शिक्षा ही नहीं विद्या भी

युगचेतना का प्रचार विस्तार

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संयम और सेवा के दो व्रत धारण कर लेने पर अध्यात्म स्तर की कर्मयोग साधना बन पड़ती है। लोक शिक्षण इसी के अंतर्गत आता है। विद्या विस्तार यही है। इसी के माध्यम से चिंतन क्षेत्र पर छाई हुई विकृतियों का निराकरण किया जाता है। यदि मनुष्य सही सोचने और सही करने लगे, तो समझना चाहिए कि उसके लिए देवत्व अदृश्य न रहेगा, अपनी आभा और ऊर्जा का प्रत्यक्ष परिचय देने लगेगा। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए ५ लाख प्रौढ़ परिपक्वों तथा उनके साथ जुड़े हुए २० लाख गदराए प्रज्ञा-पुत्रों की सृजन-सेना विनिर्मित होती है। इसमें से एक लाख भूल-चूक के लिए छोड़ देने पर वे २४ लाख हर हालत में हो ही जाते हैं।

    संयम तप से अपने निर्वाह तथा महत्वाकाँक्षाओं में कटौती करने पर, इतने स्वल्प साधनों से जीवनचर्या बन पड़ती है कि तत्परता और तन्मयता अपनाने वाला हर व्यक्ति समय, श्रम, मनोयोग और साधनों की ढेरों बचत कर सकता है उस वक्त नव सृजन के लिए लगते रहते पर इतना कुछ बन पड़ सकता है कि महान परिवर्तन की संभावनाएँ साकार होने में किसी प्रकार का संदेह न रहे।

    हर परिजन को न्यूनतम दो घंटे का समय अपने क्षेत्र में युग-चेतना को व्यापक बनाने के लिए लगाते रहने के लिए कहा गया है। २४ लाख व्यक्तियों के दो-दो घंटे मिलकर ४८ लाख घंटे होते हैं। ६ घंटे का एक श्रम दिवस मान लिया जाए तो आठ लाख व्यक्तियों के पूरे दिन के काम के बराबर हो जाते हैं। यह नवसृजन के विविध प्रयोजनों में खपा सके, तो ऐसा उत्साहवर्धक वातावरण बन पड़ेगा, जिसकी कल्पना मात्र से पुलकित कर देने वाला उत्साह उमँगने लगे।

    चौबीस लाख व्यक्ति यदि न्यूनतम राशि २० पैसा ही एकत्रित करने लगें, तो वह चार लाख अस्सी हजार रुपया प्रतिदिन हो सकती है। इसे यदि सृजन शिल्पी विद्या विस्तार के लिए अपने-अपने क्षेत्र में मितव्ययिता एवं सतर्कतापूर्वक लगाने लगें, तो उतने भर से अगणित क्षेत्रों की सृजन आवश्यकताएँ सहज ही पूरी हो सकती हैं। तब न सरकार से सहायता माँगने की आवश्यकता पड़ेगी और न कहीं दरवाजे- दरवाजे चंदा करने की। अपने छोटे परिवार का छोटा अनुदान संयुक्त रूप से इतना समर्थ हो सकता हैै कि अपनी पहुँच का कोई घर-गाँव नवयुग का अलख नित्यप्रति सुनते रहने से वंचित नहीं रहे और एक करोड़ व्यक्ति नवचेतना से अनुप्राणित हो सकें।

    दुर्बुद्धि से, भ्रष्ट चिंतन और दुष्ट आचरण उभरता है। दुर्बुद्धि को भी कपड़े की तरह साबुन, पानी से धोया जा सकता है। यह दोनों हैं- स्वाध्याय और सत्संग। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि इन दोनों का नाम भर शेष है, पर उसका वास्तविक और प्राणवान स्वरूप न जाने कहाँ तिरोहित हो गया है। फिर दूसरी बात एक और है कि युग की समस्याओं के अनुरूप ही इन दोनों का निर्धारण होता है। युग चेतना, युग दृष्टाओं के मानस से उभरती है। इसी प्रकार सत्साहस भी उन्हीं प्राणवान व्यक्तित्वों का काम देता है, जो न केवल प्रखर प्रतिभा से संपन्न हो, वरन् सामयिक उलझनों के समाधान का भी व्यावहारिक स्वरूप प्रस्तुत करते हैं।

    शान्तिकुञ्ज की युग निर्माण योजना द्वारा युग साहित्य इन्हीं दिनों सृजा गया है, जिसका मूल्य प्राय: कागज स्याही जितना ही रखा गया है। कापीराइट भी किसी का नहीं है। कोई भी छाप सकता है। इसी प्रकार सत्संग केे लिए भी एक सीमित परिधि की विचारधारा निर्धारित की गई है। प्रवचनों में भी सीमित विचारों को गहराई तक उतार देने पर ही बात बनती है, अन्यथा सड़कों पर मजमा लगाने वाले भी कुछ न कुछ बकझक करते और भीड़ जमा कर लेते हैं। ऐसी बकवास को सुनना भी भारी पड़ता है, क्योंकि उससे उल्टा और अहितकर चिंतन भी गले बँध सकता है।


सत्संग के दो पक्ष हैं-एक गायन दूसरा प्रवचन। यों इन दोनों की आवश्यकता पूरी करने वाली सस्ती पुस्तिकाएँ छाप दी गई हैं, पर जिनको और अधिक सरसता चाहिए उनके लिए वीडियो टेप तैयार कर दिए गए है। इनमें सूत्र संचालक के प्रवचन, माता जी के गायन और देव कन्याओं के सहकीर्तन सम्मिलित हैं। एक टेप ऐसा भी है जिसमें युग परिवर्तन के मूलभूत सिद्धांतों को संक्षिप्त एवं सरल सुबोध ढंग से समाविष्ट कर दिया है। यह टेप शान्तिकुञ्ज में उपलब्ध हैं, जिन्हें कोई भी अपने टेप रिकार्डर पर बजा कर एकत्रित लोगों के बीच युग प्रवक्ता की, युग गायक की भूमिका निभा सकता हैै। युग चेतना के प्रचार-विस्तार का यह भी एक सरल तरीका है।

    विद्या विस्तार के लिए साहित्य और वाणी दोनों का उपयोग व्यापक रूप से किया जाना है। ज्ञान रथ, साइकिल यात्राएँ, सद्वाक्य लेखन, झोला पुस्तकालय, सत्संग , दीपयज्ञ आदि के माध्यम से सृजनशिल्पी हर क्षेत्र में युग चेतना का विस्तार करने के लिए कटिबद्ध होकर जुट पड़ें- ऐसा माहौल बन रहा है। निर्धारित सीमित समयदान के अंतर्गत ही यह कार्य करते रहना संभव है।

    झोला पुस्तकालय की प्रक्रिया कुछ दिनों से सफलतापूर्वक चल रही है। कंधे पर लटके झोले में युग साहित्य भर कर अपने परिचय क्षेत्र के शिक्षितों को घर बैठे, बिना मूल्य देते रहना और पढ़ लेने पर खुद ही जाकर उसे वापिस ले आना। ऐसे पढ़ने वालों को यह भी कहा जाता है कि वे इन पुस्तकों को संबद्ध अशिक्षित लोगों को सुनाते रहने की जिम्मेदारी भी उठाएँ। इस प्रक्रिया में युग चेतना से शिक्षितों और अशिक्षितों को समान रूप से अवगत अनुप्राणित होने का अवसर मिलता है। पढ़ा चुकने पर यही साहित्य घरेलू पुस्तकालय के रूप में बदल जाता है और परिवार की स्थायी निधि बनकर एक प्रकार का चेतना पुंज बना रहता है। हर महीने नई पुस्तकें खरीदते और भंडार बढ़ाते रहने की आवश्यकता उसी राशि से पूरी हो जाती है, जो हर दिन दस या बीस पैसे जितना सद्ज्ञान विस्तार प्रयोजन के लिए परिजन स्वेच्छापूर्वक निकालते रहते हैं। यह स्वाध्याय की छोटी, किंतु सशक्त प्रक्रिया हुई।

    दूसरा पक्ष है-सत्संग इसके लिए प्रज्ञा केंद्र में साप्ताहिक सत्संग चलते हैं। उनमें सहगान कीर्तन, युगसाहित्य पठन के आधार पर प्रवचन चलता रहता है। साथ ही थोड़ी सी अगरबत्तियाँ जलाकर कुछ दीपक थाली में रख कर दीप यज्ञ की पुण्य प्रक्रिया भी संपन्न हो जाती है। कहीं-कहीं साप्ताहिक सत्संग के स्थान पर यह प्रबंध किया गया है कि गृह स्वामी का जन्म दिवस जिस दिन हो, उस दिन अपने स्वजन संबंधियों की उपस्थिति में एक छोटा समारोह कर लिया जाए।

    दीवारों पर आदर्श वाक्यों का लिखना एवं अलमारियों, किवाड़ों, फर्नीचरों, अटैची आदि पर स्टीकर चिपकाना अपने ढंग का एक अनोखा कार्य है, जो उधर से गुजरने या देखने वाले, हर किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है और पढ़ने वाले के मस्तिष्क में एक बिजली-सी कौंधा देता है। यह कार्य यदि गली-मुहल्लों में भली प्रकार कर लिया गया है, तो समझना चाहिए यह बोलती दीवारें राहगीरों को ऐसा कुछ निरंतर सिखाती समझाती रहेंगी, जिन्हें आदर्शवादी प्रेरणाओं से ओत-प्रोत कहा जा सके।


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