विचारक्रान्ति की आवश्यकता एवं उसका स्वरूप

मानवीय संवेदनाओं को पोषण दें— रौंदे नहीं

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
मनुष्य आत्म हत्या जैसे जघन्य पाप करने पर क्यों उतारू होता है? इस सम्बन्ध में विभिन्न स्तर के विद्वानों के विविध मत हैं। बहुसंख्यक अर्थ शास्त्री आत्महत्याओं को कारण अभाव एवं गरीबी को मानते हैं। समाज शास्त्रियों का कहना है कि पारिवारिक एवं सामाजिक परिस्थितियों से ऊब कर ही मनुष्य आत्म हत्या के लिए सचेष्ट होता है। मनो-वैज्ञानिकों के अनुसार मनःविक्षोभों से उत्पन्न होने वाले मानसिक असन्तुलन ही आत्म-हत्याओं के कारण बनते हैं, अर्थ शास्त्रियों, समाज शास्त्रियों एवं मनः-शास्त्रियों के निष्कर्ष एक सीमा तक सही हो सकते हैं पर गहराई से विचार करने पर यह पता चलता है कि आर्थिक, समाजिक अथवा मनः विक्षोभ जैसे छोटे कारण उतने महत्वपूर्ण नहीं है जिसके कारण मनुष्य अपने जीवन को ही समाप्त कर लेने की बात सोचे। वस्तुतः भविष्य के प्रति घोर निराशा की भावना से अभिप्रेरित होकर वह आत्म घाती कदम उठाने की कोशिश करता है।

निराशा को जन्म देने में अपनी तथा दूसरों की अपेक्षा अवमानना ही प्रमुख कारण बनती है। सहानुभूति और आत्मीयता मिलती रहे तो मनुष्य कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हंसती-हंसाती जिन्दगी जी सकता है और अभावों में—दुख क्लेशों में भी अपनी सहज मस्ती बनाये रख सकता है। इसके विपरीत सहानुभूति न मिलने तथा उपेक्षा तिरस्कार सहते रहने से जीने की अभिरुचि नहीं रहती। साधनाओं की अनुकूलता रहते हुए भी निराश युक्त मनःस्थिति बन जाती है और स्वयं का जीवन भारभूत जान पड़ता है।

अर्थाभाव और सामाजिक परिस्थितियां आत्महत्या की घटनाओं के लिए जिम्मेदार होतीं तो सर्वाधिक आत्महत्यायें गरीबी से त्रस्त पिछड़े और अविकसित समाज में होतीं। पर सर्वेक्षणों से प्राप्त निष्कर्ष यह बताते हैं कि सम्पन्न, सुविकसित तथा प्रगतिशील समाज में आत्महत्या की घटनाएं अधिक घटित होती हैं। जब कि कितनी ही जंगली, असभ्य जातियां घोर गरीबी में जीवन यापन कर रही हैं। उनका कोई विकसित समाज भी नहीं है फिर भी उनमें ऐसी घटनाएं यदा-कदा ही घटती हैं। जो समाज और देश जितने ही अधिक सम्पन्न और विकसित हैं उनमें आत्महत्या जैसे अपराध उतने ही अधिक होते पाये गये हैं। अतीत और वर्तमान के समय का तुलनात्मक अध्ययन करने पर भी यह बात स्पष्ट हो जाती है। जैसे-जैसे मनुष्य प्रगति की ओर अग्रसर हुआ है उसी अनुपात में उपरोक्त घटनाओं में अभिवृद्धि हुई। यह इस बात का परिचायक है कि प्रगतिशील कहे जाने वाले आज के समाज में जीवन के प्रति निराशावादी दृष्टि अधिक बलवती होती जा रही है। जिसका प्रमुख कारण है—पर परस्पर एक दूसरे के प्रति सघन आत्मीयता सहानुभूति का अभाव। बढ़ता हुआ ‘निरंकुश बुद्धिवाद’ मानवीय सम्वेदनाओं को रौंदता हुआ चला जा रहा है।

‘स्ट्रगल फार एक्जिस्टेन्स एण्ड सरवाइवल आफ दी फीटेस्ट’ का डार्विन वादी सिद्धान्त बुद्धिवाद द्वारा एक आदर्श के रूप में प्रगतिशीलता के पर्याय के रूप में अपनाया जा रहा है। समर्थ ही जीवित रहें इस जीवन दर्शन को यदि सर्वत्र मान्यता मिल गयी तो इससे बढ़कर मनुष्य जाति के लिए और दूसरी कोई दुर्भाग्य की बात नहीं होगी। फिर मनुष्य और पशु समाज में प्रकृति की दृष्टि से विशेष भिन्नता न होगी। साधन एवं बुद्धि सम्पन्न होते हुए भी भाव सम्वेदनाओं की दृष्टि से मनुष्य आदिम मानव जैसा ही होगा। समाज में असमर्थों का एक वर्ग ऐसा भी होता है जिनकी देखरेख, सुरक्षा एवं संरक्षण की जिम्मेदारी समर्थों के ऊपर होती है। उन्हें साधन सुविधाएं ही नहीं प्यार-दुलार एवं सहानुभूति की भी उतनी ही जरूरत होती है। यदि यह सब न मिले तो उनमें घोर निराशा की भावना जन्म लेने लगती है। अपनी असमर्थता और समर्थों की उपेक्षा तिरस्कार की दुहरी मार से ग्रस्त व्यक्ति जीवन को भारभूत समझने लगता है। ऐसे ही व्यक्तियों में से अधिकांशतः आत्म हत्या के लिए चेष्टा करते हैं। विश्व के मूर्धन्य समाज शास्त्रियों एवं मनोवैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि ‘आत्म हत्या करने वालों में विधवा, विधुर, तलाकशुदा, निःसन्तान, अविवाहित तथा असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या अधिक होती है। परिवार एवं सामाजिक तिरस्कार को न सह पाने के कारण इनकी मनःस्थिति इस योग्य नहीं रह पाती कि परिस्थितियों से संघर्ष कर सकें। उन्हें आत्महत्या का मार्ग ही सरल जान पड़ता है।

जहां असमर्थों के प्रति सहानुभूति दर्शाने सहयोग करने से उनमें जीवन के प्रति आस्था पैदा होती तथा जीने की उमंग जगती है, वहां दूसरी ओर मानवता के मेरुदंड भाव सम्वेदनाओं को पोषण मिलता है तथा उन्हें जीवन्त बने रहने का सुअवसर मिलता है। व्यक्ति अथवा समाज में सहृदयता का विकास कितना अधिक हुआ यही वह आधार है जिसके द्वारा यह बताया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति अथवा अमुक समाज कितना सुविकसित है। मानवीय भाव-सम्वेदनाओं के विनष्ट होने से समाज में बर्बरता-निष्ठुरता की मात्रा बढ़ती जायेगी। हर व्यक्ति अपने को असुरक्षित और एकाकी महसूस करेगा।

भौतिकवादी एकांगी दृष्टि से पिछले दिनों इस तथ्य की उपेक्षा की है। बुद्धिवाद जीवन पर हावी है, जिसने सहृदयता की उपयोगिता एवं गरिमा को नकारा है। समर्थों द्वारा असमर्थों की उपेक्षा इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। इसमें एक खतरनाक कड़ी और जुड़ने जा रही है। पश्चिमी देशों में बुद्ध जीवियों ने यह आवाज उठायी है कि वृद्धों अपाहिजों तथा असाध्य रोगियों को स्वेच्छा से मरने का कानूनी अधिकार दिया जाय। प्रकारान्तर से यह आत्म हत्या जैसे अपराध का खुला समर्थन है। प्रत्येक धर्मों तथा समाज की मानवीय आचार संहिताओं ने आत्मघात को हत्या की भांति एक जघन्य अपराध माना है। तथा यह घोषणा की है कि मनुष्य को अपने जीवन अथवा दूसरों के जीवन को समाप्त करने का कोई अधिकार नहीं है। यह प्रक्रिया अदृश्य सत्ता के हाथों संचालित है। विश्व के प्रत्येक देश की कानूनी आचार संहिताओं ने भी आत्म हत्या को एक अपराध की श्रेणी में रखा है। स्वेच्छा पूर्वक मरने के अधिकार की मांग को अभी कानूनी मान्यता नहीं मिली है।

पर उठती हुई यह आवाज इस तथ्य का बोध कराती है कि मानवी मूल्यों का बुरी तरह ह्रास हो रहा है तथा हृदय की संवेदनशीलता समाप्त होती जा रही है रुग्ण असमर्थों को कष्टों से मुक्ति दिलाना उपरोक्त मांग का प्रमुख लक्ष्य कहा जा रहा है पर यह वस्तुतः रूखे बुद्धिवादियों की आन्तरिक संवेदन शून्यता का ही परिचायक है। सन् 1932 में सर्वप्रथम ब्रिटेन की संसद में स्वेच्छा पूर्वक मरने के अधिकार की मांग उठी। सन् 1936, 1950 में भी इस तरह का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया पर तीनों ही बार इसे संसद द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया। सन् 1970 में ब्रिटिश सांसदों ने पुनः संसद के समक्ष यह विधेयक रखा कि वयोवृद्धों तथा असाध्य रोगों से ग्रस्त लोगों को मरने के लिए वैधानिक अधिकार दिया जाय। इस प्रस्ताव से मूर्धन्य चिकित्सकों एवं वकीलों का समर्थन प्राप्त था पर संसद द्वारा अमानवीय कह कर निरस्त कर दिया गया। ऐसा ही प्रस्ताव अमेरिका में भी रखा गया पर कांग्रेस द्वारा अस्वीकृत हो गया। इन दिनों स्वेच्छा से मरने का अधिकार सम्बन्धी मांग विभिन्न देशों में और भी तीव्रता से उठने लगी है। ब्रिटेन, फ्रांस, कनाडा, पश्चिम जर्मनी, रूस आदि विकसित देशों के विकसित देशों के बुद्धि जीवी, डॉक्टर, वकील, कानून विशारद इसे औचित्य पूर्ण ठहराने लगे हैं। 1980 में ‘‘न्यू इंग्लैण्ड जनरल आफ मेडिसीन’’ में प्रकाशित एक विवरण के अनुसार ‘येलन्यूहेवन’ नामक अस्पताल में लगभग ढाई वर्षों की अवधि में सैकड़ों अपाहिज बच्चों को उनके माता-पिता ने ऊबकर चिकित्सकों के सहयोग से दवाओं के माध्यम से मरने में योगदान दिया है।

एक समाचार के अनुसार इंग्लैण्ड में प्रतिवर्ष तीन सौ से लेकर पांच सौ अपंग-विकलांग बच्चों को तीव्र विषैली दवाओं के माध्यम से चिकित्सालयों में मार दिया जाता है। इंग्लैण्ड के मानवतावादियों ने बढ़ती हुई इस प्रवृत्ति की कड़ी आलोचना की है। पश्चिमी देशों में असाध्य रोगों से पीड़ित मरीजों को स्वेच्छा से मरने दिया जाय अथवा नहीं यह एक सर्वाधिक चर्चित विषय बन गया है। स्वेच्छा मृत्यु की विभिन्न प्रकार की तकनीक पर कितने ही विद्वानों ने पुस्तकें लिखनी भी आरम्भ कर दी हैं। ब्रिटेन में एक नया ‘एक्जिट’ नामक संगठन बना है जिसके सदस्य स्वेच्छा मृत्यु वरण को औचित्य पूर्ण बताते हुए जोरदार प्रतिपादन एवं प्रचार करते हैं। सदस्यों की संख्या लगभग नौ हजार है। संगठन की एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है, ‘एनाइडटू सेल्फ डिलिवरेन्स’ जिसमें यह बताया गया है कि रुग्ण अपंग और असमर्थ जीवन समाज एवं स्वयं पीड़ित व्यक्ति के लिए क्यों अनुपयोगी और निरर्थक है। पुस्तक में यह भी वर्णन है कि कब और किन परिस्थितियों में व्यक्ति को आत्म हत्या कर लेनी चाहिए। इसकी सरल विधि कौन-कौन सी हो सकती है इसका इसमें विस्तृत उल्लेख किया गया है। दस अमेरिकी राज्यों में तो ‘नेचुरल डेथ एक्ट’ भी अब पारित हो चुका है जिसके अन्तर्गत कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में डाक्टरों की गठित एक विशेष समिति की सहमति से न्यायालय कैन्सर आदि असाध्य रोग से पीड़ित रोगियों को मरने का अधिकार दे देता है।

धर्म, संस्कृति और अध्यात्म के संदेशवाहक तथा अहिंसा के पुजारी भारत जैसे देश में भी पिछले कुछ दिनों से यह मांग की जाने लगी है कि असाध्य रोगियों की कष्ट मुक्ति के लिए उन्हें स्वेच्छापूर्वक मरने की अनुमति दी जाय। इस सन्दर्भ में एक सांसद ने वर्ष 1980 में सदन के समक्ष ‘मर्सी किलिंग बिल-80’ प्रस्तुत किया जिसमें यह कहा गया था कि ऐसे व्यक्ति जो अपनी असमर्थता अथवा असाध्य रोगों के कारण परिवार और समाज पर भार बने हुए हैं उनकी प्रार्थना पर मरने का अधिकार प्रदान किया जाय। सम्बन्धित प्रस्ताव का कानून पारित कर वैध घोषित किया जाय। प्रस्ताव तो रद्द हो गया पर अपने देश में पश्चिमी भौतिकवादी देशों की भांति इस तरह की अमानवीय मांग का उठाना कम चिन्ता की बात नहीं है। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि मानवीय गरिमा को विभूषित करने वाली सहृदयता की मात्रा यहां भी घटती जा रही है। समर्थों को ही जीने का अधिकार है, इस उपयोगितावादी दर्शन को यदि मान्यता मिल गयी तो अनास्था को और भी अधिक बढ़ावा मिलेगा। फिर अनावश्यक रूप से कोई किसी के लिए न तो कष्ट उठायेगा और न ही सहयोग करेगा। जिनसे कुछ प्रत्यक्ष लाभ की गुंजाइश दीखेगी, उपयोगिता उन्हीं की स्वीकारी जायेगी। असमर्थ बाल वृद्धों, अपाहिजों, असाध्य रोगियों को समाज के लिए अनुपयोगी और भारभूत मानकर तिरस्कृत कर देने से निष्ठुरता को प्रोत्साहन मिलेगा। अस्तु निरंकुश बुद्धिवाद ने हृदय की संवेदन शीलता को समाप्त करने के लिए जिस उपयोगितावादी दर्शन को मान्यता दी है उसे निरस्त करना होगा इसके लिए ऐसा वातावरण विनिर्मित करने की आवश्यकता है जिससे उदार आत्मीयता एवं सदाशयता को प्रोत्साहन मिले। सहृदयता को हर कीमत पर जीवन्त रखने में मनुष्य अपना गौरव समझे। समर्थता वही अभिनन्दित हो जो करुणा से अनुप्राणित हो। उस बुद्धि की प्रखरता की सराहना की जाय जो पीड़ा पतन के निवारण में संलग्न हो। संकीर्ण स्वार्थों में लिप्त समर्थता की भर्त्सना की जाय।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118