परिवर्तन के महान् क्षण

नीतिरहित भौतिकवाद से उपजी दुर्गति

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ऊँचा महल खड़ा करने के लिए किसी दूसरी जगह गड्ढे बनाने पड़ते हैं। मिट्टी, पत्थर, चूना आदि जमीन को खोदकर ही निकाला जाता है। एक जगह टीला बनता है तो दूसरी जगह खाई बनती है। संसार में दरिद्रों, अशिक्षितों, दुःखियों, पिछड़ों की विपुल संख्या देखते हुए विचार उठता है कि उत्पादित सम्पदा यदि सभी में बँट गई होती तो सभी लोग लगभग एक ही तरह का -- समान स्तर का जीवन जी रहे होते। अभाव कृत्रिम है। वह मात्र एक ही कारण उत्पन्न हुआ है कि कुछ लोगों ने अधिक बटोरने की विज्ञान एवं प्रत्यक्षवाद की विनिर्मित मान्यता के अनुरूप यह उचित समझा है कि नीति, धर्म, कर्तव्य सदाशयता, शालीनता, समता, परमार्थ परायणता जैसे उन अनुबन्धों को मानने से इंकार कर दिया जाए जो पिछली पीढ़ियों में आस्तिकता और धार्मिकता के आधार पर आवश्यक माने जाते थे। अब उन्हें प्रत्यक्षवाद ने अमान्य ठहरा दिया, तो सामर्थ्यवानों को कोई किस आधार पर मर्यादा में रहने के लिए समझाए? किस तर्क के आधार पर शालीनता और समता की नीति अपनाने के लिए बाधित करे। पशुओं को जब नीतिवान परोपकारी बनाने के लिए बाधित नहीं किया जा सका, तो बन्दर की औलाद बताए गए मनुष्य को यह किस आधार पर समझाया जा सके कि उसे उपार्जन तो करना चाहिए पर उसको उपभोग में ही समाप्त नहीं कर देना चाहिए। सदुपयोग की उन परम्पराओं को भी अपनाना चाहिए जो न्याय, औचित्य, सद्भाव एवं बाँटकर खाने की नीति अपनाने की बात कहती है। यदि वह अध्यात्मवादी प्रचलन जीवित रहा होता तो प्रस्तुत भौतिकवादी प्रगति के आधार पर बढ़ते हुए साधनों का लाभ सभी को मिला होता। सभी सुखी एवं समुन्नत पाए जाते। न कोई अनीति बरतता और न किसी को उसे सहने के लिए विवश होना पड़ता ।।

    विज्ञान ने जहाँ एक से एक अद्भुत चमत्कारी साधन उत्पन्न किए वहाँ दूसरे हाथ से उन्हें छीन भी लिया। कुछ समर्थ लोग जन्नत का मजा लूटते और शेष सभी दोषारोपण की सड़न में सड़ते हुए न पाए जाते। विज्ञान के साथ सद्ज्ञान का समावेश भी यदि रह सका होता तो भौतिक और आत्मिक सिद्धान्तों पर आधारित प्रगति सामने होती और उसका लाभ हर किसी को समान रूप से मिल सका होता। पर किया क्या जाए? भौतिक विज्ञान जहाँ शक्ति और सुविधा प्रदान करता है, वहीं प्रत्यक्षवादी मान्यताएँ नीति, धर्म, संयम, स्नेह, कर्तव्य आदि को झुठला भी देता है। ऐसी दशा में उद्दण्डता अपनाए हुए समर्थ का दैत्य- दानव बन जाना स्वाभाविक है। उनका बढ़ता वर्चस्व उन दुर्बलों का शोषण करेगा ही जिन्हें प्रगति ने बहुलता से पैदा करके समर्थों को उदार बनने एवं ऊँचा उठाने का श्रेय देने के लिए पैदा किया है। तथाकथित प्रगति ने इसी नीतिमत्ता का बोलबाला होते देखने की स्थिति पैदा कर दी है।

    उदाहरण के लिए प्रगति के नाम पर हस्तगत हुई उपलब्धियों को चकाचौंध में नहीं उनकी वस्तुस्थिति में खुली आँखों से देखा जा सकता है। औद्योगीकरण के नाम पर बने कारखानों ने संसार भर में वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण भर दिया है। अणु शक्ति की बढ़ोत्तरी ने विकिरण से वातावरण को इस कदर भर दिया है कि तीसरा युद्ध न हो तो भी भावी पीढ़ियों को अपंग स्तर की पैदा होना पड़ेगा। ऊर्जा के अत्यधिक उपयोग ने संसार का तापमान इतना बढ़ा दिया है कि हिम प्रदेश पिघल जाने पर समुद्रों में बाढ़ आने और ओजोन नाम से जानी जाने वाली पृथ्वी की कवच फट जाने पर ब्रह्माण्डीय किरणें धरती की समृद्धि को भूनकर रख सकती हैं। रासायनिक खाद और कीटनाशक मिलकर पृथ्वी की उर्वरता को विषाक्तता में बदलकर रखे दे रहे हैं। खनिजों का उत्खनन जिस तेजी से हो रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि कुछ ही दशाब्दियों में धातुओं का, खनिज तेलों का भण्डार समाप्त हो जाएगा। बढ़ते हुए कोलाहल से तो व्यक्ति और पगलाने लगेंगे। शिक्षा का उद्देश्य उदरपूर्ति भर रहेगा, उसका शालीनता के तत्त्वदर्शन से कोई वास्ता न रहेगा। आहार में समाविष्ट होती हुई स्वादिष्टता प्रकारान्तर से रोग- विषाणुओं की तरह धराशायी बनाकर रहेगी। कामुक उत्तेजनाओं को जिस तेजी से बढ़ाया जा रहा है, उसके फलस्वरूप न मनुष्य में जीवनी शक्ति का भण्डार बचेगा, न बौद्धिक प्रखरता और शील- सदाचार का कोई निशान बाकी रहेगा। पशु- पक्षियों और पेड़ों का जिस दर से कत्लेआम हो रहा है, उसे देखते हुए यह प्रकृति छूँछ होकर रहेगी। नीरसता, निष्ठुरता, नृशंसता, निकृष्टता के अतिरिक्त और कुछ पारस्परिक व्यवहार में कोई ऊँचाई शायद ही दीख पड़े। मूर्धन्यों का यह निष्कर्ष गलत नहीं है कि मनुष्य सामूहिक आत्म- हत्या की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है। नशेबाजी जैसी दुष्प्रवृत्तियों की बढ़ोत्तरी देखते हुए कथन कुछ असम्भव नहीं लगता। स्नेह सौजन्य और सहयोग के अभाव में मनुष्य पागल कुत्तों की तरह एक- दूसरे पर आक्रमण करने के अतिरिक्त और कुछ कदाचित ही कर सके।

मनुष्य जाति आज जिस दिशा में चल पड़ी है, उससे उसकी महत्ता ही नहीं, सत्ता का भी समापन होते दीखता है। संचित बारूद के ढेर में यदि कोई पागल एक माचिस की तीली फेंक दे, तो समझना चाहिए कि यह अपना स्वर्गोपम धरालोक धूलि बनकर आकाश में न छितरा जाए। विज्ञान की बढ़ोत्तरी और ज्ञान की घटोत्तरी ऐसी ही विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न करने में बहुत विलम्ब भी नहीं लगने देंगी। ऐसा दीखता है।
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