जीवन देवता की साधना-आराधना

व्यावहारिक साधना के चार पक्ष

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ज्ञान और कर्म के संयोग से ही प्रगतिपथ पर चल सकना, सफलता वरण करने की स्थिति तक पहुँचना सम्भव होता है। अध्यात्म विज्ञान में भी तत्त्वदर्शन का सही स्वरूप समझने के उपरान्त दूसरा चरण यही रहता है कि उसे क्रियान्वित करने की, पूजा- अर्चना की विधि व्यवस्था ठीक बने। अध्यात्म का तत्त्वदर्शन, आत्मपरिष्कार और आत्मविकास को दो शब्दों में सन्निहित समझा जा सकता है। उपासना पक्ष की प्रतीक पूजा का तात्पर्य है- क्रिया एवं साधनों के सहारे आत्मशिक्षण की आवश्यकता पूरी करना। कोई भी कर्मकाण्ड उसकी भावनाओं को हृदयंगम किये बिना पूर्ण नहीं हो सकता। मात्र कर्मकाण्ड को जादू का खेल समझते हुए बड़ी सफलता की आशा नहीं की जा सकती। क्रियायें जब जिसको जिस मात्रा में प्रभावित करेंगी, वह उसी मात्रा में सत्परिणाम प्राप्त कर सकने में सफल होगा।

    सर्वजनीन सुलभ साधना का स्वरूप प्रस्तुत करते हुए इन पृष्ठों पर प्रज्ञायोग नाम से वह विधान प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसके सहारे अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में अन्यान्य उपाय- उपचारों की अपेक्षा अधिक सरलतापूर्वक कम समय में अधिक सफलता मिल सकती है।

    प्रज्ञायोग की दो संध्यायें अत्यधिक सरल और अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। एक सबेरे आँख खुलते ही बिस्तर पर पड़े- पड़े पन्द्रह मिनट ‘‘हर दिन नया जन्म’’ की भावना करने का उपक्रम है। दूसरा रात्रि को सोते समय यह अनुभव करना कि शयन एक प्रकार का दैनिक मरण है। जन्म और मरण यही दो जीवन सत्ता के ओर- छोर हैं। इन्हें सही रखा जाये तो मध्यवर्ती भाग सरलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। बीजारोपण और फसल काटना, यही दो कृषि कार्य के प्रमुख अंग हैं। शेष तो लम्बे समय तक चलने वाली किसान की सामान्य क्रिया- प्रक्रिया है। उसे तो सामान्य बुद्धि और सामान्य अभ्यास से भी चलाया जा सकता है। जाग्रति को प्रातःकाल की संध्या और शयन को रात्रि की संध्या कहा जा सकता है। दो बार संध्यायें सूर्योदय और सूर्यास्त के समय वाली मानी जाती हैं। पर उसके साथ जुड़ी आध्यात्मिक साधना प्रातःकाल आँख खुलते समय और रात्रि को सोने, आँख बन्द होने के समय की जा सकती है।

    प्रज्ञायोग की प्रथम साधना को आत्मबोध कहते हैं। आँख खुलते ही यह भावना करनी चाहिये कि आज अपना नया जन्म हुआ। एक दिन ही जीना है। रात्रि को मरण की गोद में चले जाना है। इस अवधि का सर्वोत्तम उपयोग करना ही जीवन साधना का महान लक्ष्य है। यही अपना परीक्षा क्रम है और उसी में भविष्य की सारी सम्भावना सन्निहित है।

मनुष्य जन्म जीवधारी के लिये सबसे बड़ा सौभाग्य है। इसका सदुपयोग बन पड़ना ही किसी की उच्चस्तरीय बुद्धिमत्ता का प्रमाण- परिचय है। उठते ही यह विचार करना चाहिये कि आज के एक दिन को सम्पूर्ण जीवन माना जाये जिनके लिये इसे दिया गया है। इस आधार पर दिनभर की दिनचर्या इसी समय निर्धारित की जाये। चिन्तन, चरित्र, और व्यवहार की वह रूपरेखा विनिर्मित की जाये जिसे सतर्कतापूर्वक पूरी करने पर यह माना जा सके कि आज का दिन एक बहुमूल्य जन्म पूरी तरह सार्थक हुआ। इस चिन्तन के सभी पक्षों पर विचार करने में जितना अधिक समय लगे उतना कम है, पर इसे नित्यप्रति, नियमित रूप से करते रहने पर पन्द्रह मिनट भी पर्याप्त हो सकते हैं। एक दिन की छूटी बात को अगले दिन पूरा किया जा सकता है।

    दूसरी संध्या रात को सोते समय पूरी की जाती है, उसमें यह माना जाना चाहिये कि अब मृत्यु की गोद में जाया जा रहा है। भगवान् के दरबार में जवाब देना होगा कि आज के समय का, एक दिन के जीवन का किस प्रकार सदुपयोग बन पड़ा? इसके लिये दिनभर के समयानुसार क्रिया- कलापों और विचारों के उतार- चढ़ावों की समीक्षा की जानी चाहिये। उसके उद्देश्य और स्तर को निष्पक्ष होकर परखना चाहिये तथा देखना चाहिये कि कितना उचित बन पड़ा और कितना उसमें भूल या विकृति होती रही। जो सही हुआ उसके लिये अपनी प्रशंसा की जाये और जहाँ जो भूल हुई हो उसकी भरपाई अगले दिन करने की बात सोची जाये। पाप का प्रायश्चित शास्त्रकारों ने यही माना है कि उसकी क्षतिपूर्ति की जाये। आज का दिन जो गुजर गया, उसे लौटाया तो नहीं जा सकता, पर यह हो सकता है कि उसका प्रायश्चित अगले दिन किया जाये। अगले दिन के क्रिया कलाप में आज की कमी को पूरा करने की बात भी जोड़ ली जाये। इस प्रकार कुछ भार तो अवश्य बढ़ेगा, पर उसके परिमार्जन का और कोई उपाय भी तो नहीं है।

    मृत्यु अवश्यम्भावी है। लोग उसे भूल जाते हैं और बाल क्रीड़ा की तरह महत्त्वहीन कार्यों में जीवन बिता देते हैं। यदि यह ध्यान रखा जाये कि चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त जो अलभ्य हस्तगत हुआ है, उसे इस प्रकार व्यतीत किया जाये जिससे भविष्य उज्ज्वल बने। देवमानव स्तर तक पहुँचाने की आशा बँधे। दूसरों को अनुकरण की प्रेरणा मिले। स्रष्टा को, दायित्व निर्वाह की प्रामाणिकता का परिचय पाकर प्रसन्नता हो। पदोन्नति का सुयोग इस आधार पर उपलब्ध हो।

    रात्रि को जिस प्रकार निश्चिंततापूर्वक सोया जाता है, उसी प्रकार मरणोत्तर काल से लेकर पुनर्जन्म की मध्यावधि में भी ऐसी ही शान्ति रह सकती है। इसकी तैयारी इन्हीं दिनों करनी चाहिये। हँसी- खुशी से दिन बीतता हो तो रात्रि को गहरी नींद आती है। दिन यदि शान्तिपूर्वक गुजारा जाये- श्रेष्ठता के साथ जुड़ा रहे तो मरणोत्तर विश्राम काल में नरक नहीं भुगतान पड़ेगा। स्वर्ग जैसी शान्ति का रसास्वादन मिलता रहेगा। इस प्रक्रिया को तत्त्व बोध कहा गया है।

    प्रज्ञायोग के दो और चरण हैं जिनको दिन में पूरा किया जाता है। इनमें एक है- भजन दूसरा- मनन भजन के लिये नित्य कर्म से निवृत्त होकर नियत पूजा स्थान पर पालथी मारकर बैठा जाता है। शरीर, मन और वाणी की शुद्धि के लिये जल द्वारा पवित्रीकरण, सिंचन, आचमन किया जाता है। देव प्रतिमा के रूप में गायत्री की छवि अथवा धूप, दीप में से कोई प्रतीक स्थापित करके इसे इष्ट, आराध्य माना जाता है। धूप, दीप, नैवेद्य, जल, अक्षत, पुष्प में से जो उपलब्ध हो उससे उसका पूजन किया जाता है। पूजन में प्रयुक्त वस्तुओं की तरह अपने जीवन में उन विशेषताओं को उत्पन्न करने की भावना की जाती है जो इन उपचार, साधनों में पाई जाती है। चन्दन समीपवर्तियों में सुगन्ध भरता है। दीपक अपने प्रभाव क्षेत्र में ज्ञानरूपी प्रकाश फैलाता है। पुष्प हँसता है और खिलता रहता है। जल शीतलता का प्रतीक बनकर रहता है। अक्षत, नैवेद्य के पीछे समयदान, अंशदान परमार्थ प्रयोजन के लिये निकाले जाने की भावना है। इष्टदेव को सत्प्रवृत्ति का समुच्चय माना जाये। इन मान्यताओं के आधार पर देव पूजन समग्र बन पड़ता है।

    अब जप और ध्यान की बारी आती है। दोनों एक साथ चल सकते हैं। गायत्री जप मानसिक हो तो भी ठीक है। जितनी देर करने का निश्चय हो उसका हिसाब माला या घड़ी के सहारे किया जाता है। जिन्हें गायत्री की अपेक्षा कोई अन्य मंत्र रुचिकर होवे उसे अपना सकते हैं। ॐकार भी सार्वभौम स्तर की जप मान्यता बन सकता है।

    जप के साथ प्रातःकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य का ध्यान किया जाय। भावना करनी चाहिये कि अपना खुला शरीर सूर्य के सम्मुख बैठा है। इष्ट की सूक्ष्म किरणें अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण- तीनों शरीरों में प्रवेश कर रही हैं। किरणें, ऊर्जा और आभा की प्रतीक हैं। ऊर्जा अर्थात् शक्ति, आभा अर्थात् प्रकाश प्रज्ञा। दोनों का समन्वय तीनों शरीरों में प्रवेश करके उन्हें प्रभावित करता है- ऐसी भावना की जानी चाहिये। प्रत्यक्ष शरीर में स्वास्थ्य और संयम, सूक्ष्म शरीर मस्तिष्क में विवेक और साहस, कारण शरीर अर्थात् अन्तःकरण में श्रद्धा, सद्भावना सूर्य किरणों के रूप में प्रवेश करके अस्तित्व की समग्र सत्ता को अनुप्राणित कर रही है। यह ध्यान धारणा और मंत्र जप साथ- साथ नियत निर्धारित समय तक चालू रखे जायें और अन्त में पूर्णाहुति में सूर्य के सम्मुख जलरूपी अर्घ्य दिया जाये। इसका तात्पर्य है- परमसत्ता के सम्मुख जलरूपी आत्मसत्ता का समर्पण। भजन भावना इतनी ही है। यदि नियत स्थान पर बैठ सकना सम्भव नहीं, सफर में चलने जैसी स्थिति हो तो वह सारे कृत्य मानसिक रूप से बिना किसी वस्तु की सहायता के भी किये जा सकते हैं।

प्रज्ञायोग साधना का चौथा चरण है- मनन यह मध्याह्नोत्तर कभी भी, कहीं भी किया जा सकता है। समय पन्द्रह मिनट हो, तो भी काम चल जायेगा। इसमें अपनी वर्तमान स्थिति की समीक्षा की जाती है और आदर्शों के मापदण्ड से जाँच- पड़ताल करने पर जो कमी प्रतीत हो, उसे पूरा करने की योजना बनानी पड़ती है। यही मनन है। इसके लिये एकान्त स्थान ढूँढ़ना चाहिये। आँखें बन्द करके अन्तर्मुखी होना और आत्मसत्ता के सम्बन्ध में परिमार्जन परिष्कार की उभयपक्षीय योजना बनानी चाहिये। इसमें आज के दिन को प्रधान माना जाये। प्रात: से मध्याह्न तक जो सोचा और किया गया हो, उसे आदर्शों के मापदण्ड से जाँचना चाहिये और उस समय से लेकर सोते समय तक जो कुछ करना हो उसकी भावनात्मक योजना बनानी चाहिये, ताकि दिन के पूर्वार्द्ध की तुलना में उत्तरार्द्ध और भी अच्छा बन पड़े।

    आत्मसमीक्षा के चार मापदण्ड हैं- १ इन्द्रियसंयम, (२) समयसंयम, (३) अर्थसंयम, (४) विचारसंयम। देखना चाहिये कि इन चारों में कहीं कोई व्यतिक्रम तो नहीं हो रहा है? जीभ स्वाद के नाम पर अभक्ष्य भक्षण तो नहीं करने लगी? वाणी से असंस्कृत वार्तालाप तो नहीं होता? कामुकता की प्रवृत्ति कहीं कुदृष्टि से तो नहीं उभर रही? असंयम से शरीर और मस्तिष्क खोखला तो नहीं हो रहा? शारीरिक और मानसिक स्वस्थता बनाये रखने के लिये इन्द्रियनिग्रह अमोघ उपाय है।

    समय संयम का अर्थ है- एक क्षण का सदुपयोग। आलस्य- प्रमाद में, दुर्व्यसनों में दुर्गुणों के कुचक्र में फँसकर समय का एक अंश भी बरबाद न होने पाये। इसकी सुरक्षा और सदुपयोग पर पूरी- पूरी जागरूकता बरती जानी चाहिये। समय ही जीवन है। जिसने समय का सदुपयोग किया समझो कि उसने जीवन का परिपूर्ण लाभ उठा लिया।

    तीसरा संयम है- अर्थसंयम पैसा ईमानदारी और परिश्रमपूर्वक कमाया जाये। मुफ्तखोरी और बेईमानी का आश्रय न लिया जाये। औसत भारतीय स्तर का जीवन जिया जाये। ‘‘सादा जीवन उच्च विचार’’ की नीति अपनाई जाये। विलास प्रदर्शन की मूर्खता में कुछ भी खर्च न होने दिया जाये। कुरीतियों के नाम पर भी बरबादी न चले। बचत का एक बड़ा अंश परमार्थ प्रयोजन में लगा सकने और पुण्य की पूँजी जमा करने का श्रेय उन्हीं को मिलता है, जो विवेकपूर्वक औचित्य का ध्यान रखते हुए खर्च करते हैं।

    चौथा संयम है- विचारसंयम मस्तिष्क में हर घड़ी विचार उठते रहते हैं, कल्पनायें चलती रहती हैं। ये अनर्गल, अस्त- व्यस्त एवं अनैतिक स्तर के न हों, इसके लिये विवेक को एक चौकीदार की तरह नियुक्त कर देना चाहिये। उसका काम हो कुविचारों को सद्विचारों की टक्कर मारकर परास्त करना। अनगढ़ विचारों के स्थान पर रचनात्मक चिन्तन का सिलसिला चलाना। विचार मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है। वही कर्म के रूप में परिणत होती और परिस्थिति बनकर सामने आती है। जीवन को कल्पवृक्ष बनाने का श्रेय रचनात्मक विचारों का ही होता है। इस तथ्य को भली प्रकार समझते हुए चिन्तन को मात्र रचनात्मक एवं उच्चस्तरीय विचारों में ही संलग्न रखना चाहिये।

    साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा के चार पुरुषार्थों  जीवन की प्रगति एवं सफलता बन पड़ती है। इसलिये दिनचर्या में उन चारों के लिये समुचित स्थान रहे, उसकी जाँच- पड़ताल आत्मसमीक्षा के समय में निरन्तर करनी चाहिये। आत्मसमीक्षा, आत्मसुधार, आत्म- निर्माण और आत्मविकास की चतुर्दिक प्रक्रिया को अग्रगामी बनाने के लिये मध्यान्तर काल की मनन साधना करनी चाहिये। इसे आत्मदर्शन समझा जाना चाहिये जो थोड़ी विकसित अवस्था में ईश्वर दर्शन के रूप में फलित होता है।

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