सन् ९० की इसी वसन्त पंचमी से एकान्त स्तर की समूचे समय चलने वाली- समग्र
अध्यात्म साधना के हमारे भावी कार्यक्रम की जानकारी प्राप्त करने के
उपरान्त उन लोगों में कुछ हड़बड़ी उभरी दीख पड़ती है, जो युग निर्माण की
अभिनव योजनाओं में अभी- अभी लगे हैं। इन्हें कठिनाई यह दीखती है कि समर्थ
सेनानायक का सीधा सम्पर्क रहने पर जो प्रयास सफलतापूर्वक चल रहे थे, वे आगे
किस प्रकार चल पाएँगे? साधन कैसे जुटेंगे? प्रोत्साहन और सहयोग कहाँ से
मिलेगा? ऐसे सभी लोगों तक सन्देश पहुँचा दिया गया है कि सूक्ष्म स्तर की
गतिविधियाँ अपना लेने पर भी हम अपने प्रत्यक्ष उत्तरदायित्वों को निभा सकने
में भी समर्थ रहेंगे। वह कार्य स्थूल शरीर द्वारा अपनाई जाने वाली
प्रत्यक्ष गतिविधियों जैसा भले ही न हो, पर सूक्ष्म चेतना में इतनी क्षमता
मानी ही जानी चाहिए कि वह मात्र सूक्ष्म जगत तक ही सीमाबद्ध नहीं रह जाती,
प्रत्यक्ष जगत को प्रभावित करने में भी उसकी सशक्त भूमिका निभती रह सकती
है।
शान्तिकुञ्ज हमारे प्रत्यक्ष शरीर के रूप में विद्यमान है,
तो फिर उससे सम्बन्धित लोगों को आवश्यक प्रेरणाएँ और प्रकाश किरणें भी
मिलती रहेंगी, जिनकी ऊर्जा और आभा से संसार भर के महत्त्वपूर्ण प्रयोजन
गतिशील बने रहेंगे। अगले दिनों सम्भवत: किसी को हमारी अनुपस्थिति अखरेगी
नहीं वरन् वह दृश्य दृष्टिगोचर होगा, जिसमें एक बीज वृक्ष बनकर नए हजारों-
लाखों बीज उत्पन्न करता है। प्रत्यक्ष भूमिका निभाने की कमी को कोई यह न
माने कि मृत्यु हो गई। दिव्य तत्त्व कभी मरते नहीं। शरीर बदल लेने पर
आत्मसत्ता का अस्तित्व नहीं बदल जाता। यदि वह सशक्त हो, तो स्थूल शरीर का
भार एवं बन्धन हट जाने से वह और भी अधिक गतिशीलता का परिचय देने लगता है।
यही कारण है कि भारतीय परम्परा में मात्र जन्मदिवस मनाए जाते हैं। मृत्यु
दिवस की तो आश्विन पितृपक्ष में ही एक हल्की- फुल्की चर्चा होती हैं।
स्वामी रामतीर्थ ने मरने के कुछ ही समय पूर्व ‘‘मौत के नाम खत’’ नाम से एक
दस्तावेज लिखा है। वह है तो लम्बा और मार्मिक पर उसका सारांश इतना ही है
कि ‘‘शरीर का भार लदा रहने से मैं वह नहीं कर पा रहा हूँ, जो कर सकता था।
इसलिए इस वजन के अपने ऊपर से हटते ही हवा के साथ, चाँदनी के साथ, किरणों के
साथ, वसन्त वर्षा के साथ मिलकर बहुत उपयोगी बन सकूँगा और अधिक प्रसन्नता
भरे उल्लास का रसास्वादन कर सकूँगा।’’
अस्सी वर्ष जी लेने के
उपरान्त और अधिक जीने की इच्छा तो तनिक भी नहीं है; पर अपनी मर्जी से तो न
जीना हो सका और न मरना हो सकता है। नियंता की मर्जी ही प्रमुख है। इतने पर
भी यह निश्चित है कि शरीर के बिना भी बहुत कुछ करते बन पड़ेगा। इसका
पूर्वाभ्यास इन दिनों चल रहा है। एकान्त सेवन के साथ जुड़ी हुई निष्क्रियता
दीख पड़ने पर भी यह जाँचा जा रहा है कि स्फूर्तिवान् शरीर से लदे रहने पर
जितना कुछ करते बन पड़ा करता था, अब उसमें कुछ कमी तो नहीं आ गई है।
निष्कर्ष यही निकल रहा है कि इस स्थिति में सीमित को असीम बनाने में
समर्थता का अधिक बढ़- चढ़ कर परिचय देने में सहायता ही मिल रही है। इस आधार
पर विश्वास परिपक्व हो गया है कि जीवित रहने की अपेक्षा शरीर न रहने पर
समर्थता एवं सक्रियता और भी अधिक बढ़ जाती है। इसी मान्यता के आधार पर
प्रज्ञा परिजनों से विशेष रूप से कहा जा सकता है कि आँखों से न दीख पड़ने
पर तनिक भी उदास न हों और निरन्तर यह अनुभव करें कि हम उन्हें अधिक प्यार,
अधिक उत्कर्ष और अधिक समर्थ सहयोग दे सकने की स्थिति में तब भी होंगे, जब
यह पंच भौतिक ढकोसला मिट्टी में मिल जाएगा। जो पुकारेगा, जो खोजेगा उसे हम
सामने खड़े और समर्थ सहयोग करते दीख पड़ेंगे।
अदृश्य अध्यात्म
की सामर्थ्य दृश्यमान विज्ञान की तुलना में कम तो नहीं है, इस असमंजस को
इतने दिनों जीकर, अभीष्ट प्रयोग की दिशा में निरत रहकर यह भली- भाँति जान
लिया है कि आत्मबल संसार के समस्त बलों की तुलना में अधिक सामर्थ्यवान है।
विज्ञान की पहुँच मात्र जड़ पदार्थों तक है, जबकि अध्यात्म जड़ ही नहीं,
चेतना को भी प्रभावित, परिष्कृत करने में समर्थ है। उसका अमृत, पारस,
कल्पवृक्ष, कामधेनु आदि के नामों से आलंकारिक सम्बोधन किया जाता है। वह
कथानक प्रकारान्तर से सच्चाई के साथ जुड़ा हुआ है।