंगल आदि की लम्बी नामावली ऐसे अप्रत्याशित परिवर्तन की सम्भावना सिद्ध करने के लिये साक्षी रूप में प्रस्तुत की जा सकती है।

यह सब इसलिए कहा जा रहा है कि जीवन दर्शन में उत्कृष्टता का समावेश करने, दृष्टिकोण में आदर्शवादी मान्यताओं को स्थान दिलाने की अनिवार्यता महत्ता को समाज को दिशा दिखाने वाले मनीषी भली प्रकार समझ लें, यह एक शाश्वत एवं सामयिक आवश्यकता है जिसे इन दिनों हर कीमत पर पूर्ण किया जाना है, अन्यथा लोक प्रवाह जिस दिशा में बह रहा है उसे देखते हुए स्वार्थपरता और आक्रामकता की बढ़ती हुई प्रवृत्तियां सारे वातावरण को विषाक्त किये बिना न रहेंगी। यह विषाक्तता अन्ततः अराजकता की गृह-युद्ध जैसी परिस्थितियां उत्पन्न करेंगी। फलस्वरूप सामूहिक आत्महत्या जैसा महाविनाश का दृश्य उत्पन्न होगा। आवश्यक नहीं कि इसके लिए परमाणु बम ही बरसे। आपाधापी की यादवी ने एक दूसरे को चीर खाने के लिए उत्साहित किया है। विजयी, पराजित दोनों की अपना अस्तित्व गंवा बैठे हैं। इस तथ्य की साक्षी में प्राणि जगत के अनेकों उद्धत समुदायों के उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। जो कभी बहुत समर्थ रहे हैं किन्तु अब उनका कोई अता-पता शेष नहीं। मनुष्य भी इसका अपवाद नहीं हो सकता। वह शालीनता और उदार सहकारिता की नीति अपना कर आगे बढ़ा है। नीति उलटेगी तो प्रगति भी अवगति में वापिस होगी। सृष्टि का मुकुटमणि समझा जाने वाला मनुष्य उसी आदिम युग में जा पहुंचेगा जहां डार्विन के अनुसार उसके पूर्वज पेड़ों पर उलटे लटक कर पत्थरों से शिकार मारकर अपना निर्वाह वनमानुष स्तर का किया करते थे। भावना क्षेत्र में दुष्ट दुर्बुद्धि का समावेश कितनी समस्याएं और विभीषिकाएं उत्पन्न करता है इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हम अपने चारों ओर पग-पग पर उपस्थित देखते हैं।

शालीनता ही एक मात्र वह आधार है जिसे अपना कर मनुष्य, सुखी, सन्तुष्ट रह सकता है और प्रगति पथ पर अनवरत क्रम से समूचे समुदाय के साथ आगे बढ़ता रह सकता है। उसकी जितनी उपेक्षा होगी दुष्परिणामों की उतनी ही वृद्धि होगी। आज के लाभ भर की बात समझने वाले सशक्त जीवधारी भी स्तर की दृष्टि से उपहासास्पद बने हुये हैं। मनुष्य भी यदि दूरदर्शिता, विवेकशीलता, न्यायनिष्ठा, सहकारिता, संयमशीलता, जैसी गरिमामयी सत्प्रवृत्तियों का अवलम्बन त्यागता है तो प्रस्तुत सम्पदा एवं चतुरता भी उसे दुर्गति से बचा नहीं सकेगी। बढ़े हुये साधन उसे अधिक तेजी से महाविनाश के गर्त में गिराने की भूमिका प्रस्तुत करेंगे।

सामयिक एवं भावी विपत्ति से बचने का शान्ति एवं प्रगति का उज्ज्वल भविष्य की संरचना का एक ही मार्ग है कि लोक चिन्तन एवं लोक व्यवहार में सदाशयता का उच्चस्तरीय समावेश हो। समाज में ऐसी परम्पराएं चलें जिससे एक दूसरे के प्रति स्नेह सम्मान का प्रतिपादन करे और संयम शीलता सच्चरित्रता में उदार सहयोग में एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिद्वन्द्विता करता दीख पड़े।

इन दिनों इसकी आवश्यकता तो समझी जा रही है, किन्तु उसके लिये जो प्रयत्न हो रहे हैं वे सर्वथा उथले, अधूरे, कागजी एवं सतही हैं। प्रवचन, लेखन, से आदर्शों की महत्ता बताने के प्रयत्न होते रहते हैं मानों किसी को इससे पूर्व उन बातों की जानकारी ही न रही हो। सच तो यह है कि जिन्हें उपदेश किये जाते हैं वे भी उसी तरह की शिक्षाएं अपने से छोटों को दिया करते हैं। फिर एक दूसरे के साथ इस प्रकार के खिलवाड़ जैसे विनोद कौतुक करने की विडम्बना रचता रहे तो इससे बनेगा क्या? लोक-चेतना की अवांछनीयता का असाधारण समावेश प्रचलन द्वारा उसका समर्थन पोषण ऐसा संकट है जिससे उबरने के लिए क्रान्तिकारी परिवर्तन करने होंगे। राजक्रान्ति कुशल योद्धाओं की रणनीति द्वारा सफल हो सकती है। अर्थ क्रान्ति के लिए उत्पादन उपयोग के दोनों पक्ष उस क्षेत्र के मूर्धन्य लोग सम्हाल सकें तो उतने भर से सम्पन्नता न सही निर्वाह की सुविधा तो निश्चित रूप से से बैठ सकती है। जापान की अर्थ नीति और प्रगति इसका उदाहरण है। लेनिन, अमानुल्ला, गांधी जैसे कुछेक लोग क्रान्तियां करके दिखाते रहे हैं। पर उस सामाजिक क्रान्ति के लिए असाधारण व्यूह रचना कराने एवं साधन जुटाने की आवश्यकता पड़ेगी। जिसमें नैतिक, और बौद्धिक, क्रान्ति के उत्कृष्टतावादी तत्वों का समुचित समावेश हो।

राष्ट्रपति एवं सामाजिक, प्रगति की बात सोचते समय इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि राष्ट्र या समाज का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। वे व्यक्तियों के समुच्चय का एक कल्पित नाम है। वस्तुतः इनकी प्रगति की, समृद्धि की, प्रखरता, समर्थता की बात सोचना हो तो उस क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तित्व का स्तर समझना होगा और उस क्षेत्र की विकृतियों को निरस्त एवं सत्प्रवृत्तियों को प्रखर बनाने की योजना बनानी होगी। इससे कम में बात बनती ही नहीं। साधनों से सुविधा बढ़ती है यह ठीक है। सुविधा सभी को चाहिए यह भी ठीक है। पर यह उससे ज्यादा ठीक है कि यदि व्यक्तित्व में निकृष्टता घुसी रहे तो बढ़ी हुई सम्पदा का दुरुपयोग होगा और फलस्वरूप उतनी विपत्तियां बढ़नी निश्चित हैं जितनी कि अभाव ग्रस्त स्थिति में सहन करनी पड़ती।

उलझी आंटी का छोर तलाश करते-करते बात वहां आकर रुकती है, जहां व्यक्तित्व स्तर का केन्द्र बिन्दु है। मनुष्य की सामर्थ्य असीम है पर उसे सत्प्रयोजनों में लगाने का अवसर भी तो मिले। यह कार्य कौन करे? निश्चित रूप से यह सामर्थ्य जीवन के उत्कृष्टतावादी दर्शन में ही है। दर्शन से तात्पर्य उस आस्था से है जो अन्तराल की गहन पर्तों का स्पर्श करती है। कानूनी नियम और बौद्धिक प्रशिक्षण तो इस दिशा में बहुत थोड़ी सहायता कर पाते हैं। सच तो यह है कि अन्तराल की आस्थाओं के निर्देशन विचारणा और क्रिया प्रक्रिया का वलात अनुकरण करना होता है। कानून और धर्मोपदेश दोनों ही उस स्थिति में अपंग बने रहते हैं। आस्था केन्द्र ही व्यक्तित्व का ध्रुव नाभिक है। उस क्षेत्र को स्पर्श किये बिना व्यक्तित्व को उत्कृष्टतावादी नहीं बनाया जा सकता। संक्षेप में दर्शन की इस सामर्थ्य को सर्वोपरि महत्व दिया जा सकता है। और उसे व्यक्ति एवं समाज का भाग्य विधाता कहा जा सकता है।
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