परिवर्तन के महान् क्षण

भक्ति से जुड़ी शक्ति

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१९५८ के सहस्रकुण्डीय महायज्ञ के सफल प्रयोग परीक्षण ने अपनी श्रद्धा- विश्वास असंख्य गुना बढ़ा दिया और बाद में निर्देशित हुए कामों का सिलसिला चल पड़ा, जिनका कि उल्लेख पहले भी हो चुका है। साहित्य सृजन, संगठन, केन्द्रों की खर्चीली व्यवस्था, अभावग्रस्तों की सहायता जैसे काम इस प्रकार चलते रहे, मानो वे सभी कार्य किसी दूसरे ने किए हों और अपने सिर पर श्रेय अनायास ही लद गया हो। यह वैयक्तिक सफलता का प्रसंग नहीं माना जाना चाहिए कि यह किसी के पुरुषार्थ का प्रतिफल सामने आया, वरन् यह समझा जाना चाहिए कि भक्ति के साथ शक्ति का भी अविच्छिन्न सामंजस्य हैं। निर्देशक शक्ति अपने संकेतों पर चलने वाले समर्पित व्यक्ति के लिए वैसी ही व्यवस्था भी करती है, जैसी कि मोर्चे पर लड़ने जाने वाले सैनिक के लिए आवश्यक सुविधा सामग्री का प्रबन्ध सेनापति या रक्षा विभाग द्वारा किया जाता है।

    वैयक्तिक प्रयास से बन पड़ने में जिन्हें संभव समझा जा सकता है, उन छिटपुट कामों को संपन्न करने के उपरांत निर्देशक ने अपनी कठपुतली में इतनी क्षमता भर दी कि वह संकेतों के इशारे भर से मनमोहक नृत्य अभिनय कर सके। इतना बन पड़ने के उपरान्त वह भारी वजन लादा गया, जिसे सम्पन्न करने की कोई व्यक्ति विशेष कल्पना तक नहीं कर सकता, जिसे वह अदृश्य सत्ता ही कर सकती है, जिसने इतना बड़ा पसारा बनाकर खड़ा किया है और जो मनुष्य को एक सीमा तक नटखटपन बरतने तक की छूट देने के उपरांत जब देखती है कि उद्दण्डता मर्यादा से बाहर जा रही है, तब उसके कान पकड़कर सीधी राह अपनाने के लिए बाधित ही नहीं, प्रताड़ित भी कर सकती है। इसी को युग परिवर्तन की पृष्ठभूमि कहा जा सकता है। यही है इक्कीसवीं सदी- उज्ज्वल भविष्य की परिकल्पना, महाक्रान्ति की अभूतपूर्व परियोजना।

    प्रस्तुत प्रयोजन के लिए जितना कुछ दृश्य रूप में मानवी प्रयत्नों के अन्तर्गत सम्भव था, उसे युग निर्माण योजना के अन्तर्गत पिछले कई वर्षों से किया जाता रहा है। उसमें जो सफलता मिली है, वह लगभग इसी स्तर की मानी जा सकती है जितनी की मानवी पुरुषार्थ के अंतर्गत आने की परिकल्पना की जा सकती है। मानवी पुरुषार्थ और साधना के समन्वय से संसार के इतिहास में बहुत कुछ ऐसा बन पड़ा है, जिसे असाधारण भी कहा जा सकता है और आश्चर्यजनक भी। इसी आधार पर मिशन के दृश्य प्रयास जिस प्रकार बन पड़े हैं और उसके प्रतिफल जिस प्रकार के सामने आए, उन्हीं में इन्हें भी एक गिना जा सकता है।

    किन्तु जो काम बन पड़ा है, उसकी तुलना में हजार- लाख गुना और करने के लिए पड़ा है। वह अदृश्य जगत से सम्बन्धित एवं सूक्ष्म स्तर का भी है। उसकी जड़ें चेतना क्षेत्र के सूक्ष्म जगत में असाधारण गहराई में घुसी हुई हैं। प्रस्तुत विकृतियाँ भी अभूतपूर्व हैं। जो बदलाव, परिष्कार प्रस्तुत किया जाना है, वह भी ऐसा है जिसे अभूतपूर्व ही कहा जा सकता है।

    भूतकाल में भी अनीति का उन्मूलन और नीति का संस्थापन बराबर होता रहा है, पर वह परिवर्तन रहे क्षेत्र स्तर के ही हैं। भूतकाल में साधनों और वाहनों के अभाव में दुनियाँ इतनी निकट नहीं आई थी कि समस्त संसार को एक गाँव- कस्बे की तरह आँका जा सके और प्रगति और अवगति की समस्याएँ समस्त विश्व को थोड़े- बहुत हेर- फेर के साथ एक ही स्तर पर प्रभावित करें। इसलिए अपने समय का व्यापक परिवर्तन इतने स्तर का, इतना उलझा हुआ एवं इतना विस्तृत है कि उसे अब तक के सुधार- परिवर्तनों की तुलना में अद्भुत, अनुपम एवं अभूतपूर्व ही कहा जा सकता है। इसके लिए प्रयत्न भी हल्के- फुल्के करने से काम नहीं चलेगा, वरन वह इतने प्रबल, इतने प्रचण्ड, इतने सशक्त और इतने व्यापक होने चाहिए; जिन्हें असाधारण ही कहा जा सके।

    विज्ञान के पक्षधरों ने दुनियाँ को अधिक सुखद बनाने के लिए परिकल्पनाएँ कम नहीं की हैं। उन्होंने असाधारण ढाँचे खड़े करने और अद्भुत प्रयोग करने, साधन जुटाने के लिए कम माथा- पच्ची नहीं की है, पर उन सबमें एक ही कमी रही है कि वे भौतिक परिप्रेक्ष्य में भौतिक उपचारों से ही सुधार लाने की बात पर विश्वास करते हैं। आकाश पर कब्जा कर लेने, समुद्र क्षेत्र पर आधिपत्य जमा लेने, प्रकृति- सम्पदाओं में से और भी अधिक छीन लेने, अनुपयुक्त को नष्ट करने वाले उपकरण ढूँढ़ने, सम्पदा- संवर्धन के नए स्रोत खोज निकालने जैसी योजनाएँ ही बन रही हैं, जिन्हें इक्कीसवीं सदी की समुन्नत योजनाएँ कहा जाता है। लोग कुछ स्तर तक विश्वास भी करते हैं कि भौतिक विज्ञान अति समर्थ है। उसने अब तक एक से एक बढ़कर उपलब्धियाँ प्रस्तुत की हैं और अपने आविष्कारों से जादू लोक जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी हैं तो भविष्य के लिए उसकी जो योजनाएँ हैं, अवधारणाएँ हैं, वे क्यों पूर्ण न होंगी?

इस आशा की एक झलक झाँकी के उपरान्त तत्काल दूसरा पक्ष समझ में आता है कि उसने भौतिक उपलब्धियों से कुछेक समर्थों के लिए बढ़- चढ़कर सुविधा- साधन उपलब्ध करने के अतिरिक्त और कोई ऐसा आधार प्रस्तुत नहीं किया है, जिससे मानसिक क्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों का निराकरण हो सके और मानवी व्यवहार में सद्भावना का अभिवर्धन हो सके। ऐसी दशा में आगे भी विज्ञान के आधार पर जो और भी प्रगति होगी, वह वर्तमान प्रचलन को ही उत्तेजित करेगी। उसमें मानवी उत्कृष्टता का न तो कोई पक्ष जुड़ सका है और न ऐसा कुछ बन पड़ने की सम्भावना है, जिससे जन साधारण को मानवी गरिमा की मर्यादाओं में अनुबन्धित किया जा सके। यदि ऐसा न बन पड़ा, तो सम्पन्नता और समर्थता के साथ- साथ अनीति भी बढ़ती ही जाएगी और अन्ततः: प्रस्तुत प्रगति योजनाएँ भयावह विपन्नता के अतिरिक्त और कुछ उपलब्ध न कर सकेंगी।

    समस्याएँ प्रत्यक्षवाद के साथ जुड़ी हुई अनैतिकता के कारण उत्पन्न हुई हैं। जड़ को काटे बिना विषवृक्ष की कुछेक पत्तियाँ तोड़ देने भर से क्या कुछ बनने वाला है? एक नाम रूप वाली विपत्तियाँ दूसरे नाम रूप से सामने आएँ, इसके अतिरिक्त वैज्ञानिक उपचारों से और कुछ हेर- फेर बन पड़ने वाला नहीं है।

    स्मरण पुरातन सतयुग का आता है, जब साधनों की आज की तुलना में कहीं अधिक कमी थी, पर साथ ही सद्भावनाओं के समुन्नत रहने पर लोग उस स्थिति में भी इस प्रकार रह लेते थे, जिन्हें आज भी स्वर्गोपम होने का प्रतिपादन इतिहासकार करते हैं। उन परिस्थितियों का जन्म तपस्वियों द्वारा सूक्ष्म जगत का, चेतना- क्षेत्र का परिष्कार कर सकने पर ही सम्भव हुआ था। आज भी वही एक मात्र विकल्प है, जिसे अपनाकर मनुष्य की देवोपम सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को उभारा जा सकता है और इसी अवरोध के कारण उत्पन्न हुई सभी विकृतियों का, सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है।

    सतयुग- ऋषियुग था। ऋषियों के पास तपोबल ही एकमात्र शस्त्र था। वृत्तासुर के अनाचार पर दधीचि ऋषि की अस्थियों से बना वज्र इतना प्रचण्ड प्रहार कर सका था कि उसे इन्द्र वज्र का नाम दिया गया और उसने वृत्तासुर की व्यापक अवांछनीयता को निरस्त करके रख दिया। अपने समय में विश्वामित्र ने भी ऐसा तपयज्ञ सम्पन्न किया था, जिससे उस समय की व्यापक असुरता का निराकरण सम्भव हुआ और त्रेता में सतयुग की सुसंस्कारिता वापिस लौट आई। भगीरथ का तप ऐसे ही सत्परिणामों का माध्यम बना था।

        अभी कुछ दिन पूर्व योगी अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस स्तर की आत्माओं ने प्रचण्ड अध्यात्म का मार्ग अपनाया और इसी कारण भारत को नया आश्वासन देने वाले दर्जनों महामानव एक साथ उत्पन्न हुए थे। बुद्ध की साधना को भी तत्कालीन वातावरण में भारी हेर- फेर कर सकने वाली माना जा सकता है।

    विगत ५० वर्षों में इतने सहयोगी, अनुगामी उत्पन्न हुए हैं कि उनके ऊपर भौतिक स्तर पर महाक्रान्ति की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है और हमें उच्चस्तरीय तपश्चर्या के लिए अवसर मिल सकता है। सो मार्गदर्शक के अनुसार सन् ९० के वसन्त से अपने लिए एक मात्र कार्य सूक्ष्म जगत में भावनात्मक परिवर्तन लाने के लिए आज की परिस्थितियों के अनुरूप विशिष्ट स्तर की तप- साधना करने के लिए निर्देश मिला है। सो, उसी दिन से उस प्रयोग को तत्काल अपना लिया गया है। सैनिक अनुशासन पालने वाले के लिए और कोई ननुनच करने जैसा विकल्प है भी तो नहीं।
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