शिक्षा ही नहीं विद्या भी

परिवर्तन की पुकार और गुहार

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एक भाषा-भाषी क्षेत्र का निवासी यदि दूसरी भाषा बोलने वाले क्षेत्र में बसने जाए, तो सर्वप्रथम उसे उस नये क्षेत्र की भाषा का अभ्यास करना पड़ेगा। वहाँ के रहन-सहन रीति-रिवाज विचार, संस्कृति आदि से परिचित होने की आवश्यकता पड़ेगी। यदि इसे सीखने-जानने की उपेक्षा बरती जाए, तो पग-पग पर गूँगे, बहरे, अजनबी की तरह परेशान होना पड़ेगा। ईसाई, पादरी प्राय: योरोपीय देशों से आते हैं। अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए वे एशिया-अफ्रीका आदि महाद्वीपों में जाकर बसते हैं और प्रमुख रूप से पिछड़े इलाकों को अपना कार्य क्षेत्र चुनते हैं। इससे पूर्व उन्हें वहाँ की भाषा, संस्कृति, समस्या आदि से परिचित होना पड़ता है, साथ ही यह भी जानना होता है कि उनके साथ किस प्रकार घुला-मिला जा सकता है। यदि इस प्रक्रिया को न अपनाया जाए और किसी भी पादरी को वहाँ भेज दिया जाए, तो वह उस अपरिचित स्थिति में कोई सफलता अर्जित न कर सकेगा।

    इक्कीसवीं सदी एक प्रकार से ऐसी परिस्थितियों वाली अवधि या परिधि है जिसमें प्रवेश करने वालों को पुरानी आदतें भुलानी और नए सिरे से नई जानकारियाँ अर्जित करके व्यवहार में उतारनी पड़ेगी। इसके बिना गाड़ी एक भी कदम आगे न चल सकेगी।

    युग परिवर्तन में मनुष्यों की आकृति तो अब जैसी ही रहेगी, पर उनकी प्रकृति बदल जाएगी। प्रकृति से यहाँ तात्पर्य-मान्यता भावना, विचारणा, इच्छा और गतिविधियों का समुच्चय है। यों प्रकृति शब्द संसार को गतिशील रखने वाले प्रवाह को भी कहते हैं, पर यहाँ तात्पर्य मात्र गुण, कर्म, स्वभाव से है। परिवर्तन इन्हीं में होना है। उज्ज्वल भविष्य की संभावना वाली भवितव्यता पूरी तरह इसी केंद्र-बिंदु पर निर्भर है। इसलिए भावी परिवर्तन की चर्चा करने वाले प्राय: यही कहते हैं कि अगले दिनों सर्वसाधारण की न सही, विचारवानों की प्रकृति तो लगभग इतनी बदल जाएगी, जिसे आमूलचूल हेर-फेर के रूप में देखा जा सके।

    इन दिनों प्रस्तुत असंख्य विपत्तियों का सबसे बड़ा निमित्त कारण एक ही है कि मनुष्य अदूरदर्शिता की व्याधि से ग्रस्त है। उसे लगता है कि तात्कालिक रसास्वाद को ही सब कुछ मान लिया जाए। जो कुछ सोचा या दिया जाए, उसे अपने आपे तक ही सीमित रखा जाए। बहुत हुआ तो उन्हें भी कुछ सहारा दे दिया जाए, जिनसे लाभ मिलता है या मिलने वाला है। इसके अतिरिक्त जो भी प्राणी या पदार्थ संसार में शेष रहते हैं, उनका दोहन किया जाए। वैसा न बन पड़े तो उपेक्षित छोड़ दिया जाए। अन्यान्यों के प्रति भी अपना कुछ कर्तव्य या उत्तरदायित्व है, इसे समझने या क्रियान्वित करने की अभिरूचि एक प्रकार से समाप्त जैसी ही हो गई है। योजनाएँ बनाने और प्रयास करने के लिए एकमात्र स्वार्थपरता ही शेष रहती है। परमार्थ तो मात्र मनोविनोद जैसी चर्चा का विषय रह जाता है। बहुत हुआ तो आत्म विज्ञापन के लिए उदारचेता होने का ढिंढोरा पिटवा कर अपनी मलीनता पर तनिक सी पॉलिश पोत ली।

    आज की मान्यता यही है। इसी आधार पर सोचा-विचारा जाता है और जो कुछ करना होता है, उसका ताना-बाना बुना जाता है। फलत: वही बन पड़ता है जिसे मानवी गरिमा के सर्वथा प्रतिकूल कहा जा सके। आत्म केंद्रित स्वार्थ परायण व्यक्ति, क्रमश: इतना निष्ठुर और कृपण हो जाता है कि अपनी उपलब्धियों में से राई-रत्ती भी सत्प्रयोजनों के लिए लगाने का मन नहीं करता। निष्ठुरता इतनी बढ़ जाती है कि दूसरों की पीड़ा एवं पतनोन्मुख स्थिति में सहारा देने के लिए राई-रत्ती उत्साह भी नहीं उभरता। लोक लाज की विवशता से यदाकदा कभी ऐसा कुछ करना पड़े, तो उसके बदले भी सस्ती वाहवाही को अपेक्षाकृत कहीं अधिक मात्रा में लूट लेने का उद्देश्य रहता है। जिससे बदला मिलने की आशा रहती है, उसी के साथ सद्व्यवहार का, सहायता का हाथ उठता है। यही है वह मौलिक दुष्प्रवृत्ति, जिसने असंख्यों छल प्रपंचों, अपराधों और अनर्थों को जन्म दिया है। बढ़ते-बढ़ते वह स्थिति अब इस स्तर तक पहुँच गई है कि हर किसी को अपनी छाया तक से डर लगने लगा है। लोकहित का ढिंढोरा पीटने वालों के प्रति सहज आशंका बनी रहती है कि कहीं कुछ सर्वनाशी अनर्थ का सरंजाम तो खड़ा नहीं कर दिया हैै।

सेवा-सहायता की आशा मूर्धन्यों से की जानी चाहिए, पर उनके प्रति और भी अधिक गहरा अविश्वास अपना परिचय देता है। प्रदूषण उगलकर हवा में जहर छोड़ते रहने वाले उद्योगपति यों अभावग्रस्तों के लिए प्रचुर परिमाण में सुविधा-साधन उत्पन्न करने की दुहाई देते है, पर वह संभावना पर्दे की ओट में छिपा दी जाती है, जिसके कारण विषैली साँस लेने के कारण असंख्यों को दुर्बलता और रुग्णता के शिकार बनकर घुट-घुट कर मरना पड़ता है। यही लोग हैं जो पेय जल में विषाक्त रसायन घोलते और पीने वाले के लिए अकाल मृत्यु का संकट उत्पन्न करते हैं। बड़े उद्योगों के कारण कितने छोटे श्रम-जीवियों को बेकार-बेरोजगार रहना पड़ता है; उसके विरुद्ध कोई मुँह भी नहीं खोल पाता।

    गुंडागर्दी इसलिए दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ती है कि उनका संगठित प्रतिरोध कर सकने की साहसिकता लगभग समाप्त हो गई है। मार्गदर्शन की, धर्मोपदेश की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है, वे मात्र परावलंबन का-भाग्यवाद का प्रतिपादन करते हैं। शौर्य-साहस जगाने में उनका दूर का भी वास्ता नहीं रहता। परावलंबन के पक्षधर उथले कर्मकाण्ड भर सिखाने की उनकी रीति-नीति चलती रहती है। जब इतने भर से उन्हें प्रचुर परिणाम में सम्मान सहित सुविधा-साधन मिल जाते हैं, तो उस विवेकशीलता को क्यों जगाएँ, जो समर्थ होने पर उल्टी उन्हीं के विरुद्ध विद्रोह खड़ा कर सकती है। कला ने कामुकता का बाना ओढ़कर अपने को अधिक लोकप्रिय बनाने का मार्ग चुना है। संपन्नता ऐसे उत्पादन करने में लगी है, जिनमें सर्वसाधारण को आकर्षक चकाचौंध तो दिख पड़ती है, पर अंतत: अहित के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। जब मूर्धन्यों का दृष्टिकोण यह है, तो सर्वसाधारण को उनका अनुकरण करते हुए कितने गहरे गर्त में गिरना पड़ेगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

    संक्षेप में यही है आज के प्रचलन की बानगी। नशेबाजी से लेकर बहु प्रजनन तक के कुप्रचलन इसी परिधि में आते हैं। पर्दा प्रथा, जातिगत ऊँच-नीच मृतक भोज, दुर्व्यसन एवं अपराध इसी संकीर्ण-स्वार्थपरता की सड़ी कीचड़ में पनपे हुए हैं, जिनके कारण हर किसी को दु:खी होकर समग्र परिवर्तन का आह्वान करना पड़ रहा है। बात सही भी है। विष वृक्ष की जड़े कटेें, तो ही उन फलों का उत्पादन रुके, जो व्यथा-वेदनाओं की भरमार करने में ही काम आते हैं।

    आज दसों दिशाएँ एक स्वर से किसी बड़े परिवर्तन की पुकार और गुहार मचा रही हैं। नियंता ने आश्वासन दिया है कि अगली एक शताब्दी के भीतर महाविनाश का विस्तार समेट लिया जाएगा और उज्ज्वल भविष्य का वातावरण बनेगा। इस परिवर्तन के लिए कुछ ऐसी ही तैयारी करनी होगी जैसे, एक भाषा के जानकार को किसी अन्य भाषाई क्षेत्र में काम करने भेजा जाए। छोटे प्रशिक्षण तक जब निष्णात प्रशिक्षकों की माँग करते हैं, तो युग परिवर्तन के लिए तो ऐसे महाशिल्पी चाहिए, जो नए युग और नए वातावरण का सृजन कर सके।


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