जीवनयापन के लिए अनेक वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। अनेक साधन जुटाने
पड़ते हैं। आए दिन समस्याएँ सुलझानी पड़ती हैं। इतने पर भी प्राथमिकता देने
योग्य एक ही तत्त्व है- साँस चलना, प्राण बचे रहना। यदि उसका प्रबन्ध न हो
सके, तो समझना चाहिए, अब- तब में जीवन का अंत ही होने वाला है। घुटन के
बीच भला कोई कितने समय जीवित रह पाएगा?
लगता तो यही है कि
व्यक्ति, समाज और संसार के सामने अगणित समस्याएँ मुँह बाएँ खड़ी हैं और
सर्वग्राही चुनौती बन रही हैं। सघन अंधकार में प्रकाश की किरण कहीं से
फूटती नहीं। न विज्ञान कोई समुचित उत्तर दे पाता है और न बुद्धिमानों की
विलक्षण बुद्धिमत्ता ही काम आती है।
अपराधों का बढ़ना, जनसंख्या
का दिन दूना रात चौगुना होता विस्तार, शारीरिक और मानसिक रोगों का अंधड़,
हर जगह विषाक्तता बिखेरता प्रदूषण, दरिद्रता और निरक्षरता जैसे अनेकों कारण
हैं जो, त्रास संताप के आधार बने हुए हैं। राजनीति क्षेत्र से भी निराशा
ही हाथ लगती है, अराजकता ही नंगा नाच करती है। धर्म प्रचार को, पुरोहितों
ने कभी सतयुग का मेरुदण्ड बनकर अपनी गरिमा जताई थी, पर अब तो वहाँ भी वंश
और वेश ही अपनी जय- जयकार करा रहा है। कर्तव्यों को पीछे धकेल दिया गया और
अधिकारों को चौगुना- सौगुना कहकर जताया जा रहा है और भी न जाने कहाँ- कहाँ
क्या- क्या अनर्थ हो रहा है? पर यह सूझ नहीं पड़ता कि इनका निराकरण कौन
करेगा? कैसे करेगा?
यह तथ्य हजार बार समझा और लाख बार समझाया
जाना चाहिए कि मानवी चेतना के विभ्रम और व्यामोह- ग्रस्त हो जाने से ही सब
कुछ उलट- पुलट हो गया है। सोचने, करने और प्रचलन में उतरने की बात मात्र एक
ही है कि मानवी गरिमा को भुला न दिया जाए। संकीर्ण स्वार्थपरता को सीमित
कैसे रखा जाए? सहकारिता, उदारता, जन- जन को प्रिय लगे और उसके लिए उत्साह
उभरे। तात्कालिक लाभ को इतना महत्त्व न मिले कि उसकी आतुरता के आगे
दूरदर्शी विवेकशीलता के पैर न टिक सकें। पूर्वाग्रह इतने हठी न हों, जो
स्वतंत्र चिंतन के लिये कहीं कोई गुँजाइश ही न रहने दें। यदि इस स्तर का
मानसिक संतुलन बिठाया जा सके, तो मनुष्य के पास इन दिनों भी इतनी समझ,
सम्पदा और दक्षता मौजूद है, जिसके सहारे विनाश को विकास में बदला जा सके।
इसी स्तर की प्रखर प्रतिभा अगले दिनों इस प्रकार घनघोर रूप से बरसने वाली
है कि उसके प्रभाव से सभी प्रभावित होंगे, सही समाधान सोचने और सही कदम
उठाने लगेंगे। व्यक्तित्वों में देवत्व का अनुपात बढ़ेगा, तो कोई कारण नहीं
कि अपनी इसी धरती पर स्वर्गोपम- वातावरण सतयुगी सुख- शांति का अभिनव सृजन
करता दिखाई न पड़े।
दंत कथा है कि दो सहेलियाँ थीं- एक विद्या
दूसरी शिक्षा। विद्या राजकुमारी थी और शिक्षा नौकरानी। दोनों की शक्ल सूरत
मिलती जुलती थी। एक दिन दोनों वन सरोवर में नहाने गईं। कपड़े उतारकर किनारे
पर रख गईं। नहाते समय शिक्षा को सूझा कि मेरे लिए यही अवसर है कि
राजकुमारी बन बैठूँ।
शिक्षा उतावली में निकली और राजकुमारी के कपड़े पहन कर राजमहल जा पहुँची।
उसने लोगों को यह भी बता दिया कि राजकुमारी डूबकर मर गई है। उसे चुड़ैल की
योनि मिली है। अब जहाँ तहाँ छिप कर बैठी रहती है और किसी परिचित को पहचान
लेती है, तो उस पर हमला करने से नहीं चूकती। लोगों ने उसकी बात पर विश्वास
कर लिया। षड्यंत्र सफल हो गया। राजकुमारी नंगी कैसे- कहाँ जाती? लाज बचाने
के लिये वह तब से लेकर अब तक जंगलों में भटकती, किसी प्रकार कहीं लुक छिपकर
जीवनयापन कर रही है।
विद्या को अमृतवर्षिणी कहा गया है और
अन्नपूर्णा कहलाती है। स्कूलों- कॉलेजों में जो पढ़ा- पढ़ाया जाता है, उसका
प्रमुख प्रयोजन अधिक पैसा कमा सकने की दक्षता बढ़ा लेना भर है। विद्या का
उद्देश्य और प्रतिफल भिन्न है। वह व्यक्तित्व को उभारती, प्रतिभा को जगाती,
दृष्टिकोण को उत्कृष्टता से जोड़ती और अंतःकरण को आत्मीयता एवं उदारता से
लबालब भरती है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि लोगों ने विद्या का-
संजीवनी विद्या का महत्त्व भुला दिया एवं उसे अनावश्यक ठहराकर उपेक्षित एवं
तिरस्कृत बना दिया है। यही वह मूलभूत कारण है जिसने इस सुन्दर संसार को
बुरी तरह दीन- हीन एवं अपराधी प्रवृत्ति का बना दिया है। परिणाम जो
अवश्यंभावी था, यह विश्व विनाश के रूप में सामने प्रस्तुत भी है।
महापरिवर्तन जब भी कभी आरंभ होगा, तब उसका स्वरूप एक ही होगा कि विद्या को
जीवित जागृत किया जाए। उसके प्रचार विस्तार का इतना प्रचण्ड प्रयास किया
जाए कि लंबे समय से छाए हुए कुहासे को हटाया जा सके और उस प्रकाश को उभारा
जाए, जो हर वस्तु का यथार्थ स्वरूप दिखाता और किसका, किस प्रकार सहयोग होना
चाहिए- यह सिखाता है।
प्राचीनकाल में साक्षरता का, भाषा और
लिपि का महत्त्व तो सभी समझते थे और उसे पुरोहित- यजमान मिल जुलकर हर जगह
सुचारु रूप से पूरा कर लेते थे। पुरोहितों की आजीविका हेतु शिक्षार्थियों
के अभिभावक दान- दक्षिणा के रूप में जो दे दिया करते थे, वही अपरिग्रही,
मितव्ययी जीवन जीने वाले ब्राह्मणों के लिए पर्याप्त होती थी। शिक्षा
साक्षरता के लिए कोई विशेष योजना या व्यवस्था नहीं बनानी पड़ती थी।
संजीवनी विद्या का दायित्व ऋषि वर्ग के मनीषी उठाते थे। जो अधिकारी होते
थे, उन्हें अपने आश्रमों, गुरुकुलों आरण्यकों में बुलाते थे। उपयुक्त
वातावरण में उपयुक्त अभ्युदय की समुचित योजना चलाते थे।
बालकों
का जो साक्षरता स्तर का प्रशिक्षण चलता था, उसके लिए गाँव- गाँव छोटे बड़े
देवालय बना लिये जाते थे। उपयुक्त स्तर के शिक्षार्थियों के लिये वहीं
श्रद्धासिक्त वातावरण में पढ़ाई पूरी हो जाती थी। तब शिक्षा और आजीविका का
कोई सीधा संबंध नहीं था। पढ़ाई जानकारी बढ़ाने के लिये होती थी और कमाई के
लिये कृषि, पशुपालन, कुटीर उद्योग, क्रय- विक्रय जैसे कौशल काम आते थे।
शिल्प- कला जैसे क्रियाकलाप भी इसी क्षेत्र में सम्मिलित रहते थे। इसलिए
पढ़ाई के लिए सामान्य का प्रयत्न किशोरावस्था तक पूरा हो जाता था।
उदरपूर्ति- आजीविका के लिए तरुण स्तर के लोग अपनी योग्यता एवं आवश्यकता के
अनुरूप ही काम धंधे खोज लेते थे।
विद्या का, प्रज्ञा का युग
इन्हीं दिनों तूफानी गति से बढ़ता चला आ रहा है। उसका लक्ष्य निश्चित और
निर्धारित है। हर मस्तिष्क में नये सिरे से नई हलचल उत्पन्न करना। अपनाई
हुई मान्यताएँ, धारणाएँ कितनी ही पुरातन या अभ्यस्त क्यों न हों, वह उन्हें
उखाड़ कर ही रहेगा। साथ वह दूरदर्शी विवेकशीलता की ऐसी वर्षा करेगा, जिसके
प्रभाव से औचित्य का ही सर्वत्र स्वागत किया जाएगा। विवेक और औचित्य के दो
आधार ही नवयुग की स्थापना करेंगे। हर कोई उन्हीं को स्वीकार, अंगीकार
करेगा, भले ही उन्हें समय की अनिवार्य आवश्यकता ने नये सिरे से ही
प्रतिपादित क्यों न किया हो?