समस्याएँ आज की समाधान कल के

तथ्यों को समझें दृश्यों में न उलझें

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भगवान् ने अपने बाद चेतना का दूसरा स्तर मनुष्य का ही बनाया है। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ इतनी समर्थ हैं कि उसे सृष्टि का सर्व समर्थ प्राणी कहा जाना उचित है। यह उसके काय कलेवर की विशेषता है। सचेतन अदृश्य सत्ता का यदि लेखा जोखा लिया जाए, तो प्रतीत होगा कि न केवल भौतिक जगत् पर, वरन् अदृश्य क्षेत्र के रूप में जाने- जाने वाले सूक्ष्म जगत पर भी उसका असाधारण अधिकार है। दृश्य और अदृश्य दोनों ही लोकों पर उसका अधिकार होने से मानवीय सत्ता को सुर दुर्लभ भी कहा जाता है। किसी ने सच ही कहा है कि मनुष्य भटका हुआ देवता है। उसके अंतराल में दैवी शक्तियों का तत्त्वतः समग्र निवास है; पर दृश्य जगत् के जाल- जंजाल में स्वयं को भूल जाने के कारण ठोकरें खाता और जहाँ- तहाँ भटकता है।

    गड़बड़ी वहाँ से प्रारंभ होती है, जहाँ वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल कर अपने को कलेवर मात्र समझता है। वाहन को अधिपति मान बैठता है और गोबर भरी मशक में अपने को समाया भर मानता है। दर्पण में अपनी छवि तो होती है, व्यक्तित्व नहीं। शरीर कुछ तो है, पर सब कुछ नहीं। उसकी इच्छा, आवश्यकता को भी पूरा किया जाना चाहिए, पर मात्र उसी के लिए सब कुछ निछावर कर देना भूल है। अच्छा होता सवार और घोड़े का संबंध भी समझ लिया गया होता। भेड़ों के झुण्ड में पले सिंह ने अपने को भेड़ मान लिया था। यह कथा सुनी तो बहुतों ने है, पर यह अनुभव कोई बिरले ही करते हैं जो कि उपहासास्पद कथा- उक्ति सीधी अपने ही ऊपर लागू होती है।

    परमाणु मोटी दृष्टि से एक अत्यंत ही छोटा, अदृश्य स्तर का, प्रकृति का अत्यंत कनिष्ठ घटक मात्र मालूम पड़ता है। इतने पर भी वस्तुस्थिति यह है कि उसमें एक समूचे ग्रह पिण्ड जितनी शक्ति भरी पड़ी है। मनुष्य असंख्य परमाणुओं, जीवाणुओं, रसायनों विद्युत आवेशों का भंडार है। प्राय: साढ़े पाँच फुट ऊँचे ६० किलोग्राम औसत भार के इस काय- कलेवर में संभवतः: उतने ही गोलक हो सकते हैं, जितने कि इस समूचे ब्रह्मांड में तारे, ग्रह- उपग्रह आदि हैं। इस समूची शक्ति का अनुमान लगाया और आँकलन किया जाए, तो उसे अकल्पनीय ही कहना होगा। एक औसत मनुष्य प्राय: उतना ही हो सकता है, जितना कि यह समूचा ब्रह्मांड प्रकृति संपदा से भरा पड़ा है।

    ब्रह्मांड को ‘महतोमहीयान्’ कहा गया है, पर पिण्ड को ‘अणोरणीयान्’। यदि आकार की न्यूनाधिकता पर ध्यान न दिया जाए, तो मानवीय सत्ता भी परमात्मसत्ता के समतुल्य जा पहुँचती है। भगवान् को जितने भी प्रमुख अवतार लेने पड़े हैं, वे सभी मनुष्य आकृति में ही हुए हैं। स्वर्गीय देवता अपनी जगह विराजमान हो सकते हैं, पर धरती पर देवताओं की भी कभी कमी नहीं रही। महामानवों के रूप में उनके अस्तित्व का परिचय समय- समय पर मिलता रहा। मनुष्य ही देव के स्वरूप में सृजन और दैत्य के रूप में ध्वंस के ऐसे कृत्य दिखाते रहे हैं, जिनकी विशालता और विभीषिका पर ध्यान देते ही दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। क्षुद्रता का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्हें इसी कारण देखा जाता है कि वह अपना वास्तविक स्वरूप भूल जाता है। यदि मनुष्य आत्म- बोध प्राप्त कर ले और समझ ले कि मैं कौन हूँ? क्या हूँ? और क्या कर सकता हूँ? तो समझना चाहिए कि उसे क्षुद्र से महान्, नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम बनने से कोई नहीं रोक सकता।

    आँखों पर जिस रंग का चश्मा लगा लिया जाए, समस्त संसार उसी रंग का दीख पड़ता है। संसार के दृश्य कैसे ही क्यों न हों, पर यदि अपनी आँख की पुतली काम करना बंद कर दे, तो फिर सर्वत्र अंधकार ही दीख पड़ेगा। कान बहरे हो जाएँ, तो कहीं किसी शब्द का अस्तित्व न रहेगा। अपने दृष्टिकोण के अनुरूप सारा वातावरण दीख पड़ता है। हर व्यक्ति का अपना संसार अलग से रचा हुआ है और वह उसी में विचरण करता है। स्वर्ग और नरक दोनों ही मात्र अनुभूतियाँ हैं, जिनको हर व्यक्ति इच्छानुसार अपने लिए विनिर्मित करता एवं बदलता रहता है।

    यह संसार जड़ पदार्थों का बना है, उसमें भले- बुरे जैसा कहीं कुछ नहीं है। जड़ पदार्थों का अपना स्वरूप भर है। उनके सुख और दुःख की अनुभूति तो मनुष्य की खुद की गढ़ी हुई है। पाप- पुण्य पदार्थ तो कैसे करेंगे? उनका सदुपयोग, दुरुपयोग की पाप- पुण्य की अनुभूति गढ़ते हैं। इंजन कितना ही समर्थ या कीमती क्यों न हो? उसे चलाने की क्षमता तो सजीव मनुष्य में ही होती है। रेलगाड़ी अपने बलबूते किसी निर्दिष्ट लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकती है। अधिक से अधिक कोई दुर्घटना करने की निमित्त भर बन सकती है। संसार भर का वातावरण जड़ पदार्थों से विनिर्मित होने के कारण अपने बलबूते कुछ भला- बुरा नहीं कर सकता। सचेतन सत्ता का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व करने वाला मनुष्य ही हर परिस्थिति के लिए पूरी तरह उत्तरदायी है।


तथ्यों को समझते हुए हमें जैसा भी कुछ भला बुरा भविष्य विनिर्मित करना हो, उसी के अनुरूप जनमानस विनिर्मित करना चाहिए। सतयुग और कलियुग में लोगों के शरीर निर्वाह क्रम में कोई बड़ा अंतर नहीं होता, फिर भी जो जमीन आसमान जैसा अंतर दीख पड़ता है, उसका सृजनकर्ता वस्तुतः: मनुष्य ही है। वह न केवल अपने भाग्य का निर्माता आप है, वरन् उसी का सामूहिक चिंतन, क्रियाकलाप, प्रवाह वैसा ही कुछ बनाकर खड़ाकर देता है, जैसा कि सोचा या चाहा गया था। हमें मुरझाए पत्ते सींचने की योजना नहीं बनानी चाहिए, वरन् जड़ तक खाद- पानी पहुँचाने का प्रयत्न करना चाहिए।

    पूछा जाता है कि उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए क्या करना होगा? यदि प्रश्न का सही उत्तर अपेक्षित हो, तो वह एक ही हो सकता है— ‘‘दृष्टिकोण का परिवर्तन।’’

    यों मन समझाने के लिए ऐसा भी कुछ सोचा जा सकता है कि प्रयत्न क्या करने होंगे? पदार्थों के सरंजाम जुटाने में किस प्रकार के प्रयास- परिवर्तन करने होंगे? उत्तर उन प्रश्नों के भी हो सकते हैं और कार्यक्रम तदनुरूप भी बन सकता है। योजनाएँ बनाने वाले इन्हीं गोरखधंधों को उलझाने- सुलझाने में लगे भी रहते हैं, किंतु यह शतरंज की गोटियों को इधर- उधर हटाते- उठाते रहने का मनोरंजन भर है। वस्तुतः उस सारे खेल में बाजी हारना- जीतना खिलाड़ियों की मानसिकता पर निर्भर रहता है। गोटियाँ व्यर्थ ही बदनाम होती या सम्मान पाती रहती हैं।

    मोटी बुद्धि दृश्यों, पदार्थों, घटनाओं को ही सब कुछ मानती है। चिंतन, दृष्टिकोण, उत्साह, साहस जैसी अदृश्य प्रवृत्तियों के संदर्भ में हर किसी के लिए यह अनुमान लगाना कठिन होता है कि पर्दे के पीछे काम करने वाले मदारी की उँगलियाँ ही समूचे प्रहसन की निमित्त हैं। तमाशों का सूत्रधार तो मानसिकता का बाजीगर ही होता है। समस्याओं का वास्तविक हल उसी के हाथ है। बंदी कठपुतलियों के साथ माथा पच्ची करना कुछ अर्थ नहीं रखता। फिर भी बच्चों को चाबी के खिलौनों की हलचलें ही प्रभावित करती हैं। उन्हें यह कहाँ पता होता है कि उसके भीतर जमे हुए पुर्जे ही यह चित्र विचित्र हलचल करते हैं।

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