जीवन देवता की साधना-आराधना

त्रिविध प्रयोगों का संगम-समागम

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गङ्गा, यमुना, सरस्वती के मिलन से तीर्थराज त्रिवेणी संगम बनता है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश देवाधिदेव हैं। इसी प्रकार सरस्वती, लक्ष्मी, काली, शक्तियों की अधिष्ठात्री हैं। मृत्यु लोक, पाताल और स्वर्ग ये तीन लोक हैं। गायत्री के तीन चरण हैं, जिन्हें वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता के नाम से जाना जाता है। जीवन सत्ता के भी तीन पक्ष हैं, जिन्हें चिन्तन, चरित्र और व्यवहार कहते हैं। इन्हीं को ईश्वर, जीव, प्रकृति कहा गया है। तथ्य को और भी अधिक स्पष्ट करना हो तो इन्हें आत्मा, शरीर और संसार कह सकते हैं। यह त्रिवर्ग ही हमें सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। उद्भव, अभिवर्द्धन और विलयन के रूप में प्रकृति की अनेकानेक हलचलें इसी आधार पर चलती रहती हैं।

    जीवन तीन भागों में बँटा हुआ है- (१) आत्मा, (२) शरीर और (३) पदार्थ सम्पर्क। शरीर को स्वस्थ और सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया जाता है। आत्मा को परिष्कृत और सुसंस्कृत बनाया जाता है तथा संसार में से वैभव और विलास के सुविधा- साधन सँजोये जाते हैं। परिवार समेत समूचा सम्पर्क क्षेत्र भी इसी परिधि में आता है। जीवन साधना का समग्र रूप वह है जिसमें इन तीनों का स्तर ऐसा बना रहे, जिससे प्रगति और शान्ति की सुव्यवस्था बनी रहे।

    इन तीनों में प्रधान चेतना है, जिसे आत्मा भी कह सकते हैं। दृष्टिकोण इसी के स्तर पर विनिर्मित होता है। इच्छाओं, भावनाओं मान्यताओं का रुझान किस ओर हो, दिशाधारा और रीति- नीति क्या अपनाई जाय, इसका निर्णय अन्तःकरण ही करता है। उसी के अनुरूप गुण, कर्म, स्वभाव बनते हैं। किस दिशा में चला जाय? क्या किया जाय? इसके निमित्त संकल्प उठना और प्रयत्न बन पड़ना भी आत्मिक क्षेत्र का निर्धारण है। इसीलिये आत्मबल को जीवन की सर्वोपरि सम्पदा एवं सफलता माना गया है। इसी के आधार पर संयमजन्य स्वास्थ्य में प्रगति होती है। मन में ओजस्, तेजस् और वर्चस्कारी प्रतिभा चमकती है। बहुमुखी सम्पदायें इसी पर निर्भर हैं। इसलिये जीवन साधना का अर्थ आत्मिक प्रगति होता है। वह गिरती- उठती है, तो समूचा जीवन गिरने- उठने लगता है। इसलिये जीवन साधना को आत्मोत्कर्ष प्रधान मानना चाहिये। उसी के आधार पर शरीर व्यवस्था, साधन संचय और जन सम्पर्क का ढाँचा खड़ा करना चाहिये। ऐसा करने पर तीनों ही क्षेत्र सुव्यवस्थित बनते रहते हैं और जीवन को समग्र प्रगति, सफलता या सार्थकता के लक्ष्य तक पहुँचाया जा सकता है।

    आत्मिक प्रगति का सार्वभौम उपाय एक ही है- क्रियाकृत्यों के माध्यम से आत्मशिक्षण। इसे प्रतीक पूजा भी कह सकते हैं। मनुष्य के मानस की बनावट ऐसी है कि वह किन्हीं जानकारियों से अवगत तो हो जाता है, पर उसे व्यवहार में उतारना क्रिया अभ्यास के बिना सम्भव नहीं होता। यह अभ्यास ही वे उपासना कृत्य है, जिन्हें योगाभ्यास, तपश्चर्या, जप, ध्यान, प्राणायाम, प्रतीक पूजा आदि के नाम से जाना जाता है। इनमें अङ्ग- संचालन मन का केन्द्रीकरण एवं उपचार सामग्री का प्रयोग ये तीनों ही आते हैं। अनेक धर्म सम्प्रदायों में पूजा विधान अलग- अलग प्रकार से हैं, तो भी उनका अभिप्राय और उद्देश्य एक ही है- आत्मशिक्षण भाव- संवेदनाओं का उन्नयन। यदि यह लक्ष्य जुड़ा हुआ न होता तो उसका स्वरूप मात्र चिह्न पूजा जैसा लकीर पीटने जैसा रह जाता है। निष्प्राण शरीर का मात्र आकार तो बना रहता है, पर वह कुछ कर सकने में समर्थ नहीं होता। इसी प्रकार ऐसे पूजा- कृत्य जिसमें साधक की भाव- संवेदना के उन्नयन का उद्देश्य पूरा न होता हो आत्मशिक्षण और आत्मिक प्रगति का प्रयोजन पूरा न कर सकेंगे।

इन दिनों यही चल रहा है। लोग मात्र पूजाकृत्यों के विधान भर किसी प्रकार पूरे करते हैं और साथ भाव- संवेदनाओं को जोड़ने का प्रयत्न नहीं करते, आवश्यकता तक नहीं समझते। फलतः: उनमें संलग्न लोगों में से अधिकांश के जीवन में विकास के कोई लक्षण नहीं दीख पड़ते। कृत्यों से देवता को प्रसन्न करके उनसे मन चाहे वरदान माँगने की बात की कोई तुक नहीं। इसलिये उस बेतुकी प्रक्रिया का अभीष्ट परिणाम हो भी कैसे सकता है? एक ही देवता के दो भक्त परस्पर शत्रु भी हो सकते हैं। दोनों अपनी- अपनी मर्जी की याचना कर सकते हैं। ऐसी दशा में देवता असमंजस में फँस सकता है कि किसकी मनोकामना पूरी करें? किसकी न करें? फिर देवता पर भी रिश्वतखोर होने का चापलूसी पसन्द सामन्त जैसा स्तर होने का आरोप लगता है। कितने लोग हैं, जो पूजाकृत्य अपनाने के साथ इस गम्भीरता में उतरते हैं और यथार्थता को समझने का प्रयत्न करते हैं? अन्धी भेड़चाल अपनाने पर समय की बरबादी के अतिरिक्त और कुछ हस्तगत हो भी नहीं सकता।

    हमें यथार्थता समझनी चाहिये और यह यथार्थवादी क्रम अपनाना चाहिये जिससे आत्मिक प्रगति के लक्ष्य तक पहुँचा और उसके साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई सर्वतोमुखी प्रगति का लाभ उठाया जा सके।

    शरीर पोषण के लिये तीन अनिवार्य साधनों की आवश्यकता होती है- १ आहार, (२) जल और (३) वायु। ठीक इसी प्रकार आत्मिक प्रगति की आवश्यकता पूरी करने के लिये तीन माध्यम अपनाने होते हैं- १ उपासना, (२) साधना और (३) आराधना। इन शब्दों का और भी अधिक स्पष्टीकरण इस प्रकार समझना चाहिये।

    उपासना का अर्थ है- निकट बैठना। किसके? ईश्वर के। ईश्वर निराकार है। इसकी प्रतिमा या छवि तो ध्यान- धारणा की सुविधा के लिये विनिर्मित की जाती है। मानवी अन्तःकरण के साथ उसकी घनिष्ठता उत्कृष्ट चिन्तन के आदर्शवादी भाव संवेदना के रूप में ही होती है। यही भक्ति का, ईश्वर सान्निध्य का, ईश्वर दर्शन का वास्तविक रूप है। यदि साकार रूप में उसका चिन्तन करना हो तो किसी कल्पित प्रतिमा में इन्हीं दिव्य संवेदनाओं के होने की मान्यता और उसके साथ अविच्छिन्न जुड़े होने के रूप में भी किया जा सकता है। ऐसे महामानव जिन्होंने आदर्शों का परिपालन और लोकमंगल के लिये समर्पित होने के रूप में अपने जीवन का उत्सर्ग किया, उन्हें भी प्रतीक माना जा सकता है? राम, कृष्ण, बुद्ध, गाँधी आदि को भगवान् का अंशावतार कहा जा सकता है। उन्हें इष्ट मानकर उनके ढाँचे में ढलने का प्रयत्न किया जा सकता है। इस निमित्त किया गया पूजा प्रयास उपासना कहा जा जायेगा।

    दूसरा चरण है- साधना जिसका पूरा नाम है जीवन साधना। इसे चरित्र निर्माण भी कहा जा सकता हैं। चिन्तन में भाव- संवेदनाओं का समावेश तो उपासना क्षेत्र में चला जाता है, पर शरीरचर्या की धारा- विधा जीवन साधना में आती है। इसमें आहार- विहार रहन- सहन संयम, कर्तव्यों का परिपालन, सद्गुणों का अभिवर्द्धन दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन आदि आते हैं। संयमशील, अनुशासित और सुव्यवस्थित क्रिया- कलाप अपनाना जीवन साधना कहा जायेगा। जिस प्रकार जंगली पशु को सरकस का प्रशिक्षित कलाकार बनाया जाता है। जिस प्रकार किसान ऊबड़- खाबड़ जमीन को समतल करके उर्वर बनाता है, जिस प्रकार माली सुनियोजित ढंग से अपना उद्यान लगाता है और सुरम्य बनाता है। उसी प्रकार जीवन का वैभव का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने लगना जीवन साधना है। व्यक्तित्व को पवित्र, प्रामाणिक, प्रखर बनाने की प्रक्रिया जीवन साधना है। यह बन पड़ने पर ही आत्मा में परमात्मा का अवतरण सम्भव होता है। धुले हुए कपड़े की ही रँगाई ठीक तरह होती है। चरित्रवान व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में भगवद् भक्त बनते हैं। दैवी वरदान ऐसे ही लोगों पर बरसते हैं। स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, तुष्टि, तृप्ति, शान्ति जैसी दिव्य विभूतियों से मात्र चरित्रवान ही सम्पन्न होते हैं उनमें सद्भावना, शालीनता, सुसंस्कारिता के सभी लक्षण उभरे हुए दीखते हैं। सामान्य स्थिति में रहते हुए भी ऐसे ही लोग महामानव, देवमानव बनते हैं।

    तीसरा चरण है- आराधना इसे अभ्यर्थना, अर्चन भी कहते हैं। दूसरे शब्दों में इसी को पुण्य परमार्थ- लोकमंगल जन- कल्याण आदि भी कहते हैं। यह संसार विराट ब्रह्म का साकार स्वरूप है। इसमें निवास करने वाले प्राणियों और पदार्थों का, परिस्थितियों का सुनियोजन करने में संलग्न रहना आराधना है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य प्रकारान्तर से सभी का ऋणी है। इसकी भरपाई करने के लिये उसे परमार्थपरायण होना ही चाहिये।

साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के चार आधार सर्वतोमुखी प्रगति के लिये आवश्यक माने गये हैं। जीवन साधना में स्वाध्याय की, संयमशीलता की और लोकमंगल के लिये निरन्तर समयदान, अंशदान लगाते रहने की आवश्यकता पड़ती है। सेवा कार्यों के लिये समयदान, श्रमदान अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। इसके बिना पुण्य संचय की बात बनती ही नहीं। संयम तो अपने शरीर, मन और स्वभाव में स्वयं भी साधा जा सकता है, पर सेवाधर्म अपनाने के लिये समयदान के अतिरिक्त साधनदान की भी आवश्यकता पड़ती है। उपार्जित आजीविका का सारा भाग पेट परिवार के लिये ही खर्च नहीं करते रहना चाहिये, वरन् उसका एक महत्त्वपूर्ण अंश लोकमंगल के लिये भी नियमित और निश्चित रूप से निकालते रहना चाहिये। उपासना, साधना और आराधना को; चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को परिष्कृत करने की प्रक्रिया को नित्य कार्य में नित्य नियम में सम्मिलित रखना चाहिये। उनमें से किसी एक को यदाकदा कर लेने से काम नहीं चलता। भोजन, श्रम और शयन- ये तीनों ही नित्य करने पड़ते हैं। इनमें से किसी को यदाकदा न्यूनाधिक मात्रा में मनमर्जी से कर लिया जाया करे, तो उस अस्तव्यस्तता के रहते न तो स्वास्थ्य ठीक रह सकता है और न व्यवस्थित उपक्रम चल सकता है। फिर किसी प्रयोजन में सफल हो सकना तो बन ही किस प्रकार पड़े?

    जीवन एक सुव्यवस्थित तथ्य है। वह न तो अस्त- व्यस्त है और न कभी कुछ करने, कभी न करने जैसा मनमौजीपन। पशु- पक्षी तक एक नियमित प्रकृति व्यवस्था के अनुरूप जीवनयापन करते हैं। फिर मनुष्य तो सृष्टि का मुकुटमणि है। उसके ऊपर मात्र शरीर निर्वाह का ही नहीं, कर्तव्यों और उत्तरदायित्व के परिपालन का अनुशासन भी है। उसे मानवी उदारता के अनुरूप मर्यादायें पालनी और वर्जनायें छोड़नी पड़ती हैं। इतना ही नहीं, वह पुण्य परमार्थ भी विशेष पुरुषार्थ के रूप में अपनाना पड़ता है, जिसके लिये स्रष्टा ने अपना अजस्र अनुदान देते हुए आशा एवं अपेक्षा रखी है। इतना सब बन पड़ने पर ही उसे लक्ष्य की प्राप्ति होती है जिसे ईश्वर की प्राप्ति या महानता की उपलब्धि कहा जाता है।

    जीवन साधना नकद धर्म है। इसके प्रतिफल प्राप्त करने के लिये लम्बे समय की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। ‘‘इस हाथ दें, उस हाथ लें’’ का नकद सौदा इस मार्ग पर चलते हुए हर कदम पर फलित होता रहता है। एक कदम आगे बढ़ने पर मंजिल की दूरी उतनी फुट कम होती है, साथ ही जो पिछड़ापन था, वह पीछे छूटता हैं। इसी प्रकार जीवन साधना यदि तथ्यपूर्ण, तर्कसंगत और विवेकपूर्ण स्तर पर की गई है तो इसका प्रतिफल दो रूप में हाथों- हाथ मिलता चलता है। एक संचित पशु प्रवृत्तियों का अभ्यास छूटता है, वातावरण की गन्दगी से ऊपर चढ़े कषाय- कल्मष घटते हैं। दूसरा लाभ यह होता है कि नरपशु से नरदेव बनने के लिये जो प्रगति करनी चाहिये उसकी व्यवस्था सही रूप से बन पड़ती है। स्वयं को अनुभव होता है कि व्यक्तित्व निरन्तर उच्चस्तरीय बन रहा है। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की दोनों ही उपलब्धियाँ निरन्तर हस्तगत हो रही हैं। यही है वह उपलब्धि, जिसे जीवन की सार्थकता, सफलता एवं मनुष्य में देवत्व का प्रत्यक्ष अवतरण कहते हैं। तत्त्वज्ञान की भाषा में इसी को ईश्वरप्राप्ति, भव बन्धनों से मुक्ति, परमसिद्धि अथवा स्वर्ग सोपान में प्रविष्टि कहा जाता है। इन सहज उपलब्धियों से वंचित इसलिये रहना पड़ता है कि न तो जीवन साधना का दर्शन ठीक तरह समझा जाता है और न जानकारी के अभाव में सही प्रयोग का अभ्यास बन पड़ता है।
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