विचारक्रान्ति की आवश्यकता एवं उसका स्वरूप

बुद्धिवाद नीतिनिष्ठा का पक्षधर बने

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सभी प्राणियों को प्रकृति ने इतना सहज ज्ञान दिया है कि वे उसके सहारे अपनी शरीर यात्रा भर चलाते रह सकें। यों उसके अन्तराल में विभूतियों की कमी नहीं। वह इस दृष्टि से सम्पन्न सामर्थ्यवान है। पर पात्रता के अभाव में दुरुपयोग के लिए कोई क्यों अपना वैभव लुटाये? प्रकृति को कृपण तो नहीं कहेंगे, पर वह अदूरदर्शी भी नहीं है। जो जितना सम्भाल सके उसे उतना ही दिया जाय, इस सन्दर्भ में उसने सदा व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया है। इस परीक्षा में मनुष्य ने सदा से ही आगे रहने की चेष्टा की और तदनुरूप प्रकृति का आंचल उठाकर एक के बाद एक बहुमूल्य विभूतियां हस्तगत करने में सफलता पाई।

वायु प्रदूषण, आणविक विकिरण, जल प्रदूषण, ऊर्जा स्रोतों का अत्यधिक दोहन, विलास के साधनों का अमर्यादित उपयोग, प्रलयंकर शस्त्रास्त्रों का निर्माण और उनकी असंख्य देशों में बढ़ती प्रतिस्पर्धा जैसे संकट भरे कदम महाप्रलय जैसी चुनौती सामने लेकर खड़े हैं। एक ओर विज्ञान क्षेत्र के मनीषी मूर्धन्यों के सामने यह समस्या है कि इस दुरुपयोग को कैसे रोका जाय और उनके कारण उत्पन्न हो रहे अनेकानेक विग्रहों, संकटों से कैसे उबारा जाय? दूसरी ओर एक और प्रश्न भी उनके सामने है कि मनुष्य का अधिक सुखी समुन्नत बना सकने का प्रयोजन पूरा करने के लिए किन नये शोध क्षेत्रों में प्रवेश किया जाय। इनकी नीति क्या हो व इसकी मर्यादा को कहां किस प्रकार बांधा जाय? दोनों ही प्रश्न मानवीय बुद्धिमता के समक्ष एक प्रश्न चिन्ह बनकर खड़े हैं और कहते हैं कि समाधान न निकला तो विज्ञान अपना पोषण धर्मी रूप त्यागकर महारुद्र बनेगा और प्रलय का ताण्डव नृत्य आरम्भ करेगा। आखिर नियति ही है। मनुष्य को सीमित सुविधा छूट ही दे सकती है। औचित्य का अतिक्रमण सहन नहीं कर सकती। इसलिये मूर्धन्य विचारकों के अनुसार विनाश और विकास के मध्य झूलने वाले हलके से धागे को सही दिशा देना ही वह कार्य है जिस पर वर्तमान का समाधान तथा भविष्य का निर्धारण पूर्णतया अवलम्बित है।

आज की सबसे बड़ी समस्या है दुरुपयोगी को रोकना और उपयोगी को अपनाना। इसका समाधान पाने हेतु समुद्र जितनी गहराई में उतरने तथा अन्तरिक्ष को मथ डालने वाली मनीषी का समग्र मन्थन करने पर एक ही निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि निर्धारण की कसौटी ‘उत्कृष्ट आदर्शवादिता’ को अपना कर चला जाय और उसकी छत्र-छाया में हर स्तर का निर्णय लिया जाय। मानवी सत्ता की उच्चस्तरीय विशिष्टता एक ही है— ‘‘आदर्शों के प्रति आस्था’’। इसी ने उसे चिन्तन के क्षेत्र में उत्कृष्टता और व्यवहार के क्षेत्र में उदार सहकारिता जैसी सत्प्रवृत्तियां प्रदान की हैं और उसकी गौरव गरिमा को बढ़ाया है। इस विशिष्टता की जितनी उपेक्षा की जायेगी उतनी ही विपत्ति उभरेगी और विनाश की विभीषिका बढ़ेगी। इस सत्प्रवृत्ति को पुरातन भाषा में ‘‘आध्यात्मिकता’ कहा जाता है। यह शब्द किसी को अटपटा लगता हो तो ‘‘दूरदर्शी आदर्शवादिता’’ जैसा कोई शब्द देने में किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिये। यही है वह कसौटी जिस पर अद्यावधि प्रगति के उपयोग में हुई भूलों को सुधारना और जो उपलब्ध है, उसका सर्वहित में सदुपयोग कर सकना सम्भव हो सकता है। साथ ही इसी आधार को अपनाकर विज्ञान की भावी दिशाधारा का उपयुक्त निर्धारण हो सकता है। विज्ञान ने पदार्थ जगत में असीम चमत्कार उत्पन्न किये हैं। अब उसका काम है कि मानवी चिन्तन, चरित्र और लोक परम्पराओं को प्रभावित करे। इन क्षेत्रों में घुसी हुई भ्रान्तियों एवं अवांछनीयताओं को उसी प्रकार निरस्त करें जिस प्रकार उसने पिछले दिनों भौतिक जगत को वस्तु स्थिति के सम्बन्ध में यथार्थता की जानकारी रखते हुए सत्य की शोध का अधिष्ठाता कहलाने वाले श्रेय सम्मान पाया और अपना महान उत्तरदायित्व निभाया है। उसकी यह सेवा पिछली सहस्राब्दियों में प्रस्तुत किये गये अनुदानों की तुलना में अकेली ही अत्यधिक भारी भरकम सिद्ध होगी। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि ‘‘जो धर्म वैज्ञानिक अनुशासन पर सही न ठहराया जा सके उसे नष्ट कर देना चाहिये। जितनी जल्दी ये अनावश्यक अन्ध परम्परायें व मूढ़ मान्यतायें धर्म से निकाल दी जायें, उतना ही ठीक हैं। जब यह सब हो चुकेगा तो जो कुछ भी बच रहेगा, वह बहुत उज्ज्वल, शाश्वत व अपनाने योग्य होगा।’’ वस्तुतः विज्ञान और अध्यात्म का, सम्पदा और उत्कृष्टता का, शक्ति और शालीनता का, बुद्धि और नीति-निष्ठा का समन्वय अपने युग का सबसे बड़ा चमत्कार समझा जायेगा। विज्ञान क्षेत्र पर छाई हुई मनीषा को यह युग धर्म निभाना ही चाहिये।

विज्ञान युग के प्रारम्भिक दिनों में पदार्थ की ही सत्ता मानी गयी थी और कहा गया था कि चेतना का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। मान्यता यह थी कि विश्व पदार्थमय है। जड़-चेतन के नाम से जाने वाले सभी घटक मात्र पदार्थ हैं। अस्तु उनकी नियति भी पदार्थ जैसी ही है। पर अब उस मान्यता में सुधार परिवर्तन करने का समय आ गया। पिछली दो शताब्दियों की खोजों ने यह मान्यता विकसित की है कि चेतना का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। वह प्राणियों में पृथक-पृथक इकाइयों के रूप में दृष्टिगोचर होती है, किन्तु उसका समग्र रूप ब्रह्माण्डव्यापी है। प्रकृति की तरह ही चेतना की सीमा एवं क्षमता अनन्त है। इतना ही नहीं, चेतना के वरिष्ठ होने के कारण उस क्षेत्र की उपलब्धियां भी तुलनात्मक दृष्टि से अत्यधिक है। इंजन कितना ही सशक्त क्यों न हो, उसे चलाने के लिये चेतन ड्राइवर भी चाहिए। ‘ऑटोमेटिक’ कहलाने वाली मशीनें भी किसी न किसी रूप में संचालन से लेकर विश्व-व्यवस्था में एक अदृश्य चेतना शक्ति काम करती है।

विज्ञान की ‘इकॉलाजी’ धारा ने इन दिनों पूरे जोर−शोर और साहस विश्वास के साथ यह सिद्ध करना आरम्भ कर दिया है कि प्रकृति से मात्र शक्ति एवं क्रिया की जुड़ी नहीं है, एक और भिन्न क्रिया भी आच्छादित है, जिसे दूरदर्शी—सन्तुलन बिठाने—औचित्य अपनाने से लेकर सुखद सम्भावनायें अपनाने तक की विशेषताओं से सुसम्पन्न कहा जा सकता है। यह विशिष्टता जड़ पदार्थों में स्वभावतः नहीं पाई जाती। फिर भी उस प्रक्रिया का अस्तित्व ही नहीं सुदृढ़ अनुशासन भी प्रामाणित हो रहा है। इस दिशा में परामनोविज्ञान, पराभौतिकी आदि अन्य विज्ञान धाराओं ने भी अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर समर्थन आरम्भ कर दिया है। स्थिति बदलती जा रही है और चेतना का स्वतन्त्र अस्तित्व मानने की विवशता बढ़ती जा रही है। मनीषी आइन्स्टीन ने अपने अन्तिम दिनों में प्रायः अर्ध आस्तिकता स्वीकार कर ली थी और वे चेतना की सत्ता एवं वरिष्ठता मानने लगे थे। तब से लेकर अब तक और भी बहुत कुछ हुआ है। वह सभी ऐसा है जो चेतना की सामर्थ्य को पदार्थ में सन्निहित क्षमता से भी अधिक सामर्थ्यवान एवं उपयोगी सिद्ध करता है। पुरातन भाषा में ब्रह्मांडीय चेतना को परब्रह्म के नाम से और उसके वैयक्तिक अस्तित्व को आत्मा कहा जाता था। अब विज्ञान के लिये विश्वचेतना एवं व्यक्ति चेतना के अस्तित्व से इन्कार करना उतना आसान नहीं रह गया जितना कि एक शताब्दी पूर्व था।

चेतना का क्षेत्र निस्सन्देह उससे भी कहीं अधिक समर्थता से भरा-पूरा है जितना कि अब तक पदार्थ जगत को जाना पाया गया है। पदार्थ में मात्र शक्ति एवं क्रिया है, जबकि चेतना में कहीं अधिक ऊंचे स्तर की ऐसी क्षमता विद्यमान है जो पदार्थ को सदुपयोग में नियोजित कर सके। इतना ही नहीं, उसमें कुछ ऐसी विशेषताएं भी हैं जो व्यक्ति की विचारणा, भावना, आस्था, आकांक्षा, को पाशविक प्रवृत्तियों से विरत करे उसे उच्चस्तरीय भावभूमिका में पहुंचा सके, जिसमें सज्जन, महामानव, सन्त-सुधारक, ऋषि, देवदूत एवं भगवान निवास करते हैं। कहना न होगा कि ऐसे व्यक्ति ही अपने समय एवं संसार की सर्वोच्च विभूति कहलाते हैं। उनके आदर्शों का अनुकरण करके अनेकों को ‘महान’ बनाने का उत्साह, प्रकाश एवं श्रेय प्राप्त होता है। स्पष्ट है कि धन, शस्त्र, शिक्षा-बल, कला आदि समस्त वैभव एक तराजू के एक पलड़े पर और महामानवों के व्यक्तित्वों को दूसरे पलड़े पर रखा जाय तो गरिमा सम्पदा की नहीं, सज्जनता, श्रेष्ठता की ही सिद्ध होगी। संसार के इतिहास में से ईसा, जरथुस्त्र, मेजिनी, बुद्ध, गांधी, लिंकन, कन्फ्यूशियस, अरस्तु, कागाबा, विवेकानन्द को निकाल दिया जाय तो फिर वह मात्र अनाथ असहाय भौंड़ी भीड़ का झुण्ड भर रह जाता है। समय आ गया कि अब हम विशालकाय संयन्त्रों तथ्य तक सीमित न रहें, उच्चस्तरीय प्रतिभाएं उत्पन्न करने के लिए प्रयास करें। उसके लिए विज्ञान के सहकार की नितान्त आवश्यकता है।

प्रकारान्तर से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि विश्ववसुधा में श्रेष्ठता सम्वर्धन के लिये अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय सम्भव किया जाय। उत्कृष्टता की पक्षधर मान्यताओं, आकांक्षाओं, उमंगों का उत्पादन कभी अध्यात्म तत्वज्ञान अकेला ही कर लेता था। उन दिनों साहित्य, संगीतकला आदि के सम्वेदनात्मक माध्यम पूरी तरह अध्यात्म का समर्थन सहयोग करते थे। आज जब पदार्थ ही सब कुछ है तो चिन्तन और चरित्र की पक्षधर आस्थाओं को अपनाने की पृष्ठभूमि कैसे बने? वह न बने तो फिर महामानवों का उद्भव कैसे हो? ये न उपजें तो विश्व व्यवस्था का सदाशयता सम्पन्न नवनिर्माण किस प्रकार संभव हो?

इन प्रश्नों का उत्तर भी विज्ञान को ही देना होगा क्योंकि पुरातन अध्यात्म अपनी निजी दुर्बलताओं और अनास्थापरक प्रत्यक्षवादी प्रतिपादनों के कारण जराजीर्ण हो चुका। इससे वर्तमान परिस्थितियों में किसी चमत्कार की आशा कहीं ही जा सकती। इसका उपयोग तो इतना भर है कि वर्तमान खंडहर को हटाकर पुरानी मजबूत नींव पर नये भवन का निर्माण कर दिखाया जाय। मरणासन्न धर्म को अमृत संजीवनी पिलाने का काम भी विज्ञान के हनुमान को करना होगा। यह उत्तरदायित्व उसी का है कि प्रस्तुत साधनों का उपयोग करके न केवल प्रशिक्षण प्रतिपादन के लिये उत्कृष्टता समर्थक वातावरण बनायें—साधन जुटायें वरन् ऐसे उपाय भी खोजें जिनसे काय कलेवर एवं मनःसंस्थान की रहस्यमय क्षमताओं को उभार कर सामान्यों को असामान्य बनाया जा सकना सम्भव हो सके।
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