जीवन देवता की साधना-आराधना

साप्ताहिक और अर्द्ध वार्षिक साधनाएँ

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मोटर के पहियों में भरी हवा धीरे- धीरे कम होने लगती है। उसमें थोड़े समय के बाद नई हवा भरनी पड़ती है। रेल में कोयला- पानी चुकता है तो दुबारा भरना पड़ता है। पेट खाली होता है तो नई खुराक लेनी पड़ती है। जीवन का एक सा ढर्रा नीरस बन जाता है, तब उसमें नई स्फूर्ति संचारित करने के लिये नया प्रयास करना पड़ता है। पर्व- त्यौहार इसीलिये बने हैं कि एक नया उत्साह उभरे और उस आधार पर मिली स्फूर्ति से आगे का क्रिया- कलाप अधिक अच्छी तरह चले। रविवार की छुट्टी मनाने के पीछे भी नई ताजगी प्राप्त करना और अगले सप्ताह काम आने के लिये नई शक्ति अर्जित करना है। संस्थाओं के विशेष समारोह भी इसी दृष्टि से किये जाते हैं कि उस परिकर में आई सुस्ती का निराकरण किया जा सके। प्रकृति भी ऐसा ही करती रहती है। घनघोर वर्षा और खिलखिलाती वसन्त ऋतु ऐसी ही नवीनता भर जाती है। विवाह और निजी पुरुषार्थ की कमाई इन दो आरम्भों को भी मनुष्य सदा स्मरण रखता है उनमें उत्साहवर्द्धक नवीनता है।

    जीवन साधना का दैनिक कृत्य बताया जा चुका है। उठते आत्मबोध, सोते तत्त्वबोध। प्रथम पहर भजन, तीसरे पहर मनन, ये चार विधायें नित्यकर्मों में सम्मिलित रहने लगे तो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चारों आधार बन पड़ते हैं। चार पाये की चारपाई होती है और चार दीवारों की इमारत। चार दिशायें, चार वर्ण, चार आश्रमों ,, अन्तःकरण चतुष्टय प्रसिद्ध हैं। प्रज्ञायोग की दैनिक साधना में उपरोक्त चार आधारों का सन्तुलित समन्वय है। उन सभी में कर्मकाण्ड घटा हुआ है और भाव चिन्तन बढ़ा हुआ। इससे लम्बे कर्मकाण्डों की उलझन में उद्देश्य से भटक जाने की आशंका नहीं रहती ।। भावना और आकांक्षा सही बनी रहने पर बुद्धि द्वारा निर्धारण सही होते रहते हैं। स्वभाव और कर्म- कौशल का क्रम भी सही चलता रहता है। नित्यकर्म की नियमितता स्वभाव का अंग बनती है और फिर जीवन क्रम उसी ढाँचे में ढलता चला जाता है।

    जीवन साधना के दो विशेष पर्व हैं- एक साप्ताहिक दूसरा अर्द्ध वार्षिक। साप्ताहिक व्रत आमतौर से लोग रविवार, गुरुवार को रखते हैं। पर परिस्थितियों के कारण यदि कोई अन्य दिन सुविधाजनक पड़ता है तो उसे भी अपनाया जा सकता है। अर्द्धवार्षिक में आश्विन और चैत्र की दो नवरात्रियाँ आती हैं। इनमें साधना नौ दिन की करनी पड़ती है। इन दो पर्वों की विशेष उपासना को भी अपने निर्धारण में सम्मिलित रखने से बीच में जो अनुत्साह की गिरावट आने लगती है, उसका निराकरण होता रहता है। इनके आधार पर जो विशेष शक्ति उपार्जित होती है, उससे शिथिलता आने का अवसाद निपटता रहता है।

    साप्ताहिक विशेष साधना में चार विशेष नियम विधान अपनाने पड़ते हैं। ये हैं- १ उपवास, (२) ब्रह्मचर्य, (३) मौन तथा (४) प्राण संचय। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिनके लिये मात्र संयम ही अपनाना पड़ता है। दो के लिये कुछ कृत्य विशेष करने पड़ते हैं। जिह्वा और जननेन्द्रिय, यही दो दसों इन्द्रियों में प्रबल हैं। इन्हें साधने से इन्द्रियसंयम सध जाता है। यह प्रथम चरण पूरा हुआ तो समझना चाहिये कि अगले मनोनिग्रह में कुछ विशेष कठिनाई न रह जायेगी।

जिह्वा का असंयम अतिमात्रा में अभक्ष्य भक्षण के लिये उकसाती है। कटु, असत्य, अनर्गल और असत् भाषण भी उसी के द्वारा बन पड़ता है। इसलिये एक ही जिह्वा को रसना और वाणी इन दो इन्द्रियों के नाम से जाना जाता है। जिह्वा की साधना के लिये अस्वाद का व्रत लेना पड़ता है। नमक, मसाले, शक्कर, खटाई आदि के स्वाद जिह्वा को चटोरा बनाते हैं। सात्विक और सुपाच्य पदार्थों की उपेक्षा करते हैं। तले, भुने, तेज मसालों वाले, मीठे पदार्थों में जो चित्र- विचित्र स्वाद मिलते हैं, उनके लिये जीभ ललचाती रहती है। इस आधार पर अभक्ष्य ही रुचिकर लगता है। ललक में अधिक मात्रा उदरस्थ कर ली जाती है, फलत: पेट खराब रहने लगता है। सड़न से रक्त विषैला होता है और दूषित रक्त अनेकानेक बीमारियों का निमित्त कारण बनता है। इस प्रकार जिह्वा की विकृतियाँ जहाँ सुनने वालों को पतन के विक्षोभ के गर्त में धकेलती हैं, वहाँ अपनी स्वस्थ्यता पर भी कुठाराघात करती हैं। इन दोनों विपत्तियों से बचाने में जिह्वा का संयम एक तप साधना का प्रयोजन पूरा करता है। नित्य न बन पड़े तो सप्ताह में एक दिन तो जिह्वा को विश्राम देना ही चाहिये, ताकि वह अपने उपरोक्त दुर्गुणों से उबरने का प्रयत्न कर सके।

    उपवास पेट का साप्ताहिक विश्राम है। इससे छह दिन की विसंगतियों का सन्तुलन बन जाता है और आगे के लिये सही मार्ग अपनाने का अवसर मिलता है। जल लेकर उपवास न बन पड़े तो शाकों का रस या फलों का रस लिया जा सकता। दूध, छाछ पर भी रहा जा सकता है। इतना भी न बन पड़े तो एक समय का निराहार तो करना ही चाहिये। मौन पूरे दिन का न सही किसी उचित समय दो घंटे का तो कर ही लेना चाहिये। इस चिह्न पूजा से भी दोनों प्रयोजनों का उद्देश्य स्मरण बना रहता है और भविष्य में जिन मर्यादाओं का पालन किया जाता है, उस पर ध्यान केन्द्रित बना रहता है। साप्ताहिक विशेष साधना में जिह्वा पर नियन्त्रण स्थापित करना प्रथम चरण है।

    द्वितीय आधार है- ब्रह्मचर्य नियत दिन शारीरिक ब्रह्मचर्य तो पालन करना ही चाहिये। यौनाचार से तो दूर ही रहना चाहिये, साथ ही मानसिक ब्रह्मचर्य अपनाने के लिये यह आवश्यक है कि कुदृष्टि का, अश्लील कल्पनाओं का निराकरण किया जाये। नर नारी को देवी के रूप में और नारी नर को देवता के रूप में देखे तथा श्रद्धा भरे भाव मन पर जमायें। भाई- बहन पिता- पुत्री माता- सन्तान की दृष्टि से ही दोनों पक्ष एक दूसरे के लिये पवित्र भावनायें उगायें। यहाँ तक कि पति- पत्नी भी एक दूसरे के प्रति अर्द्धांग की उच्चस्तरीय आत्मीयता संजोये। अश्लीलता को अनाचार का एक अंग माने और उस प्रकार के दुश्चिन्तन को पास न फटकने दें।

सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य तभी सधता है, जब शरीरसंयम के साथ- साथ मानसिक श्रद्धा का भी समन्वय रखा जाय। इससे मनोबल बढ़ता है और कामुकता के साथ जुड़ने वाली अनेकानेक दुर्भावनाओं से सहज छुटकारा मिलता है। सप्ताह में हर दिन इस लक्ष्य पर भावनायें केन्द्रित रखी जाय तो उसका प्रभाव भी अगले छह दिनों तक बना रहेगा।

    तीसरा साप्ताहिक अभ्यास है- प्राण संचय। एकान्त में नेत्र बन्द करके अन्तर्मुखी होना चाहिये और ध्यान करना चाहिये कि समस्त विश्व में प्रचण्ड प्राण चेतना भरी हुई है। आमन्त्रित आकर्षित करने पर वह किसी को भी प्रचुर परिमाण में कभी भी उपलब्ध हो सकती है। इसकी विधि प्राणायाम है। प्राणायाम के अनेक विधि- विधान हैं। पर उनमें से सर्वसुलभ यह है कि मेरुदण्ड को सीधा रखकर बैठा जाये। आँखें बन्द रहें। दोनों हाथ घुटनों पर। शरीर को स्थिर और मन को शान्त रखा जाय।

    साँस खींचते समय भावना की जाये कि विश्वव्यापी प्राण चेतना खिंचती हुई नासिका मार्ग से सम्पूर्ण शरीर में प्रवेश कर रही है। उसे जीवकोष पूरी तरह अपने शरीर में धारण कर रहे हैं। प्राण प्रखरता से अपना शरीर, मन और अन्तःकरण ओतप्रोत हो रहा है। साँस खींचने के समय इन्हीं भावनाओं को परिपक्व करते रहा जाये। साँस छोड़ते समय यह विचार किया जाये कि शारीरिक और मानसिक क्षेत्रों में घुसे हुये विकार साँस के साथ बाहर निकल रहे हैं और उनके वापस लौटने का द्वार बन्द हो रहा है। इस बहिष्करण के साथ अनुभव होना चाहिये कि भरे हुए अवांछनीय तत्त्व हट रहे हैं और समूचा व्यक्तित्व हलकापन अनुभव कर रहा है। प्रखरता और प्रामाणिकता की स्थिति बन रही है।

  चौथा साप्ताहिक अभ्यास मौन वाणी की साधना है। मौन दो घण्टे से कम का नहीं होना चाहिये। मौनकाल में प्राण संचय की साधना साथ- साथ चलती रह सकती है। इस निर्धारित कृत्य के अतिरिक्त दैनिक साधना, स्वाध्याय, संयम सेवा के चारों उपक्रमों में से जो जितना बन सके उसके लिये उतना करने का प्रयास करना चाहिये। सेवा कार्यों के लिये प्रत्यक्ष अवसर सामने हो तो इसके बदले आर्थिक अंशदान की दैनिक प्रतिज्ञा के अतिरिक्त कुछ अधिक अनुदान बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए। यह राशि सद्ज्ञान संवर्द्धन के ज्ञान यज्ञ के निमित्त लगनी चाहिये। पीड़ितों की सहायता के लिये हर अवसर पर कुछ न कुछ करते रहना सामान्य क्रम में भी सम्मिलित रखना चाहिये। ज्ञानयज्ञ तो उच्चस्तरीय ब्रह्मयज्ञ है, जिसके साथ प्राणिमात्र का कल्याण जुड़ा हुआ है। साप्ताहिक साधना का दिन ऐसे ही श्रेष्ठ सत्कर्मों में लगाना चाहिये।

    अर्द्ध वार्षिक साधनायें आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों में नौ- नौ दिन के लिये की जाती हैं। इन दिनों गायत्री मंत्र के २४ हजार जप की परम्परा पुरातन काल से चली आती है। उसका निर्वाह सभी आस्थावान साधकों को करना चाहिये। बिना जाति या लिंगभेद के इसे कोई भी अध्यात्म प्रेमी निःसंकोच कर सकता है। कुछ कमी रह जाने पर भी इस सात्विक साधना में किसी प्रकार के अनिष्ट की आशंका नहीं करना चाहिए। नौ दिनों में प्रतिदिन २७ माला गायत्री मंत्र के जप कर लेने से २४ हजार निर्धारित जप संख्या पूरी हो जाती है। अंतिम दिन कम से कम २४ आहुतियों का अग्निहोत्र करना चाहिए। अंतिम दिन अवकाश न हो तो हवन किसी अगले दिन किया जा सकता है।

    अनुष्ठानों में कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है -- (१) उपवास अधिक न बन पड़े तो एक समय का भोजन या अस्वाद व्रत का निर्वाह तो करना ही चाहिए। (२) ब्रह्मचर्य पालन -- यौनाचार एवं अश्लील चिंतन का नियमन। (३) अपनी शारीरिक सेवाएँ यथासंभव स्वयं ही करना। (४) हिंसायुक्त चमड़े के उपकरणों का प्रयोग न करना। पलंग की अपेक्षा तखत या जमीन पर सोना। इन सब नियमों का उद्देश्य यह है कि नौ दिन तक विलासी या अस्त- व्यस्त निरंकुश जीवन न जिया जाए। उसमें तप संयम की विधि व्यवस्था का अधिकाधिक समावेश किया जाए। नौ दिन का अभ्यास अगले छह महीने तक अपने आप पर छाया रहे और यह ध्यान बने रहे कि संयमशील जीवन ही आत्मकल्याण तथा लोकमंगल की दुहरी भूमिका संपन्न करता है। इसलिए जीवनचर्या को इसी दिशाधारा के साथ जोड़ना चाहिए।

    अनुष्ठान के अंत में पूर्णाहुति के रूप में प्राचीन परंपरा ब्रह्मभोज की है। उपयुक्त ब्राह्मण न मिल सकने के कारण इन दिनों वह कृत्य नौ कन्याओं को भोजन करा देने के रूप में भी पूरा किया जाता है। कन्यायें किसी भी वर्ण की हो सकती हैं। इस प्रावधान में नारी को देवी स्वरूप में मान्यता देने की भावना सन्निहित है। कन्यायें तो ब्रह्मचारिणी होने के कारण और भी अधिक पवित्र मानी जाती हैं।

    ब्रह्मभोज का दूसरा प्रचलित रूप वितरण भी है। यों प्रसाद में कोई मीठी वस्तुएँ थोड़ी- थोड़ी मात्रा में बाँटने का भी नियम है। इसमें अधिक लोगों तक अपने अनुदान का लाभ पहुँचाना उद्देश्य है, भले ही वह थोड़ी- थोड़ी मात्रा में ही क्यों न हो! एक का पेट भर देने की अपेक्षा सौ का मुँह मीठा कर देना इसलिए अच्छा माना जाता है कि इसमें देने वाले तथा लेने वालों को उस धर्म प्रयोजन के विस्तार की महिमा समझने और व्यापक बनाने की आवश्यकता का अनुभव होता है।  

    यह कार्य मिष्ठान्न वितरण की अपेक्षा सस्ता युग साहित्य वितरण करने के रूप में अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है। ‘‘युग निर्माण का सत्संकल्प’’ नामक अति सस्ती पुस्तिका इस प्रयोजन के लिये अधिक उपयुक्त बैठती है। ऐसी ही अन्य छोटी पुस्तिकाएँ भी युग निर्माण योजना द्वारा प्रकाशित हुई हैं जिन्हें बाँटा या लागत से कम मूल्य में बेचने का प्रयोग किया जा सकता है। नवरात्र अनुष्ठानों में यह ब्रह्मभोज की सत्साहित्य के रूप में प्रसाद वितरण की प्रक्रिया भी जुड़ी रहनी चाहिये।

    स्थानीय साधक मिल- जुलकर एक स्थान पर नौ दिन की साधना करें। अन्त में सामूहिक यज्ञ करें। सहभोज का प्रबन्ध रखें, साथ ही कथा- प्रवचन कीर्तन उद्बोधन का क्रम बनाये रह सके तो उस सामूहिक आयोजन से सोने में सुगन्ध जैसा उपक्रम बन पड़ता है।

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