शिक्षा ही नहीं विद्या भी

वाणी द्वारा युग चेतना का प्रसार-विस्तार

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इन दिनों जन साधारण के सोचने का तरीका लोभ-मोह और अहंकार के साथ बुरी तरह जुड़ गया है। चल रहे ढर्रे को अभ्यास में इस कदर उतार लिया गया है कि अवांछनीय होने पर भी उसका मोह छोड़े नहीं छूटता। इस स्थिति को पूरी तरह उलटना पड़ेगा और क्रिया-कलापों में, विचारणा-आकांक्षाओं में इतना हेरफेर करना पड़ेगा, जिसे स्वतंत्र चिंतन एवं नव निर्धारण की संज्ञा दी जा सके। अपना सो अच्छा, पराया सो बुरा की मान्यता सही नहीं है। सत्य के दर्शन जहाँ से भी होते हैं, वहीं से उसका चयन करना चाहिए। औचित्य को अंगीकृत करने में हमें राजहंस की तरह नीर-क्षीर विवेेक की नीति अपनानी चाहिए। विचारक्रांति का स्वरूप भी यही है।

    विचारों को प्रभावित करने वाली दो प्रक्रियाएँ सर्व साधारण की जानकारी में है। एक वाणी दूसरी लेखनी। इसमें से पहली द्वारा सत्संग संपन्न होता है, दूसरी स्वाध्याय का सरंजाम जुटाती है। वाणी का लाभ शिक्षित-अशिक्षित दोनों ही समान रूप से उठा लेते है। लेखनी को अशिक्षित लोग पढ़ नहीं पाते, पर सुन वे भी लेते हैं। इन दोनों को छैनी-हथौड़ा मानकर, हमें कठोर पत्थर जैसी निष्ठुर स्वार्थपरता को युग के अनुरूप आकार में गढ़ना चाहिए। वाणी और लेखनी को प्रचंड अस्त्र-शस्त्र मानकर हमें संव्याप्त असुरता से लड़ने के लिए सीना तानकर जूझने के लिए युद्ध क्षेत्र में उतरना चाहिए।

    यों सत्संग के नाम पर सड़ा-गला कूड़ा-कचरा लोगों के सिरों पर थोपा जाता रहता है; पर उपयोगिता की कसौटी पर कसकर उसकी सार्थकता तभी स्वीकार करनी चाहिए, जब वह आज की समस्याओं का आदर्शवादी एवं व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत कर रहा हो। स्वाध्याय के संबंध में भी इसी कसौटी का प्रयोग होना चाहिए। आवश्यक नहीं कि वह किसी पुराने व्यक्ति द्वारा, पुरानी भाषा में लिखी गयी हो। जो पुराना, सो सच-यह मान्यता ऐसी नहीं है जिसे आँखें बंद करके, नाक मूँदते हुए गले उतार ही लिया जाए। कोई बूढ़ा भी सनकी हो सकता है और कोई किशोर भी समझदारी की बात कह सकता है। क्या अंगीकार करें? उसका एक ही उत्तर हो सकता है कि जिसमेें औचित्य का गहरा पुट हो, जिसमें समाधान के तर्क, तथ्य, उदाहरण और प्रमाण इस अनुपात में विद्यमान हों कि सीधे गले उतर चलें और उत्कृष्टता की पक्षधर हलचल उत्पन्न कर सकें । लेखनी और वाणी का युग चेतना से जुड़ा हुआ प्रयोग हमें इन दिनों इसी स्तर पर करना चाहिए।

    वाणी का सर्वविदित उपयोग व्याख्यान, प्रवचनों के रूप में ही होता आया है, किं तु उसके लिए यह आवश्यक पड़ता है कि अधिक लोगों का बड़ा समुदाय एक जगह एकत्रित हो और उसका स्वरूप सभा-समारोह जैसा न सही, कम से कम विचार गोष्ठी जैसा तो बन ही जाए। कठिनाई यह है कि ऐसा सरंजाम जुटाना इन दिनों अति-आडंबर भरा और संकीर्ण हो गया है। जानने वाले जानते हैं कि रैलियाँ निकालने वालों और बड़े सम्मेलन बुलाने वालों को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं और कितनी बड़ी राशि खर्चनी पड़ती है। फिर अधिक बड़ी भीड़ का जमाव वहाँ भी मेले-ठेले जैैसा बनकर रह जाता है। ध्वनि विस्तारकों से सुनने वालों के मनों में भी कोई तीखी प्रेरणा नहीं उभरती, जिससे कुछ आदर्शवादी उमंग उभरने की आशा की जा सके।

पुराने जमाने में लाउडस्पीकर नहीं थे, इसलिए विशाल भीड़ जमा करने वाले समारोहों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। उन दिनों छोटे आकार के कथा प्रवचनों से काम चलाया जाता था। हमें उसी पुरातन परंपरा पर लौटना पड़ेगा। छोटे देहातों के गली- मुहल्लों में बिखरे हुए जन समुदाय को नुक्कड़ सभाओं जैसी प्रक्रिया अपनाकर काम चलाना होगा। चुनावों में खड़े होने वाले भी यही तरीका अपनाते हैं।

    पहाड़ खुद चलकर अपने घर न आए तो दूसरा तरीका यही शेष रहता है कि खुद चलकर पहाड़ की तलहटी या चोटी तक पहुँचा जाए। प्रसुप्त जनमानस को उनींदी खुमारी से जगाने-झकझोरने के लिए स्वयं ही भाग-दौड़ करने का औचित्य है। उस प्रयोजन के लिए प्रज्ञा पुराण की कथा मुहल्ले-मुहल्ले करने का एक सफल प्रयोग पिछले लंबे समय से चल रहा है। अब पर्व -त्यौहारों पर छुट्टी का दिन भी इसके लिए उपयुक्त समझा गया है कि उस बहाने लोगों को एकत्रित करके, हर पर्वों के साथ जुड़ी हुई प्रगतिशीलता को उभारा और जनमानस को आवश्यक परिवर्तन के लिए प्रोत्साहित किया जाए। मेले और प्रदर्शनियाँ भी इस प्रयोजन के लिए कारगर हो सकती हैं।

    एक नितांत अभिनव प्रयोग इन दिनों और आविष्कृत किया गया है। साइकिल के पहियों वाला ज्ञानरथ इस प्रकार का बनाया जाए, जिसमें बैटरी, टेपरिकार्डर और लाउडस्पीकर लगे हुए हों। उसमें मुुफ्त पढ़ाने या बेचने के लिए युग साहित्य भी प्रस्तुत रहे। इसे गली मुहल्लों, हाट बाजारों में घुमाया जाए। युग चेतना से परिपूर्ण संगीत बजता रहे, प्रवचन चलता रहे। अधिक जानने के उत्सुकों को युग साहित्य पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहे। इस प्रकार प्रकार प्रभात फेरियाँ निकालने, मुहल्ले-मुहल्ले अलख जगाने, नुक्कड़ सभाएँ जुटाने का बहुमुखी कार्यक्रम दिनभर चलता रह सकता है। इसे घुमाने के लिए कोई साधारण समझ का आदमी भी काम करता रह सकता है। आवश्यक नहीं कि वह वक्ता, गायक, प्रचारक स्तर का ही हो। थोड़ी समझदारी भर हो, तो ज्ञानरथ को बारी-बारी से मुहल्ले-मुहल्ले घुमाते हुए किसी बड़े बाजार-शहर के कोने-कोने में भी युग संदेश पहुँचाने का कार्य चल सकता है।

    इसी योजना के दो छोटे संस्करण भी बने हैं। इनमें से एक है, साधारण साइकिल पर उपरोक्त प्रचार सामग्री फिट कर दी जाए। उससे सवारी का काम भी लिया जा सकता है और अधिक विस्तृत कार्य क्षेत्र में काम किया जा सकता है। दूसरा है एक छोटी अटैची-उपकरण स्तर का, इसमें भी उपरोक्त सभी प्रचार सामग्री फिट है। इसे किसी भी घर, मुहल्ले, पार्क, मंदिर घाट आदि लोगों के इकट्ठे होते रहने वाले स्थान पर लगाया और नवयुग का संदेश, गायनों और भाषणों के माध्यम से सुनाया जा सकता है।

    उपरोक्त तीनों प्रचार वाहनों में ऐसी बैटरी लगी है, जिसे दिन भर काम में लाया जा सकता है और रात को बिजली से, चार्जर के माध्यम से फिर नए सिरे से काम करने योग्य बनाया जा सकता है। इन तीनों की आधारभूत लागत भी इतनी है, जिसे कोई साधारण स्थिति का व्यक्ति भी आसानी से वहन कर सके। छोटा उपकरण प्राय: एक हजार का, साइकिल वाला दो हजार का और चार पहियों वाला मंदिरनुमा उपकरण तीन-साढ़े तीन हजार बन जाता है। साइकिल या ज्ञानरथ पहले से पास हो तो उसका मूल्य कम हो जाता है।

    जहाँ इनमें से कोई उपकरण न बन पड़े, वहाँ खंजरी, मजीरा के सहारे एक या दो व्यक्ति प्रचार कार्य करते रह सकते है। उसमें लागत बीस पच्चीस रुपये भर आती है और उस माध्यम से जहाँ भी दस-बीस आदमी इकट्ठे हों, वहाँ अपना युग प्रतिपादन आसानी से आरंभ किया जा सकता हैै।

 

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