परिवर्तन के महान् क्षण

भौतिकवाद की उलटबाँसियाँ

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
जब विष को अमृत की मान्यता मिल जाए और उसे प्राप्त करने के लिए हर किसी को लालायित पाया जाए, तब परिवर्तन अति कठिन पड़ता है। हानि को लाभ समझा जाने लगे और लाभ को गहराई तक समझने में कठिनाई पड़े, उसे हानि समझा जाने लगे तो उल्टी समझ को सीधी करना बहुत कठिन पड़ता है। प्राचीन काल में कम से कम मान्यताएँ तो सही थीं। उठते कदम राजमार्ग को अपनाते थे पर अब तो स्थिति ही कुछ दूसरी बन गई है। भटका हुआ अपने आपको सही मानता और सबको अपने साथ ले चलने का आग्रह करता है। तात्कालिक लाभ सब कुछ बन गया है। उसका परिणाम कल या परसों क्या हो सकता है, यह सोचने की किसी को फुरसत नहीं। कुकर्म करने में भी समय, श्रम, साहस और पुरुषार्थ नियोजित करना पड़ता है। बिना हिम्मत के तो चोरी- डकैती करते भी नहीं बन पड़ता। खतरा तो व्यभिचार- अनाचार के लिए उद्यत होने वालों के सामने भी रहता है। उस अनाचार में लगे हुए व्यक्ति भी कम जोखिम नहीं उठाते, फिर भी न जाने क्यों मान्यता यह बन गई है कि सच्चाई का, अच्छाई का रास्ता अपनाने वाले घाटे में रहते हैं। फायदा सिर्फ अनाचारियों को होता है। इस मान्यता के पक्ष में उन्हें अपने इर्द- गिर्द ही ऐसे लोग मिल जाते हैं जो कुकर्म करके हाथों- हाथ नफा कमा लेते हैं।

इतने दूर तक सोचने की उन्हें आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती कि अनुचित रीति से उठाया हुआ लाभ किस प्रकार दुर्व्यसनों में फँसाता, अपयश का भारी वजन लादता और अन्त में ऐसे दुष्परिणाम उत्पन्न करता है जिससे न केवल अपनों को वरन् साथियों समेत समूचे समुदाय को पतन एवं पराभव के गर्त में गिरना पड़ता है। लगता है कि मृगतृष्णा में भटकने वाले, कस्तूरी की तलाश में दौड़ लगाते रहने वाले हिरन खीज, थकान, निराशा और असमंजस के कारण बेमौत मर रहे हैं। अवांछनीयता अपनाकर कमाई हुई सफलता तत्काल न सही थोड़ी ही देर में थोड़ा ही आगे बढ़कर ऐसे संकट सामने ला खड़े करती है, जिनसे उबरना कठिन हो जाता है।

पर उनके लिए क्या कहा और क्या किया जाए जिनकी मन्द दृष्टि मात्र कुछ ही इंच- फुट तक का देख सकने में साथ देती है। आगे चलकर कितने बड़े खाईं- खन्दक हैं। जिनमें एक बार गिर पड़ने पर कोई सहायता के लिए भी आगे नहीं आता है और जिस- तिस को कोसते हुए भयावह अंत का सामना करना पड़ता है। इन दिनों ऐसी ही कुछ गजब की गाज गिरी है। विज्ञान के आधार पर मिली, नीतिमत्ता से सर्वथा विलग सफलताओं ने कुछ ऐसा व्यामोह उत्पन्न कर दिया है कि लोग कुमार्ग पर चलते और दुर्गति के भाजन बनते देखे जाते हैं। प्रचलन यही बना रहा तो उसका दुष्परिणाम व्यक्ति और समाज के सम्मुख इस स्तर की विभीषिका बनकर सामने आएगा, जिससे बाद में उबर सकना शायद सम्भव ही न रहेगा। तथाकथित प्रगति अवगति से भी अधिक महँगी पड़ेगी।

    इन दिनों हर क्षेत्र में प्रवेश किए हुए समस्याओं, अवांछनीयताओं, विडम्बनाओं के लिए दोष किसे दिया जाए? और उसका समाधान कहाँ ढूँढ़ा जाए? इस सन्दर्भ में मोटे तौर से एक ही बात कही जा सकती है कि प्रत्यक्षवाद की पृष्ठभूमि पर जन्मे भौतिकवाद ने लगभग सभी नैतिक मूल्यों की उपयोगिता, आवश्यकता मानने से इंकार कर दिया है। उसी प्रत्यक्षवादिता को प्रामाणिकता का एक स्वरूप मानने वाले जन- समुदाय ने हर प्रसंग में यही नीति अपना ली है कि प्रत्यक्ष एवं तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ माना जाए। जिसमें हाथों- हाथ भौतिक लाभ मिलने की बात बनती हो, उसी को स्वीकारा जाए। इस कसौटी पर नीति, सदाचार, उदारता, संयम जैसे उच्च आदर्शों के लिए कोई जगह नहीं रह जाती है। इस प्रत्यक्षवादी तत्त्वदर्शन ने ही मनुष्य को स्वेच्छाचारी बनने के लिए प्रोत्साहित किया है। उन परम्पराओं को छिन्न- भिन्न करके रख दिया है, जो मानवी गरिमा के अनुरूप मर्यादाओं के परिपालन एवं वर्जनाओं का परित्याग करने के लिए दबाव डालती और सहायता करती थीं।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118